जय श्रीकृष्ण बन्धुजन!
श्रीगीताजी और प्रभु श्रीकृष्ण के कृपा से आज मैं श्रीगीताजी का आठवां अध्याय और उसके माहात्म्य के साथ उपस्थित हूँ। आप सभी श्रेष्ठजन श्रीगीता जी के आठवें अध्याय के अमृतमय शब्दो को पढ़कर अपना जीवन कृतार्थ कर! तथा इसको और भी बंधुजनों को सुनाकर उनको भी जीवन की सच्चाई से अवगत कराके उनका भी इस आवागमन से मुक्ति के लिए मार्गप्रसस्थ करे। श्रीगीता जी की कृपा जैसे मुझपर बानी है वैसे ही आपसब श्रष्ठ बंधु जनों पर भी बनीं रहे।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-८🙏
अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! ब्रम्हा क्या है? अध्यात्म किसको कहते है? अधिभूत क्या और अधिदैव क्या है? हे मधुसूदन! अधियज्ञ क्या है और इस देह में अधिदेह कौन सा है? मरने के विषय मे स्थिर चित्त वाले तुमको कैसे जान जाते है? श्रीकृष्ण भगवान बोले- जो अक्षर अविनाशी और परम श्रेष्ठ है वही ब्रम्हा है, प्रत्येक वस्तु का स्वभाव अध्यात्म कहलाता है और परम श्रेष्ठ वही ब्रम्हा है, प्रत्येक वस्तु का स्वभाव अध्यात्म कहलाता है और समस्त चराचर की उत्तपत्ति करने वाला जो विसर्ग है वह कर्म है। जो देह आदि नाशवान वस्तु है वह अधिभूत कहलाता है। विश्वरूप जो विराट पुरुष है वह अधिदीव है और पुरुषों में श्रेष्ठ! इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूँ। अंतकाल में जो मेरा ध्यान करता हुआ शरीर त्याग करता है वह निःसंदेह मेरे स्वरूप को पाता है। हे अर्जुन! अंत समय मे मनुष्य जिस वस्तु का स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है वह उसी को पाता है। इस कारण तुम सदैव मुझ में मन और बुद्धि को लगाकर मेरा ही स्मरण करते हुए संग्राम करो, तुम निःसंदेह मुझको आ मिलोगे। है पार्थ! अभ्यास रूप योग से युक्त हो दूसरी ओर न जाने वाले मन से सदा चिंतन करता हुआ पुरुष परम् और दिव्य पद को ही प्राप्त होता है। अतःएव जो अंत समय में मन को एकाग्र कर भक्तिपूर्वक योगाभ्यास के बल से दोनों भौंहों के मध्य भाग में प्राण को चढ़ाकर, सर्वज्ञ, अनादि, सम्पूर्ण जगत के नियंता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सबके पोषक, अचिन्त्य स्वरूप, सूर्य के समां प्रकाशवान, तमोगुण से रहित परमपुरुष का ध्यान करता है वह उसको मिलता है। वेद के जानने वाले जिनको अक्षर कहते हैं। वीतराग होकर सन्यासी जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिसको चाहने वाले ब्रम्हाचार्य का आचरण कहते हैं, उस परम पद को तुमसे संक्षेप में कहता हूँ, जो सब इन्द्रियों द्वारों को रोककर मन को ह्रदय में धारण कर प्राण को मस्तक में ले जाकर समाधि योग से स्थित 'ॐ' इस अक्षर का उच्चारण करतस हुआ देह को त्यागता है। उसे मोक्ष रूप उत्तम गति प्राप्त होती है। है पार्थ! जो मुझे ही मन लगाकर नित्य प्रति मेरा स्मरण करते हैं उन सदैव स्मरण करने वाले योगियों को में बहुत सुलभ रिति से प्राय होता हूँ। मुझको प्राप्त होने पर परम् शिद्धि को प्राप्त करने वाले महात्मागण फिर ये जन्म धारण नहीं करते, जो नाशवान और दुःख का घर है। है अर्जुन! ब्रम्हालोक पर्यन्त जितने लोक हैं वहां से लौटना पड़ता है परन्तु मुझमें मिलने से फिर जन्म नही होता।हजार महायुगों का एकदिन होता है और उस हजार महायुगों की की एक रात्रि ब्रम्हा की होती है। जो इन बातों को जानते हैं वह सबका ज्ञाता है। ब्रम्हा का एकदिन होने पर अव्यक्त से सब व्यक्तियों का उदय होता है और रात को उसी में लय हो जाता है। है पार्थ! समस्त चराचर वस्तुओं का यह समुदाय बार-२ उत्पन्न होकर रागि के आगमन में लीन हो जाता है। इस अव्यक्त से परे दूसरा सनातन अव्यक्त को ही अक्षर कहते है। यह वही परमगति है जिसको प्राप्त करके फिर संसार मे नही जन्मते, वही मेरा परमधाम है। है पार्थ! जिसके अन्तर्गत सब प्राणी हैं और जिसने इस समस्त जगत का विस्तार कर रखा है। वह श्रेष्ठ पुरुष अनन्य भक्ति से ही मिलता है। है भरत वर्ष! जिस काल मे योगीजन देह छोड़कर फिर नहीं लौटते अब जिस काल में लौट आते हैं और वह काल बतलाता हूँ। जिस काल में अग्नि, प्रकाश और दिन शुक्ल पक्ष हो ऐसे उत्तरायण के ६: महीने में मृत्यु को प्राप्त हुए ब्रम्हाविद् ब्रम्हा को प्राप्त होते हैं। धूम्र, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिरायन के छः महीने इनके मध्य गमन करने वाले चंद्रमा की ज्योति को पहुँचते हैं और लौट आते हैं। संसार की नित्य चलने वाली शुक्ल और कृष्ण नामकी दो गतियाँ है, एक से आने पर लौटना पड़ता है और दूसरी पर फिर लौटना नहीं होता। है पार्थ! उओगी इन दोनों गतियों का तत्व जानता है, इसी से मोह में नही पड़ता। अतःएव हे अर्जुन! तुम सदा योग मुक्त हो। वेद यज्ञ तप और दान में जो जो पूण्य फल बतलाये गए हैं योगी उन सबसे ऐश्वर्य प्राप्त है और सर्वोत्तम आदि स्थान पाता है।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का अध्याय-८ समाप्त
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🙏अथ आठवें अध्याय का माहात्म्य🙏
श्रीनारायण जी बोले- है लक्ष्मी! दक्षिण देश नर्मदा नदी के तट पर एक नगर है। उस में सुशर्मा नामक एक बड़ा धनवान विप्र रहता था, एकदिन उसने एक संत से पूछा - ऋषियों मेरे संतान नहीं है। तब ऋषीश्वर ने कहा- तू अश्वमेघ यज्ञ कर बकरा देवी को चढ़ा, देवी तुझको पुत्र देगी। तब उस ब्राम्हण ने यज्ञ करने को एक बकरा मोल लिया, उसको स्नान करा मेवा खिलाया जब उसको मारने लगा तब बकरा कहकहा शब्द करके हँसा। तब ब्राम्हण ने पूछा- है बकरे ! तू क्यों हँसता है तब बकरे ने कहा पिछले जन्म में मेरे भी संतान नही थी , एक ब्राम्हण ने मुझे भी अश्वमेघ यज्ञ करने को कहीं थी, सारी नगरी में बकरा ढूंढ रहा था बकरा हाथ न लगा। ढूंढते-२ एक बकरी का बच्चा दुध चूसता था उस बच्चे समेत बकरी को मोल ले लिया। जब उसको बकरी के स्तन से छुड़ाकर यज्ञ करने लगा तब बकरी बोली- अरे ब्राम्हण! तू ब्राम्हण नहीं जो मेरे पुत्र को होम में देने लगा है रू महापापी है। यह कभी सुना है कि पराये पुत्र को मारने से किसी ने पुत्र पाया है, तू अपनी संतान के लिए मेरे पुत्र को मारता है, तू निर्दयी है, तेरे पुत्र नहीं होगा । वह बकरी बहुत कहती रही पर मैंने होम किया, बकरी ने श्राप दिया कि तेरा गला भी इसी भाँति कटेगा, इतना कहकर बकरी तड़पकर मर गई। के दिन बीते मेरा भी काल हुआ, यमदूत मारते-२ धर्मराज के पास ले गये तब धर्मराज ने कहा- इसको नरक में डिवॉन ये बड़ा पापी है फिर नरक भोगने के बाद बानर की योनि दी। एक बाजीगर ने मोल लिया। वह मेरे गले मे रज्जु डालकर द्वार-२ सारा दिन मांगता फिरे। खाने को थोड़ा दिया करे । जब बानर की देह छूटी तो कुत्ते का जन्म पाया।। एकदिन मैन किसी की रोटी चुरा खाई, उसने ऐसी लाठी मारी की पीठ टूट गई। उस दुःख से मेरी मृत्यु हो गई, फिर घोड़े की देह पाई उस घोड़े को एक भटियारे ने मोल लिया। वह सारे दिन चलाया करे, खाने पीने की खबर न लेवे सांझ समय एक छोटी सी रस्सी के साथ बांध छोड़, ऐसा बांधे की मैं मक्खी भी नहीं उड़ा सकूं। एक दिन दो बालक एक साथ मेरे ऊपर चढ़कर चालाने लगे वहां कीचड़ अत्यन्त थी। फँस गया, ऊपर से चढ़कर मारने लगे, वहां मेरा मरण हुआ, इस भांति अनेक जन्म भोगे । अब बकरे का जन्म पाया । मैनें जाना था उसने मोल लिया है में सुख पाऊंगा तू छूरी लेकर मारने लगा है। तब ब्राम्हण ने कहा- हे बकरे! तुझे जो जान प्यारी है, अब मैं अपने नेत्रो से देखी हुई कहानी खाता हूँ सो सुन। कुरुक्षेत्र में चंद्रसूशर्मा राजा स्नान करने आया। उसने ब्राम्हण से पूछा , ग्रहण में कौन सा दान करूं? उसने कहा- राजन काले पुरुष का दान कर। तब राजा ने काले लोहे का पुरुष बनवाया। नेत्रों को लाल जड़वा सोने का भूषण पहना कर तैयार किया। वह काल पुरुष कहकहाकर हँसा। राजा डर गया यह कोई बड़ा अवगुण है जो लोहे का पुरुष हंसा है। तब राजा ने बहुत दान किया फिर ब्राम्हण को कहा- हे ब्राम्हण! तू मुझे लेगा, तब ब्राम्हण ने कहा- मैनें तेरे सरीखे के पचाये हैं। तब काले पुरुष ने कहा रु मुझको ओ कारण बताया जूस कारण से तूने अनेक दान पचाये हैं। तब विप्र ने कहा- जो गन मेरे में हैं सो में ही जानता हूँ । टैब वह काला पुरुष कहकहाकर फट गया उसमें से एक कालिका की मूर्ति निकल आई। तब विप्र ने श्रीगीताजी के आठवें अध्याय का पाठ किया- उस कालिका की मूर्ति ने सुनकर द3ह पलटी। जल को अंजलि भरकर उस विप्र ने उस मूर्ति वे छिड़का। जल के छिड़कने से तत्काल उसकी देह पलटी तथा देव देह पाई और विमान पर बैठकर बैकुण्ठ को गयी। तब उस राजा ने कहा- तुम्हारे में भी कोई ऐसा हैजिसके शब्द से मैं भी अधम देह से मुक्ति पाऊं । तब उस विप्र ने कहा - मैं वेद पाठी हूँ। उस नगर में एक साधु भी गीता पाठी था, जिससे आठवे अध्याय का पाठ सुनकर राजा की देह पल्टी। दिव्य देह पाकर बैकुण्ठ को गई और कहती गई हे ब्राम्हण तू भी श्रीगीताजी का पाठ कर, तुम्हारा भी उद्धार होगा, तब ब्राम्हण श्रीगीताजी का पाठ करने लगा।
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💝~Durgesh Tiwari~