शहर का उदास स्केच प्रतिभा चौहान द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शहर का उदास स्केच

शहर का उदास स्कैच


ओस की बूंदें पत्तों-टहनियों से रूख़सती लेतीं … टिपटिपाती हुई ज़मींदोज़ ...

सुबह की धुंध के बीच आलीशान किंतु बुज़ुर्गियत झेल रहा अंग्रेजी जमाने का पांच कमरे का रिहायशी निवास...ट्रिन -ट्रिन ट्रिन -ट्रिन …सुबह से शाम तक फोन बजते रहते । कभी साहब खुद रिसीव करते कभी नौकरों के हवाले रिसीवर ।

रोज की तरह अलसुबह ...सुबह के पाँच बजे हैं...ट्रिन-ट्रिन ट्रिन-ट्रिन

उठ पाने की जुगत भिड़ाने से पहले ही ,बीएसएनएल की जानी मानी धुन तकिए के नीचे से निकली । कुछ देख पाते कि फोन की घंटी के साथ रिसीवर हाथ में, “ हेलो ss” , एक मोटी ,भारी -भरकम और रौबीली आवाज, ''कल शाम चार बजे मुख्यमंत्री पहुंच रहे हैं ; अस्पताल का उद्घाटन होगा ; उनका प्रोग्राम आपके फैक्स पर भेज दिया गया है ; इस बार ध्यान रखिएगा ; पिछली बार का मुख्यमंत्री जी का गुस्सा अभी उतरा नहीं है ; कहीं ऐसा ना हो !! समझ गये …आप उठाकर राज्य की बाउंड्री पर फेंक दिये जाएं"

" जी सर -जी सर" , एक बार में नींद फुर्र ।

घड़ी को देखते हुए , " काम काम काम -जिंदगी तमाम, उफ..S !!

दो साल में पहली बार तीन छुट्टियां लीं ;पत्नी एवं बच्चों के साथ निकलना था ; पर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी...चैन कहां लाल बत्तियों की अगाई पिछाई करते, नेताओं के आगे मिमियाते, सबार्डिनेट्स पर खिसिआते , जनता पर चिल्लाते , पत्नी को समझाते , खुद पर झल्लाते- झल्लाते बालों ने कालापन छोड़ना शुरु कर दिया था । अपनी उम्र से दस वर्ष बड़े दिखने लगे हैं टिर्की जी।

आज से सात वर्ष पहले जब इस संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा तराशे गए चमकदार हीरे की भांति लोक कल्याण के क्षेत्र में उतारे गए थे ,तब किसको पता था कि कम खाने, ज्यादा सोचने ,लंबी -लंबी मीटिंगें, जाने कितनी किच-किच झिक -झिक के मध्य मुस्कुराने की आदतें डालनी होंगी।

सुबह उठना झटपट, सट-सट तैयार फिर सारे दिन भागना-दौड़ना , थक हारकर बिस्तर पे गिरना । बीच बीच में समय निकाल कभी -कभार दौड़ लगाने जाते , कभी -कभी बैडमिन्टन और कभी क्रिकेट भी। क्या कमाल का बैडमिंटन खेलते ! शॉट तो ऐसे मारते की प्रकाश पादुकोण को भी पीछे छोड़ दें, अच्छे अच्छों के छक्के छुड़ा देते और अंत तक मैदान में डटे रहते । छरहरा बदन ,उजला चौड़ा माथा, गोरा बदन ,घुंघराले बाल और कटीले नैन नक्श वाले ,नए नवेले डी एम साहब ऑफिस में इतने कड़क की मिनटों में सबोर्डिनेट्स को पसीने से नहला देते ।लोग भगवान को याद करते ऑफिस के दरवाजे से बाहर निकलते पर पर्सनालिटी देख कर लड़कियां बाग बाग हो जाती है , फ़िदा हो जाती, दिल दे बैठतीं ।

जिंदगी में कभी प्रेसी राइटिंग प्रेक्टिस तो नहीं की लेकिन व्यस्ततम जीवन में कम बोलने और कम बोलने देने की आदत पड़ गई थी नहीं तो जिला और जिले की जनता को संभालना मुश्किल होता। न जाने कब जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे जिलाधिकारी आवास के सामने लगाए जाने लगे ,विद्यार्थी ,महिला ,कर्मचारी ,पुरुष ,बच्चे ,मजदूर ,दुकानदार, सब्जी-वाले ,दूध-वाले,फेरीवाले न जाने कौन-कौन शामिल होकर भीड़ बढ़ाते।

आफिस से शाम को घर के आफिस में प्रवेश … बैठते ही "हुजूर चाय , हुजूर आपने आज सुबह से नाश्ता तक नहीं किया, खा लीजिए" चपरासी मासूमियत से बोला,

" अभी टाइम नहीं है , एक घर गिर गया है बारिश में ; देखने जाना है; रख दो गाड़ी में खा लूंगा, "

"फाईलें-फाईलें-फाईलें ,सुबह से शाम तक शायद मेरे यार दोस्तों ,सगे-संबंधियों पत्नी बच्चों की जानी दुश्मन ,परंतु प्रेमिका की तरह हर वक़्त साथ ; घर में आतीं, सुबह ऑफिस में जातीं ,सोते वक्त बगल वाली टेबल पर, खाते वक्त खाने की टेबल पर ,सुबह चाय नाश्ते के साथ, फिर खाने के साथ रात में डिनर की टेबल पर, फाइलें-फाइलें-फाइलें । यहाँ डे आ्फ आवर्स है , रात नहीं होती , न रात है न आराम , बस काम -काम- काम " , फाईलों के टीले पे निगाह डाली।

अचानक सामने टेबल पर रखा प्यारी सी पाँच वर्षीय बिटिया और सात वर्षीय बेटे की तस्वीर ने पहले मुस्कुराहट और फिर मायूसी भर दी ,"न जाने क्या भविष्य बना पाऊंगा मैं इनका " भीतरी कुढ़न बोली "कहीं नंबर वन रहने की होड़ में बच्चों का जीवन बर्बाद न हो जाए " दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि बच्चों के लिये तो कभी सोचा ही नहीं , साल भर में कितना सोचता हूँ बच्चों के लिए ! कितना कमजोर बाप हूँ ! बच्चे तो नजदीक ही नहीं आते, दूर से ही फुसफुसाते -शोर मत करो ! पापा काम कर रहे हैं !

अगले ही पल ..."जिले में तो सैकड़ों बच्चे हैं , आखिर मुशहर जाति के तीस बच्चों को जिनके घरों में खाने को अन्न नहीं ; सोने को बिछौना नहीं ; खेलने को खिलौने नहीं ; माँ -बाप के पास पढ़ाने को पैसा नहीं ; उनकी जिन्दगी बनाने का फैसला लिया है मैंने , पढ़ाऊँगा-लिखाऊँगा , उनकी दुआयें और ईश्वर की कृपा …आखिर किस दिन काम आयेगा ये सब !!

तभी एक जोर के धमाके ने विचारों के प्रवाह को थाम दिया- धड़ाम !! तड़ तड़ तड़ तड़ ,सर्किट हाउस के सीने को चीरतीं हुईं आवाजें रेसिडेंस की दीवाल को भेदनें लगी, डी एम साहब मुर्दाबाद-मुर्दाबाद …डी एम साहब हाय-हाय …मुर्दाबाद-मुर्दाबाद …

"जला डालो , आग लगा दो , मार डालो ss”

"चौरसिया -बाहर देख क्या बात है ,कैसे लोग शोर मचा रहे हैं ,''

हाँफता चौरसिया …दो जगह टकराकर गिरा, " उधर मत जाइएगा साहब ! हजारों की भीड़ है , लोग सर्किट हाउस को घेर चुके हैं ; जलती मशालें ; मिट्टी के तेल की पिपियां ; बढ़े आ रहे हैं लोग ।

"जला डालो ;किसी को नहीं छोड़ेंगे ;बर्बाद कर देंगे ;हमारे नेता की हत्या हुई है, प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है”

"मत जाइएगा साहब ; मेम साहब और बच्चे को अंदर रूम में भेज दीजिए; भीड़ का कोई भरोसा है? हाथी की तरह सीधी चलेगी या ऊँट की तरह तिरछी घोड़े की तरह ढाई चाल या बजीर की तरह कोई भी चाल" तभी- धड़ाम ! तड़ तड़ तड़ तड़...” चौरसिया का खून खौल गया , "अरे साले कसाई हो गए हैं -सब के सब "

अरे ! वे कमबख्त सुनते हैं किसी की , कर देते हैं कुछ भी ; कौन साला फरिश्ते का बच्चा है आजकल

तड़-तड़ तड़-तड़ ...फिर गोलियों की आवाजें !

सजा धजा सर्किट हाउस ;किसी बड़े नेता की अगवानी में सजाया गया; फूलों की सुगंध से स्वागत गीत मुखरित हो रहे थे; लाइटिंग की उचित व्यवस्था ,खान-पान सब कुछ -टिच !! रंग-रोगन की भीनी सुगंध को छलनी किए जा रही थी गोलियों की आवाजें !! तड़ तड़ तड़ तड़...

तड़ तड़ तड़ तड़...

धड़ाक, सट्टाक...सब सामान इधर-उधर …मिनटों में हालात एकदम बेकाबू !

आजादी से विचरण करते कबूतर ,कुत्ते , बिल्ली के बच्चे ,भी डर से दुबके हुए थे; आखिर जान तो जान है ! रसोई का अधपका भात, सब्जियाँ कटी -अधकटी, तेल मसाले किचन से आंगन तक बिखर गया ;बर्तन -भांडे, अलमारी ,मेज -कुर्सी ,चूल्हा, गमले ,शोकेस , शीशे , बिस्तर -कंबल, टीवी , कमरे में रखे छोटे-छोटे फ्रिज ,सब एक तरफ से चकनाचूर कर दिए गए थे...जो सामने आया जला दिया गया ; तोड़ दिया गया। बेजुबान जानवरों को भी नहीं छोड़ा ,जो वहां की जूठन से अपना भरण-पोषण करते थे, आवाजें हैं कि शांत होने का नाम नहीं ले रही हैं ,बदबू भरी महक, काला धुँआ और विद्रोह की गर्मी शहर के कोने -कोने में छा गयी... आसपास की सड़कें सूनसान हो गयीं ... टी वी चैनल्स और लाइव टेलिकास्ट ने आग को और हवा दे दी , किसी की हिम्मत नहीं थी उन्हें रोक सके।

पप्पू ,विनोद ,गुप्ता ,विनीत ,कल्लू ,राजेश एक साथ, चिल्ला रहे हैं , "साहब -साहब ,एक बार गोली चलाने का आदेश दीजिए ; फोर्स मंगवा लीजिए ; सर यह सब भाग जाएंगे ,कुछ कीजिए आपके हाथ में ही है हमारी जिंदगी !

बुत बने खड़े डी एम साहब कुछ नहीं बोलते हैं आंख में आंसू भरे आसमान को ताक रहे हैं , "शुक्र करो अभी वहां कोई नहीं है , कोई होता तो क्या होता , तुम लोगों को कुछ नहीं होगा भगवान पर भरोसा रखो, अभी कल ही तो दो परिवार रह रहे थे तीन दिन से दो छोटे बच्चे अपनी माँ और दादी के साथ, कुछ हो जाता तो जिंदगी भर अपने आप को माफ नहीं कर पाता "

घंटों गुजर गये काला धुँआ ऊपर उठते उठते आकाश से मिल गया...

रात्रि के नौ बज रहे हैं।

आवाजें अपने पीछे कालिख छोड़ते हुए शान्त हो गईं ...लगता है समुद्र के भाटे की भांति उतर गया लोगों का गुस्सा …बंगले की दीवार में एक चोर दरवाजे की भांति एक छोटा छेद है जिससे झाँकते हुए चौरसिया , "हुजूर लोग वापस हो रहे हैं; पर शायद कोई आठ दस आदमी टूटे फूटे सामानों में से कुछ बीन रहे हैं ; गरीब होंगे बेचारे ; भीड़ में आ गये -लालच में !! इन्हें शायद पता भी न होगा कि क्यों आये हैं ?

"पिछले एक महीने की मेहनत पर पानी फिर गया...खत्म हो गया सब कुछ ", कालिख ही कालिख!

डी एम साहब के बंगले में एक छुपा हुआ दरवाजा था जिसका उपयोग संकट के समय किया जाता था। उसका आज प्रयोग किया गया …बेरहमी से रौंदी गयी एक भव्य इमारत की हालत देखते ही एकबारगी तो कलेजा अंदर धँस गया । लगा पूरा वजूद डोल रहा है; दिमाग की नसें चटक रही हैं ;

चार एकड़ में बनी यह आलीशान भव्य इमारत शहर का हृदय थी कभी । आज बदसूरती की मिसाल !! जलावट की नहीं, लोगों के कृत्यों की !

"जलती हुई जानवरों की लाशें और काली राख के ढेर के बीच , "आखिर नुकसान किसका है ? कौन है जिम्मेदार ? बेशक भौतिक धुँआ नजरों से अदृश्य हो चुका है पर अंदर जलते अंगारों का क्या किया जा सकता है, आखिर हुआ क्या है सबको ?" विचारों का पेंडुलम खाली दिमाग में चारों ओर टकराता और दर्द पैदा करता। "महज एक विरोध का स्वर अपना ही शरीर कैसे नष्ट कर सकता है ? इन प्रश्नों में कई कई प्रश्न उलझे हुये हैं, कौन सामाजिकता में गहराई से उतरना चाहता है , सारे दावे सिर्फ खोखलापन लिये हुये हैं, सामाजिक ठेकेदारों ने अपनी स्वार्थ की आग में समाज को उबाल दिया है ।खिलखिलाती खूबसूरती को खौफनाक मंजर दिखाने वाले लोग नहीं जानते कि उन्हें किस तरह के न्याय की दरकार है " , बेचैनी और अंतर्द्वंद के मद्देनजर चेतना उड़ गई ; खाना-पीना बेमानी है उनके लिये अब।

...अगली सुबह के नौ बज रहे हैं... सुबह की तैयारियों में जुट गया सारा महकमा, गाड़ी तैयार , ड्राइवर दरवाजा खोलने के इंतजार में खड़ा है। बॉडीगार्ड टोपी संभालता हुआ, “ इन बड़े लोगों के ठाठ भी तो देखो दिनभर लोगों को ऑर्डर ऑर्डर करते रहते हैं ,और रात को मुर्गा मारकर टांग फैला कर सोते हैं ,क्या राजा जैसी जिंदगी है ,अपन का तो बाप न पढ़ाया न लिखाया, न तो अपन भी गाड़ी में घूम रहा होता," ड्राइवर साहब ,"सर सर कह कर जुबान ना घिसती अपनी"

तभी बगल से गुजर रही चौका बर्तन वाली को देखकर वह बोला, “ क्या लहरिया कट चाल , पतली कमर ! क्या लचक है ! कित्ती कर्री सी लग रही है "

चुप बे , डण्डे पड़वायेगा क्या , पूरे बंगले की साफ सफाई करती है मेमसाहब की मुंह लगी है ,सुबह से शाम तक बस मीना-मीना" , ड्राईवर साहब अपनी टोपी ठीक करते हुए , "जुबान पे टेप सटा , समझा "

जोर से सांस लेकर बॉडीगार्ड ने टोपी सिर पर जमा ली ,अच्छा तो यह बता भईया यह अपने साहब हैं दारु, गुटखा ,पान ,तंबाकू , सिगरेट कुछ भी तो नहीं पीते देखा कुछ और करते हैं कि नहीं"

" चुप हरामखोर , जुबान ज्यादा लंबी हो गई है तेरी , बड़े लोगों के बड़े नशे होते हैं , समझा"

"अच्छा -अब आगे तो कुछ बोलियो मत,” बात खत्म की ही कि उछल कर खड़ा हो गया, "नमस्ते सर" सटाक हाथ माथे पर सलामी में...

"सारी फाईल्स रख दी हैं ना " सबार्डिनेट से पूछा जा रहा था ,"जी हां- पचपन फाइलें हैं"

"ठीक है ,लेट्स गो"

सीट की पीठ पर पीठ सटी भी नहीं थी कि मोबाइल की व्हाट्सअप नोटिफिकेशन रिंग ,"गुड मॉर्निंग माय डियर" फूल और मुस्कुराहट वाले स्माइली के साथ,

"लगता है रात बहुत अच्छी तरह गुजरी है" फूल और मुस्कुराहट वाली स्माइली के साथ रिप्लाई किया

" जी हां -कैसे हैं आप ?”

"फिट एंड फाइन , एण्ड यू"

"फाइन "

"टुडे मीटिंग विद सीएम "

"ओ के कैसे होगा इन्तजाम "

"करना क्या है जो मजिस्ट्रेट आज क्लर्क परीक्षा में लगे हैं इन्हीं सबको सड़क पे लगा दूँगा , हो गया इन्तजाम, इधर का उधर , उधर का उधर , यही तो करते हैं हम … हा हा हा "

पिछली रात इतनी खौफनाक गुजरने के बाद भी टिर्की जी के चेहरे पर पहले की ही तरह ताजगी मुस्कुराहट थी । तीन मोबाइलों पर उंगलियाँ चल रहीं हैं ... एक पर्सनल और दो सरकारी । आखिर जिले के मालिक ठहरे ; हर बात पिघलाने लगेगी तब तो हो गया काम । भले ही अंदर प्रेम ,दर्द ,भय जैसी कमजोर मानी जाने वाली भावनाएं जो की मैच्योर सोसाइटी में मैच्योर लोगों में समाज के दिखावे के लिए नहीं पाई जाती, हिलोरे मार रही हों, पर भला बाहर कैसे आ सकता था वो बच्चा जिसे बाप ने जंजीरों से जकड़ कर भूखा प्यासा ,अधिकारी बनते ही काल कोठरी में डाल दिया था।

शायद दोहरा चरित्र जी रहे टिर्की जी अपने बाहरी कवच को इतनी मजबूती प्रदान कर चुके थे कि अब उसे तोड़ उससे बाहर निकलना नामुमकिन था ; अंदर प्यार, दर्द भय, आशंका जैसे भाव कहीं सड़ने लगे थे ,जिनकी सढ़ांध कभी बाहर नहीं आ सकती थी ।

ऑफिस में तीन बज रहे हैं, आज का जनता का दरबार बहुत थकाने वाला था । अभी लंच भी पड़ा है , फाइल निपटान प्रोसेस जारी है ...फुर्सत में खाना चाय की आदत ने दिनचर्या ही बिगाड़ दी थी ,

आफिस के बड़ा बाबू थे मियां जी जो कि बड़े ही अनुभवी कर्मचारियों में गिने जाते थे। आखिर अपने जीवन के महत्वपूर्ण तीस वर्ष जो दिए थे ,इस अपनी नौकरी में मामूली सी तनख्वाह पर आधा महीना उधारी में गुजारने वाले मियां जी ने कभी भी रिश्वत का पान तक नहीं खाया। बड़े खासमखास गिने जाते थे अपनी यूनियन में । तभी तो शुरू से आज तक निर्विरोध सचिव की कुर्सी पर पदासीन रहे; सारा महकमा उनकी मिसाल देता ; काम करने का तो नशा जैसा था उन पर; उन्हें बिना खाना खाए घंटों बिता देते ; हर आने जाने वाले पदाधिकारी की आंख का तारा थे ।

"सर आप के आदेशानुसार एक सप्ताह में सर्किट हाउस की पुताई हो जाएगी और सारा सामान खरीदने का आदेश भी हो गया है " मियां जी ने कहा

"क्या !! एक सप्ताह ?”

"दिमाग खराब है तुम्हारा दो-तीन दिन बाद केंद्रीय मंत्री आ रहे हैं और तुम एक सप्ताह लगाओगे- खत्म हो तुम लोग सब"

"सर आप ही ने तो कहा सात दिन में करा दो "

"मैंने कब कहा "

"सर आपने"

"चुप नालायक चला जा मेरी नजरों के सामने से"

चिल्लाने के साथ ही उसका स्थानांतरण दूसरे विभाग में कर दिया गया

आपस में कहासुनी..."यह कलेक्टर भी ना ,खुद बोलता है खुद ही भूल जाता है, लग जाता है फिर हड्डियां तोड़ने ; बताओ बिचारे मियां जी को बिना गलती के जुलाब दे डाला , अब मरते रहो -सड़ते रहो दूसरे डिपार्टमेंट में"

अन्दर की तरफ झाँकते हुए ," देखो मियां, मूड ठीक हो गया लगता साहब का , अकेले में मुस्कुरा रहे हैं , जाओ जाओ माफी मांग लो, " जवान कर्मचारी कुछ उछला ।

"माफ कर दीजिए सर ! मुझ से ही गलती हो गई थी "

"तुम्हारा आर्डर हो चुका है ..क्या सस्पेंशन का भी ऑर्डर चाहते हो ?”

"जी नहीं सर ..माफ कीजिए " मिंयाजी को बेहोशी छाने लगी

"आज क्या गलती हो गई ? अरे वही तो किया जो साहब ने कहा , इन बड़े लोगों का मूड बड़ा ही खतरनाक होता है , जरा सा मूड गरम कि निचले आदमी का घर का खाना पीना हराम ; सही तो यह है कि आंखों के सामने पड़ना ही गुनाह है; इन अधिकारियों के आँख पे चढ़ना एकदम जानलेवा" माथा पकड़ कर बैठे हैं ...अब तो घर जाने की ज़ेहमत नहीं उठा पा रहे हैं , "आखिर किस मुंह से रशीदा बेगम का सामना करूँगा मैं, आज अल्लाह ने ऐसा दिन दिखा दिया की कुछ मत पूछो , जो सारी उम्र मेरी इमानदारी को गालियां देती और कोसती रही "

पुराने दिन !! जैसे कल की ही तो बात है...किस तरह रशीदा बेगम ने सरकार ,अधिकारियों को कोसते-कोसते सारी रात रो-रो कर गुजार डाली थी...बहुत थोड़ी सी पगार में छः बच्चों का पालन पोषण आसान न था ,चाहते तो उपरी कमाई से सबका अच्छे स्कूल में दाखिला करवा सकते थे...पर सिद्धांतवादी मिंया जी दिनभर ऑफिस में खटते कभी कभी रात को भी , और घर में बीवी दस ऊंची नीची बातें सुना कर जोर से थाली सरका देती , बेचारे नजरें झुकाए रशीदा बेगम के गुनाहगार की तरह निवाले गटक जाते ।


जवान कर्मचारी मिंया जी के कंधे पर हाथ रखा, तो मिंया जी सोच से जागे , "हाँ ss”

"अमा मियां ! साहब किस मूड के हैं समझ में नहीं आता ,हंसते हैं तो गुस्से में होते हैं ,और गुस्से में होते हैं तो शायद अंदर हंसते होंगे , पता नहीं ! बड़े लोग हैं भाया ” धीरे से कान में ...सुना है साहब ने कल शाम से बिल्डिंग जलने के शोक में खाना भी नहीं खाया है... गुस्सा वाजिब है मिंया -डोन्ट वरी !

आज का लंबा दिन गुजर गया । डांट फटकार ,किचकिच , फाइलें ,शिकायतें ,हल्ला-गुल्ला , नारे बाजी ,हड़ताल ,जाम ,धरना प्रदर्शन ,बंद आदि के बीच दिन एक चुटकी में चार बज गया ,” सुनो" ,अपने कनीय पदाधिकारी को निर्देश देते हुये ,"सारी तैयारियाँ हो गयीं हैं न “

"जी हाँ "

"ओके नाव लेट्स गो"

महकमा चल पड़ा उस ओर जहाँ अस्पताल बनना था । कुछ मन में सोचते हुये -कभी वह चरागाह हुआ करता था …पता नहीं भविष्य में वहाँ दवा मिलेगी या जानवरों की घास !

सब कुछ बहुत जल्दी और अच्छे से निबट गया।

तसल्ली लिये हुये वे लौटते हैं शहर के नामी गिरामी अस्पताल की ओर जहाँ विधायक जी जख्मी हालत में भर्ती कराये गये ; कहा जाता है कुछ दूसरी पार्टी के छुटभईये मुग्गे पाहलवानों ने इनकी पिटाई कर दी थी ; हाल चाल पूछ ; डाक्टर को अच्छे इलाज की हिदायत देते हुए...थके मांदे कलेक्टर साहब रात्रि बारह बजे दाखिल होते हैं …इधर पत्नी नाराज है उधर प्रेमिका ।

और साथ ही लौटते हैं मियां जी अपने घर सोचते जा रहे हैं…"आखिर उसको दिया ही क्या है इस तीस सालों की नौकरी में; कभी चार जोड़ी कपड़े भी तो नहीं ; बच्चे पढ़ाई छोड़ कर कालीन बुनाई के कारोबार में लग गए ;मशरूफ़ हो गये अपनी जिन्दगी में ।

नाती पोते वाले रशीदा दिन भर खाँसतीं ,रात भर जागती , लेकिन सरकार और ईमानदारी को कोसना नहीं छोड़ती । कितने आए -कितने गए , कितने कितनों ने अपनी झोलियाँ भरीं ,मकान बनवाए बच्चों की शादी ब्याह गाड़ी घोड़ा असबाब खरीद डाले, मगर मियां जी ! दो कमरे का आशियाना भी न तलाश कर सके …आज दो कमरे वाला और पीली उखड़ी सी कलई से पुता हुआ , सहेज कर रखी गई एंटीक पीस जैसा खपरैलनुमा घरौंदा ही था उनका अपना जहाँ सब कुछ भूल जाते -थकान ,तनाव, दुःख दर्द..."कहने को बड़ा बाबू है पर मुई इमानदारी इमानदारी इमानदारी सौतन बनकर बैठ गई ,गले की फांस”, रशीदा ने यह कहते हुए दो रोटी रखकर मियां जी के सामने थाली पटक देती है और मियां जी गटक रहे हैं सूखे निवाले

"बहुत उदास लग रहे हैं , क्या बात है , कुछ हुआ क्या आफिस में " बेगम ने पूछा

"नहीं तो” , निवाला गटकते हुए

"तो फिर चेहरा मुरझाया हुआ क्यों है ?”

"कुछ नहीं , वो कल कुछ लोगों ने सरकारी इमारत जला दी थी न , उसी बात पर साहब नाराज हैं सारे कर्मचारियों पर"

"तो क्या हुआ , सरकारी इमारत थी न कौन सा उनका अपना मकान था !, जो गुस्सा रहे हैं !

"मेरा तबादला दूसरे विभाग में हो गया है"

"ओह , किसी और पे बस नही चला तो तुम, दिमाग फिरा हुआ है ससुरों का, मिल गया न ईनाम तुम्हारी सरकार से मुई ईमानदारी का" , पैर पटकती हुई रशीदा चली गयी अपने गलीचे पे।


बिस्तर में सोचते-सोचते...फिर अगली सुबह...ओस की बूंदे …टिप टिप टिप टिप

पाँच कमरों का आलीशान बंगला... फोन की घंटियां बदस्तूर जारी है …


प्रतिभा चौहान

न्यायाधीश , भारतीय न्यायिक सेवा