कविता - ‘ माँ ‘ प्रतिभा चौहान द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कविता - ‘ माँ ‘

कविताएँ


'माँ' -कविता
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#प्रतिभा_चौहान_की_कवितायें
तुम बिन
इह लोक, जगत मर्माहत
सूने अंचल और इन्द्रधनुष

प्रेम,त्याग,क्षमा,दया की धारा
धैर्य,कुशलता,धर्मपरायण
जीवन रहा तुम्हारा,

इठलाती, बलखाती
गुण तेरे ही गाती माँ
न पड़ता कम गुणगान तुम्हारा
तूलिका घिसती जाती माँ,

तुम सरस्वती
ज्ञान स्वरों से नहलाओ
जितने भी घट पीना चाहूँ
उतने आज पिलाओ,

ज्ञान दीप्ति लेने देव भी खड़े हुए
मत झुठलाओ
उजियारा मनकर जाओ.... प्रतिभा चौहान

2

कविता की संस्कृति

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जिस वक़्त लिखे जा रहे थे
दुनिया के तमाम धर्म ग्रन्थ


उस वक़्त गढ़ी जा रही थीं संस्कृतियां तमाम कविताओं में
उग रहे थे नई भाषाओं के स्वच्छन्द कलेवर
भर रहे थे नवीन मानचित्र
विभिन्न आकाशों के नक्शे पर


जिस वक़्त भरी जा रही थी
नदियों में गति
आकाश में ऊँचाई
उस वक़्त मानवीयता
तराशी जा रही थी अदृश्य कविताओं में


जिस वक़्त लड़े जा रहे थे
बर्बरताओं के तमाम युद्ध
बहाया जा रहा था मानवीय रक्त
कविाताओं में पनप रहा था
निस्वार्थ प्रेम और शक्ति का संदेश


जिस वक़्त भाषाओं में उग रही थी
व्याकरणीय चुनौतियां
और उग रहे थे भाषायी आन्दोलन
कविताओं में बह रहीं थीं
सरलता की नदियां


अब जब
आने वाले कठिन समय में
सब बड़े लोग गूँगे होंगे


सबसे बड़ी होगी कविता की डिक्शनरी
बेजुबानों की ओर से
होंगे कई लम्बे चौड़े शिकायती पत्र
जिनका जबाब देना होगी बहुत बड़ी जबाबदेही..... Pratibha Chauhan

■ कविता संग्रह 'पेड़ों पर हैं मछलियां' से

3

कविता

*****

समुद्र पार करते हुए
एक पल को सोचने लगा मन
कितने गहरे आंसुओं का नमक
और कितनी गहरी दिलों की प्यास बना होगा यह समुद्र
जिसकी लहरें अनवरत
चीख चीख कर करती हैं बयां
उन कहानियों को
जो कहीं छुपी हैं
इसके असीम धरातल में....

4

कविता

****

हर शाख से टूटकर गुल बिखर गया
गुबार ने कहा कि काफिला गुजर गया ,

लाख कहते हो अना को हम फना करें
यह कब ताश का घर था जो ठहर गया ,

बनावट में मिलावट है इस रोज आजकल
सच ये कैसा था कि आईना मुकर गया ,

चिरागों को नमी ने फिर बख्श दी जिंदगी
जब जब तेरा सूरज इधर बेखबर गया ,

आग का घूंट भी पी रह लिया जिंदा कभी
हैरान हूँ कि बहता हुआ दरिया ठहर गया ...Pratibha Chauhan

5

कविता

From my Diary
Written in 1995...

तूफानों को बह जाने दो
खो जाने दो चैन ,कश्तियाँ
बीच भँवर में फंसकर भी
जीवन आखिर चलता ही है...

लाख समुंदर मचल मचल कर
अपना क्रोध दिखाता हो
क्षत-विक्षत सहज किनारे
कितने ही कर जाता हो

रेखाएं हों कितनी जड़वत
आएं कितने ही झंझावत
सबकी अपनी नियति है
अपनी हद में मचलता ही है....Pratibha Chauhan

6

कविता

*****

माँ तुम जीवनधारा हो

निष्प्राण वस्तु में
गढ़ती भाग्य
इंद्र वरूण यम
अग्नि शिव की आराध्य

संसार स्थली पर
नवीन स्फूर्ती बन
अंशों में जीवन भरती राग
सुंदर, सुंदर तन ,सुंदर हृदया
वाक -आनंद विज्ञान और प्राण

झरना दरिया बन मुस्काई
चिंतन दर्शन सृजन
प्रेम की परछाई

संचित कर्म संस्कार
मनोभूमि पर उपजाती
निष्पक्ष, कोमल, निर्मल, उज्ज्वल
सूक्ष्म लोक में घटनाक्रम
अंतःचेतन में अदृश्य चेतना सी
घुलमिल जाती

आराध्य ,तुम ही साध्य
संभाव्य काव्य
मां तुम जीवनधारा हो...Pratibha Chauhan