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जिंदगी



ज़िन्दगी...

काले बादल छाये थे, बादलों की हल्की-हल्की फुहार दोपहरी को शाम की सुहानी छटा दे रही थी। कई महीनों के लॉकडाउन के बाद लोग सड़कों पर दिखने लगे थे पर आधे- अधूरे चेहरे से। वैसे भी लोग कब अपना पूरा नक़ाब बदोश नहीं होते ,खुले चेहरे पर भी तो एक नक़ाब डाला ही रहता है। बस आज कल झूठी मुस्कान, झूठा चेहरा कम देखने को मिल रहा है।
सड़कें जो हमेशा भीड़ से भरी रहती हैं, कुछ खाली-खाली है, इन खाली सड़कों और मौसम का आनंद लेते अंकुल बिना छाता चढ़ाये, थैला हिलाते, अपने बेसुरे आवाज़ में "मेरा जूता है- जापानी.. दिल हैं,फिर भी हिंदुस्तानी...। " गीत गाये जा रहा था। अपनी धुन में मस्त अंकुल आगे बढ़ा की एक साथ इतने लोग जमा थे। भीड़ से आवाज़ आ रही थी
मारो.. मारो...
और मारो...
पुलिस को फ़ोन करो..।
वह भीड़ को चीरता हुआ उसके गर्भ तक जा पहुंचा। वहां का दृश्य देख कर ये अल्हड़ सा लड़का स्तब्ध रह गया। वहाँ एक 30-35 उम्र के लगभग का आदमी गंदे मैले कपड़े एक हाथ में ब्रेड का एक पैकेट एक हाथ में 20 की नोट लिए सिकुड़ कर बैठा था। उन गंदे मैले कपड़ो में भी वह कहीं से चोर नहीं लग रहा था।
अंकुल मासूम निगाहों से लोगों की बर्बरता देख रहा था। लोग जैसे उसे मार डालने को आतुर थे।
पुलिस को फ़ोन करो जल्दी...
हां तब पता चलेगा... लोग कह रहे थे
अंकुल उन्हें रोकता है..
अंकुल की बात में हामी कोई भरता हीं की उससे पहले वह अपराधी घोषित आदमी करुणा भरे स्वर में कहता है,
"नहीं साहब आप फ़ोन करिये..। "
अंकुल हैरान था आखिर क्या था माजरा उसकी समझ के परे, वो पूछता है, " पता है क्या बोल रहे हो..?? "
" हां साहब आप फ़ोन करिये, सुना है, वहाँ दो बखत की रोटी मिलेगी। "
"तुम काम क्यों नहीं करते..?? " अंकुल विश्मय भरे स्वर में पूछता हैं।
"साहब काम नहीं मिलता, हमको गालियां मिलती हैं, छोटा सा बच्चा हैं, उसकी अम्मा छोड़ गयी, इस दुनियां को उसे हमारे भरोसे, बीमार है, भूखा भी है। हम चोर नहीं, पर पापी पेट ने चोरी करवा दिया साहब।
अंकुल इस चिकने चुकने समाज की ईमारत जर्जरता देख रहा था। इतनी जर्जर की हवा की एक फुंक इसे ढाह सकती हैं।
वो आदमी बोल रहा था पर सुना है, वहां रोटियां मिलेंगी कम से कम मुन्ना भूख से बीमार तो नहीं पड़ेगा। यूँ भूख दें मरता नहीं देख सकता मैं अपने मुन्ना को ऐसी विवशता लाचारी से भली तो उस जेल के पत्थर तोडना हैं कोई काम होगा बच्चे को रोटी मिलेगी।
अंकुल कुछ बोलता की एक पुलिस वाले का हाथ उस आदमी के कंधे पर पड़ता है वह आदमी खड़ा होता ही है कि अंकुल की आंखे बंद हो जाती है और बंद आँखों से ये समाज और उसकी तस्वीर बिल्कुल साफ दिख रही थी। उस आदमी के एक पैर नहीं था। बारिश बंद गयी थी बारिश ने मौसम को ही साफ नही किया था अंकुल के नज़रों से समाज की इस मैली परत को भी धूल दिया था। अपराधी वो आदमी था या समाज मन में हज़ारों सवाल लिए अंकुल बिना सामान किये घर लौट गया।
हाथ खाली थे मन भारी और नकुल घर पंहुचा घर जा कर देखता हैं वो आदमी उसके घर पर हैं वो पुलिस वाले का हाथ किसी और का नहीं अंकुल के चाचा थे। पर क्या यह हाथ सहयोग के हैं या उसके हालात पर हसीं। दूसरे पार्ट में पढियेगा।


Trisha R S.... ✍️

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