कुन्ती... Trisha R S द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कुन्ती...




(एक छोटा सा प्रयास हैं किसी ऐसी माँ की व्यथा को वर्णित करने का जिसने अपने परिवार की मान मर्यादा के लिए अपनेी मम्मता को विसर्जित कर दिया। फिर उसपर समाज और स्वयं ही उसका पुत्र उसपर कितने लांछन लगाए जाते हैं। उस करुण वेदना का सागर लिए ममता कब तक सह पायेगी ऐसी ही एक माँ हैं कुन्ती। त्रुटियों को क्षमा करियेगा )


कुन्ती...

कुन्ती हूँ मैं
पुत्र मेरे तुमको क्या लगता है
मैंने गंगा के समीप था तुझको फेक दिया
माँ थी मैं, वो भी एक माँ हैं
समझेंगी ममता को
था इस लिए हाँ तुमको सौंप दिया

जब छोड़ा था अपने दामन से
तू रोया था
पर मेरी मम्मता चीख़ी थी
तब से अब तक सारी रातें
यादों मे तेरे भीगी थी
अपनमानित सा लगता है
तुझसे ज्यादा मुझको
जब जब तुम
कुदृस्टि से देखे जाते
कुन्ती पुत्र होकर
सूत पुत्र कहलाते

पर मेरे पास तुम्हें
इससे भी अधिक कु बातें सुनने को मिलती
लोगों की वाणी से बात नहीं
तानो के बाण आते
विश्वास करो
उस अपनमानित विष को जरा भी पि ना पाते
आँचल को छोड़ो
जो उसपर कीचड़ डाला जाता
तुम पर भी तरह तरह का कलंक लगाया जाता
स्वर्ण तेज़ पुत्र मेरा
इससे ना धूमिल हो जाता
इस भय से
तुमको दूर की खुद से
तुम्हारी जमाता


जब तू सामने होता है
मेरी मंमता चीख चीखं चिल्लाती हैं
माँ हूँ तेरी
माँ ही तेरी कुन्ती.
पर बतला ना पाती है
क्युकि करना हमको
अपने खानदान का वरन भी था
केवल माँ की ही नहीं
निभाना पुत्री का धर्म भी था
अपनी मंमता के खातिर
उनकी मंमता ना मार सकीं
तब जा कर घोटा था गला
मैंने अपनी मंमता का
क्या अन्दाज लगावोगे
तुम उस अद्द्भुत क्षमता का
लाल कर्ण मेरे हो तुम
तुझसे यूँ कपोल ना बोल सके
क्युकि माँ अपने पुत्र की
कुदृष्टि कभी ना झेल सके
कई बार दरवाज़े पर थी
तेरी आई
की बतला दू मैं ही हूँ तेरी माई
पर डर था मुझको
तू कुंठित ना हो जाये
मैं भी ना मिलूं तुझे
तेरी राधे माँ भी ना खो जाये
वापस बच के जाना
आसान नहीं था होता
आँचल चौखट पकड़े
दहलीज़ पाँव थाम था रोता
आज बड़ी हिम्मत जुटा के बोला है
डर केवल नहीं मुझे पण्डवों के ना होने का
भय है मुझको तुझको भी खोने का
कदम ठहरें थे आज भी मेरे, चौखट पर
पर जो आज सत्य ना कह पाऊ
कही सत्य कहने का अवसर ही ना खो जाऊ
डर हैं की वो
कोई ना कोई चाल वो चल देगा
फिर तुझसे तेरे प्राणो को हर लेगा
पुत्र खुशी थी
तू दूर ही सही जब जब नज़र आता
जब सुनती तेरी बहादुरी, दान विर्ण के किस्से
इस माँ का मन गदगद हो जाता
भिक्षा मांग रही हूँ मैं
एक एहसान तू कर दें
अपनी रक्षा का वादा
अपनी माँ के आँचल में भर दें

यूँ अडिग ना रह तू
ममता के धीरज को विचलित ना कर तू

पर मैं तेरी इच्छा का भी सम्मान करू
उस जन्म में ये वीर तेरी ही माँ बनु
प्रभु से ये ध्यान धरु

चुप शान्त वहां से मैं लौट गयी
पूरा जीवन इस ग्लानि भाव में काट गयी

माँ हो कर मैं अपने पुत्र को ना बचा सकीं
हैं तेरा एक वीर और भाई
पांडवों को ना बता सकीं
ये जग मुझ पर ना जाने क्या नाम दिया
बोला की मैंने ममता का अपमान किया
पर एक दोष भाव मे मेरा जीवन कैसे बिता है
कह दूं
पर हर शब्द यहां पर
पड़ जाता फीका है...

Trisha R S... ✍️
Lamho_ki_guzarishey