गवाक्ष
बसंत पंचमी
दिनांक-12/2/2016
(नमस्कार मित्रो ! यह उपन्यास ‘गवाक्ष’ एक फ़िक्शन है जिसे फ़िल्म के लिए तैयार किया जा रहा था किन्तु इसके प्रेरणास्त्रोत 'स्व. इंद्र स्वरूप माथुर' का स्वर्गवास हो गया |
प्रोफ़ेसर माथुर राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान'NID'अहमदाबाद में एनिमेशन विभाग के 'हैड' थे | वर्षों पूर्व मैंने उनके साथ कई एनिमेशन की फ़िल्मों की पटकथाएं लिखी थी|बाद में वो हैदराबाद 'एनिमेशन इंस्टिट्यूट 'के डायरेक्टर होकर चले गए थे | एक बहुत बड़ी दुर्घटना के कारण उन्हें वापिस अहमदाबाद लौटना पड़ा | यहाँ पर उन्होंने 'सिटी प्लस फ़िल्म व टेलीविज़न इंस्टिट्यूट' को खड़ा किया | जिसमें मैं भी विज़िटिंग फ़ैकल्टी रही व बी.ए के पाटण विश्विद्यालय से पाठ्यक्रम की तैयार करने की टीम में रही|
फ़िल्म के लिए इसमें लगभग 15 चरित्रों का चयन किया गया था | उनके अचानक न रहने पर इसको उपन्यास के रूप में लिखकर मैंने उन्हें श्रद्धांजलि प्रदान की | 2018 में उपन्यास को 'उत्तर प्रदेश साहित्यिक संस्थान'से वर्तमान मुख्य-मंत्री (उ.प्रदेश )के द्वारा 'प्रेमचंद नामित सम्मान ' प्राप्त हुआ | अब यह प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत है | )
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गवाक्ष
1
अपने व्यक्तिगत नन्हे से अदृश्य यान को एक घने वृक्ष पर टाँगकर वह स्वंय अदृश्य रूप में वृक्ष से नीचे उतर आया। नीचे उतरकर उसने ऊपर दृष्टि उठाकर यान को देखने की चेष्टा की। पत्तों के झुरमुट में छिपा यान उसे भी नहीं दिखाई दे रहा था । उसने एक संतुष्टि की साँस ली और सामने के बड़े से बँगले की ओर बढ़ा|बड़े से गेट पर सुनहरी नामपट्टिका पर काले, बड़े, कलात्मक शब्दों में लिखा था --
'सत्यव्रत गौड़'
मंत्री --'शिक्षण-विभाग'
मंत्री जी के बँगले चारों ओर बहुत से व्यक्ति जमा थे । कुछ बाहर खड़े थे कुछ भीतर बरामदे में बिछे सोफ़ों व कुर्सियों पर विराजमान थे और भीतर बुलाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। ये सभी मंत्री सत्यव्रत जी से किसी न किसी कार्यवश मिलने आए थे। वह ठहरा एक अदना दूत भर ! यदि उसने प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत होकर भीतर जाने की आज्ञा माँगी तो उसको भीतर जानेकौन देगा? दूत के मस्तिष्क में न जाने क्या-क्या गड़मड़ हो रहा था, उसने एक हल्की सीटी वातावरण में उछाली जिसे केवल उसने ही सुना और पलक झपकते ही वह मंत्री-निवास के भीतर कब? कैसे जा पहुँचा ? किसीको ज्ञात नहीं हुआ।
मुख पर शरारत भरी मुस्कान लिए वह बिंदास भीतर घूम रहा था । उसने झाँककर देखा, यह एक बड़ा सा कक्ष था, संभवत: मंत्री
जी का शयन-कक्ष ! वह इठलाता हुआ उसमें प्रवेश कर गया, इसमें उसे एक और द्वार दिखाई दिया जो भीतर से बंद था। अब उसमें बिलकुल भी सब्र नहीं रह गया था। अपनी उसी अदृश्य कला के सहारे वह उस बंद द्वार को पार कर गया। यह स्नानगृह था जिसमें एक खूब सुन्दर, चिकना तथा बड़ा ‘बाथ-टब' था, उसमें मंत्री जी कमर तक डूबे हुए थे। पूरा स्नानगृह महक रहा था, मंत्री जी चिंतित मुद्रा में अपने 'वार्तालाप यंत्र' पर किसी से वार्तालाप कर रहे थे।
" कृपया आप मुझसे इस प्रकार के अमानवीय कृत्य की अपेक्षा न करें । देखिए, मैं सब जानता हूँ, यह सब किसके इशारे पर हो रहा है !। " मंत्री जी का स्वर रुष्ट प्रतीत हो रहा था, वे किसी गंभीर चिंतन में मग्न दिखाई दे रहे थे। कहीं न कहीं इतिहास स्वयं को दुहराता है चाहे हम उससे कितना ही पल्ला क्यों न झाड़ लें ! इस प्रकार की परिस्थितियों में उन्हें सदा अपनी पत्नी स्वाति का स्मरण हो आता था जो किसी भी परिस्थिति को सहज रूप से सँभालने में सक्षम थी ।
वह बड़े आराम से भीतर चला तो आया था किन्तु मंत्री जी को जल में अर्धसुप्तावस्था में देखकर और उनके वार्तालाप को सुनकर वह भी दुविधा में था, सोच रहा था इस स्थिति में कैसे और किस प्रकार वार्तालाप प्रारंभ करे ? बाहर से कोई द्वार पर धीमे से खटखट कर रहा था ।
" अभी मुझे समय लगेगा । " मंत्री जी ने कहा और ‘बाथ-टब' के किनारे पर अपनी ग्रीवा रखकर आँखें मूँद लीं ।
" महोदय ! बहुत लोग जमा हो गए हैं -" द्वार के बाहर से आवाज़ आई ।
" कोई बात नहीं, मैं अस्वस्थ महसूस कर रहा हूँ । आज शायद मिल भी न सकूँ । आप मेरा संदेश दे दीजिए, संभव हुआ तो मिल लूँगा अन्यथा बाद में । "
"जी " वातावरण में चुप्पी पसर गई।
दूत सोचने में व्यस्त था कि वह किस प्रकार वार्तालाप प्रारंभ करे ?मंत्री जी का 'वार्तालाप यंत्र' फिर बोलने लगा था । इस बार उन्होंने यंत्र का कोई बटन दबा दिया जिससे यंत्र में से ध्वनि आनी बंद हो गई और हाथ बढ़ाकर बाथ-टब के किनारे से कुछ दूरी पर सरका दिया । मंत्री जी ने अपनी थकी हुई आँखों को फिर से बंद कर लिया और किसी गहन चिंतन में तल्लीन हो गए। अब पर्याप्त विलंब हो चुका था, दूत के मन में खलबली होने लगी। इस प्रकार तो वह अपना कार्य प्रारंभ ही नहीं कर पाएगा | यदि इन्होंने उसके साथ चलने से मना कर दिया तब उसे कहीं और 'सत्य' नामक देह को खोजना होगा ।
" क्षमा करें ----" दूत ने सत्यव्रत जी से वार्तालाप करने का प्रयास किया, वे चौंक उठे। उन्होंने अपने मुंदे हुए नेत्र खोले और इधर-उधर ताकने लगे, परन्तु वहाँ कोई नहीं था, संभवत: उनका बहम था । उन्होंने अपने सिर को झटका देकर एक लंबी बैचैन श्वाँस भरी तथा पुन: नेत्र बंद कर लिए ।
"क्षमा करें मैं -----" दूत बेचारा समझ नहीं पा रहा था कैसे व कहाँ से अपनी बात प्रारंभ करे ? वह अचानक स्वयं को प्रस्तुत भी नहीं करना चाहता था और प्रस्तुत किये बिना उसका कार्य होना असंभव था ।
" कौन है भई ? सामने आओ । क्या मेरे द्वार पर मृत्यु आई है ? बहुत अच्छा है, इस बनावटी दुनिया से थक गया हूँ मैं । " उन्होंने एक निश्वांस लेकर पुन: नेत्र मूँद लिए ।
क्रमश..