याददाश्त वापस लौट रही है...    Alka Sinha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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याददाश्त वापस लौट रही है...   

आदमकद शीशे में तरन्नुम ने खुद को सिर से पैर तक निहारा, फिर सधे हाथों से आंखों में सुरमा पिरोया। काजल की डोरी से आंखें चमक उठी थीं। बालों को हल्का-सा बाउंस दे कर उसने टेबल पर पड़ा पर्स उठा लिया और लहराती हुई कमरे से बाहर निकल आई।
“बाइ अम्मी,” हाथ हिलाकर दरवाजे से निकलने लगी कि अम्मी ने रोक लिया,“जरा सुनना तो एक मिनट।”
“लगा दी न टोक।” तरन्नुम ठहर गई।
तरन्नुम का ऊपर से नीचे तक मुआयना करते हुए अम्मी अटक-सी गईं, “बाल खुले क्यों रख छोड़े हैं?”
तरन्नुम जब तक कुछ कहती तब तक अम्मी ने अपने बालों की क्लिप खोल कर उसके बालों में लगा दी। फिर जल्दी से टेबल पर पहले से रखी एक की-रिंग तरन्नुम के पर्स की जिप में लटका दी।
“ये क्या है?” तरन्नुम कुछ समझ नहीं पाई।
“देख कितनी तेज धार है इसकी,” लगभग फुसफुसाते हुए अम्मी ने की-रिंग को घुमाकर खोल दिया। घुमा देने पर उसकी गोलाकार आकृति सीधी हो गई। फिर उसे आगे की तरफ हल्का-सा दबाया तो वह लगभग तीन इंच लंबे चाकू में तब्दील हो गया।
“इसकी क्या जरूरत है, अम्मी?” तरन्नुम ने चौंककर पूछा।
“कुछ नहीं, फिर भी पड़ी रहने दे, जैसे लिपस्टिक, आई लाइनर वगैरह पड़ी रहती है।”
तरन्नुम बहस नहीं करना चाहती थी। वह जल्दी से बाहर निकल आई। पता नहीं, आजकल अम्मी को क्या हो गया है। अम्मी पहले तो ऐसी नहीं थीं। वे तो कितने आजाद ख्यालात वाली हुआ करती थीं, लड़कियों का हौसला बढ़ाने वाली। तरन्नुम बड़ी शिद्दत से उस अम्मी को तलाशने लगी जिनके पास किसी तरह का शक-शुबा फटक तक नहीं सकता था।
“किसी के डर से ये लड़कियां जीना छोड़ दें क्या?” वे दावा ठोक कर पूछतीं।
“लड़ाइयां डर कर नहीं, लड़ कर जीती जाती हैं।” वे लड़कियों का हौसला बढ़ातीं।
हर तरह के ‘इफ एंड बट’ का जवाब उनके पास हाजिर रहता था। तरन्नुम अपनी कितनी ही सहेलियों की परेशानियों का खुलासा अम्मी से किया करती थी। शुरू-शुरू में उसकी सहेलियां एतराज करतीं, “तू हर बात अपनी अम्मी से क्यों कह देती है? तुझे डर नहीं लगता?”
“डर कैसा?” तरन्नुम हैरानी से पूछती, “एक बार अम्मी से बता देने के बाद हमें किसी तरह का डर नहीं रहता, बल्कि इतमीनान रहता है कि अब अम्मी सब संभाल लेंगी।”
तरन्नुम एक लंबी सांस भरती है, पता नहीं, अम्मी को क्या हो गया है? आजकल हर छोटी-बड़ी बात में नुक्ताचीनी करने लगी हैं। वह महसूस करती है, एक अजीब-सी दहशत, एक अजब-सा खौफ हर समय अम्मी के चेहरे पर चस्पा रहता है। एक रोज कहने लगीं -- बुरका पहनकर कहीं आया-जाया करो। तरन्नुम ने हैरानी से अम्मी की तरफ देखा था। उनके चेहरे पर बेबसी का ऐसा साया था, जैसे कोई अपनी अंतिम ख्वाहिश बता रहा हो। तरन्नुम एकबारगी इस अम्मी को पहचान नहीं पाई। कई तरह के सवाल होंठों पर आकर ठहर गए। लगा जैसे किसी तरह की जिरह-बहस इस अम्मी को और बेबस कर देगी। घर से बाहर निकलते हुए जब वह बुरका पहनने लगी तो अम्मी ने यकबयक रोक दिया, “नहीं, नहीं, बुरका पहनने की कोई जरूरत नहीं।” अपनी ही बात को काटकर कहने लगीं, “जीन्स पहनो, बाल कटवा लो... लड़कों के बीच ऐसे मिल जाओ कि तुम्हारे लड़की होने का पता ही न चले।”
झटके के साथ कैब रुकी और तरन्नुम ने खुद को दफ्तर के अहाते में खड़ा पाया। एक लंबी कहानी, थोड़ी-सी दूरी तय करने में निपट गई। वह अपना कंप्यूटर खोलकर अपनी आज की वर्क-असाइंमेंट देखने लगी। कंप्यूटर की उखड़ी-उखड़ी भाषा... टूटे-टूटे वाक्य... शॉर्ट-कट की शैली...। अब वह इस शैली से अनजान नहीं। शुरू-शुरू में उसे यह भाषा किसी खुफिया कोड की तरह लगती थी जिसे समझने में अक्सर उसे अपने सीनियर्स की मदद लेनी पड़ती थी। मगर अब वह इस भाषा की आदी हो चुकी है। उंगलियां की-बोर्ड पर सरपट दौड़ी जा रही थीं। जैसे कंप्यूटर को उसके दिमागी उथल-पुथल से कुछ लेना-देना नहीं था, वैसे ही उसकी उंगलियों को उसके भीतर के तूफान से कोई मतलब नहीं था।
“कमिंग फॉर कॉफी?” शिखा ने कंप्यूटर पर दस्तक दी तो उंगलियों की रफ्तार धीमी पड़ी, किसी के आत्मीय साथ की उसे बेतरह जरूरत महसूस हुई।
“सम प्रॉब्लम ?” कॉफी टेबल पर उसे गुमसुम देखकर शिखा ने पूछा।
तरन्नुम पसोपेश में पड़ गई कि कुछ कहे या ना कहे। शिखा ने दोबारा उसे झकझोरा तो वह खुद को रोक न सकी। वैसे भी विदेशियों की इस कंपनी में एकाध से ही तो वह अपने मन की बात करती है, अगर उससे भी न कहेगी तो किससे कहेगी?
कहने का मन बनाया, मगर क्या कहे? जिस अम्मी से वह अब तक अपनी सहेलियों की परेशानियां भी साझा किया करती थी, आज उसी अम्मी के बारे में अपनी सहेली से डिस्कस करते हुए जुबान लड़खड़ा गई।
“अम्मी इज़ गेटिंग ओवर सेंसिटिव दीज़ डेज़... आजकल बहुत स्ट्रेंज बिहेव करने लगी हैं...”
“क्या मतलब?” शिखा कुछ समझ नहीं पाई।
“उनके दिमाग में दहशत भर गई है...,” गला खंखांसते हुए उसने समझाने की कोशिश की, “हर वक्त एक खौफ से घिरी रहती हैं। कभी बेबसी की उस हद तक चली जाती हैं जैसे उन्होंने कोई भारी जुर्म किया हो और सजा सुनाए जाने का इंतजार कर रही हों... और कभी इतनी दबंग हो जाती हैं कि दुस्साहस की सीमा तक जा पहुंचती है... कभी इतनी हिदायतें दे डालती हैं जैसे कोई बड़ी अनहोनी होने वाली हो, ‘...देर मत करना, सीधी घर चली आना...’, तो कभी हालात पर काबू करने के बड़े अजीब से हल बताने लगती हैं,” तरन्नुम ने खुलासा किया, “एक रोज कहने लगीं कि जैसे हम पानी की बोतल साथ लेकर चलती हैं, वैसे ही तेजाब भी साथ लेकर चला करें।”
“हर मां-बाप अपने बच्चे को लेकर चिंतित रहते हैं, तुझे पता तो है आजकल कितनी बर्बर घटनाएं हो रही हैं और टीवी चैनल्स जिस तरह उन्हें बार-बार विस्तार से दिखाते हैं कि अच्छे-भले आदमी के मन में दहशत भर जाए... तू उनके मन की हालत समझने की कोशिश कर।” अब शिखा समस्या को समझ पा रही थी।
“अरे, क्या समझने की कोशिश करूं, कभी बचकर निकलने की सलाह देती हैं तो कभी शरीर के उन हिस्सों के बारे में ताकीद करती हैं जिन पर हमला कर किसी मर्द को बेबस किया जा सकता है।”
शिखा हालात की गंभीरता का अंदाजा बखूबी लगा पा रही थी, फिर भी, उसने तरन्नुम को ढाढ़स बंधाया, “ट्राइ टु अंडरस्टैंड हर, वो जबरदस्त स्ट्रेस से गुजर रही हैं... वरना वो तो कितनी मॉडर्न और अंडरस्टैंडिंग हुआ करती थीं... कितनी डेयरिंग...”
शिखा स्कूल के समय से तरन्नुम की सहेली थी और वह अम्मी को लंबे अरसे से जानती थी।
तरन्नुम को शिखा की यह तरफदारी भली लगी। दरअसल वह भी यही चाहती थी कि किसी तरह से अम्मी को वाजिब ठहराया जा सके। तरन्नुम यह कभी कबूल नहीं कर सकती थी कि वह खुद या दूसरा कोई भी उसकी अम्मी को गलत करार दे। फिर अम्मी की दिमागी उथल-पुथल का अंदाजा भी उसे था। वह समझ सकती है कि आज अगर अम्मी इस हाल में आ पहुंची हैं तो वे अपने भीतर कैसे हालात से गुजर रही होंगी। उसे शिखा की बात सही मालूम पड़ी। उसकी अम्मी तो कितनी शार्प हुआ करती थीं, कैसे उसकी हर बात कहने से पहले ही समझ लिया करती थीं। होस्टल में रहते हुए कई बार ऐसा हुआ था कि उसने फोन पर सिर्फ ‘हलो’ कहा और अम्मी ने पूरा ऐक्स-रे खींच दिया, “कोई परेशानी है क्या...?” या फिर, “सोई नहीं क्या रात भर?’’ अम्मी कैसे पल भर में जान लेती थीं कि कब उसकी चिंता फ्रेंड्स को ले कर है, कब पेपर अच्छा न हो पाने की है, या फिर, कब उसकी तबियत खराब है।
फिर चाहे उनका कितना ही जरूरी असाइंमेंट क्यों न हो, वे उसके साथ इतमीनान से बात करतीं कि वह रिलैक्स हो जाए। और ये भी सच है कि कैसी भी परेशानी क्यों न रही हो, एक बार अम्मी से बात कर लेने के बाद छूमंतर हो जाती, वह खुद को कितना हल्का महसूस करने लगती।
आज अम्मी परेशानी में हैं, तरन्नुम ने सोचा, अपने हालात से वे अकेली जूझ रही हैं... ऐसे वक्त उसे उनके साथ खड़े होना चाहिए, उन्हें रिलैक्स करना चाहिए।
“हलो अम्मी, क्या कर रही हैं आप?” कैफेटेरिया से चलते हुए उसने अम्मी को फोन मिला दिया।
“कौन? तरन्नुम? क्या हुआ बेटे?” अम्मी ने पहली ही घंटी पर फोन उठा लिया और सवालों की झड़ी लगा दी।
“होगा क्या, बस यों ही फोन कर लिया।” तरन्नुम ने लाड़ जताते हुए कहा।
“यों ही तो तू कभी फोन नहीं करती... सब ठीक तो है न?” अम्मी की आवाज में बेचैनी थी।
तरन्नुम फोन करके पछता रही थी। उसने गलत सोचा था कि अपनी सलामती की खबर देकर वह अम्मी को रिलैक्स कर पाएगी। अब वह शाम तक बेचैन रहेंगी। एक कशमकश के साथ वह अपनी सीट पर वापस लौट आई।
शुरुआती दिनों में वह अपने काम को लेकर कितनी फिक्रमंद रहती थी। उसका डेली टार्गेट पूरा हो जाए, इस बात की उसे कितनी चिंता रहा करती थी। मगर अब ये सब सामान्य बातें हैं। वह कई और बातें सोचते हुए भी अपना टार्गेट पूरा कर सकती है। उसकी उंगलियां मशीनी अंदाज में अपना टार्गेट पूरा कर रही थीं। जहनी तौर पर उसका सारा ध्यान अम्मी पर था। अम्मी के दोनों चेहरे उसके रू-ब-रू थे। एक ओर एक फौलादी शख्सियत थी तो दूसरी ओर एक बेबस किरदार... एक तरफ खनखनाती हुई बिंदास हंसी थी तो दूसरी तरफ दहशत से घुटी एक गुम चीख... वह मन-ही-मन अपनी मसरूफियत को भी कोस रही थी कि अम्मी कब और कैसे इतना बदल गईं और उसे पता भी नहीं चला। आज वह अपनी अम्मी की अच्छी बेटी बनकर उनके साथ बैठेगी, प्यार से उनकी परेशानी सुनेगी। उसने अपने आप में तय किया।
घर पहुंच कर तरन्नुम ने पहला काम यही किया कि चाय के प्याले के साथ वह अम्मी के पास जा बैठी। उसे लग रहा था जैसे वह बरसों बाद अम्मी से मिल रही हो। कितनी बदल गई हैं अम्मी, तरन्नुम ने पाया उनके चेहरे पर चिंता की अनगिनत लकीरें उभर आई हैं... आंखों के नीचे काले घेरे दिखाई देने लगे हैं... बालों में सफेदी झनझना आई है... वह किसी उपेक्षित बच्ची-सी मालूम पड़ रही हैं, अम्मी की इस हालत के लिए तरन्नुम खुद को जिम्मेदार महसूस कर रही है... तरन्नुम को याद नहीं आता कि अम्मी कभी भी उससे इस तरह बेजार रही हों... तरन्नुम ने जज्बाती हो कर अम्मी के गले में अपनी बांहें डाल दीं...
अम्मी शायद किसी गहरी सोच में डूबी थीं। वे इस अचानक की प्रतिक्रिया के लिए तैयार नहीं थीं, “क्या हुआ मेरी बच्ची,” वे जैसे नींद से जगीं। उन्होंने तरन्नुम की बाहें हल्के हाथ से हटा दीं और दहशत पर प्यार की परत चढ़ाते हुए सवालिया नजरों से उसका चेहरा टटोलने लगीं, “किसी बात की फिक्र मत कर, मैं हर हाल में तेरे साथ हूं...”
अम्मी की यह आश्वस्ति बिन कहे भी तरन्नुम के साथ थी, बल्कि बेमौके की तसल्ली पाकर वह थोड़ा अन्यमनस्क हो आई।
“हरदम किस सोच में डूबी रहती हैं आप?” तरन्नुम ने बात शुरू करनी चाही। मगर तरन्नुम की बात से अम्मी के चेहरे पर चिंता की लकीरें और गहरा गईं। कोई बात जैसे जबान पर आते-आते ठहर गई, आंखों में अजीब-सी दहशत उतर आई। अम्मी की आंखें तरन्नुम के चेहरे के आर-पार देख रही थीं। तरन्नुम एक पल को सामना नहीं कर पाई इस तीर नजर का।
“ऐसे क्या देख रही हैं अम्मी?” तरन्नुम हताशा से भर गई। उसकी हर कोशिश अम्मी की चिंता को घटाने के बदले बढ़ा रही थी।
“जो भी कुछ हुआ है, बेखौफ बता... किसी बात की चिंता मत कर।” अम्मी की यह तस्वीर अपनी पहले की तस्वीर से बिलकुल अलग थी। एक पल को लगा जैसे तरन्नुम को अपनी खोई हुई अम्मी वापस मिल गई हों जिनसे अपनी हर तरह की परेशानी बता कर वह बेफिक्र हो जाया करती थी। मगर फिर लगा, पता नहीं, आज कौन किसको तसल्ली दे रहा है।
“आप इतनी चिंता क्यों करती हैं? आपकी ये घबराहट मुझे पागल बना देगी।” तरन्नुम ने समझाने की कोशिश की।
अम्मी ने उसे कलेजे से लगा लिया, “बता बेटे, बता, क्या हुआ है?”
“फिलहाल तो कुछ नहीं हुआ अम्मी, मगर क्या होने का इंतजार कर रही हैं आप? बताइये?” और सब्र नहीं रख सकी तरन्नुम।
“...” अम्मी तरन्नुम के चेहरे को देख कर सहम गईं।
“क्या लगता है आपको, क्या हुआ होगा?” तरन्नुम की आवाज तल्ख हो आई।
“...” अम्मी ने जुबान पर आ रही बात को थूक के साथ निगल लिया।
“क्यों सोचती रहती हैं आप हरदम उल्टा-सीधा?” तरन्नुम ने अपनी आवाज को भरसक नरम बनाते हुए अम्मी को प्यार से समझाया, “क्यों हरदम कुछ गलत होने की आशंका से डरी रहती हैं आप…? जब हमने किसी का गलत नहीं किया तो हमारे साथ गलत क्यों होगा?”
“मैंने गलती की है...”
“अम्मी, क्या कह रही हैं आप? क्या गलत किया है आपने?”
“वो उस दिन, दामिनी वाली घटना के रोज... मैं लाल बहादुर शास्त्री इंस्टीट्यूट से वापस लौट रही थी... ” अम्मी की आंखें यादों की परत उधेड़ने लगीं, “मेरी गाड़ी लगभग उसी समय उसी रास्ते से निकल रही थी... मैंने देखा भी था, सफेद रंग की एक चार्टर्ड बस को अपने सामने से निकलते हुए...”
“ऐसी कितनी ही बसें दिन भर सड़कों पर घूमती रहती हैं...” तरन्नुम ने कहना चाहा, मगर अम्मी ने बीच में ही रोक दिया, “नहीं, ये वही बस थी क्योंकि जिस तरह वह अपनी लेन से अंदर-बाहर होती हुई चल रही थी कि मेरा ध्यान उस तरफ गया भी था... आह... वह बच्ची उस वक्त उनकी हैवानियत का शिकार हो रही होगी... हमने देखकर भी नहीं देखा, वह बच्ची मदद के लिए पुकार रही होगी... हमने सुन कर भी नहीं सुना... उसकी दर्दनाक चीखें सर्द राहों में गूंज रही होंगी... ऐन उसी वक्त मैं उस रास्ते से निकल रही थी पर मुझे क्यों न सुनाई दी उसकी दर्द भरी आवाज?” अम्मी अपनी हथेली पर सिर पटक रही थीं।
“सर्दियों की रात थी, अम्मी। खिड़कियों के शीशे बंद कर रखे होंगे, क्या पता स्टीरियो भी चल रहा होगा... ऐसे में उसकी आवाज...”
“वही तो, वही तो हमारी गलती है, हम कैसे आंख-कान बंद कर म्यूजिक सुनना गवारा कर सकते हैं जबकि हमारी बच्चियां घर न लौटी हों... वे अपनी अस्मत की लड़ाई में अकेली पड़कर भी उनसे मुकाबला करती रहीं और हम कारों के शीशे चढ़ाकर घर लौट आए... क्या पता हममें से कोई एक भी उसकी मदद को आ जाता तो ये सब न घटता...” अम्मी फफक पड़ीं।
तरन्नुम अम्मी को समझाना चाहती थी कि इस घटना में उनका कोई कसूर नहीं है मगर वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थीं।
“वह रोज आती है मेरे पास... और आगाह करती है कि अगर अब भी नहीं जगे तो ऐसे हादसे रोज होंगे और कोई नहीं बचेगी... एक-एक कर सबका नंबर आएगा...” अम्मी की आंखों में दहशत थी।
“ये आपका वहम है अम्मी...” तरन्नुम ने समझाने की कोशिश की।
“तुमने सुना नहीं, दूसरे ही दिन नौएडा में एक और लड़की दरिंदगी का शिकार हुई... और वो पांच साल की बच्ची के साथ जो किया गया? वे कभी किसी लड़की पर तेजाब फेंक देते हैं तो किसी के अंदर रॉड घुसेड़ देते हैं... और कब तक इसे वहम का नाम देती रहोगी?” अम्मी की आंखें घात में बैठी बिल्ली की तरह चमक रही थीं।
“सुन रही हो दरिंदों के कदमों की आहट? वो हर तरफ दौड़ रहे हैं... हर गली, हर कूचे में... वो घर में घुस-घुस कर लड़कियों की इज्जत लूटेंगे, फिर मारकर फेंक देंगे... एक-एक को मारेंगे... ”
अम्मी अपने आपे में नहीं थीं और एकतरफा संवाद बोले जा रही थीं कि तरन्नुम ने रोक दिया, “रिलैक्स अम्मी, इनके डर से लड़कियां जीना छोड़ दें क्या?” तरन्नुम ने दावा ठोका, “ये लड़ाइयां डर कर नहीं, लड़ कर जीती जाती हैं... ” तरन्नुम की निगाह अपने बैग में लटकते की-रिंग पर जा टिकी थी, उसने उसे अपने हाथ में ले लिया और दबाकर खोलने-बंद करने लगी।
“आप हरगिज चिंता न कीजिए, हम अपनी लड़ाई के लिए तैयार हैं।” उसकी उंगली में चाकू वाला छल्ला गोल-गोल घूम रहा था।
“जिस दामिनी की बात आप कर रही हैं वह तो हमारे भीतर है... कहीं वह वीरा है तो कहीं निर्भया, कहीं वह अमानत है तो कहीं तरन्नुम... ये दरिंदे हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।”
अम्मी जैसे अर्से बाद कोई बेखौफ चेहरा देख रही थीं और हैरानी से महसूस कर रही थीं, ये तो उन्हीं का चेहरा है... ये तो उन्हीं के अल्फाज हैं... ऐसा तो वे कहा करती थीं... उन्हें लग रहा था, उनकी याददाश्त वापस लौट रही है...
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