उपन्यास लिखना किसी भी प्रकार सरल हैं ,न सहज , मात्र कुछ पृष्ठों में किसी कहानी को बुनना , शब्दों में पिरोना , उसको आदि से अंत तक पाठक को बांधे रखना , लेखक की लेखन मंजा पर निर्भर करता है | कथाकार कब श्रेष्ठ और कब औसत दर्जे का साबित होगा कुछ कहा नही जा सकता क्योकिं पाठक कि अपनी रूचि , अपनी पसंद किस ओर हैं यह भी तो निश्चित नही है ! अतः सफल तथा लोकप्रिय लेखक कौन हैं , इसका निर्णय कौन करे ? निश्चय ही पाठक लेखक का जज होता है उसकी कसौटी करता है , उसे स्टार देता है , और यदि पाठक बार बार उसी पुस्तक को पढ़ना चाहे , और उसे वो अपनी किताबों की अलमारी से जुदा न होने दे , या कहिये कि वो उस पुस्तक को किसी को देना न चाहे बल्कि यदि उसका कोई मित्र या रिश्तेदार उससे वो पुस्तक मांगे तो भी वो अपनी प्रति न दे कर उसे नयी पुस्तक बाजार से खरीद कर भेंट करे , हाल फिलहाल में मेरे एक मित्र ने , प्रसिद्ध उपन्यास, वोल्गा- टो- गंगा , पढ़ने की इच्छा जाहिर की दुसरे मित्र के पास उस पुस्तक की एक ही कोपी शेष थी ,वो उसे देना नही चाहते थे किंतु मित्र की इच्छा का मान रखना चाहते थे , उन्होंने पुस्तक ढून्ढ कर खरीदी और मेरी मित्र को भेट की | हम कह सकते हैं कि वह पुस्तक जिसे आप अपनी लाइब्ररी से विलग न कर सकें वह उसकी कसौदी पर खरी उतरती है |
" नैनं छिदंति शस्त्राणी ", एक ऐसा ही उपन्यास है , जिसे पाठक बार- बार पढ़ना चाहेगा और अपनी पुस्तक की अलमारी की शोभा मानेगा |
सुप्रसिद्ध लेखिका ,डाक्टर प्रणव भारती को उनके उपन्यास," गवाक्ष " के सुन्दर लेखन पर , २०१८ में 'उत्तर - प्रदेश के मुख्यमंत्री ' योगी आदित्य नाथ जी 'के हाथों ," प्रेमचंद्र नामित सम्मान ," से सम्मानित किया गया था |
डाक्टर प्रणव भारती , के उपन्यास , नैनं - छिदंति -शस्त्राणी , की एक समीक्षा प्रस्तुत हैं |
उपन्यास पढ़ने के आनन्द से आप बिलकुल वंचित न रहें |
बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा २०१६ में प्रकाशित उपन्यास में २६७ पृष्ठ है तथा अमेज़न पर मात्र २५० रु ,में उपलब्ध है
समीक्षा
नैनं छिदंती शस्त्राणि --- के बारे में कुछ कहने की मेरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए प्रणव ने मुझे समीक्षा नामक द्वार पर ला कर खड़ा कर दिया , आज से पहले मैंने इस द्वार में घुसने का साहस कभी नही किया था , समीक्षा कैसे की जाती है ,क्या होती है ,नही जानती थी , किन्तु ठीक जिस समय प्रणव ने मुझे कहा , उसी समय मैंने १९८२ में छपा शिवानी जी की कृष्णकली का सातवाँ संस्करण पढ़ा था, उसका आखिरी पन्ना और नैनं छिदंती , का आखिरी पन्ना कुछ कहता प्रतीत हुया , दोनों का श्लोक पर विराम लेना , दोनों की अंतरात्मा में बसे शाश्वत सत्य और समानता का आभास दिखा ,उनका नायक प्रवीर , अपनी उस ब्याहता को , जिसने उसके चदरे से अपनी चुनरी की गाँठ बाँधकर शमशान में महोत्सव मनाया था ,” क्या उसकी आत्मा की शान्ति के लिए एक बूँद पानी भी नही देगा “ हड़बड़ाकर संगम पर तर्पण करने भागा था . नैनं छिदान्ति की नायिका समिधा ,अपनी साँसों से जुड़े , एक -एक रिश्ते के खंडहरों के बीच पाँव रखती गुजरती है तब वो भी ,विकल, व्याकुल ,व्यथित है , उसके कानों में दूर से आती , नैनं छिदंती शस्त्राणि---------- शब्द लहरी पड़ती है , वह श्लोक, बिछड़े तमाम रिश्तों का मानों तर्पण कर रहा हो और उसने समिधा की उद्वेलित मनःस्तिथि पर मानों गंगाजल छिड़क दिया हो. आत्मा के अजर -अमर होने का आभास , आत्मा के प्रति गहरी मान्यताएं ,कृष्णकली के प्रवीर और प्रणव की समिधा को एक धरातल पर ला खडा करती है .
वो लिखतीं है;
“कोई कहीं नहीं गया सब यहीं तो हैं ------ जो नष्ट हो गया वह तो मात्र नश्वर शरीर था ."
यहाँ पर उनका कोकरोच प्रसंग , पर दृष्टि डालें, वे लिखती हैं;
",उसके पैरों के नीचे ज़मीन का वो टुकड़ा था ,जहाँ उसने और किन्नी ने एक मृत कॉकरोच को दबाने के लिए जीजी से कपड़े का टुकड़ा माँगा था और उसे दबाकर उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना की थी ।।वह कॉकरोच उसके सामने जैसे मुस्कुराकर भागा जा रहा था ,उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई ---"
यदि हम गौर से देखे , कोकरोच एक ऐसा प्राणी माना गया है जो होलोकास्ट में भी नहीं मरता,उसे यदि हम आत्मा का प्रतीक मानें तो अतिशयोक्ति नही होगी.
शिवानी जी के साथ यदि प्रणव की कृति रखने का साहस कर रही हूँ तो इसके पीछे शुभकामना है कि नैनं छिदंती शस्त्राणि--- भी दूसरे , तीसरे और सातवे संस्करण तक का सफर तय करे .
लेखिका ने अपने चरित्रों का नामकरण किसी ज्योतिशाचार्य की भांति बड़ी कुशलता से किया है , मुख्यता आकर्षित करता है सतपाल जेलर की पत्नी ' मुक्ता ' का नाम ,जो अलीराजपुर जैसे सुदूर इलाके में जेलर के घर में जेल की चारदीवारी में ताउम्र रहती है , जहाँ ' दो - चार मुण्डियाँ चौराहे पर अक्सर कटी मिलती है ,' समिधा व पुण्या के आने पर ऐसे चहचहा उठती है मानो अम्ब बाग की कोयल ,या फिर हिमपात से ढकी बर्फ पिघलने पर जैसे किसी शिला खंड पर नन्हें- नन्हे चटकदार फूल खिल उठते है , वो दौड- दौड कर उनकी आवभगत करती नहीं थकती .उसका उत्साह , उसकी आखों की चमक देख कर पति सतपाल तय कर लेते है कि वो अपनी पत्नी के लिए उसका मनपसंद वसंत अवश्य खिलाएंगे चाहे इसके लिए उन्हें हवाओं का रुख ही क्यों न बदलना पड़े , और वे ऐसा करते भी है . अपने विवाह की पच्चीसवी वर्षगाँठ पर उसके सपनों को साकार करता बँगला उसे भेंट करके , किन्तु चारदीवारी की बुलबुल जो पिंजरे के सरियों में गाने की आदि हो चुकी थी ,जैसे ही पिंजरे के द्वार खुलते है और पंख फैला कर उन्मुक्त गगन की ओर उसके पंख उड़ान भरने की तयारी करते है वो धराशायी हो जाती है. पिंजरे से मुक्त होते ही उसका दम घुटने लगता है और वह मुक्त हवाओं में मुक्त हो जाती है .लेखिका की कलम ने बहुत मार्मिक चित्रण किया है .
अलीराजपुर का होटल ;
'द -- बैस्ट- होटल 'कितना बैस्ट निकलता है कि समिधा व पुण्या एक रात भी वहाँ नही बिता पाते .-होटल का मनोरंजक चित्रण 'गहरी गुलाबी रंग से पुती दीवारों ---- -बिस्तर पर लेटने का साहस नही कर पायीं ---- ! नींद की गोलियाँ खा कर कुर्सी पर बैठ कर टूलती रहीं --------,होटल के विवरण में दक्ष लेखन देखने को मिलता है .
समिधा के पति "सारांश,' के नाम में निहित है वह त्रासदी जिसेकी 'परछाईं उसकी माँ इंदु तथा पिता विलास के जीवन में ऐसा ग्रहण ले कर आती है कि वे कभी खुल कर साँस नहीं ले पाते ,जिस घिनौनी भयावह अमानुष करनी का' अंश ' है वो ,वह उन्हें पल -पल सालता है . उनकी अनकही वेदना को लेखिका ने लहू में डूबो कर लिखा है .कूल के दो किनारे समानांतर निरंतर बहर- बहर बहते है ,परंतु मिल नहीं पाते. उनका दाम्पत्य जीवन होम हो जाता है,लेखिका ने पति पत्नी के नाज़ुक क्षणों को लक्ष्य करते हुए लिखा है ;
" मन की अतृप्त प्यास की स्तिथि समझे बिना लंबी लंबी साँसे लेते हुए इंदु को अधर में लटकता छोड़ करवट बदल कर सिकुड जाता ---- इंदु चुपचाप शावर के नीचे जा खडी होती "
हर माँ जानती है कि उसकी संतान का पिता कौन है , किन्तु इंदु नही जानती थी कि उसके लाडले पुत्र का पिता कौन है .प्रोफ़ेसर विलास ने पुत्र का नाम सारांश रखा था इंदु सोचती रहती थी.
उनके शब्दों में;
"किस का सार ' और किसका 'अंश '?
अन्ततः समिधा के नाम में निहित उसका अपना स्वयं का चरित्र . साधारण पेड़ की या चूल्हे की लकड़ी और हवनकुंड में मन्त्रोच्चार के साथ अग्नि देवता को समर्पित की जाने वाली उन लकडी की टुकडियों को लकडी न कह कर समिधा कहा जाता है. ठीक इसी प्रकार साधारण स्त्री से भिन्न है समिधा नामक स्त्री - जीवन के कटु अनुभव ,;वो लिखती है ;
" कभी झाबुआ ,कभी अलीराजपुर,कभी कामना तो कभी रौनक की तस्वीरें अपनी आँखों में भरे रही ,उसे रैम की स्मृति हो आई ---कहाँ होंगे ये सब? । मुक्ता उसके दिल में भटक रही थी ,सान्याल उसे उपदेश देने में व्यस्त थे, माँ तथा इंदु माँ का आँचल उसे अपने स्नेहमय आगोश में लेने को तत्पर था.डॉ. विलासचन्द्र उसके सिर पर शुभाशीष बरसा रहे थे , कहाँ गए थे ये लोग? आँखों से ओझल होने पर रहना न रहना क्या सब एक बराबर नहीं है? इनमें से अब कितने होंगे ? कहाँ होंगे? क्या कर रहे होंगे? क्या अब भी ताड़ी पीकर आदमी की जान आदमी ले रहा होगा और एक ताड़ी की बोतल की रिश्वत से कई सिर कटवाए जा रहे होंगे? क्या बीबी के घर में उनकी आवाज़ गूँज रही होगी? समिधा की बोझिल आँखों में माँ के साथ बिताए गलियारों की धूल भरने लगी थी । मन का मौसम अचानक बहारों से पतझड़ में परिवर्तित हो गया था ।अनमना पतझड़ इसी प्रकार' मैरी गो राउंड' सा घूमता ही रहेगा?"
आदि ,आदि अनेकों संवेदनाओं के प्रति लेखिका का समर्पण भाव उसे साधारण वर्ग से हटाकर एक विशिष्ठ वर्ग में ला खडा करता है . उसके लिये संसार महायज्ञ है और वो स्वयं को होम कर पूरे परिवेश को पावन करना चाहती है .
कुछ अविस्मरणीय पल लेखिका की लेखनी से हारसिंगार के छोटे- छोटे फूलों की भांति झरे हैं .मुझे सबसे प्रिय है उसका बचपन की गलियों में घूमना!उसकी लेखनी पर बचपन बैठ कर लिखता चला जाता है | सबसे प्रिय सखी किन्नी के साथ दिन रात का हुडदंग , देखिये उनकी लेखन पर पकड़ ;
" इतना आसान था किन्नी से पीछा छुड़ाना ? भैंस के थन से सीधे मुहं में दूध की धार पी जाने वाली पक्की जाटनी ----बामन कन्या को भागने कैसे दे सकती थी ? भाग दौड में चाट का दौना सुम्मी के हाथ से नीचे गिर पड़ा और उसकी आँखों में गुस्से से भरे आंसू निकल आए "
फिर आगे वे लिखतीं है ;
" किन्नी और उसकी मार पिटाई , बीबी का भैंस के नीचे बैठ कर दूध निकालना , मास्टर जी का किन्नी , सिम्मी , मुन्नी जीजी को पंक्ति में बिठाकर पढ़ाना ,निन्नु का दरवाज़े की ओटसे झांकना ! "
और एक स्थान पर किन्नी का भय ;
" किन्नी दौड़ी- दौड़ी आई ;" अच्छा हुआ तू दिल्ली नहीं गई , नहीं तो तू आदमी बन जाती "
किन्नी का भोलापन उसे लगा उसकी सहेली की दाढ़ी- मूछ निकल आतीं अगर वो दिल्ली चली जाती ,और किन्नी के मुख से लेखिका ने लिखा
" हाँ सच्ची तेरे पापा तेरी अम्मा से कह रहे थे मैंने सुना था अपने कानों से "
शायद उस युग की सभी लड़कियों ने गुड्डे गुडिया का ब्याह रचाया होगा , सुम्मी ने भी अपनी एक अमीर सहेली आभा की गुडिया से ब्याह रचाने का खेल रचने की ठानी .आभा की गुडिया बम्बई से लाई गई सुन्दर राजकुमारी सी गुडिया थी और सुम्मी के पास गुड्डा था ही नही , आइये देखे वे इस घटना का कितना सुन्दर वर्णन करतीं है ;
" पर तुम्हारे पास गुड्डा है कहाँ ,ब्याह किससे रचाओगी ,अपने सिर से ?"
हत्त तेरे की. गुड्डा तो था ही नहीं उन दोनों के पास। आभा ने भी नहीं पूछा था , न ही कहा था कि वे अपना गुड्डा दिखाएँ ।अब? नाक का प्रश्न था । गुड्डे का इंतज़ाम तो करना ही होगा । बीबी दोनों पर कितनी गुस्सा हुईं थीं,फिर आनन-फानन में पुराने कपडे,रूई ,सूईं-धागा निकाले गए। बीबी और सुम्मी की माँ ने मिलकर गुड्डा तैयार किया जिसके सिर पर चमकीले गोटे और मोतियों का सेहरा बाँधा गया । गुड्डे की अचकन माँ की पुरानी साड़ी के बॉर्डर की ज़री से सिली गई थी और चूड़ीदार पापा के पुराने पायजामे से ." दुल्हा जैसे तैसे बन गया, बरात तैयार हो गई ,अब सवाल उठा घोड़े का ;
वे लिखतीं हैं ;
" बैंड-बाजे इंतज़ाम हो गया तो घोड़े की खोज शुरू हुई । आखिर खिलौनों की टोकरी में एक पीले रंग का प्लास्टिक का घोडा मिला जिसे सुम्मी के पापा लाए थे और जब उससे खेलकर मन भर गया था तब घर के पीछे के भाग में उसे टूटे खिलौनों की टोकरी में फेंक दिया गया था ।अरे! घोड़े की एक टाँग तो गायब थी लेकिन अब कोई और उपाय नहीं था ।घोड़े को साबुन के पानी से नहलाया गया ,उसकी प्लास्टिक की देह निखर आई पर टूटी टाँग तो ठीक हो नहीं सकती थी सो ,उसी घोड़े पर बारात निकली।"
पढ़ कर अनायास मुस्कुराने को दिल चाहता है .बाल सुलभ किस्से , लेखिका की कलम पर खूब नाचते गाते मिलते हैं | पाठक पढ़ते पढ़ते अपने बचपन में घूम आता हैं | वे हँसाती हैं और कभी रुलाती है |
झाबुया के आदिवासी इलाके का वर्णन इतना सजीव है , कि लगता है जैसे हम कोई चलचित्र देख रहे हो . ताड़ी पीकर नशे में धुत्त वहाँ के लोग , तीर कमान से सिर काट डालना , और आधे नगें बच्चों का झुण्ड , वहाँ के स्कूल, टीचर और तंत्र , सब को उन्होंने बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है |
एक स्थान पर , अलीराजपुर के जेलर के घर , रौशन नामक कैदी सहायक का कार्य करता था .पता चला उसने अपने बाप का क़त्ल किया था , समिधा ने जब उससे पूछा कि उसने वह दुष्कर्म क्यों कर किया ?जो उसने बताया इससे रोंगटे खड़े हो जाते है .लेखिका ने रौनक की मन:स्तिथि को बखूबी चित्रित किया है ,देखें ;
"--उस दिन घर में बहुत अच्छा खाना बना था ,माँ गर्मागरम बाजरे की रोटियां बाप की थाली में दिए जा रही थीं , आलू का चटपटा मिर्ची पीसकर बनाया शाक ,तलेला लीला मिरचा,गोड, हथाणा ( अचार )और इत्ता बड़ा छास का लोटा , भूख क्या होती है आपको पता है ? भूख बस में नहीं रही तो पास पडी खुकरी अपने बाप की गर्दन पर चला दी , --- सर ही काट दिया तो खायेगा कैसे? "
पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं !
यूं तो अनेकों सुन्दर चित्रण बिखरे पड़े है , एनेको छोटी बड़ी कहानियों का समावेश मिलेगा इस पुस्तक में , किन्तु जैसा कि प्रबोध गोविल जी ने लिखा है, "अब पाठक और उपन्यास के बीच से हट जाता हूँ" ,मैं भी अब विराम लेती हूँ .
समीक्षा में यदि कुछ आलोचना करना आवश्यक है तो पाठक की दृष्टि से उपन्यास में कहानी , घटनाएं व संवेदनाएँ साथ- साथ चलती हैं .कहीं -कहीं लगता है कि कहानी की गति संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में कभी कभी उलझ जाती है .यदि आप मुझसे प्रश्न करें, कहाँ ? तब मैं उसका उत्तर ठीक से नही दे पाऊँगी.
मधु सोसि गुप्ता