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पीरपंजाल की पहाड़ी तले

पीरपंजाल की पहाड़ी तले :

ये उन दिनों की बात है जब जम्मू काशमीर में आतंकवाद इतना भी नहीं था । ८५/८६ के समय की बात है , पति की पोस्टिंग काशमीर के पूंछ रजौरी इलाक़े में थी ,राजौरी से लगभग १०० किलोमीटर पहाड़ी रास्ते पार कर एक स्थान था सूरनकोट , वहाँ हम लोग यानी फ़ैमिली नहीं रह सकती थी ।पत्नी व बच्चें दूर किसी पीस स्टेशन पर रहते थे और जब स्कूल की छुट्टियाँ पड़तीं तो हम उनके पास दो महीने रहने जाते थे । मैं भी अपनी दोनो बेटियों के साथ अम्बाला कैंट के ‘सैपरेटड- क्वार्टर’ में रहती थी ।‘ सैपरेडट क्वार्टर ‘, शब्द बहुत अखरता था परंतु समस्त फ़ौजी इसे समझते है , ये घर वो होते हैं जहॉ उन औफिसरस की फ़ैमिली रहतीं हैं जो फ़ील्ड यानी बौरडर पर पोसटड होते हैं , वे स्थान परिवारों के लिये सुरक्षित नहीं होते , अंत: सरकार परिवारों को रहने के लिये पीस स्टेशन पर कुछ घर सुरक्षित रखती है । बहरहाल जब परिवारों को यानि पत्नी को पति से मिलने का और बच्चों को अपने पापा डियर से मिलने का अवसर आता है तब आर्मी की इन सैपरेडट परिवारों की ईद , दीवाली , क्रिसमस और नया वर्ष सब एक साथ आ जाता था, वे पूरे साल उस दिन के लिये जीते थे ।जैसे ही स्कूलों की छुट्टियाँ शुरु होती है वैसे ही फटाफट जहां तक ट्रेन जाती है वहॉ तक ट्रेन फिर बड़ी सी आर्मी की ट्रक जिसे थ्री टन कहते हैं जो विशेष रूप से परिवारों को कुछ विशेष सुविधाओं से लैस की जाती है , उसमें सीट नहीं होती , अंत:गद्दे व चादर व कुछ कुशन लगा दिये जाते है , विश्वास करिये दस बारह घंटे के पहाड़ी सफ़र और दो दिन ,में जो हालत पतली होती थी , बच्चे उलटी करने लगते है , कमर बीच में से टूट कर आधी हो जाती है , ठिकाने पर पहुँचते -पहुँचते फ़ौजी परिवारों की जान निकली होती थी । उपरांत इसके , पत्नियाँ अपने जीवन साथी का चेहरा देख खिल उठतीं थी , और बच्चे अपने पापा के गले में झूल जाते थे । और तो और वे सैनिक भी परिवारों को देख कर ऐसे खुश नज़र आते थे मानो उनके अपने घर से कोई आया हो , दौड़ दौड़ कर मेमसाहेब और बेबी लोग लिये नींबू पानी का बंदोबस्त करते , जहॉ कहें वहॉ कुर्सी लगा देते , जब कहें तो कुछ नाश्ता ले आते ।
काशमीर तो काशमीर है , खूबसूरत वादी, वादी में आर्मी का ठिकाना , जंगल में मंगल और बंदूक़ के साये में जीना , पार्टी करना सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़ौजी और उसका परिवार समझ सकता है , एक तरफ़ दरिया , दरिया के उस पार बर्फ़ से ढकी पीरपंजाल की पहाड़ी |
दो महीने की वार्षिक पिकनिक , वर्ष भर का बिछोह भुलाने को काफ़ी थी ।
मई का महीना था , गुनगुनी धूप में हरे घास के लौन में , लंच के बाद मैं और मेरे साथ मिसैज भट्टाचार्य बैठी थीं । आफ़िसरस वापिस अपने औफिस चले गये थे , तभी हमारे बैटमैन यानिकि सहायक ने खबर दी कि , हमारे यहॉ सफ़ाई करने वाले की बीवी हमसे मिलना चाहती है | सफाई करने के लिए कुछ स्थानीय लोगो को रखा गया था |वे वही के रहने वाले थे ,फौजी नही थे |सड़क के पास कुछ दूरी पर दो औरतें और तीन चार बच्चों का एक समूह खड़ा था । मैंने कहा ‘ बुला लो ।’ सहायक ने इशारे से उन्हें आने को कहा । थोड़ी सहमी सहमी हमारे पास आईं और झुक कर बड़े अदब से नमस्कार किया । हमारे , 'बैठ जायो ' कहने पर वे कुर्सी पर नहीं बैठी , ज़मीन पर बैठ गई । बहुत शरमा रहीं थी ।
हमने उनसे थोड़ी बातचीत करनी शुरु की , उन्होंने भी हमसे पूछा ,” बच्चे कहॉ है ?”
मेरी दो बेटियाँ और कर्नल भट्टाचार्य की दो बेटियाँ थोड़ी दूर पर खेल रही थी , हिरनी के छौनों सी पहाड़ी मैदान के ढलान पर पकडम- पकड़ाई खेल रहीं थी । मैंने उनकी तरफ़ इशारा किया कि वो वहाँ जो बच्चे खेल रहें है , वे हमारे बच्चे है ।
उन्होंने फिर पूछा, ‘ बच्चे कहॉ है ? “
मैंने फिर इशारा किया, बच्चों की ओर , और बताया वे जो बच्चे वहॉ खेल रहे हैं वे हमारे बच्चे है । उन्होंने जब तीसरी बार प्रश्न किया तब मैं और मिसेज़ भट्टाचार्य , आश्चर्यपूर्वक एक दूसरे का मुँह देखने लगे ?
अचानक हम दोनों को उनके प्रश्न का उत्तर मिल गया ।
मैंने कहा , “ हमारी बेटियाँ है बेटा नहीं है ।”
वे बच्चों में बेटियों को गिनती ही नहीं थी !

दुबली पतली श्वेतवर्णा कश्मीरी जैसे शिवानी की नायिका ,किंतु रक्त्मंजित गुलाबीपन नही था , हांड मांस का सफ़ेद शरीर ,साफ़ धुला ढीला सलवार कमीज़ और ओढ़नी पहने वे पर्वत से उपजी प्रतीत हो रहीं थी | इतना ही नही वे खाली हाथ मिलने नही आईं थी , सफ़ेद रुमाल की पोटली में घर के भुने मकई के दाने ,(पॉप कोर्न ) हमारे और हमारे बच्चों के लिए नजराना लाई थी ,और खुद उन्होंने रोजा रख रखा था |

मधु सोसि गुप्ता

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