प्रिय पापा,
स्नेह वंदन
कहते हैं कि एक लड़की को खुद माँ बनने के बाद ही माँ की भावनाएं समझ में आती हैं और एक लड़का पिता बनने के बाद ही अपने पिता की चाहत और मजबूरी को समझ पाता है। गलत नहीं कहते हैं, किन्तु क्या एक लड़की अपने पिता को और एक लड़का अपनी माँ को इन बिंदुओं पर कभी परख पाता है..? कभी हाँ और कभी ना....! आज पितृ दिवस है और मैं मेरे बच्चों का पिता के प्रति प्यार और उसको अभिव्यक्त करने के तरीके में डूबकर यह सोच रही हूँ कि हमने इस तरह से कभी प्यार को अभिव्यक्त या प्रदर्शित नहीं किया... क्या हमने आपसे प्यार नहीं किया...? पापा आज आप शिद्दत से याद आ रहे हो... चाहती हूँ कि आपके गले में बाँहे डालकर कहूँ कि "आई लव यू पापा..." परन्तु अब यह सम्भव नहीं, क्योंकि आप तो उस दुनिया में चले गए हो जहाँ से हम मूर्त रूप में आपको नहीं पा सकते... लेकिन आपके होने का अहसास आज भी जिंदा है... आपका स्पर्श, आपकी आवाज, आपका प्यार और आपकी परवाह... सब अमूर्त है किंतु हमारे पास सहेजे हुए हैं।
पापा आज आपसे झूठ नहीं बोलूंगी... मुझे वाकई तब बहुत गुस्सा आता था जब आप मेरी कोई फरमाइश यूँ नकार देते थे मानो कोई गलत बात कह दी हो। उस समय यह समझने की उम्र कहाँ थी कि आप हमारा ध्यान जरूरत के हिसाब से रखते थे न कि जिद या दिखावे के लिए। मेरी एक सहेली को उसके पापा इंग्लिश के निबन्ध शब्दशः बोलकर लिखवा देते थे और वह कक्षा में बड़े गर्व से बताती थी कि "डैडी ने लिखवाया है.." मैडम भी खुश होकर उसकी कॉपी सबको दिखाती कि "देखो कितना अच्छा लिखा है इसने..." तब मैं भी आपसे यही अपेक्षा करती थी, क्योंकि मैं भी तारीफ बटोरना चाहती थी। आपका जवाब होता... "खुद लिखकर लाओ, मैं गलतियाँ सुधरवा दूँगा.." मुझे आज भी वह दिन याद है जब मेरे लिखे में एक भी गलती आप नहीं निकाल पाए थे, मुझे बहुत खुशी हुई थी। तब जाकर समझ में आया था कि पका माल देने के बजाय कच्चे माल को पकाना सिखाया था आपने।
घर में आपका कठोर अनुशासन था। मम्मी भी आपसे पूछे बिना कोई निर्णय नहीं लेती थीं। मेरी कोई सहेली जब उसकी मम्मी से अनुमति लेकर अकेली कहीं जाती, तब मुझे बहुत कोफ्त होती थी। मैं मम्मी से गुस्सा भी हो जाती थी कि पापा से पूछकर ही अनुमति क्यों...? उन दिनों मोबाइल भी नहीं थे कि ऑफिस में ही आपसे बात कर लें। यूँ तो मैंने होश सम्भालते ही घर में टेलीफोन देखा था। समय के साथ उसके बदलते स्वरूप और फोन नंबर के बढ़ते डिजिट्स के साथ हम भी बड़े होते गए, किन्तु अत्यावश्यक कार्य के अतिरिक्त कभी ऑफिस में आपको फोन नहीं लगाया। मुझे याद है कि जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में थी तब हमारे स्कूल से कुछ छात्राओं को 'मेधावी छात्र अभियान' के अंतर्गत चयनित कर दूसरे स्कूल ले गए थे। रोज़ से पंद्रह मिनट लेट हो गई थी मैं घर पहुँचने में और आप मुझे रास्ते में मिल गए थे, मुझे ही देखने स्कूल जा रहे थे। पहले डाँटा था, फिर वजह जानकर प्यार से समझाया भी था। भाइयों को भी बिना बताए बेवजह कहीं जाने की इजाजत नहीं थी। दुनिया जहान की हर अच्छी बुरी बात आप किस्से कहानियों के माध्यम से बताया करते थे। रोज़ शाम को खाने के समय और उसके बाद भी पूरा परिवार एक साथ बैठकर बातें करता था। साहित्य, विज्ञान, फ़िल्म या इतिहास हर विषय पर आपके पास ज्ञान का खजाना था। आपकी पर्सनल लाइब्रेरी में ढेरों किताबें थीं। पढ़ने का जुनून तब से ही मेरे अंदर है। गर्मी की छुट्टियों में कितनी किताबें पढ़ लिया करती थी मैं। हर किताब पर एक सील देखती थी... "नीलिमा लाइब्रेरी"... मम्मी से पूछा था कि नीलिमा कौन है? तब पता चला था कि यह नाम आपको बहुत पसंद था और घर के बड़े बेटे होने से चाह कर भी आप मम्मी को अपनी पसंद का नाम नहीं दे पाए थे। दोनों चाचीजी के नाम जरूर चाचाजी ने बदल दिए थे.... यह बात आज इसलिए दिल से बाहर निकल गई कि हम सभी चचेरे भाई बहिनों के नाम आपने रखे हैं। भैया आज भी कहते हैं कि ताऊजी ने नाम बहुत अच्छे रखे हैं... फिर आप मम्मी का नाम अपनी पसंद से क्यों नहीं बदल पाए...? यह प्रश्न मुझे हमेशा परेशान करता था। इसकी वजह भी बहुत बाद में समझ पायी थी। सच है घर में बड़े बेटे को काफी त्याग और संयम से रहना होता है। आप हमेशा शब्दों से नहीं, वरन अपने कार्य और आचरण से भी हमारे व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास करते रहे। यह सच है न पापा कि लड़कियों के लिए उनके पिता आदर्श होते हैं, और वे पति में पिता की छबि देखना चाहती हैं, किन्तु मैं हमेशा से चाहती थी कि मेरे बच्चों के पिता तो मेरे पिता की तरह हों, किन्तु पति उस तरह के न हों, जैसे आप मम्मी के लिए थे। इसकी वजह भी यही थी कि मैं मेरी सहेलियों के घर जाती तो उनके मम्मी पापा की बातों से प्रभावित होती थी। वे लोग आपस में जितने सहज थे, उतना मैंने आपको और मम्मी को आपस में कभी नहीं देखा। बहुत सालों बाद पता चला था कि दादी के लिहाज के लिए आप ऐसा करते थे। हर छोटी से छोटी बात जो ज़िन्दगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है, हमें सिखाने का आपका तरीका हमेशा प्रैक्टिकल होता था। कोई काम छोटा नहीं होता और सही शिक्षा ही सफल जीवन का आधार है, यह आपने हमें सिखाया था। हम सब भाई बहन आज भी एक घटना याद करते हैं... हुआ यूँ था कि छोटे भाई को बिना आवश्यकता के नए चमचमाते जूते खरीदने का मन था, उसने आपसे कहा और आपका जवाब था कि "इन चमचमाते जूतों का रास्ता तुम्हारी किताबों से होकर जाता है।" हम सब इस बात को बहुत दिमाग खपाने के बाद भी नहीं समझ पा रहे थे। तब आपने समझाया था कि पढ़लिखकर हम खुद इस तरह के जूते खरीद सकेंगे। पापा कितना सही कहा था न आपने... आप हमेशा कपड़ों में कंजूसी कर लेते थे किंतु खाने में नहीं और किताबों पर तो जी खोल कर खर्च करते थे।
एक घटना और याद आ रही है। रिंकी (मेरी बेटी) को नई साईकल दिलवाई थी। जब टायर में हवा भरवाने की जरूरत पड़ी तब मैंने 'इनसे' बोला कि दुकान से हवा भरवा कर ले आओ। इनका जवाब था कि वह खुद भरवा लेगी, साईकल चलाती है, तो उसे खुद भरवाना चाहिए। उस समय मैं अतीत के गलियारों में झाँक आयी थी। आपने हमें हर काम सिखाया था, किन्तु हमारी सुरक्षा को लेकर अत्यधिक सतर्कता बरतते थे। उस दिन मैं इन पर गुस्सा हो गई थी, क्योंकि हवा भरने वाली गुमटी पर कुछ आवारा टाइप लड़कों को अक्सर बैठे देखा था और मैं नहीं चाहती थी कि नासमझ वय में रिंकी उस गुमटी पर अकेली जाए। इस बात पर कई दिनों तक सोचने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची थी कि 'इनकी' कोई बहन न होने से इन्होंने कभी बचपन से लड़कियों की परवरिश को नहीं जाना है, अतः यह उस नज़रिए से देख ही नहीं पा रहे थे, जैसा मैं सोचती थी। पिता होने के बाद भी एक पुरूष की सोच की संवेदनशीलता अलग अलग हो सकती है, इसकी जड़ उनकी बचपन की परवरिश में ही होती है। मुझे याद है कि आपने भाइयों को भी संवेदनशील संस्कार दिए हैं।
मम्मी का असमय एक अल्प बीमारी से निधन हो जाने के बाद आप चौदह साल किस तरह घर को बाँध कर रखते रहे, उनकी छोड़ी हुई जिम्मेदारी पूरी करते रहे... वह एक मिसाल है। जब हम लोग ट्रांसफर होकर उज्जैन आ गए और यहीं सेटल हो गए, तब आप अक्सर मुझसे अपने दिल की बात शेयर करने लगे थे। पापा जब भी आप भाभियों की कोई कमी बताते थे, मुझे बहुत बुरा लगता था। मैं समझती थी कि भाइयों को और उस घर को आपने लम्बे समय तक अकेले सम्भाला है और अब बहुओं के आ जाने से आप खुद को उपेक्षित महसूस करते थे। पापा मैं आज इस पत्र के माध्यम से आपसे माफी माँगती हूँ कि उस समय आपके सामने मैं भाभियों का पक्ष रखकर आपको ही एडजस्ट करने के लिए कहती थी। दरअसल पापा आप उनके कार्य करने के तरीक़े की तुलना हम बहनों से करते और दुःखी रहते थे, मैंने आपसे यही कहा था कि जब हम बहनों की कार्यशैली ही अलग अलग है तो दूसरे घर से आई हुई बेटियों की कार्यशैली अलग होना स्वाभाविक है। आपके टोकने से वे हम बहनों से ही दूरी बना लेंगी। पापा मुझे बहुत खुशी हुई थी जब मेरे कहने पर आपने भाभियों को सलवार सूट पहनने की अनुमति दी थी। हालांकि आपने मना कभी नहीं किया, किन्तु आगे रहकर कहा नहीं और भाभियाँ भी आपके लिहाज़ के कारण कह नहीं पाई। मुझे बहुत खुशी होती थी जब वरुण (छोटा भाई) मुझसे कहता था कि मेरे उज्जैन आने के बाद आप अपनी चुप्पी की खोल से बाहर निकलने लगे थे। अक्सर अकेले में आपको कुछ लिखते या ताश के पत्तों से सॉलिटेयर गेम खेलते हुए देखती थी। आपने जीवन में अनेक संघर्षों से जीतकर सफलता का परचम फहराया। आपकी दी हुई सीख से हम आज भी अपने जीवन में सफल हैं। आपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और हमें भी यही सिखाया कि सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता... गलत तरीके से कमाई गई दौलत या कीर्ति कभी भी स्थायी नहीं होती और मन की खुशी ही सबसे बड़ी दौलत है।
पापा आज जब पत्र लिखने बैठी हूँ तो कितनी ही बातें याद आ रही हैं, किन्तु आपकी याद उन सब बातों से ज्यादा मन और आँख भिगो रही है। अतः अब ज्यादा नहीं लिख पाऊँगी... अंत में सिर्फ इतना ही कहूँगी कि चाहे हमने कभी एक दिन पितृ दिवस नहीं मनाया किन्तु आपके बताए मार्ग पर चलना ही आपके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है और हम कह सकते हैं कि हैप्पी फादर्स डे... पापा आई मिस यू...!
आपकी.... वन्दू
© डॉ वन्दना गुप्ता
(21/06/2020)