बिटिया के नाम पाती... - 4 - एक पाती खुद के नाम Dr. Vandana Gupta द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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बिटिया के नाम पाती... - 4 - एक पाती खुद के नाम



प्रिय वन्दू

आज ज़िन्दगी के सफर में चलते चलते उस पड़ाव पर पहुँच चुकी हूँ, जहाँ से अतीत और भविष्य एक साथ नज़र आता है। ज़िन्दगी के गलियारे में झाँकते हुए खुद को खुद की नज़र से देखा... और सोचा कि खुद से क्या चाहा, क्या पाया और क्या शेष रहा, इसका आकलन करना हो तो इस सुंदर सफर में खुद की ज़िंदगी की कहानी में खुद को पात्र के रूप में देखना जरूरी है। तो चलिए... शुरू से शुरू करते हैं...
वन्दू तुमने एक संयुक्त परिवार में होश सम्भालते ही ज़िन्दगी के अनेक रंग देखे। संघर्ष का अर्थ न समझते हुए भी हमेशा संघर्ष किया और शायद इसीलिए बचपन से ही एक असुरक्षा की भावना तुम्हारे मन में घर कर गई थी। तुम्हें बहुत बुरा लगता था जब घर में छोटे भाई बहिन की गलती पर भी तुम्हें डाँट पड़ जाती थी, बड़ों के इस तकियाकलाम के साथ कि तुम्हें देखकर ही छोटे सीखते हैं। बहुत चाहते हुए भी तुम यह नहीं पूछ पाती थी कि बड़े बच्चे किनसे सीखते हैं? हमेशा ही बड़ों से बड़प्पन की अपेक्षा में तुम अपने बचपन को खुलकर जी ही नहीं पाई, इसीलिए शायद तुमने अपने बच्चों के बचपन में अपना समूचा जीवन जीने का प्रयास किया।
बचपन से जिज्ञासु प्रवृत्ति और पढ़ने की ललक ने तुम्हें व्यस्त रखा। माँ के आदर्श और पिता की संघर्षगाथा ने तुम्हारे व्यक्तित्व निर्माण में अनूठी भूमिका निभाई। आज तुमसे झूठ नहीं बोलूंगी... मैंने महसूस की थी तुम्हारी खामोशी, तुम्हारी बेचैनी और प्यार और ध्यान पाने की तुम्हारी ललक भी... तब तुम कितनी नासमझ थीं, अपनी सहेलियों को देखकर उनकी ज़िंदगी में से अपने लिए खुशी के लम्हें तलाशना चाहती थीं, क्योंकि अपनों के प्रति एक असन्तोष का भाव पनपने लगा था, इसकी वजह बहुत अलग थी, अभी उसका जिक्र बेमानी होगा, अतः इतना ही लिखूँगी कि इस असन्तोष और उपेक्षा ने तुम्हें जिद्दी और विद्रोही बना दिया था। क्रोध ने घुसपैठ शुरू कर दी थी। तुम्हारा स्वभाव बदलने लगा था... तुम्हारा व्यक्तित्व एक नारियल के समान था, ऊपर से सख्त किन्तु अंदर से नर्म, शुभ्र और रस से सराबोर...
वन्दू! ज़िन्दगी में तुमने जो चाहा, वह नहीं पाया, फिर भी जो मिला उसे ही खुशी खुशी अपनाया। अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने में भी जहाँ तक सम्भव हुआ अपने दिल की सुनी। बचपन से ही तेज़ दिमाग होने से गणित में हमेशा शत प्रतिशत नम्बर लायी और मिडिल स्कूल की गणित की टीचर ने तुम्हारे कच्चे दिमाग में एक ख्वाब बो दिया था कि तुम इंजीनियर बनोगी। परम्परावादी परिवार की बड़ी बेटी होने से वह सपना टूटा, किन्तु तुमने गणित से खुद को जोड़े रखा। जब मात्र अट्ठारह वर्ष की आयु में स्नातक होते ही तुम्हारी शादी तय हुई तब तुमने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। फिर तो गणित में एम एस सी, एम फील और नौकरी तक तुमने ज़िद को अपना हथियार बना लिया। तुम खुशकिस्मत भी रही कि तुम्हारे मम्मी पापा तुम्हारी ज़िद के आगे झुके और तुम्हारा साथ भी दिया। इस ज़िद्दी स्वभाव के कारण नुकसान भी हुआ किन्तु तुमने कभी हार नहीं मानी। जीवनसाथी भी खुद की मर्ज़ी से चुना, कुछ सपने टूटे भी और कुछ नए उगे भी... यही तो ज़िन्दगी का दस्तूर है।
ज़िन्दगी में अब तक जो अभाव देखा था, वह तुमने अपने बच्चों को कभी महसूस नहीं होने दिया। माता-पिता से मिले संस्कारों को अपनी पूँजी बनाई और वही बच्चों के कच्चे मन में रोपने का प्रयास किया। कभी अपने सपने उन पर नहीं लादे, वरन उनके सपने भी अपनी आँखों से देखे। सब कुछ होते हुए भी अपनी ज़िंदगी से शिकायतें कम नहीं थी, किन्तु शिकायतों को बोझ न समझकर खुद को ही बदलने का प्रयास करती रहीं। पहली प्राथमिकता घर और बच्चे, उसके बाद शासकीय दायित्व और अंत में खुद के सपने... यही क्रम निर्धारित किया था न तुमने... फिर तुम दुखी क्यों होती थीं, जब पतिदेव तुम्हें उलाहना देते कि कार्यक्षेत्र में तुम्हारी आइडेंटिटी उनसे काफी पीछे है। दरअसल दूसरी महिलाओं की तरह तुमने पति पर निर्भर होकर नौकरी करना मंजूर नहीं किया। खुद के दमखम पर अपने निर्णय लिए, और वह इसे अपनी प्रतिष्ठा पर चुनौती समझते रहे। आज जिंदगी के इस मुकाम पर समझ भी व्यापक हो गई है और अब तुम समझ पाई हो कि दरअसल तुम्हारे पतिदेव तुमसे प्रतिद्वंद्विता करते थे, तुम्हारी तारीफ से खुश नहीं होते, क्योंकि कार्यक्षेत्र एक था। तुमने इसे भी अपनी नियति समझ कभी विरोध नहीं किया... क्यों..? तुम तो शुरू से विद्रोही थीं... शायद इसलिए कि एक बेटी विद्रोह कर सकती है किंतु एक माँ अपने लिए आखिर में सोच पाती है। जब बच्चों को अपने कैरियर की सही राह मिल गई तब तुमने खुद के बारे में सोचना शुरू किया। तुम्हारी कलम ने गहरे अवसाद से तुम्हें उबारा है, कितनी ही बार टूटकर जुड़ी हो... अभी लॉक डाउन में भी अपनों के कितने ही रंग देखे... फिर भी खुश रहने का प्रयास करती हो।
वन्दू! हर नारी की नियति क्या यही है कि वह दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी तलाशती रहे... यह शायद बालमन में रोपे गए संस्कारों का ही असर होता है। आज भी तुम अकेले में रोती हो, किन्तु खुद को कभी कमजोर साबित नहीं होने देती... तुम्हारी बहन ने तुम्हारा आत्मविश्वास बहुत बढ़ाया है, कहते हैं कि माँ के बाद बड़ी बहन माँ होती है, किन्तु तुम्हारी छोटी बहन तुम्हारी मार्गदर्शक बनी, और सहेली भी... तुम्हारी बेटी से ज्यादा तुम्हारे दामाद तुम्हारी भावनाएँ समझते हैं, उन्हीं के इलाज से तुम्हारी पच्चीस साल की बीमारी से तुम्हें मुक्ति मिली है और खोया आत्मविश्वास लौटा है। यह तुम्हारी मेहनत और ईश्वर की कृपा ही है कि ज़िन्दगी में सबसे कीमती तुम्हारे बच्चों को कभी अपने सपनों से समझौता नहीं करना पड़ा और उन्होंने तुम्हें भी कितने गर्वित पल दिए। आज जब साहित्य जगत में तुम्हें उपलब्धि मिलती है तो पतिदेव भी खुश होते हैं। नौकरी में भी तुम्हारी एक पहचान है, सब कुछ तो इतना बढ़िया है, फिर भी तुम खुश क्यों नहीं हो....?
ज़िन्दगी के कितने ही रंग देखे हैं, अब बच्चों की शादी के बाद तुम्हें खुद के लिए जीना होगा... वे सब तो अपनी ज़िंदगी में रम जाएंगे, किन्तु तुम्हें खुद को नहीं भूलना है, क्या हुआ जो आज पतिदेव तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझते, साथ तो देते ही हैं... शायद एक दिन वह भी तुम्हें समझेंगे, सिर्फ इस आस में नहीं रहना है, अपने कर्तव्य करते हुए खुद की खुशी के लिए जीना सीखो... यदि तुमने खुद को खुश रखना सीख लिया तो कोई भी तुम्हें दुःखी नहीं कर पाएगा।
आज परिवार और समाज में भी तुम्हारी एक अच्छी छबि है, सबकी मदद को तत्पर... तुम हमेशा खुद को ईश्वर का स्पेशल चाइल्ड कहती हो, तो बस अपना यह विश्वास आगे भी कायम रखना... और अंत में एक खास बात... कि आधुनिक तकनीक ने तुम्हें जो यह मोबाइल के रूप में एक आल इन वन तोहफा दिया है न, जिसे कितनी ही बार तुम्हारे हाथ में देखकर सब कोसते हैं, इसे कभी मत छोड़ना... भले ही यह सबकी आँखों में खटकता रहे, किन्तु अपनी आँखों का तारा बना रहने देना... यही तो अब तुम्हारा हमदम है जो कितने ही ज़िन्दगी के अक्स समेटे है... तुम्हारी डायरी, तुम्हारा सन्देशवाहक, तुम्हारी टू डू लिस्ट, संगी साथियों से कनेक्शन का माध्यम, तुम्हारा फोटो एलबम, तुम्हारी रचनात्मकता, तुम्हारी घड़ी... यूँ कहूँ कि ज़िन्दगी की तमाम यादों को सहेजे यह छोटा सा मुट्ठी में बंद डिवाइस, जिसने तुम्हें पूरी तरह बदल दिया, इसका साथ कभी न छोड़ना... कोई कितना भी गुस्सा दिलाए... बस एक बात और सीख लेना कि जब न कहने का मन हो तो संकोच मत किया करो, तुम्हारी इसी आदत से तुम खुद पर "टेकन फ़ॉर ग्रांटेड" का लेबल चस्पा कर चुकी हो, अब और नहीं.....!
आगे देखती हूँ तो एक सन्तुष्ट और आत्मविश्वास से लबरेज वन्दू खड़ी दिखती है... उम्र और अनुभव के संगम से ज़िन्दगी को जीती हुई... नौ वर्ष बाद जब शासकीय दायित्व से मुक्त होकर दूसरी पारी में प्रवेश करोगी, तब भविष्य की तस्वीर स्पष्ट होगी, क्योंकि नौ साल का वक़्त कम नहीं है... अतः उसके बारे में विस्तारपूर्वक फिर कभी लिखूँगी... अभी बस इतना ही...!
अंत में...
ज़िन्दगी की कशमकश में कुछ पाया कुछ खोया भी...
सपने कुछ सच हुए, तो कुछ रहे अधूरे भी...
जो मिला उसका शुक्रिया अदा किया...
जो न मिला उसका गम न मनाया कभी भी...!
बस ज़िन्दगी का साथ निभाया कुछ इस तरह से.... और यही अब तक की ज़िंदगी का सफर है... आगे भी इसी तरह चलती रहना... क्योंकि जीवन चलने का नाम...
फिर मिलेंगे...
तुम्हारी ज़िन्दगी की खामोश प्रतिच्छाया...
तुम्हारी वन्दू..!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(05/07/2020)