कुछ कहानियाँ जीवन से जन्मती हैं और उसी के खट्टे-मीठे अनुभवों की आंच में धीमे-धीमे पकती हैं! आप इसे कहानी माने या महज एक किस्सा ये आपकी मर्जी पर है लेकिन कथाकार का दावा है कि यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है! उस रात हुआ यूँ कि बड़े चौधरी के चेहरे पर विचित्र से असमंजस की छाया डोल रही थी! वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या और कैसी प्रतिक्रिया दें! अब जबकि वे स्वयं तय नहीं कर पाए तो उन्होंने उसी स्थिति में बिचले चौधरी की ओर देखा और बिचले चौधरी ने अपनी दृष्टि छोटे चौधरी के चेहरे पर गड़ा दी! छोटे चौधरी के लिए ये सबसे गंभीर स्थिति थी क्योंकि उन्हें न बड़े चौधरी की प्रतिक्रिया का भान था और न बिचले चौधरी की तो वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि खुद क्या कहें! अमूमन उनका काम बहुत सरल था! उन्हें निन्यानवे प्रतिशत मामलों में सिर्फ दोनों बड़े चौधरियों से सहमति जताने भर की ही सुविधा थी!
ये प्रतिक्रिया जताने या फैसला लेने जैसे कार्य उस घर में बड़े चौधरी ही किया करते थे और छोटे चौधरी की महत्ता तभी सिद्ध होती थी जब कोई काम जानकारी के अभाव में अटक जाये क्योंकि एकमात्र छोटे चौधरी ही उस घर के स्नातक सदस्य थे जिसे लेकर वे खासा गर्व भी महसूस करते थे! जब कुछ न सूझा तो छोटे चौधरी ने भी अपनी दृष्टि परिवार की अगली पीढ़ी यानि चार भतीजों पर टिका दी और राहत की साँस ली कि गेंद अब उनके भी पाले से बाहर थी!
“सुणो हो जी, सुमन इबके अपना जनमदिन मनाना चहावै है...वो के कहवैं हैं जी ....हैप्पी बड्डे ...” सिर पर रखा पल्ला सम्भालती चौधराइन के मुंह से निकला, यही एक वाक्य था जो उस आलीशान, सजावटी ड्राइंग रूम में कुछ इस तरह गूंजा जैसे कोई कबूतर किसी आलीशान हालनुमा कमरे में गलती से घुसकर इधर उधर फडफडाता डोलता है! बड़े चौधरी चाहते तो हमेशा की तरह अपने दबंग स्वर की राइफल से एक मिनट में उस कबूतर का शिकार कर सकते थे पर पेंच यहाँ फंस गया था कि सुमन चौधरी का विवाह तय हो चुका था और वह इस घर में चंद महीनों की मेहमान थीं लिहाजा अनायास ही इन दिनों उनकी महत्ता उस घर में कुछ बढ़ गई थी! सुमन की इस अटपटी ख्वाहिश पर कोई प्रतिक्रिया देने का दबाव बड़े चौधरी को भीतर ही भीतर मथ रहा था लेकिन कुछ तो कहना ही था! और कुछ क्षण बाद ही सही पर उनकी प्रतिक्रिया बाकायदा आई भी!
“बावली सै छोरी...अरे के चहिये उसने...मंगाकर दे दे और के होवे सै हैप्पी बड्डे...."
बड़े चौधरी ने हॉल के बाहर निकलकर दरवाजे के बायीं साइड में, गलियारे में लगे वाशबेसिन पर हाथ धोते हुए जोर से ये कहकर ठहाका लाया और तौलिए से हाथ पौंछने लगे! कहना न होगा उनके ठहाके ने माहौल की बोझिलता को कुछ हद तक कम कर दिया और जल्दी ही हाल सबके ठहाकों से गूंजने लगा! इतनी जोर के इस ठहाके की आवाज़ रसोई में कान लगाये खड़ी परिवार की बाकी स्त्रियों और सुमन चौधरी तक भी पहुँच गई!
अस्सी का दशक अपनी अधेड़ावस्था में पहुँच चुका था! “म्हारी छोरियां छोरां से कम है के” जैसे जुमले तब दूर-दूर तक अस्तित्व में नहीं थे! हरियाणा के राजस्थान से लगे बागड़ क्षेत्र आकर राजधानी में बसी ये उनके कुनबे की पहली ही पीढ़ी थी! हरियाणा जब अपने शैशवकाल में था तो बिजली पानी की खासी दिक्कत थी! उन दिनों बागड़ में आने जाने के लिए कच्चे रास्तों पर ऊंट की सवारी काम आती थी! भिवानी से सिरसा तक हवा के साथ बदलते राजस्थानी टीलों के गुबार पूरे भूभाग को अपनी आगोश में ले लेते! उन हालात में आम जन के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी भारी पड़ जाता था! जैसे तैसे दो जून की रोटी जुटती वह भी ‘मोटे नाज’ यानि बाजरे की! कभी लाल मिर्च कूटकर उससे खा लिया तो कभी प्याज़ से काम चला लिया! गेंहू की रोटी, गुड़ और खांड का स्वाद तो बटेऊ (दामाद) के आने पर ही चखने को मिलता था! चौधरी साहब का परिवार गाँव का सामान्य-सा परिवार था पर उनके सपनों का विस्तार आकाश तक था और ये सपने उन्हें ज्यादा दिन रोक न सके! अपने इर्द-गिर्द दिखते ऐसे कष्टकारी जीवन से निकलने का निश्चय करके बड़े चौधरी ने फ़ौज का रुख किया!
परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ और सुधरी तो बाद में वे फ़ौज की नौकरी छोड़कर एक रिश्तेदार के सहारे पर दिल्ली में दिल्ली में आ बसे! शुरू में कुछ वक़्त जरूर लगा उन्हें बड़े शहर की चकाचौंध से उबरने में पर उन्हें जल्दी ही समझ आया जिसकी लाठी होती है भैंस भी दरअसल उसी की होती है! तो इस कहावत पर बाकायदा अमल करते हुए और इसे जीवन का मूलमंत्र मानते हुए, बड़े चौधरी ने लट्ठ के बल को आजमाते हुए सबसे पहले एक बड़े से प्लाट पर कब्जा जमाया और वहां अपनी भैंस बांधनी शुरू कर दीं जो जल्दी ही बहुवचन में बदल गई!
दूसरे नंबर के भाई को उन्होंने गाँव की घर-जमीन की रखवाली के लिए वहीँ बसा दिया और उनका अनुसरण करते हुए बाकी दो भाई भी दिल्ली चले आये! कुछ बाहुबल का सहारा था और कुछ उनकी दूरंदेशी और मेहनती, बेधड़क स्वभाव, कि तीनों भाइयों ने ढाई दशक में डेयरी फार्मिंग, पशुपालन से आगे बढ़कर ट्रांसपोर्ट कम्पनी खोलने के बाद नई पीढ़ी के सक्रिय होने पर कन्स्ट्रक्शन के काम में भी पैंठ बना ली और बाकायदा बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई करने के काम की शुरुआत कर दी! लक्ष्मी की कृपा इतनी हुई कि धन-धान्य की बारिश से निहाल था चौधरी परिवार! जल्दी ही आजू-बाजू के अन्य दो प्लाट भी उन्होंने खरीद लिए जहाँ उनके ट्रक खड़े होने लगे और कुछ कोठरियां उनके यहाँ काम करने वाले मजदूरों और नौकरों के लिए बना दी गईं!
इसी परिवार के मुखिया यानि बड़े चौधरी, चौधरी बिशम्भर सिंह की इकलौती कन्या थीं सुमन चौधरी जिनकी हैप्पी बड्डे मनाने की अटपटी और अनोखी ख्वाहिश ने परिवार को दुविधा में डाल दिया था! अब क्योंकि उस धनाढ्य और सम्पन्न संयुक्त परिवार की इकलौती कन्या होने का गौरव सुमन चौधरी को प्राप्त था तो पूरे परिवार की लाडली होने के वजह से किंचित सिरचढ़ी और जिद्दी हो जाने का नाहक सा भ्रम पाल बैठी थीं। उनकी माँ यानि चौधराइन बिमला देवी ने सुमन की परवरिश बड़े एहतियात से की थी! वे उन्हें उड़ान के लिए ‘पर’ तो देती थीं पर उन्हें समय-समय पर करीने से कतरती भी रहती थीं! अब लाड़ली सुमन चौधरी की उड़ान के लिए एक बंधा हुआ आकाश था पर वे उस पतंग की तरह मनचाही उड़ान भरती थीं जिसकी डोर चौधराइन के हाथों में थीं!
यूँ सुमन को परिवार में खूब लाड़-प्यार मिलता था पर "चाहे बेटी कितनी भी प्यारी हो, उसे सर पे चढ़ाना ना चहिये" जैसे लोकगीत में इस परिवार का पूरा यकीन था तो तयशुदा आचार-सहिंताओं के बीच लता-सी बढ़ती हुई सुमन चौधरी अपनी हदों को जानते हुए अपने सपनों को बचा ले जाने का हुनर सीखने लगी थीं।
घर में कई नौकर चाकर होने के बावजूद, सुमन को चौधराइन ने रसोई के कामकाज में निपुण बना दिया था क्योंकि उनके हिसाब से अंततः चौका-बासन हर औरत की नियति है जिसे समय से सीख-समझ ले तो बेहतर! पढ़ाई जैसे वाहियात और बोरिंग काम में सुमन का मन शुरू से खास लगता नहीं था और वे एक साल डुबकी भी लगा चुकी थीं पर चौधराइन को छोड़कर किसी को इसकी खास चिंता भी नहीं थी!
"पढ्डे-लिक्खे छोरे, आजकल छोरी भी पढ्डी-लिक्खी चहावैं सैं। इसका तै जी कती पढाई में नी लागता। बारमी (बारहवीं) तै कर ले फेर आग्गे देखी जागी।" वे अक्सर कहतीं। वैसे भी पढ़े-लिखे चौधरियों के घर की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ अगर कभी आगे कदम बढ़ातीं भी तो उनके लिए दो ही रास्ते थे, या तो अमरावती से ट्रेनिंग लेकर किसी सरकारी स्कूल में पी.टी.आई. बन जाओ या फिर टीचर ट्रेनिंग कर नगर निगम के किसी प्राथमिक सरकारी स्कूल की नौकरी में खप जाओ।
इस परिवार में शिक्षा, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा को लेकर कोई ख़ास जागृति नहीं आयी थी और सुमन खुद नौकरी के जंजाल में जी खपाने को कतई उत्सुक नहीं थीं तो वे पढ़ाई को रस्म अदायगी से ज्यादा भाव कभी देती भी नहीं थी। यूँ तो माँ की कुशल गृहिणी बनने की ट्रेनिंग भी उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी पर वहां बचाव का कोई रास्ता वे लाख चाहकर भी ढूंढ नहीं पाती थीं।
वैसे उनका मन पढ़ाई कुछ दिन लगा था जब घर में नए ट्यूशन सर पढ़ाने आने लगे थे! ये सिंगापुर से चौधरी साहब द्वारा लाये वीसीआर पर देखी गईं फिल्मों का असर था कि नये सर सुमन चौधरी के सपने में आकर उसके साथ डुएट गाने लगे थे! एक दो बार तो सपने में बात गर्मजोशी से भरे आलिंगन-चुंबन तक भी पहुँच गई थी! वो तो ट्यूशन के पहले उन्हें बार-बार घड़ी देखकर, विशेष रूप से सजते-संवरते देख और उनका मन एकाएक पढ़ाई में “कुछ ज्यादा” ही लगते देख चौधराइन की अनुभवी आँखों ने मामला भांप लिया और बाकायदा तीन महीनों की फ़ीस देकर नये ट्यूशन सर की छुट्टी करके फिर से मास्टर हवासिंह की ट्यूशन लगा दी गई इस ताकीद के साथ कि पहले की तरह छुट्टियाँ ज्यादा न किया करें!
इसके बाद तो सुमन चौधरी का दिल पढ़ाई से बिल्कुल उचट गया! अधेड़ हवासिंह की गंजी खोपड़ी, हद से ज्यादा लम्बी नाक और धोती कुरते में फंसे सींकिया शरीर से मिलकर बनी मोटू-पतलू के पतलू से मेल खाती छवि ने उनके रोमांस के पटाखे को फुस्स कर दिया था! उन्होंने कुछ दिनों के लिए अपना ध्यान छत से दिखाई देने वाले, सामने की बड़ी-सी कोठी के छत पर बने कमरे पर केन्द्रित कर दिया था जहाँ विनेश कुमार रहता था! सुमन ने सोचकर देखा कि खाली रहने से अच्छा है मामला विनेश पर ही सेट कर लिया जाये! ख्याल सचमुच बुरा नहीं था! अब रोमांटिक सपने देखने के लिए उन्हें कोई तो चेहरा चाहिए ही था! आखिर वे कब तक ऋषि कपूर और विनोद खन्ना से काम चलातीं! लिहाजा वे शाम का करीब एक घण्टा छत पर पढ़ाई के बहाने विनेश कुमार से नैन-मटक्के में गुजारने लगीं।
वे पिछले बरस अठारह पार कर चुकी थी और उनका रिश्ता भी तय हो चुका था तो इस साल बारहवीं के पेपर देने के बाद उन्हें पढ़ाई से सदा के लिए छुट्टी मिल जाना भी लगभग तय था! खास बात यह थी कि अब उनके सपनों के लिए उधार के चेहरों की जरूरत नहीं थी क्योंकि एक स्थायी चेहरा भी उन्हें मिल चुका था जिसकी तस्वीर वे अपनी हिस्ट्री की नोटबुक में छुपाकर रखती थीं, उनका मंगेतर अनूपसिंह चौधरी! विनेश छत पर नज़र आता तो वे यूँ ही थोड़ी बहुत देर नज़र सेंक लेती थीं पर सच यही था कि उन्हें अब विनेश में ख़ास रूचि नहीं रह गई थी!
उन्हें कुशल गृहिणी बनाने की दिशा में अगला कदम सिलाई सेंटर में दिलाया गया जबरन दाखिला था। अब उनकी कहें तो सिलाई-कढ़ाई से कहीं ज्यादा रोचक काम उन्हें फिल्मी पत्रिकाओं से मनपसंद नायकों की तस्वीरें काटकर जमा करना लगता था। कुछ महिला-पत्रिकाओं में मनचाही ड्रेस ढूंढने में भी उनका मन खूब लगता था। शुरू में उन्हें सिलाई सेंटर जाते कोफ्त होती थी पर बाद में उन्होंने इसे भी ‘तफरी’ का जरिया मानकर सरंडर कर दिया। उन्हें बाकायदा एक गाड़ी मिली हुई थी जिस में बैठकर वे ड्राइवर के साथ ‘सिलाई सीखने’ सिलाई सेंटर जाती थीं! वहां कुछ नई सहेलियाँ भी बन गईं जो ‘सोसाइटी सिनेमा’ के ठीक सामने के पॉश एरिया में रहती थीं!
वहीं सुमन को एक आलीशान कोठी में रहने वाली सहेली श्वेता के जन्मदिन का न्यौता मिला जो उसी सिलाई सेंटर में ऑयल पेंटिंग सीखने आती थी और सुमन से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी! वैसे भी ये पॉश एरिया में रहने वाली स्टाइलिश लडकियाँ सुमन चौधरी को बहुत आकर्षित करती थीं! उन नई सहेलियों के साथ से सुमन के सपनों को नई दिशा मिली! यहीं सुमन चौधरी के ‘ज्ञान’ में कई इजाफे हुए! जैसे यहीं उन्होंने जाना था कि परदे पर दिखाई देने वाली हीरोइन का खूबसूरत चेहरा और घुंघराले बाल दरअसल प्राकृतिक नहीं बल्कि ब्यूटी पार्लर में ब्यूटीशियन की घंटा भर की मेहनत का नतीजा होते हैं जिसे कोई भी हासिल कर सकता है! इस खुलासे से तो सुमन की आंखें खुली की खुली रह गई थीं! वे तो खामख्वाह फिल्म हीरोइनों के मुकाबले अपने सामान्य चेहरे और सीधे सपाट बालों को देखकर हीनभावना से भरी रहती थीं!
घर से जन्मदिन पर तो जाने की परमिशन मिलना मुश्किल था तो उस दिन शाम को सिलाई सेंटर की छुट्टी कर सुमन ने श्वेता के जन्मदिन की पार्टी में हिस्सेदारी की! श्वेता के पिता एक बड़े सरकारी ओहदे पर थे! पढ़े-लिखे परिवार का माहौल सुमन चौधरी के कुनबे के माहौल से बिल्कुल अलग था! यहाँ गज भर घूंघट करने वाली महिलाएं और बैठक में रहने वाले खंखारकर घर में घुसने वाले पुरुष नहीं थे! ऊंची आवाज में बात करते दबंग पुरुष और उनके सामने नीची आवाज़ में बात करते सिर झुकाए रखनेवाली 'जी-जी' करतीं, सहमी हुई महिलाएं यहां लगभग गायब थीं। सब कुछ इतना अलग था कि सुमन चौधरी मंत्रमुग्ध सब देखती रह गईं! सुमन के यहाँ भौतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं थी जो पैसे के बल पर देखा देखी जुटा लिए गए थे पर ये घर, ये समाज, यहां के लोग अलग थे। महज आर्थिक सम्पन्नता और शिक्षित परिवेश की आधुनिकता के बीच का फर्क आज वे बारीकी से देख पा रही थीं!
केक कटिंग सेरेमनी से लेकर ढेर सारे तोहफों की आमद और बढ़िया खाने, कोल्ड ड्रिंक्स के साथ डांस पार्टी का आयोजन किया गया था! इससे पहले ऐसे ‘हैप्पी बड्डे’ मनते सुमन ने फिल्मों में जरूर देखा था पर किसी जवान लड़की का जन्मदिन इस तरह भी मनाया जाता है यह सुमन के लिए बिल्कुल नई जानकारी थी!
इधर दो साल से सबसे छोटे भाई और भतीजे के जन्मदिन पर उनके घर में सतनारायण की पूजा और शाम को केक जरूर काटना शुरू हो गया था पर सुमन चौधरी का जन्मदिन कब आता और कब चला जाता किसी को मालूम ही नहीं चलता था! हाँ चौधराइन उनके जन्मदिन पर हलवा बनाकर और सबकी ओर से उन्हें कोई महंगा और सुंदर सा सूट दिलाकर इस दिन को खास बना देतीं! एक बार कानों की लेटेस्ट डिज़ाइन की सोने की बालियाँ बनवाई थीं और दसवीं पास करने वाले जन्मदिन पर एक सोने की चेन बनवा दी थी! कुछ साल से उनकी चाचियाँ उन्हें जन्मदिन की शुभकामनायें और भाभी कभी-कभी कोई तोहफा देने लगी थीं पर इसके अतिरिक्त अपने जन्मदिन से जुडी कोई विशेष याद उनके खाते में नहीं थी!
श्वेता की जन्मदिन पार्टी वाले दिन जो कौतूहल आँखों के रास्ते सुमन के मन में प्रविष्ट हुआ था वह एक नया ही आकार लेने लगा था। इधर कुछ दिन से एक ख्वाहिश उनके मन में जोरों से अंगड़ाई लेने लगी थी, एक बार बस एक बार, धूमधाम से अपना ‘हैप्पी बड्डे’ मनाने की ख्वाहिश! ठीक श्वेता की तरह केक कटिंग, खाना-पीना और सहेलियों के साथ तेज़ म्यूजिक पर डांस पार्टी! इतना सब तो होना ही चाहिए! इससे कम पर बिल्कुल समझौता नहीं करेंगी सुमन यह तय कर चुकी थीं! चौधराइन ने हमेशा के विपरीत उनकी इस बात को ध्यान देकर सुना तो उनका हौंसला बढ़ गया था! ये इस घर में उनका आखिरी जन्मदिन था जिसे वे यादगार बना देना चाहती थीं! उन्हें इसमें भाभी और चाचियों का भी पूरा समर्थन मिला, आखिर वे जल्दी ही विदा जो हो जाने वाली थीं!
"छोरी का जनमदिन?" बड़े चौधरी ने पहली बार में इस बात को ठहाके में उड़ाते हुए बाहर का रुख किया पर पीछा अभी छूटा नहीं था! दूसरी बार भी उन्होंने फालतू की बात बताकर साफ़ इंकार कर दिया! तीसरी बार ये बात लेकर खुद सुमन भी चौधराइन के साथ खड़ी थी! दरवाजे पर घूंघट में कनखियों से देखती बाकी महिलाओं को देखकर बड़े चौधरी को उन सबके मूक समर्थन का अंदाज़ा हो चला था! उन्होंने भाइयों पर दृष्टि डाली तो उनके चेहरों पर भी समर्थन ही डोल रहा था! बेटों ने तो आगे बढ़कर सुमन का साथ ये कहकर दिया कि
“अगले साल इसका जो जी आये करे, अगले मालिक, इस साल मना लेन दो जी, हरजा ही के है!”
ये भला कैसे हो सकता है! छोरी का जनमदिन?? जितनी लग रही थी, बड़े चौधरी के लिए ये बात उतनी सहज नहीं थी! बेटी का केक काटकर जन्मदिन मनाने जैसी अजीबोगरीब बात उस कुनबे के लिए न भूतो न भविष्यति की श्रेणी में आती थी! इस बात पर अमल से बिरादरी में जगहंसाई से लेकर फालतू छूट देने को लेकर रिश्तेदारों की नाराज़गी तक का खतरा था कि कल को उनकी छोरियां भी ‘डिमांड’ करना सीखेंगी! पर वे चारों ओर से घिर चुके थे! उस पर तुर्रा ये कि नये रिश्तेदारों को भी खबर देनी होगी!
बड़े चौधरी ने सौ तर्क दिये पर जब पूरा परिवार मुकाबिल था, ऊपर से सुमन के पराए घर चले जाने की भावुक दलील, उनके सामने कोई चारा नहीं बचा तो
“थारा जो जी आये करो पर कोई फालतू तमासा नहीं चहिए मन्ने, सुनी?”
कहकर हथियार डालते हुए उन्होंने बैठक का रुख किया और उनके पीछे दोनों चौधरी भी सिर हिलाते हुए निकल गए! हर झंडी मिलने की देर थी कि हैप्पी बड्डे की तैयारियों में भाई-भाभियों ने कोई कोर कसर नहीं उठा रखी! बाकायदा हॉल को गुब्बारों और कागज़ की झंडियों से सजाने की पूरी तैयारी की गई! बड़ा सा केक आर्डर किया गया! ढेर सा खाने पीने का सामान और हाँ पहली बार घर की बनी लस्सी की जगह तीन रंग के कोल्ड ड्रिंक भी मंगाए गए! एक बड़ा सा म्यूजिक सिस्टम और सुमन चौधरी की पसंद की ढेर सारी कैसेट्स का भी इंतजाम किया गया!
सुमन चौधरी ने फोन पर श्वेता सहित सब सहेलियों ठसक से “इनवाइट” किया था! अड़ोस-पड़ोस की हमउम्र सहेलियों को भी न्यौता गया! चौधरी साहब की खास ताकीद के अनुसार रिश्तदारों को इस आयोजन से दूर ही रखा गया पर नई पीढ़ी की जिद पर नये रिश्तेदारों के यहाँ फोन कर अनूपसिंह को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया! और एक बड़ा सा गिफ्ट पैक लेकर वे आये भी!
सुमन चौधरी ने लाल और काले रंग का लेटेस्ट काट का नया सलवार सूट पहना! दो गली पीछे के ब्यूटी पार्लर में संवारी हुई भौंहों, हल्का सा मेकअप और कर्ल कराये हुए बालों से उनका चेहरा और हेयर स्टाइल भी आज किसी सिने तारिका से कम प्रतीत नहीं हो रहा था! वे बार-बार आदमकद आईने में खुद को अनूपसिंह की निगाहों से निहारते हुए खुद पर ही मोहित हुए जा रही थीं! जैसा कि अनुमान था सुमन चौधरी के इस जन्मदिन समारोह में घर के तीनों चौधरियों में से कोई भी शामिल नहीं हुआ क्योकि ‘बच्चों का चोंचला’ घोषित किये हुए इस दिन पर सबको कोई न कोई ख़ास काम निकल आया था!
उन्नीस के अंक को दर्शाती एक और नौ अंकों की दो जलती मोमबत्तियों को बुझाने के बाद, बाकायदा ‘हैप्पी... बर्थडे... टू ...यू..” की स्वर लहरियों के साथ सुमन ने बड़ा सा बिना अंडे का चॉकलेट केक काटा तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा! उनकी कुछ लजीली, कुछ गर्वीली नजरें अनूप के चेहरे पर थीं जो ताली बजाकर बड्डे का गीत गुनगुना रहे थे! धीमी मुस्कुराहट से सराबोर सुमन चौधरी का चेहरा पवित्र ख़ुशी की चमक से दमक रहा था! ये मन की सबसे बड़ी ख्वाहिश के पूरा होने का दिन था! उसके अस्तित्व के एक व्यक्ति के तौर पर इस पुरुषसत्तात्मक कुनबे में स्वीकृत हो जाने का दिन!
सुमन चौधरी जानती हैं वे एक परिवार से दूसरे ऐसे ही परिवार में चली जाएँगी जहाँ लडकियों का हैप्पी बड्डे फालतू की बात है! वे नहीं जानती कि कल भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है पर वे आज अपने वर्तमान के उस अनोखे सुख को महसूसने का कोई मौका पीछे नहीं छोड़ना चाहतीं जिसके सपने खुली आँखों से देखने में उन्होंने इतने दिन गुजारे!
चौधराइन इस पूरी कवायद पर नज़र गढ़ाए थीं! कोई भी बात उनके तयशुदा खांचे से बाहर न चली जाए इसे लेकर वे बाहर से सख्ती दिखाकर, विशेष रूप से सावधान रहने की कोशिश कर रही थीं पर इस बार डोर उनके हाथ से बार बार छूट जाती थी! खास बात ये थी कि इस डोर के छूट जाने पर उनके मन का आल्हाद और ख़ुशी वे चुपके से मन में छुपा लेती थीं!
तो जी लब्बोलुआब ये कि सोनोग्राफी की तकनीक के विकसित होने के साथ छोरियों की लगातार घटती आमद वाले ऐसे प्रदेश की एक लड़की आज धूमधाम से अपना हैप्पी बड्डे मना रही थी जहाँ छोरियों को जन्मते ही गले में गूंठा (अंगूठा) दे देने तक के किस्से अतीत में अपनी जगह आज भी बनाए हुए थे! जहाँ बेटी, बेटी नहीं डिक्री कहलाती थी जिसका जन्म उसके जन्मदाता का सिर पूरे कुनबे सहित झुका देता था!
ऐसा परिवेश जहाँ बेटे के जन्म पर कांसे की थाली बजाकर पूरे गाँव में सुखद घोषणा कर देने का रिवाज़ था और नाम धरे पर आधी रात तक चलने वाली जोरदार ‘लाडू’ की दावत का रिवाज़ था, वहीं बेटी का जन्म, पिता और पूरे खानदान पर टूट पड़ी आफत के प्रति अफ़सोस जताने लायक घटना से अधिक नहीं माना जाता था, ऐसे गाँव-घर-कुनबे की छोरी आज अपने पैदा होने के दिन का जश्न मना रही थी!
खास बात तो थी कि पितृसत्ता की धमक से बाहर यह पहली आवाज़ थी जो इस कुनबे में सुनी गई! बाहर वसंत की यह शाम गहरा रही थी और सामने हॉल में जोर से म्यूजिक के स्वर गूंज रहे थे और सुमन चौधरी ‘सुन साहिबा सुन’ गाने पर अपनी सहेलियों के साथ ठुमका लगा रही थीं!
उस शाम सुमन चौधरी का उस घर में धूमधाम से मनाया गया आखिरी जन्मदिन यानि हैप्पी बड्डे वाकई उस पूरे कुनबे के लिए यादगार दिन बन गया! उसके बाद कभी सुमन चौधरी का हैप्पी बड्डे मनाया गया या नहीं ये कथाकार की जानकारी में नहीं है पर उसने इतना जरूर सुना कि सुमन चौधरी अपनी बेटी का हैप्पी बड्डे अपने परिवार और रिश्तेदारों की मौजूदगी में बड़ी धूमधाम से मनाती हैं, ठीक उसी तरह जैसे कभी उनका मनाया गया था!
---अंजू शर्मा