मेरी नजर में प्रकाशक Sandeep Tomar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरी नजर में प्रकाशक

मेरे सरोकार
(एक अन्यर्यात्रा)

एक अंश---
प्रकाशकों से रिश्ते

प्रेमचंद युग में लेखक प्रकाशक के रिश्ते अवश्य ही आज से जुदा रहे होंगे। तब शायद आज जैसी स्थितियां न हों और ये भी संभव है कि आज से जुदा रही हों या फिर बदतर रही हों, लेकिन इतना अवश्य है कि आज फ्रीलांसर अपना और परिवार का गुजारा नहीं कर सकते, अपवाद स्वरूप कोई है तो उसकी चर्चा ही निरर्थक है।

ये सत्य है कि लेखक को लोक से जुड़ना होता है, लोगो के बीच जाना होता है, जिसका अभी के लेखकों में रुझान दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन एक सत्य ये भी है कि डिजिटल प्रकाशन से भी प्रकाशकों ने लेखकों के साथ रॉयल्टी का हिसाब करने और अन्य मामलों में लगातार गड्बड करनी शुरू की है, ऑफसेट प्रिंटिंग के जमाने में लेखक को पता होता था कि पुस्तकें की कितनी प्रतियाँ एक संस्करण में प्रिंट हुई हैं, पुस्तक पर ही प्रतियों की संख्या अंकित हुआ करती थी, अब अधिकांश प्रकाशक ये सब नहीं लिखते, जब जितनी प्रतियों का आर्डर आता है, प्रिंटर को उतना ही छापने को बोलकर काम चल जाता है, एक प्रकाशक का कहना था जब डिजिटल की सुविधा है तब क्यों गोदाम का किराया मुफ्त में दिया जाए? उनके तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन लेखक का ही इसमें सबसे अधिक हर्जाना है।

बड़े प्रकाशक, छोटे प्रकाशक जैसा यदि कुछ है तो बड़े प्रकाशक से पुस्तक आने का फ़ख्र मुझे अब तक हासिल नहीं हुआ है, इसके बावजूद मैं साहित्य में सर्वाइव करता रहा हूँ, इसकी चौतरफ़ा हैरत है, लेकिन न मैं हैरत से कभी परेशान हुआ, न ही लेखकीय पूंजी से प्रकाशन को अपनाया। शुरू-शुरू में लगता था कि कैसे सम्भव है, जबकि खुद को बड़ा लेखक कहने वाले लेखकीय धन से प्रकाशित हो रहे हैं। एक नामचीन लेखिका के एक उपन्यास ने सन २००४ में धूम मचा दी थी, पता चला- उस उपन्यास के प्रकाशक ने ढाई से तीन लाख के बीच लेखकीय धन लगवाया।

उस समय जब नवोदित (युवा नहीं) का यानि चालीस से कम का ठप्पा था, तब जरुर परेशानियाँ थी, लेकिन हिन्दी अकादमी की प्रकाशन सहयोग योजना इस मायने में बढ़िया रही कि लगातार दो बार अनुदान मिल गया।

पिछले चालीस दशकों से कलकत्ता, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद(प्रयागराज नहीं) आदि के पुराने, क्षेत्रीय हिन्दी प्रकाशन-गृहों का बंद होने का सिलसिला लगातार चल रहा है, अब उनमें से नाम-मात्र के प्रकाशक रह गए हैं, जो हैं उन्होंने भी डिजिटल स्टाइल को अपना लिया है। कुछ दिल्ली के बड़े प्रकाशकों के हाथों बिके भी हैं, अनेक लघु-महानगरीय प्रकाशक जिंदा भी हैं, कुछ की अगली पीढ़ी इसे घाटे का व्यापार का रोना रोते हुए भी चला रहे हैं, नए प्रकाशक भी पैदा होते रहते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश लेखकीय पूंजी पर ही जीवित हैं। दिल्ली के दरियागंज इलाके के प्रकाशकों के रुतबे के आगे वे न खड़े हो सकते हैं न ही टिक सकते हैं, हर लेखक भले ही वह राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का हो उसे भी दरियागंज की गलियों की खाक छाननी है। इन प्रकाशकों में भी पहले से लेकर दसवें दर्जे की केटेगिरी बनायी जा सकती है। पहली, दूसरी, तीसरी केटेगिरी के सामने गुणवत्ता से लेकर व्यावसायिक क्षमता में कोई चुनौती देने के लायक हो, ऐसा कभी दिखाई नहीं देता, कोई नया प्रकाशक अगर ऐसा प्रयास करता भी है तो वह इतनी अनियमितताओं का शिकार हो जाता है कि उसे खुद नहीं पता चलता कि वह कहाँ और किस गली में लुप्त हुआ?

एक लेखक का एक लेख है जिसका एक अंश है- “यह अविश्वसनीय किन्तु सत्य है कि भारत के हिंदी प्रकाशकों में से अधिकांश कूड़ा ही छापते हैं – यहाँ तक कि वह कथित प्रतिष्ठित प्रकाशकों के कैटलॉगों में भी देखा जा सकता है। लेखक और साहिबे-किताब बनने का मर्ज़, इन्टरनैट के बावजूद, बढ़ता ही जा रहा है और ऐसे महत्वाकांक्षियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं दिखती और अब हिंदी का बड़े-से-बड़ा प्रकाशक पैसे लेकर कचरा छपने को तैयार है, बशर्ते कि आप उस प्रकाशन को शुरूआत में ही सस्ता या बाज़ारू न समझें। इसमें एक ठगी यह होती है कि इन प्रकाशकों के कुछ तृतीय-चतुर्थ श्रेणियों के उप-प्रकाशन भी होते हैं और आप पैसे इसलिए देते हैं कि आपकी पुस्तक मुख्य-प्रकाशन से आएगी लेकिन वह छापी किसी और कम्पनी के नाम से जाती है. मामूली शहरों और कस्बों में तो यह एक छोटी-मोटी महामारी की तरह है.हिंदी के एक इन्द्रप्रस्थ-वासी हलायुध ने बीसियों कस्बों में यशःप्रार्थियों को किताब छपा देने का लालच दे कर कुछ लाख रुपयों से ठगा है। कई जानकार ऐसा मानते हैं कि यह कुछ अत्यंत निचले प्रकाशकों की मिलीभगत से ही हो पाया, जो अब बाज़ार से लापता हैं।

हिन्दी प्रकाशन जगत में इतने प्रकार की ठगविद्याएं चलती हैं कि उनकी अधुनातन जानकारी रख पाना असम्भव है. मुझ सहित हिंदी के सारे लेखक-लेखिकाओं को, वरिष्ठ हों या युवा, डूब मरना चाहिए कि कविता-संग्रहों के अधिकांश महत्तम संस्करण तीन सौ प्रतियों में छपे बताए जा रहे हैं, कई इससे भी कम, और अब प्रकाशक यह अफ़वाह उड़ा रहे हैं कि कहानी-उपन्यास के प्रिंट-ऑर्डर भी बौने हो चुके हैं। कोई भी जानकार लेखक अपनी किताब देखकर बता सकता है कि वह उसके पहले संस्करण की है या बाद की, लेकिन प्रकाशक इनकार कर देता है कि उसने कोई नया एडिशन छापा है। यदि वह किसी कारणवश पुस्तक में मुद्रित भी कर देता है कि संस्करण दूसरा है तो न तो लेखक को पहले सूचित करता है, न बाद में, न उसे उस नए संस्करण की कॉम्प्लीमेंटरी प्रतियां देता है। रॉयल्टी को लेकर मैंने अच्छे-अच्छे लेखकों को रोते देखा है।“

मैं उक्त लेखक की बात से सत-प्रतिशत सहमति रखता हूँ, अभी के प्रकाशक तो रॉयल्टी देना भीख या फिर खैरात सरीखा समझते हैं, लेखकों में छपास की चाह इस कदर है कि वे कहते हैं, प्रकाशक भले हमें कुछ न दे लेकिन हमसे ले नहीं रहा, अब वह भी तो पैसा लगा ही रहा है, वैगरह-वैगरह, उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो रॉयल्टी जैसे विषय पर बात करना अपमान समझते हैं। प्रकाशक उनके लिए भगवान सरीखा है, कोई युवा लेखक प्रकाशक की बेईमानियों और बद्तमीज़ियों की बात भी करे, तो जवाब मिलेगा ऐसा नहीं है, तुम अभी नए हो, प्रकाशकों की व्यावसायिक दिक्कतों को नहीं समझोगे, उनके बचाव की इन लेखको की क्या वजह है वह तो ये ही जाने। कागज से लेकर, स्याही तक के मूल्य ऐसे बताएँगे मानो ये ही प्रकाशक का सब काम देखते हों।

पुराने साहित्यिक-अकादमिक प्रतिष्ठान-व्यक्तित्वों के सम्बन्ध व्यावसायिक प्रकाशकों से कैसे थे, यह मेरी जानकरी में नहीं है, हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अश्क जैसे लेखकों ने स्वेच्छा या विवशता से स्वयं का प्रकाशन शुरू किया। लेखक का अपना प्रकाशन चलाना व्यवसाय ही है या फिर विवशता इस पर भी विचार किया जा सकता है। लेखकों के प्रकाशकों से कैसे रिश्ते रहे, इसका पता सिर्फ उनके लिखे लेखों, आत्मकथा, या जीवनियों से ही चल सकता है, अगर इस विषय पर कहीं कुछ लिखा गया है, अन्यथा कोई अन्य तरीका समझ नहीं आता।

बड़े ओहदों पर बैठे, या राजनीति में उच्च पदों पर आसीन, नौकरशाह सरीके लेखकों का रिश्ता सामान्य लेखको की तुलना में अलग किस्म का होता है, इस तरह के लेखक प्रकाशकों की किताबों की सरकारी बिक्री में भरपूर मदद करते हैं, बदले में वे इन प्रकाशकों से रॉयल्टी के साथ भ्रमण पैकेज जैसी सुविधाएँ भी पा जाते हैं। कोई व्यक्ति केन्द्रीय विश्वविद्यालय का कुलाधिपति बनता है तो सबसे पहले वह प्रकाशकों को अपने चंगुल में लेता है, फिर उनसे खुद की या अपने कृपापात्रों द्वारा संपादित या अनूदित पाठ्य-पुस्तकों के प्रकाशन पर प्रकाशक को आदेश देता है, प्रकाशक किसे छापेंगे और किसे नहीं, ये सब बातें भी कुलपति ही तय करता है।

पत्रिकाओं में कोई भी ऐसे लेखको और प्रकाशकों की आलोचना, या समीक्षा नहीं लिख सकता, लिखते भी हैं तो वह सब सामग्री प्रकाशित नहीं हो सकती। जो लेखक-आलोचक-अध्यापक अपने प्रभाव की किसी लघु पत्रिका में ऐसा कुछ छपवा ले तो आगे से ये प्रकाशक या इनसे पोषित लेखक-सम्पादक इन्हें कतई नहीं छापेंगे।

आज यदि किसी लेखक को अपनी कोई पुस्तक पैसे देकर भी छपानी पड़े तो उसे उसमें अमूमन पच्चीस से तीस हजार रुपया खर्च करना पड़ेगा। स्वतंत्र हिंदी लेखक की स्थिति तो ये है कि वह किसी महानगर या किसी नगर में रहकर बीस से तीस हज़ार रुपये वार्षिक से ज्यादा नहीं कमा सकता, हाँ कुछ जुगाड़ आदि लगाकर सरकारी अवार्ड झटक ले तो अलग बात है, आवर्ड को कमाई का स्रोत माना भी नहीं जा सकता। पिछले बीस वर्षों में मेरे निजी लेखन में कुल जमा पाँच हज़ार भी मुझे प्राप्त हुए हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं, और अपनी पुस्तकों का कुल औसत पारिश्रमिक अभी तक शून्य पर ही अटका है। संघर्षरत लेखक, युवा आज उपहास, उपेक्षा और अपमान के पात्र बनकर रह गए है।

एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि प्रकाशक रोना रोते हैं कि पुस्तकें नहीं बिकती, फिर नए-नए प्रकाशकों के मार्किट में लांच होने के क्या मायने लिए जाएँ, एक या दो तो ऐसे भी व्यक्ति मैं जानता हूँ जो वकालत और डॉ जैसे कमाऊ व्यवसाय को छोड़ या उसके साथ ही इस व्यवसाय में अवतरित हुए। इन्होने एक सीधा और सरल रास्ता निकाला है जिसे कमाई का अग्रिम भुगतान खरीदने की अनुमति को भेंट चढ़ाना कह सकते हैं, ये लाइब्रेरियनों, क्लर्कों, प्रिंसिपलों, प्रोफेसरों, अफसरों, मिनिस्टरों को घूस दे कर किताबों के आर्डर प्राप्त करते हैं। जिसे दूसरे शब्दों में बंदरबाँट कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये प्रकाशक एक से अधिक यूनिट्स खोकर बैठे हैं, एक साथ कई यूनिट यानि जाली प्रकाशनों के नाम से किताबें सबमिट की जाती है। किताबें अनुमोदित करने के भी बीस, तीस या चालिस हज़ार रूपए तक अग्रिम मांगें जाते हैं, अधिकांश बड़े प्रकाशको का प्रकाशन थोक खरीद के बल पर ही व्यवसाय कर रहा है। एक नया चलन ये भी है कि लेखक अपने इष्ट मित्रों को बुलाकर पैसा खर्च करके पुस्तक प्रकाशन के बाद मुँह दिखाई रस्म भी करें, जहाँ प्रकाशक किताबों की बिक्री कर सके। हालाकि लेखक मित्र किताबें खरीदने की बजाय उपहार में लेना अधिक पसन्द करते हैं। कुछ लेखक अपनी बोगस पुस्तकों के लोकार्पण में स्वर्गारोहण का सुख तलाशते हैं और इष्टमित्र चाय-मिष्ठान, और मध्याह्न भोजन में चरम मित्रता-सुख का अनुभव करते है।

जो साहित्य की अकादमियां खोली गयी उनका एक उद्देश्य यह भी था कि जिन पुस्तकों को व्यावसायिक प्रकाशन नहीं छापते उन्हें बहुत कम दामों पर छापा जायेगा या फिर अनुदान की व्यवस्था की जाएगी ताकि लेखक का काम प्रकाशित हो सके, लेकिन ऐसा बहुत ईमानदारी से हुआ हो ऐसा भी दिखाई नहीं देता। अकादमियों का पुस्तकों और लेखकों को पुरस्कृत करने का तरीका ये है कि लेखक दिग्गज समीक्षकों या वरिष्ठ साहित्यकारों से संस्तुति पत्र लिखवाने के लिए जी-हुजूरी करे, वहां भी प्रकाशक अपनी गोटियाँ बैठाते हैं ताकि पुरस्कृत पुस्तक की बिक्री बढ़े और मुनाफा अधिक हो। कुल मिलाकर प्रकाशको और लेखकों के रिश्ते बहुत बेहतर या सामान्य भी हों, ऐसा लगता नहीं।

जहाँ तक मेरा प्रकाशकों से ताल्लुक है, वर्तमान परिस्थिति में मैंने भी खुद को ढालने का प्रयास अवश्य किया, लेकिन किसी प्रकाशक को धन दे सकूं-ऐसी स्थिति में खुद को नहीं पाया। एक प्रकाशक मेरे पास आये, उनकी कहानी बड़ी दिलचस्प है, वे किसी प्रकाशन विभाग में नौकरी करते थे, बस दिमाग में आया कि खुद का प्रकाशन खोला जाए तो वारे-न्यारे हो जायेंगे। उन्होंने अपना प्रकाशन खोला और साथ ही दो-तीन जनरल भी शुरू कर दिए, यूजीसी के नए नियमों के चलते हर शोधार्थी को अपने पर्चे (शोध पत्र) प्रकाशित करवाना अनिवार्य किया गया तो धन लेकर इन्हें छापने का व्यवसाय भी फला-फूला, लेकिन इस पर बाद में अंकुश भी लगे। इनका भी मूल व्यवसाय लेखकीय धन से पुस्तक छापना था, मैंने इन्हें समझाया कि मुझसे आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनका कहना था-“आपके नाम से मुझे पहचान मिल जाएगी और नयें लेखकों का विश्वास भी बढेगा, आपसे कोई पूछे तो आप मेरा नाम आगे रखिये, बदले में आपकी पुस्तकें मैं मुफ्त में छापूंगा।“ बाद में ये महोदय प्रकाशन का पार्टनर इस रूप में बनाने का ऑफर लेकर आये कि आप प्रकाशन यूनिट देखना और मैं मार्किट। हालाकि मैं लेखन के इतर कुछ और कर पाऊं, ऐसा विश्वास मेरा भी मुझ पर नहीं है।

एक प्रकाशक हुए, जो लघुकथा की किताबों के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे, उनका एक बार फोन आया, बोले-“आपका लघुकथा में नाम है, मैं सोच रहा था मेरे पास अब तक भी आपका कोई आग्रह नहीं आया।“

मैंने कहा-“ सर, आग्रह लेखक करेगा या प्रकाशक?”

“ठीक है, मैं ही आग्रह कर लेता हूँ, कब भिजवा रहे हैं पाण्डुलिपि?”

“पाण्डुलिपि तो अभी मेल कर देता हूँ, लेकिन मेरी घोषणा, मेरे अहम् के बारे में तो आप भी..... ।“

मेरा वाक्य भी पूरा नहीं हुआ और वे बीच में ही बोले-“जानता हूँ तोमर साहब, आप किसी प्रकाशक को किताब छापने के नाम पर पैसा नहीं देते।“

“वाह सर, काफी होमवोर्क किया है आपने मेरे बारे में।“

“लम्बे समय से किताबें छाप रहा हूँ, ये सब करना पड़ता है।“

बातचीत हुई और मैंने पाण्डुलिपि मेल कर दी। इस बीच एक कार्यक्रम में बलराम अग्रवाल से मुलाकात हुई, मैंने संक्षेप में उक्त प्रकाशक की बातचीत का जिक्र किया, उन्होंने कहा-“जानते हैं उनके बारें में? उनकी शर्तों के बारे में?”

“जी, जानता हूँ या तो पच्चीस हजार रुपया दो या उतने मूल्य की किताब खरीदो या फिर न्यूनतम सौ किताबें खरीदो।“

“आप फिर भी ये डील करने को तैयार हैं?”

“डील और मैं? सर, मैं किसी प्रकाशक की किसी भी डील पर काम नहीं करता।“

कुछ दिन बाद पुनः उक्त प्रकाशक से बात हुई, बोले-“सर, किसी दिन मेरे ऑफिस आईये, कुछ बात करेंगे, आपके साथ चाय भी पी लेंगे।“

“देखिये श्रीमान, बात तो फोन पर भी हो जाएगी उसके लिए इतना स्कूटर काहें चलवाते हैं, रही बात चाय की वो तो कभी भी पी सकते हैं।“

“ऐसा है, आपकी पाण्डुलिपि देखी, आपकी रचनाएँ तो बेजोड़ होती हैं, लेकिन मेरी कुछ शर्ते हैं... ।“

“सर, माफ़ कीजियेगा, मैं किसी प्रकाशक की शर्तों पर काम नहीं करता, बिना शर्त आप किताब छापना चाहें तो ठीक है, वर्ना इस बात को यहीं समाप्त समझिये।“

“ शर्त सुनना भी नहीं चाहेंगे?”

“जी, एकदम नहीं।“

उसके बाद उन प्रकाशक महोदय के साथ कोई बातचीत भविष्य में नहीं हुई। कुछ मित्रों को आश्चर्य था कि लघुकथा विधा के सर्वोच्च प्रकाशक को किताब छापने से इनकार कर दिया। मेरा कहना था, बस मैं ऐसा ही हूँ।

पहले प्रकाशक एक हजार प्रतियों पर आये, फिर पाँच सौ प्रतियों पर आये अब तीन सौ छोड़, सौ की संख्या तक पर आ गए हैं। एक मित्र को अपनी नौकरी स्थायी होने का अनुमान हुआ तो उन्होंने एक प्रकाशक को पकड़ा, किताब के प्रकाशन के लिए, प्रकाशक ने उसे अपने अलग-अलग प्लान दिखाए एकदम मोबाइल के टॉकटाइम की तर्ज पर, एक प्लान पर उनकी सहमति हुई, मित्र ने उन प्रकाशक को बारह हजार दिए और प्रकाशक ने उन्हें 35 प्रतियाँ देने और बाकि खुद बेचने को कहा, बाद में पता चला- डिजिटल प्रिंटिंग से कुल ४० प्रतियाँ ही छापी गयी। ये एक मजेदार खेल की तरह है।

एक व्यक्ति हैं नाम है ओंकार, यानि नाम से ईश्वर, और काम इनके बड़े शानदार। मेरी पुस्तक-“शिक्षक और समाज” की 300 प्रतियाँ (इस ज़माने में) एक ही मेले में बेचकर रोमांचित थे, बोले- अगला संस्करण आएगा- दस प्रतिशत रॉयल्टी दूंगा। एक कविताओ की तैयार पाण्डुलिपि मुझसे ले गए, फिर शुरू हुआ उनका रोना-धोना, धन का अभाव चल रहा है, मेले के बहुत सारे चेक फंसे हुए हैं, मैं कर्ज में हूँ, आदि-आदि, किताब अधर में लटकी रही, मैंने भी उस विषय पर बातचीत करनी बंद कर दी, हर दीपावली पर मिठाई लेकर आते, और कहते-सर, अभी पोजीशन ठीक होते ही उस किताब को भी छापता हूँ। उसकी कुछ किताबों की स्कूल लाइब्रेरी में खरीद में भी मदद की। आत्मकथा छापने में यही प्रकाशक आर्थिक तंगी बताकर मुझसे बारह हजार रूपये उधार ले गया। विमोचन तय था और किताबें हाथ में नहीं थी, समय नजदीक आने पर दस डमी देकर गया, इस वायदे के साथ कि विमोचन के बाद इत्मिनान से प्रकाशित करूँगा। उसके बाद उसके बहाने शुरू- हुए-स्कूटर ख़राब हो गया, माता जी का हाथ टूट गया, यहाँ पैसे खर्च हुए, वहाँ हो गए, डमी में भी खर्च किये। अंततः बोला- आप इतना ही और उधार दें तो मैं किताब छापकर बेचकर आपके सारे पैसे वापिस कर दूँगा।“

मैं प्रकाशकों के इस रूप को देखकर भी दंग था। डिजिटल युग में प्रकाशकों का एक और खुबसूरत पैतरा आप देखेंगे-जब भी आप उनके दफ्तर जाइये, आपको वही गिनी-चुनी दस-बारह प्रतियाँ आपकी किताब की मिलेंगी, आप पूछेंगे तो जवाब मिलेगा-“ किताबें बिकती ही नहीं।“

आपका मन कहेगा कि जवाब दूँ-“किताबें नहीं बिकती तो मिठाई की दूकान खोलिए, प्रकाशन विभाग काहें खोलकर बैठे हैं?”

एक प्रकाशक को एक पाण्डुलिपि दी-एतिहासिक उपन्यास था- उनकी प्रतिक्रिया थाई-“उपन्यास अच्छा बना है लेकिन हमारी संपादन टीम का निर्णय है-इसे हम सहयोग योजना के तहत छापेंगे, मेरा जवाब क्या रहा होगा- ये लिखने की आवश्यकता नहीं है, हाँ उनके काम करने के तरीके को एक मित्र लेखिका ने बताया तो उस पर एक लघुकथा लिखी, जो उनके कार्य के तरीके को समझाने के लिए पर्याप्त है-

“लाल और नीले लोगो"

मुकेश ने कुल जमा ८-१० कहानियां लिख डाली तो उसने पुस्तक प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशकों को खोजना शुरू किया। दरिया गंज की तमाम गलियां छान मारने के बाद वह एक प्रकाशक के ऑफिस पहुंचा।

प्रकाशक ने परिचय इत्यादि की औपचारिकता पूरी की और बात मुद्दे पर आ गयी, मुकेश ने कहा-“जी जनाब, मुझे पुस्तक प्रकाशित करवानी है, पाण्डुलिपि मैं साथ लाया हूँ।“

“अजी पाण्डुलिपि छोडिये पहले आप हमारा काम देखिये।“-कहकर प्रकाशक महोदय ने अपनी कुर्सी के ठीक ऊपर की रेक पर रखी कुछ पुस्तकें निकाल कर उसके सामने रख दी।

उसने देखा कि कुछ किताबों पर लाल लोगो बना था तो कुछ पर नीला। उसने आखिर प्रकाशक महोदय से पूछ ही लिया-"सर, ये दो रंगों के लोगो वाली किताबों का क्या चक्कर है?"

प्रकाशक ने बिना लाग-लपेट के जवाब दिया-" महाशय, ये जो लाल वाला देख रहे हो न, ये वो लेखक हैं जो स्थापित हैं, जिनकी पाण्डुलिपि वजनदार होती हैं, और दूसरा जो नीला है वो तुम्हारे जैसे छपास की चाह रखने वालो के लिए हैं।"

"यानि जो नवोदित हैं, उनके लिए?"

"अजी छोडिये, हम किसी को नवोदित रहने ही नहीं देते, नीले लोगो की किताबों में पाण्डुलिपि का वजन न भी हो, कुबेर की पोटली सब प्रकाशित कर वजन खुद-ब-खुद बना देती है।"
लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसे ही सब प्रकाशक हैं, यहीं, किताबगंज प्रकाशन के प्रमोद सागर सरीखे भी हैं जिनका मकसद किताबों की क्वालिटी और अच्छे लेखकों की किताबों को तरजीह देना भी है। जब मेरा कहानी संग्रह “यंगर्स लव” आया तो आमने-समाने परिचय भी नहीं था, पुस्तक मेले में उनके स्टाल पर विमोचन तय हुआ, मेले में जाते हुए गेट पर मिल गए, बोले-“पहचाना?”

मैंने वही नपातुला जवाब दिया-“ शक्लों के मामले में मैं बड़ा बेवकूफ हूँ।“

प्रमोदजी बोले-“पहले कभी मिले ही नहीं तो पहचानोगे कैसे? लेकिन सन्दीप जी, आप हमारे रेनोल्ड राइटर हैं, आपको हम न पहचाने ये नहीं हो सकता।“

किताबगंज, की योजना पर प्रमोदजी से लम्बी बातचीत हुई, उनका मिशन अच्छे लेखको को छापना है, अच्छे साहित्य को पाठक तक पहुँचाना है। प्रमोदजी की लम्बी बीमारी के चलते उनकी भावी योजनायें लटकी अवश्य हैं लेकिन उनकी पॉजिटिव एनर्जी उन्हें जल्दी पहले जैसी भूमिका के लिए तैयार करेगी, ऐसा विश्वास मैं कर सकता हूँ।

हमारे एक साथी मित्र हैं जिन्हें हम बुकमैन कहते हैं, उनका प्रकाशन का तरीका भी उन्हें बाकि प्रकाशकों से अलग एक मुकाम पर खड़ा करता है, मेरा पहला उपन्यास “थ्री गर्लफ्रेंड्स” छाप कर उन्होंने जिस तरीके से उपन्यास का प्रोमोशन किया, वह एक मिशाल है।

लेखन की दुनिया के अनोखे खेल और निजी जीवन की जद्दोजहद देख यही कह सकता हूँ- “हमारे संघर्ष के साथ किसी भी चीज की तुलना नहीं की जा सकती।“