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यह नयी दुल्हन भी सामान्य कद काठी की साधारण सी लङकी थी पर संजीदा और समझदार । घर आते आते मुकुंद ने रास्ते में ही उसे परिवार में दुरगी के रुतबे औरअपने रिश्ते की जानकारी दे दी थी तो उसने कभी दुरगी के किसी काम या फैसले का अनादर नहीं किया ।
इन सब बातों से बेपरवाह दुरगी पहले की तरह घर के काम काज में जुटी रहती । दोपहर में थोङा सा फुरसत होती तो चरखा लेकर बैठ जाती । स्वदेशी अपनाओ के दिन थे । देस में जगह जगह विदेशी कपङों की होली जलाई जा रही थी । घर घर चरखे घूम रहे थे । क्या औरतें क्या मरद, सब दिन में एक दो घंटे चरखा जरुर कातते । हथकरघे चलने शुरु हो रहे थे । औरतें घर में दरियाँ, खेस, दोहर बुनती ।
अपने कौल के मुताबिक दुरगी ने देवरानी को चारपाई से पैर न उतारने दिया । रोटी बनाना, कपङे धोना –सुखाना , बच्चे संभालना, पशुओं का चारा सानी सब का काम उसके अपने लेखे रहता ।
इस बीच दूसरा विश्व युद्ध छिङ गया । अंग्रेज अफसर घर घर जाकर भरतियाँ करने लगे । कुछ मरजी से भरती हुए तो कुछ को जबरदस्ती भरती कर लिया गया और सबको मिल्ट्री की गाङी में बैठाकर लाम पर भेज दिया गया । शायद जरमनी कि जापान । कुछ लङके नेताजी की फौज में भरती हो गये और भगत सिंह, सुखदेव बनकर देश आजाद कराने का सपना देख रहे थे । अजीब सा माहौल था । अंग्रेजों का दमन बढता जा रहा था और हिंदुस्तानियों का देश आजाद कराने का जुनून ।
फिर अचानक से एक दिन दो खबरें आई, पहली खबर यह कि हिटलर ने खुद को गोली मार ली और दूसरी खबर यह कि सुभाष लापता हो गये । लोग अभी भगत सिंह की फांसी को भूल नहीं पाए थे कि सुभाष का य़ूं गायब हो जाना कहर हो गया । जिन औरतों ने बाजार की शकल तो क्या सूरज और चाँद भी नहीं देखे थे, उन्होंने दो दिन चूल्हा तक नहीं तपाया ।
आजादी की लङाई आरपार पर पहुँच गयी । हर रोज जगह जगह बैठकें हो रही थी जिसमें हर छोटा बङा हिंदुस्तानी जाति, धर्म, मजहब, ऊँच, नीच भूलकर बढ चढ कर हिस्सा लेता । देस आजाद करवा कर रहेंगे ।
फिर अचानक उल्टी हवा चलने लगी । चौराहों पर खङे जवान मुसलमान लङके अब इकट्ठे हो बातें करते –
औये अब अंग्रेज जानेवाले हैं । यहाँ मुसलिस्तान बनेगा । ये लाला भगवानदास वाली हवेली तो हम लेंगे ।
ले लेना । ले लेना । मुझे तो उनकी बेटी चाहिए । कलमा पढा के अपनी बेगम बना लूंगा ।
और सब खी खी कर हँस पङते ।
कोई दूसरा कहता – लङकी तू ले लीजो, मैं तो खत्रियों का घर ले लूँगा ।
और ये बातें दिन में अलग अलग टोलियों में अलग अलग तरह से दोहराई जाती । टोली और होती । लङके और होते । हवेलियाँ, घर और घरकी लङकियाँ और होती पर बातें कुछ ऐसी ही होती । ये बातें शहर के लोगों के कानों में पङती तो वे एक खोखली सी हँसी हँस छोङते – शोहदे हैं शोहदे । भला ऐसा कैसे हो सकता है । ये हमारा पुश्तैनी वतन है । सदियों से हमारे पुरखे यहाँ रहते आए हैं । कोई किसी को घर से बाहर कैसे निकाल सकता है ।
दूसरा कहता, हिंदु और मुसलमान तो अब घी खिचङी हुए पङे हैं, ये क्या हमारे दुश्मन हैं ।
बुजुर्ग मुसलमान तसल्ली देते - न जी डरो न । पहले हम मरेंगे तब तुम्हें कुछ होने देंगे ।
लोग मजबूत दिखने की कोशिश करते पर अंदर से सब बुरी तरह से हिल गये थे । आनन फानन में बेटियों के रिश्ते ढूँढे जाने लगे । ये अमानत तो सुख शांति से अपने घर जाए, बाकी जीना मरना जो होगा, भुगत लेंगे । जिनका रिश्ता कहीं तय नहीं हो सका, उनमें से कई लङकियों को खुद माँ बाप ने जहर दे दिया । मुसलमान के हाथ पङने से तो बच गयी ।
इसी अफरातफरी के माहौल में मुन्नी की शादी एक रईस खानदान के विधुर से कर दी गयी । वर मुन्नी से अधिक नहीं, मात्र ग्यारह - बारह साल बङे थे । उनकी पूर्व पत्नी की कुछ दिन पहले ही निमोनिया से मौत हो गयी थी । वर महाशय की अभी उम्र ही क्या थी मात्र पच्चीस साल और वधु ने इस बैसाख में बारह साल पूरे किए थे, तेरहवें में पैर रखा था । रिश्तेदारों ने प्रसन्नता ही प्रकट की थी । वर का खानदान देखा जाता है । घरबार देखा जाता है । आमदनी देखी जाती है । रंगरूप और उम्र नहीं । वर के पिता की तो तीन जीवित पत्नियां थी और दो रखैल । ये लङका तो निरा निष्पाप है । कोई ऐब नहीं । सुशील है । कमाऊ है और क्या चाहिए । दो चाँदी के रुपए और एक दुधारु गाय के दहेज के साथ मुन्नी अपनी ससुराल अमृतसर आ गयी तो दुरगी ने सुख की साँस ही ली थी । हर तरफ आग फैली है । अंग्रेज सबको फांसी दे रहे है । कौन जाने, कब क्या हो जाए । लङकी सुख शांति से अपने घर बार की हो गयी ।