सांझ सहचरी Shilpa Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सांझ सहचरी

‘‘जीजी उठो, चाय ले आई.’’

‘‘अरे... मुझे जगा दिया होता. मैं बना देती.’’

‘‘इस बुढ़ापे में हम दोनों को ही अच्छी नींद कहां आती है. तुम्हारी झपकी-सी लग गई थी, सो नहीं उठाया. मैं ही बना लाई, आज मेरे हाथ की पनीली चाय ही पी लो.’’

‘‘अरे ऐसे क्यों बोल रही है? पिछले चार महीनों में तेरे हाथ की बनी चाय पीकर, सच पूछो तो मुझे यही चाय अच्छी लगने लगी है. उबाल-उबाल के काढ़ा की हुई चाय तो मैं अम्मा की वजह से बनाती थी. फिर इनकी वजह से. क्योंकि इन दोनों को वैसी ही चाय अच्छी लगती थी, जिसपर मलाई चढ़ आए.’’

‘‘सच्ची जीजी?’’

‘‘हां, सच्ची. कितने बज गए सोमा?’’

‘‘पांच.’’

‘‘अभी जब तक तुम हो फिर भी समय कट रहा है. तुम चली जाओगी तो पता नहीं कैसे...?’’

‘‘लो फिर रोने लगीं? क्या मेरा और तुम्हारा दुख एक-सा नहीं है? कहो, भला? क्या मैं ऐसे बात-बात पर रोती हूं जीजी? दिल कड़ा करो. रोने से कौन-सी बात बनेगी?’’ यह कहते हुए चाय परे रखकर सोमा अपनी जीजी को ढांढस बंधाने लगी.

‘‘ना, रे. तू चाय पी ले. नहीं तो ठंडी हो जाएगी. बार-बार समझाती हूं खुद को, पर भरोसा नहीं होता. असमंजस होता है? इतनी जल्दी ये ऐसे चले जाएंगे सोचा ही नहीं था.’’

‘‘हां जीजी. अपना परिवार कुल जमा तीन सालों के भीतर कैसा बिखरा...कौन सोच सकता था?’’ थोड़ा सन्नाट पसरा रहा और थोड़ी चाय की चुस्कियों की आवाज़ आती रही.

‘‘जानती हो जीजी, इनके जाने के बाद मैंने खुद को कैसे संभालने की कोशिश की. इनकी अच्छी यादों को याद करती रहती हूं, ताकि खुश रह सकूं. इस उम्र में एक लंबे साथ के बाद जब जीवनसाथी साथ छोड़ जाता है तो बच्चों और उनके बच्चों में मन रमाने के अलावा चारा ही क्या होता है हमारे पास?’’

‘‘हां, सोमा तुझसे ही सीख रही हूं धीरे-धीरे जीना. मुझसे चार बरस छोटी होकर भी तू देवर जी की मौत के बाद जिस तरह संभाल रही है खुद को, वही करना होगा मुझे भी. जब तक जीवन है, तब तक तो जीना है. कोई न कोई लक्ष्य तो बनाना होगा. पर हो नहीं पा रहा, नहीं हो पा रहा सोमा...’’

‘‘देखो जीजी, सब कहते हैं कि समय सब सिखा देता है. पर ये बात पूरी तरह सच नहीं है, तुम्हें भी तो कोशिश करनी होगी ना. अपनी दोनों बेटियों और उनके बच्चों में मन रमाना होगा. जब जिसे ज़रूरत हो, तब वहां चली जाया करना...’’

‘‘पर बाकी समय तो यहीं बिताऊंगी ना सोमा? कैसे होगा? इस घर के हर कोने में इनकी और अक्वमा की याद बसी है.’’

‘‘कभी-कभी मैं आ जाया करूंगी जीजी और कभी-कभी तुम भी आ जाया करना मेरे पास. देखो, आपको अच्छे से जीने के लिए कोशिश तो करनी पड़ेगी. जीवन अनमोल है, जब तक है जीना तो होगा. फिर रोते-रोते कब तक जिओगी? सामान्य होने की कोशिश भी करनी ही होगी. और जीवन-मृत्यु क्या हमारे हाथ है?’’

‘‘पर क्या कोई कायदा नहीं है ईश्वर के यहां? पूरा जीवन यूं ही बीत जाता है-ये तमाम उम्र ऑफिस में उलझे रहे. मैंने अम्मा की देखरेख की, बच्चों को बड़ा किया, करियर बनाया, शादियां की उनकी. इनका रिटायमेंट हुआ तो सोचा था साथ में रहेंगे अब. उसके बाद अम्मा की तबियत बिगड़ गई. उसमें लगे रहे हम दोनों... तीन बरस पहले अम्मा गईं, तब सोचा था एक-दूसरे को समय देंगे... पर...’’

‘‘जीवन यूं ही गुज़र जाता है जीजी. पति ऑफिस में व्यस्त रहते हैं और हम घर-बच्चों की देखरेख में. सोचते हैं चैन से जिएंगे अपनी जिम्मेदारियां निभा के, पर ऐसा हो पाता है क्या? इनके रिटायरमेंट को तो दो ही बरस हुए थे कि ये भी...यूं अचानक चल बसे कि कुछ समझ ही नहीं सकी... और जहां तक अम्मा का तुम्हारे साथ रहने का सवाल है, वो तुम्हारे साथ रहीं, क्योंकि उनके बेटों में जेठ जी ही बड़े थे. ये और मैं तो बुला-बुलाकर हार गए, पर आईं कभी तो दो-चार माह से ज़्यादा रही ही नहीं. कोई मैं क्या उन्हें अच्छे से नहीं रखती थी? पर बस, रहना ही नहीं था उन्हें हमारे साथ...’’

‘‘नहीं रे सोमा... मैं ये तुझे सुनाने के लिए नहीं कह रही. मुझसे पहले तो अपने पति को तूने खोया. छोटे होने के बावजूद देवर जी... पहले चले गए. मैं तो तुझसे जीना सीख रही हूं, तुझे देख-देखकर हौसला पा रही हूं.’’

‘‘मैं जानती हूं जीजी. मैं भी शिकायत के लहजे में नहीं कह रही, पर यकीन जानो, अम्मा के हमारे पास न रहने की ग्लानि मुझे हमेशा रही. हमेशा मैं यही सोचती रही कि न जाने कौन-सी बात तुम्हारी इतनी पसंद है उन्हें कि वो मुझे तुमसे कमतर आंकती हैं और मेरे पास रहना नहीं चाहतीं...’’

‘‘ऐसा न बोल सोमा. अम्मा रहीं भले ही मेरे साथ, पर वे हमेशा तेरी तारीफ ही करती थीं मेरे आगे. मैं तो पूरे समय यही सोचा करती थी कि अम्मा सोमा की इतनी तारीफ करती हैं, पर मेरी कभी नहीं.’’

‘‘लो जीजी, तब तुम मुझसे सुनो. अपनी अम्मा बड़ी तजुर्बेकार थीं. तुम्हारे सामने मेरी और मेरे सामने तुम्हारी तारीफ करती थीं. मैं हमेशा यही सोचती रही कि न जाने क्यों हमेशा तुम्हारी ही तारीफ करती हैं,’’ भली-सी मुस्कान थी सोमा के चेहरे पर.

‘‘यदि वो थोड़ी-थोडी तारीफ हमारे मुंह पर भी कर देतीं हमारी तो... हमारे बीच रिश्तों में बेगानेपन की ये जो झीनी-सी दीवार थी पहले ही ढह जाती, है ना?’’

‘‘तुम भी उसे महसूस करती थीं ना जीजी? उस दीवार को?’’

‘‘हां, सोमा...और अब देखो...ये दीवार गिरी भी तो कब?’’

‘‘दुख और कष्ट कभी-कभी हमें बहुत करीब ले आते हैं जीजी और सुख न जाने क्यों अक्सर दूर ही ले जाते हैं? जब सब ठीक था तो हमारे बीच अबोली-सी दीवार थी. हमारी भौतिक दूरियों के बीच हम एक-दूसरे से उतना घुलमिल नहीं पाए जीजी. पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि भौतिक दूरियां धीरे-धीरे मन की दूरियों में भी बदलने लगती हैं?’’

‘‘लगता ही नहीं, सच भी है ये. भौतिक दूरियों का हवाला देते-देते कब हम भावनात्मक दूरियां बना लेते हैं, पता ही नहीं चलता. अब जबकि पिछले चार महीने से साये की तरह तुम मेरे साथ हो सोमा तो सोचती हूं, न जाने कैसे इतना भी संभल पाती मैं तुम्हारे बिना?’’

‘‘जब ये नहीं रहे थे... क्या तुमने सब संभाल नहीं लिया था जीजी? क्या जेठ जी के साथ तीन महीने मेरे साथ ही नहीं रही थीं तुम? कविता और केशव को तुमने और भाई साहब ने क्या पिछले दो सालों में आभास भी होने दिया कि उनके पिता नहीं रहे? मुझे संभाला, कविता, केशव और उनके बच्चों को संभाला. उन बातों को क्या भूल सकती हूं मैं? तुम ऐसा न कहो, क्या मैं अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाऊंगी जीजी?’’

‘‘सोमा, इंसान भी अजीब होता है. मोह छोड़े नहीं जाते उससे. एक छूटता है तो दूसरा पकड़ लेता है मनुष्य... ये चले गए...इनकी यादें हैं. इन यादों को कमज़ोरी के बजाय मेरा सहारा बनाने की बातें जब-तब तुम कहती हो. पिछले चार महीनों से केवल हम दोनों साथ हैं. दो बूढ़ियां. तो तुमसे मोह हो गया है... तुम कमज़ोरी हो गई हो. अब जो ये पंद्रह दिनों को जाने का कह रही हो... कैसे रह पाऊंगी मैं सांय-सांय करते इस घर में?’’

‘‘इस मामले में मोह ही जीवन को आसान बना देता है ना जीजी! कोई मोह जोड़ के न रखेगें तो जिएंगे कैसे? और जब तक जीवन है जीना तो है. पर तुम कहो तो न जाऊं जीजी?’’

‘‘नहीं रे... जा. कविता की बेटी का जन्मदिन है. उस छोटी-सी गुड़िया से उसके जन्मदिन की खुशी में नानी का प्यार छीनकर कहीं अच्छा लगेगा मुझे? फिर खुद का आकलन भी कर लूंगी कि कैसे जी सकूंगी इनके बिना...’’

‘‘तुम भले ही अकेले रहने का कितना भी आकलन कर लो, पर बीच-बीच में मैं आती रहूंगी, बच्चे आते रहेंगे और मैं तुम्हें बुलाती भी रहूंगी अपने पास. तुम्हें अकेले नहीं रहना होगा लंबे समय तक.’’

‘‘हां...वो भी है...पर बहुत मुश्किल लग रहा है यह सब. कैसे करूंगी...?’’

‘‘ जीजी, तुम इन बातों से बाहर निकलना ही नहीं चाहतीं, पर निकलना होगा तुम्हें. अच्छा विषय बदलो, चलो बताओ रात के खाने में क्या बना लें?’’



‘‘बड़ी की सब्जी और रोटी बना लें? तुझे पसंद है ना बड़ी?’’

‘‘अरे, पर तुम्हें तो पसंद नहीं है ना? तुम कहां खाती हो? कुछ और बना लेते हैं...’’

‘‘नहीं-नहीं, इन्हें पसंद नहीं थी. इनके साथ-साथ मैंने भी खाना बंद कर दिया था. पर मुझे तो अच्छी लगती है. ’’

‘‘सच्ची जीजी?’’

‘‘हां, रे.’’

‘‘ये तो बिल्कुल वैसा ही है जीजी कि इन्हें अचार पसंद नहीं था सो मैं भी नहीं खाती थी. और सबसे ये कहती थी कि इन्हें पसंद नहीं है, जब खाते ही नहीं हम दोनों तो अचार डालने की ज़रूरत भी नहीं थी. पर सच तो ये है जीजी कि मैं अचार डालने से बचती थी...कितना पसारा फैलता है? फिर अच्छा बने तो ठीक...खराब हो जाए तो हो गई मेहनत बेकार. सबको बांटो और जल्दी-जल्दी खत्म करने की जुगत भिड़ाओ.’’

‘‘अच्छा, तो वजह ये थी...सोमा! और अम्मा मुझसे कविता और केशव के लिए हर साल अचार डलवाती थीं. तेरे पास जाते वक्त हमेशा यही कहती थीं,‘थोड़ा खट्टा अचार रख दे, थोड़ा मीठा अचार रख दे, छुंदा भी रख दे. बा तो बच्चों के लेन भी अचार न डारे है.’’’

खिलखिलाने लगी सोमा,‘‘हां जीजी. और राज़ की बात ये भी है कि अकेले में मैं भी वो अचार चटकारे लेकर खाती थी. तुम अचार डालती वाकई बहुत बढ़िया हो जीजी. तुम्हारे हाथ के डाले अचार का कोई जवाब नहीं!’’

‘‘क्यों रे, कभी सबके सामने तो नहीं कहा तूने ये...?’’

‘‘वो झीने-से पर्दे वाली बात...रोक देती थी जीजी. पर अब तो कह रही हूं ना... पिछला भूल जाओ.’’

‘‘चल तू बता रही है तो मुझसे भी सुन...अम्मा हमेशा गर्मियों के बाद तेरे यहां जाती थीं, यहां से तेरे बच्चों के लिए अचार लेके, नहीं..?’’

‘‘हां, सो तो है जीजी.’’

‘‘और गुलाबी सर्दियां होते ही लौट आती थीं...तू हमेशा उनके साथ खूब-सा गाजर हलवा भेजती थी...’’

‘‘हां जीजी, हमेशा...हर बार... अम्मा खासतौर पर बनवाती थीं मुझसे. कहती थीं कि जेठ जी पसंद करते हैं मेरे हाथ का बना हलवा.’’

‘‘सच तो ये है कि तेरे जेठ जी से ज़्यादा मुझे पसंद आता था तेरे हाथ का बना हलवा...मैं और बच्चे ही ज़्यादा खाते थे.’’

‘‘सच्ची जीजी?’’

‘‘हां, रे. बिल्कुल सच!’’

‘‘ये बातें, जो हमें पहले एक-दूसरे से मालूम हो जातीं तो हमारे रिश्तों की झीनी दीवार पहले ही ढह जाती न जीजी?’’

‘‘कौन जाने सोमा? यदि नियति सब तय करती है तो इन बातों को अभी जान पाना ही नियत होगा शायद. पर इतने दिनों तक हम दोनों के साथ रहने के बाद ये ज़रूर सोचने लगी हूं कि रिश्ते चाहे जो हों एक परिवार की महिलाओं के बीच-सास-बहू, देवरानी-जेठानी, ननद-भाभी...हम महिलाओं को एक-दूसरे का संबल बनना चाहिए हमेशा...’’

‘‘मेरे जी की ही बात कह रही हो जीजी...सच में. होनहार किसने देखा है? आज देखो, बुरे वक्त में एक-दूसरे को सहारा देनेवाले हम दोनों ही हैं ना? हमारे बच्चे तो अपने-अपने जीवन की ज़िम्मेदारियों में बंधे हुए हैं, जैसे एक वक्त हम-तुम भी बंधे हुए थे. पर जीवन की इस सांझ में हम दोनों ही एक-दूसरे के एहसास समझ रहे हैं ना.’’

‘‘हां, सोमा. सोचती हूं, जब हमारे परिवार में सब थे तो कितने आत्मकेंद्रित थे हम. एक-दूसरे के बारे में सोचते ही नहीं या सोचते भी थे तो बड़ी कंजूसी से... नहीं? अब जब अपनों को खोते जा रहे हैं तो अपनों की अहमियत सीखते जा रहे हैं. शायद जीवन इसी तरह अपने पाठ सिखाता है हमें.’’

‘‘हां, जीजी. तुम बिल्कुल सच कह रही हो. शायद कुछ पाठ हम बिना कुछ खोए सीखना ही नहीं चाहते जैसे...’’

‘‘अच्छा छोड़ इन बातों को. तू अनुमान लगा सकती है कि हमारे बीच वो झीनी-सी दीवार गिरने के बाद इस रिश्ते को यदि नया नाम देना चाहूं तो क्या दूंगी?’’

‘‘क्या कहती हो? तुम अब हमारे रिश्ते को एक नया नाम भी दोगी जीजी? अच्छा चलो बताओ क्या दोगी?’’

‘‘तुम देतीं तो क्या देतीं?’’

‘‘मुझे नहीं सूझ रहा जीजी...’’

दो पल की खामोशी के बाद वो बोलीं,‘‘सांझ सहचरी.’’

और अपनों को खो देने की उदासी से भरे उस घर में संझा की दहलीज़ पर खड़े दो जोड़ी होठों पर जीवन की मीठी मुस्कान तैर गई.