दादा Shilpa Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दादा


‘‘न जाने क्यों इतना दिल पसीज जाता है तुम्हारा? ऐसे ही चलता रहा तो मदद मांगनेवालों की लाइन लग जाएगी हमारे यहां. हर किसी की समस्या सुलझाने बैठ जाते हो,’’ झल्लाते हुए किरण ने कहा.

हमेशा की तरह डॉक्टर तिवारी मुस्कुराते रहे. वे जानते हैं, चाहे कितनी खरी खोटी सुना ले, पर उनकी पत्नी किरण काम उनकी इच्छा के अनुसार ही करती है. फिर भला जब वे ही उनका काम बढ़ाते हैं तो डांट सुनने में बुराई ही क्या है?

उन्हें मुस्कुराते देख पारा चढ़ गया किरण का,‘‘ये मोहिनी मुस्कान न बिखेरो. मैं कहे देती हूं, कुछ और होता तो सुन भी लेती, पर उसके माता पिता की मौत एड्स की वजह से हुई है. मैं नहीं रखूंगी उसे अपने घर में. डॉक्टर होने के बाद भी ऐसा कहने से पहले तुम्हें अपने गौरव की याद नहीं आई?’’

‘‘डॉक्टर हूं इसीलिए कह रहा हूं. उसके माता पिता की मौत एड्स की वजह से भले ही हुई हो, पर उसकी जांच मैंने ख़ुदद की है. उसे ऐसा कुछ नहीं है. वो तो सिर्फ़ 12 बरस का बच्चा है, फिर उसके आने से तुम्हारे सपूत गौरव को एक साथी भी मिल जाएगा. और कौन उसे हमेशा यहां रखने की बात है, महीने भर बाद तो उसे वापस हॉस्टल जाना ही है,’’ उन्होंने पत्नी को समझाने की चेष्टा की.

‘‘यदि आपकी ज़िदद पर उसे रखा भी तो रामनाथ और सुनीता के साथ गैरेज के पीछेवाले कमरों में रहेगा. मेरा गौरव तो उसके साथ खेलेगा भी नहीं, समझे?’’ किरण ने जैसे फ़ैसला सुना दिया.

‘‘कमाल करती हो! अच्छे भले घर का लडक़ा है और तुम उसे हमारे यहां काम करनेवालों के घर में रखोगी? उसके पिता मुंबई की एक कंपनी में मैनेजर थे, मां भी पढ़ी लिखी महिला थी...’’

‘‘कितने अच्छे भले लोग थे ये तो इसी बात से समझ में आता है कि उनकी मौत एड्स से हुई,’’ भुनभुनाते हुए किरण का जवाब आया.

‘‘एड्स होने की कई वजहें होती हैं किरण! उसका परिवार यहां था और वो अकेला मुंबई में. खाना बनाना नहीं आता था तो बाहर खाया करता था. जॉन्डिस हो गया तो किसी छोटे मोटे निजी अस्पताल में इलाज करवाने लगा. वहीं शायद किसी ने उसे संक्रमित इंजेक्शन लगा दिया, जिससे उसे एड्स हो गया. उसे तो पता भी नहीं था. छुट्टियों में घर आया था. जब लौट कर मुंबई गया और बार बार उसकी तबियत ख़राब होने लगी तो डॉक्टर ने उसे एचआईवी टेस्ट कराने कहा, जो पॉज़िटिव आया,’’ गहरी सांस लेते हुए डॉ तिवारी बोले.

‘‘मनगढ़ंत कहानी भी तो हो सकती है...मैंने तुम्हें अपना निर्णय बता दिया है.’’

‘‘मरता हुआ आदमी झूठ नहीं बोलता किरण! उसे अपने बच्चे की बहुत चिंता थी. जब उसे पता चला कि उसे एड्स है तो तुरंत उसने अपनी पत्नी का चेकअप करवाया. मैंने ही तो किया था, वह भी पॉज़िटिव निकली. दोनों मियां बीवी कैसे कैसे सवाल पूछ रहे थे...हम कब तक जी सकेंगे, लोग तो हमें ग़लत ही समझेंगे. दोनों ही अपने बच्चे को लेकर कितनी चिंतित थे. मैंने लाख समझाया कि आप लोग सकारात्मक सोच रखेंगे तो लंबे समय तक जीने की संभावाना है, पर जैसे दोनों के चेहरे की मुस्कान ही छिन गई थी.’’ डॉ तिवारी अपनी रौ में बोले जा रहे थे,‘‘पता चलने के बाद, जब उसका पति मुंबई लौटा तो उसकी पत्नी ने अपने सारे गहने बेच कर अपने बच्चे के नाम एफ़डी करा दी. वो दोनों ही पैसों की व्यवस्था इस तरह करने लगे कि उनके बाद बच्चे की शिक्षा और रहन सहन में कोई कमी न आए. वे अपने रिश्तेदारों के नाम ये पैसे नहीं करना चाहते थे, नहीं चाहते थे कि कोई उनके बच्चे को यह बताए कि उनकी मौत कैसे हुई. अंतिम समय में पिछले छह महीनों से मैं और डॉ रस्तोगी ही उनकी देखभाल कर रहे थे तो वे भावनात्मक रूप से हमसे काफ़ी जुड़ गए थे. फिर उन्होंने अपने वक़ील से सलाह लेकर मुझे और डॉ रस्तोगी को उस बच्चे का लीगल गार्जियन बना दिया और अलग संयुक्त खाता खोलकर पैसे भी अकाउंट में डाल दिए. अब उसके 18 साल के होने तक उसकी पढ़ाई की ज़िमम्मेदारी तो हमें ही उठानी होगी,’’ पत्नी की ओर देखते हुए डॉ तिवारी बोले.

‘‘आपने लीगल गार्जियन वाली ये बात मुझे पांच छह महीने पहले बताई तो थी, लेकिन आधी अधूरी...’’

‘‘तुम अपने बुटीक के काम में इतनी व्यस्त रहती हो. बताई तो पूरी ही बात थी...तुम व्यस्त थीं तो हूं, हां कहती रहीं. पूरी बात नहीं सुनी तुमने ध्यान से.’’

‘‘तो चलो अब सुना दो.’’

‘‘उन्हें आज से चार साल पहले पता चला था कि उन्हें एड्स है. अपने आठ साल के बच्चे को क्या बताते कि उन्हें क्या हुआ है? अपनी हालत बिगड़ते देख उन्होंने पिछले साल ही अपने बच्चे को एक बोर्डिंग स्कूल में दाख़िल करा दिया था. इस बार अपनी तबियत ज़्यादा ख़राब होने की वजह से उन्होंने उसे दिवाली की छुट्टियों में घर भी नहीं बुलाया. गर्मी की छुट्टियों में माता पिता से मिलने की आस लिए वह बच्चा अपने शिक्षक के साथ ही परसों यहां आ गया. शायद ईश्वर की यही इच्छा थी कि बच्चा अंतिम समय में अपने माता पिता से मिल ले. कल सुबह वो आया और उसके शिक्षक उसे छोड़ कर घर जाते उससे पहले ही उसकी मां चल बसी. अपनी पत्नी की मौत की ख़बर सुनकर उसके अशक्त पिता को दिल का दौरा पड़ा और दो ही घंटे के भीतर उसकी भी मौत हो गई. माता पिता से मिलने आया बच्चा उनकी चिता को आग देने के बाद अब अपने शिक्षक के साथ होटल में रुका हुआ है. पर उस शिक्षक को भी अपने घर जाना है और वो उसे अपने साथ नहीं ले जाना चाहते. कह रहे थे कि महीने भर की छुट्टी के बाद उसे साथ लेते जाएंगे. तुम्हें तो पता है कि डॉ रस्तोगी एक महीने के लिए सपरिवार छुट्टी पर गए हैं, उनके भाई की शादी में. अब लीगल गार्जियन होने के नाते मुझे ही उसे रखना होगा.’’

पूरी कहानी सुन कर किरण के चेहरे के भाव भी बदले और शायद दिल भी पसीजा.

‘‘नाम क्या है उसका?’’

‘‘अभिजीत,’’ जवाब देते हुए डॉक्टर तिवारी समझ गए कि बच्चे को उनके घर में एक माह की जगह तो मिल ही जाएगी.

‘‘एक महीने से ऊपर एक दिन भी नहीं रखूंगी और गौरव के बाजू वाले छोटे कमरे में उसकी व्यवस्था करा दूंगी. हां, आप किसी और को उसकी कहानी मत बताइएगा.’’

पत्नी का जवाब डॉक्टर तिवारी के माथे पर चंद मिनट पहले उठ आई सलवटों को शांत कर गया.

***

‘‘गौरव, क्या हर वक़्त टीवी ही देखते रहते हो?’’ अपने बेटे को झिड़कते हुए किरण ने कहा.

‘‘कोई खेलने के लिए भी तो नहीं है मम्मा. सारे दोस्त तो गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही कहीं कहीं घूमने चले जाते हैं. और आप कहती हो कि पापा डॉक्टर हैं और ये नोबल काम है इसलिए हम कहीं घूमने नहीं जा सकते,’’ गौरव ने अपनी शिकायत का पिटारा खोल लिया.

‘‘कल तुम्हारे साथ खेलने के लिए एक दोस्त हमारे घर ही आ रहा है. वो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा.’’

‘‘कौन मम्मा? क्या नाम है? कितने दिनों तक रहेगा?’’ गौरव का उत्साह देखते ही बनता था.

‘‘अभिजीत. वो पापा के एक दोस्त का बेटा है. वो तुमसे थोड़ा बड़ा है. हमारे साथ एक महीने तक रहेगा.’’

‘‘मेरे रूम में रहेगा ना?’’

‘‘नहीं! तुम्हारे बाजू वाले छोटे रूम में,’’ सख़्त आवाज़ में किरण ने कहा.

‘‘क्यों? मेरे रूम में ही रहने दो ना!’’

‘‘ज़िद मत करो. जो मैंने कहा, तुमने सुन लिया ना?’’

***

दूसरे दिन सुबह डॉक्टर तिवारी रोज़ की तरह हॉस्पिटल चले गए और व्यस्त थे इसलिए उस बच्चे को कंपाउंडर के साथ घर भिजवा दिया. वो बच्चा बहुत मासूम था. उसे देखने के बाद किरण के मन का कड़वापन और कम हो गया. सामान के नाम पर उसके पास बस एक छोटा सा सूटकेस था. किरण ने रामनाथ से कह कर उसका सामान भीतर रखवाया.

उसे देखते ही गौरव चहकने लगा,‘‘आप अभिजीत भइया हो ना? आप मेरे साथ एक महीने तक रहोगे ना? हम दोनों बहुत मस्ती करेंगे.’’

अभिजीत के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैरी और तुरंत ही डूब भी गई. किरण उसका चेहरा निहारती रही. उसे समझ नहीं आ रहा था कि जिस बच्चे ने कल ही अपने माता पिता को मुखाग्नि दी है, उससे क्या और कैसी बात करे. अचानक ही वो बोली,‘‘चलो तुम दोनों डायनिंग टेबल पर बैठो. नाश्ता करो और दूध पी लो.’’ फिर सुनीता को आवाज़ देते हुए कहा,‘‘सुनीता गौरव और अभिजीत के लिए नाश्ता लगा दो. दोनों को दूध दे देना. मैं स्नान करने जा रही हूं. दस मिनट बाद मेरा भी नाश्ता लगा देना. आधे घंटे में मुझे बुटीक भी पहुंचना है.’’

नाश्ता करने के बाद बच्चे गौरव के कमरे में खेलने लगे और किरण सुनीता को बच्चों का ख़्याल रखने की बात कह कर बुटीक रवाना हो गई.

***

यूं ही लगभग 10 दिन बीत गए. अभिजीत और गौरव को साथ खेलते देख किरण को अच्छा लगने लगा था. यह देखकर डॉक्टर तिवारी भी ख़ुश थे कि मां बाप को खो चुका वह बच्चा धीरे धीरे इस दुख को भूल रहा है.

एक रात जब किरण पानी पीने उठी तो देखा कि अभिजीत के कमरे की लाइट जल रही है. वो बंद करने पहुंची तो पाया कि अभिजीत सिसक सिसक कर रो रहा है. न जाने क्यों किरण सब कुछ भूल कर उसके पास पहुंची और उसे प्यार से सहलाते हुए अपने पास खींच लिया. अभिजीत किरण को देखते ही अपने आंसू पोंछने लगा.

‘‘मम्मी पापा की याद आ रही है?’’

‘‘आती तो रोज़ है आंटी! पर मुझे पता है अब वो नहीं लौट सकते. अब मेरा कोई घर नहीं है. अब मुझे छुट्टियों में भी हॉस्टल में ही रहना होगा.’’

किरण कुछ देर उसके पास बैठी रही, पर इसके आगे अभिजीत ने कुछ नहीं कहा. फिर ख़ुद को संयत करते हुए बोला,‘‘आंटी, आप सो जाइए. मैं अब नहीं रोऊंगा.’’

इस बीच दिन गुज़रते रहे और किरण ने महसूस किया कि अभिजीत के आने के बाद से अब गौरव का टीवी देखना कम हो गया था. अभिजीत उसे अपनी जनरल नॉलेज की किताब से बहुत कुछ सिखाता था. हालांकि अभिजीत बहुत कम बोलनेवाला बच्चा था, लेकिन गौरव से उसकी छनने लगी थी.

‘‘दादा! चलो न कुछ खेलें,’’ गौरव ने कहा.

‘‘क्या खेलोगे?’’ अभिजीत ने पूछा और वो दोनों गौरव के कमरे में कुछ खेलने चले गए.

***

रविवार का दिन था. बेडरूम में बैठे अख़बार पढ़ रहे डॉ तिवारी को चाय पकड़ाते हुए किरण बोलीं,‘‘तुम ठीक कहते थे. अभिजीत बहुत मासूम है. बड़ा क़ायदेवाला बच्चा.’’

‘‘और तुम्हें नहीं लगता कि पहले दिन तुम खामखा बखेड़ा खड़ा कर रही थीं?’’ डॉक्टर तिवारी मुस्कुराते हुए बोले. वो अपनी पत्नी को छेड़ने का मौक़ा भला कैसे गवां सकते थे?

‘‘छोड़ो भी मेरी जगह कोई और होता तो वो भी यही करता. फिर तब मैं उससे मिली थोड़े ही थी.’’

‘‘जो भी हो, मुझे भरोसा था कि तुम्हारा दिल बड़ा है. फिर महीने भर के लिए एडजस्ट तो किया ही जा सकता है. अब दिन ही कितने बचे हैं? दस दिन बाद तो उसके शिक्षक उसे ले ही जाएंगे.’’

उसी शाम को गौरव को अकेले पाकर किरण ने पूछा,‘‘गौरव तुम तो अभिजीत को भइया कहते थे, अब दादा कैसे कहने लगे?’’

‘‘अभिजीत दादा ने ही कहा था. वो कह रहे थे कि उनकी मां कहती थीं कि बड़े भाई को दादा कहते हैं. इसलिए तुम मुझे दादा कहा करो...मैं तुमसे बड़ा हूं ना!’’ गौरव को अभिजीत की नकल करते देख किरण मुस्कुरा दी.

***

सोमवार का दिन भला किसी को अच्छा लग सकता है? किरण को तो क़तई अच्छा नहीं लगता. डॉक्टर तिवारी अस्पताल के लिए निकल गए और बच्चों का और अपना काम निपटाकर किरण भी बुटीक रवाना हो गई. बुटीक में श्रीमती नीता मेहरा आएं तो बुटीक की ख़ासी सेल तय है, वे किरण की अच्छी सहेली भी हैं. उनके आने से किरण का सोमवार अच्छा ही बीत रहा था. बातों ही बातों में नीता पूछ बैठी,‘‘तुम लोगों को क्या हो गया? अब गौरव आठ साल का होने आया कम से कम अब तो दूसरा बच्चा प्लान कर ही डालो.’’

‘‘अब तुमसे क्या छुपाऊं नीता. चाहते तो हम दोनों भी थे कि गौरव का छोटा भाई या बहन हो जाए. हमने कोशिश भी की थी, लेकिन... तीन बार मिसकैरेज हो गया. गायनाकोलॉजिस्ट ने साफ़ कह दिया है कि अब मैं कंसीव नहीं कर सकती,’’ यह कहते कहते किरण की आवाज़ मंद हो गई.

‘‘सॉरी किरण मुझे पता नहीं था...वरना तुम्हें दुखी करने का कोई इरादा नहीं था मेरा.’’

‘‘मैं समझती हूं नीता, तुमने तो अपनत्व से पूछा था. पर क्या करूं बात ही ऐसी है कि दिल से जाती नहीं.’’

इधर उधर की थोड़ी और बातें कर के नीता मेहरा वापस लौट गईं. दोपहर दो बजे किरण घर निकलने के लिए बुटीक बंद करवा ही रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा. डॉक्टर तिवारी थे.

‘‘घर न जाकर सीधे हॉस्पिटल ही आ जाना.’’

‘‘क्यों? आप भी अब तक लंच के लिए घर नहीं पहुंचे?’’

‘‘गौरव को थोड़ी चोट आ गई है, वो हॉस्पिटल में ही है.’’

‘‘अरे कैसे? सुनीता, रामनाथ और अभिजीत क्या कर रहे थे? ज़्यादा तो नहीं लगी? मैं बस, निकल ही रही हूं.’’

‘‘अरे घबराओ मत. ज़्यादा नहीं लगी है.’’

छोटे शहरों का यही फ़ेयदा है कि एक जगह से दूसरी जगह जल्दी पहुंचा जा सकता है. अगले 10 मिनट में किरण हॉस्पिटल पहुंच गई. गौरव के हाथ पर प्लास्टर चढ़ा देखकर किरण ने कहा,‘‘तुम तो कह रहे थे कि ज़्यादा नहीं लगी...’’ और वो दौडक़र गौरव के पास पहुंच गई.

डॉक्टर तिवारी, रामनाथ, सुनीता और अभिजीत सभी चुपचाप खड़े थे.

‘‘कोई मुझे बताएगा कि कैसे लगी इसे?’’ किरण ने तेज़ आवाज़ में कठोरता और अधीरता से पूछा.

‘‘जैसे ये गिरा था, इसे इससे कहीं ज़्यादा चोट लग सकती थी,’’ डॉक्टर तिवारी बोले.

‘‘मम्मा, आई एम सॉरी. आपके मना करने के बाद भी मैं छत के ऊपर चढ़ा और आम तोड़ने की कोशिश कर रहा था. रामनाथ बगीचे में पानी दे रहा था. सुनीता किचन में खाना बना रही थी और अभिजीत दादा अपने रूम में सो रहा था,’’ गौरव ने मासूमियत से अपनी ग़लती स्वीकारते हुए कहा,‘‘मैंने छत से कूद कर आम के पेड़ की डाल तो पकड़ ली पर मेरा हाथ सरकने लगा तो मैं चिल्लाने लगा.’’

‘‘बाई जी हमको तो कुछु समझ नहीं आया. हम सुनीता को आवाज़ देते हुए सीढ़ियों से ऊपर की तरफ़ भागे कि भईया को पकड़ लेंगे,’’ रामनाथ ने सफ़ाई दी.

‘‘तब तक अभिजीत भइया जाग गए, जब उन्होंने गौरव भइया को ऐसे लटकते देखा तो यह कहते हुए अंदर भागे कि पलंग के गद्दे निकालो. हम लोग केवल एक ही गद्दा नीचे डाल पाए कि भइया का हाथ सरक गया और वे गद्दे पर हाथ के बल गिर पड़े. हम लोगों ने घर बंद किया और तुरंत इन्हें लेकर अस्पताल आ गए,’’ सुनीता ने आगे की कहानी बताई.

‘‘यदि नीचे गिरा होता तो दांत टूट जाते, सिर भी फट सकता था इसका. अभी तो बस 15 दिन का प्लास्टर चढ़ा है जनाब को, वर्ना न जाने क्या हो जाता,’’ डॉ तिवारी ने मोर्चा संभाला.

किरण ने बड़ी ममतामयी आंखों से अभिजीत की ओर देखा और इशारे से उसे अपने पास बुलाया. अभिजीत के आने पर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली,‘‘तुम्हारा प्रेज़ेंस ऑफ़ माइंड तो बहुत अच्छा है, अभिजीत.’’

हाथ पर प्लास्टर चढ़ने के बाद गौरव ज़्यादा खेल नहीं सकता था तो उसे व्यस्त रखने के लिए अभिजीत उसे कहानियां सुनाया करता था. अब अभिजीत को जाने में सिर्फ़ पांच ही दिन बचे थे. शाम की चाय की चुस्कियों के बीच किरण सोच रही थी, बिन मां बाप के इस बच्चे ने उसके दिल में अपने व्यवहार से कितनी जगह बना ली है और गौरव भी उसे कितना पसंद करने लगा है. इसके जाने पर गौरव तो कोहराम मचा देगा.

उस रात खाने के बाद किरण ने डॉक्टर तिवारी से कहा,‘‘चलो न थोड़ी देर बाहर टहल आएं.’’

दोनों बच्चों को टीवी देखता छोड़ कर पति पत्नी टहलने निकल पड़े.

टहलते टहलते किरण बोली,‘‘मैं सोच रही थी कि हम दोनों ही गौरव को भाई या बहन देना चाहते थे.’’

‘‘पर तुम जानती हो, ये नहीं हो सकता. और मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता. तीन बार मिसकैरेज हो चुका है तुम्हारा. अब नहीं... अब बिल्कुल नहीं.’’

‘‘अरे बाबा, छोटा भाई या बहन नहीं दे सकते ये तो मुझे भी पता है, पर मैं सोच रही थी कि बड़ा भाई तो घर ही आया हुआ है.’’

‘‘कौन...? अभिजीत? सोच लो किरण एक महीने की बात और है, जीवन भर की और. कहीं तुम आगे दोनों में पक्षपात न करने लगो.’’

‘‘मैं ऐसा करने लगूं तो तुम टोक देना. संभल जाऊंगी.’’

‘‘हमारे घर को इस तरह पूरा करने में मुझे कोई परेशानी नहीं, पर एक बात ज़रूर कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘आई लव यू...तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है.’’

मन ही मन बहुत हल्का महसूस करते हुए किरण और डॉ तिवारी घर लौटे.

घर आते ही किरण ने बहुत कठोर आवाज़ में कहा,‘‘अभिजीत चलो अपना सामान पैक करो.’’

डॉक्टर तिवारी चौंके और सहमा सा अभिजीत उठने लगा. गौरव तो आंख फाड़े फाड़े अपनी मां को देख रहा था.

‘‘ये नहीं पूछोगे कि इतनी रात को तुम्हें जाना कहां है?’’ किरण ने आवाज़ को और सख़्त बनाते हुए पूछा.

‘‘कहां जाना है आंटी?’’ बहुत सहमी और धीमी सी आवाज़ में उसने पूछा.

‘‘गौरव के कमरे में... वहीं जाना है तुम्हें. और अब तुम हमारे साथ ही रहोगे. यही तुम्हारा नया घर है. अंकल जल्दी ही तुम्हारा दाख़िला यहां के स्कूल में करा देंगे.’’ किरण ने उसे पास खींचते हुए कहा.

‘‘हुर्रे...दादा अब यहीं रहेगा, दादा अब यहीं रहेगा...’’ यह कहते हुए गौरव ठुमकने लगा.

-शिल्पा शर्मा