भदूकड़ा - 42 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 42

"तुम्हारी तबियत तो ठीक है न जानकी?" सुमित्रा जी ने असली मुद्दे पर आने की कोशिश की।
"हओ छोटी अम्मा। हमाई तबियत खों का हौने? ठीकई है।"
"किशोर बता रहे थे कि पिछले दिनों तुम्हारी तबियत भी बिगड़ गयी थी....." ज़रा संकोच से ही पूछा सुमित्रा जी ने।
"छोटी अम्मा, का जाने हमें अचानक का हो जात... लगत है जैसें कौनऊ सवार हो गओ होय मूड़ पे। लगत खूब ज़ोर सें चिल्ल्याय, जौन कछु दिखाए, ओई सें फेंक कें मारें। दांत सोई किटकिटात।" जानकी फिर रुआंसी हो आई थी। सुमित्रा जी को लगा हो सकता है परिस्थितियों के चलते जानकी को हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे हों! बोलीं-
" जानकी, तुम हमारे साथ चलो कुछ दिनों को। अगर ऐसी तबियत बिगड़ रही तो ये तुम्हारे लिए ही ठीक नहीं है। वहां अच्छे डॉक्टर हैं किसी को दिखा सकते हैं।"
"अम्मा जान दैहें? वे देहरी नईं नाकन देतीं। ग्वालियर को भेज रओ। हमें नईं लगत बे जान दैहें।"
जानकी की आशंका निर्मूल नहीं थी। पिछले तीन चार महीनों में कुंती ने जानकी को एक बार भी घर से बाहर नहीं निकलने दिया था। यहाँ तक कि वो अपनी ही किसी चाची तक के पास नहीं जा सकती थी। समस्या विकट थी लेकिन कुछ न कुछ हल तो निकालना ही था।
"हम बात करेंगे कुंती से।" कुछ सोचते हुए सुमित्रा जी बोलीं।
अगले दिन सब सुबह जल्दी ही उठ गए, जैसा कि गांवों में होता ही है। जानकी चाय बना रही थी।
किशोर तुलसी को जल चढ़ाने, कुंएं से एक कलसी पानी ले के आ रहा था। पता नहीं कैसे उसका पैर मुड़ा या फिसला, और कलसी सहित किशोर कुंएं की जगत पर ही गिर पड़ा। गिरते ही "ओ अम्मा रे..." की पुकार उसके मुंह से अपने आप निकल गयी। आवाज़ सुन के सब बगिया की तरफ़ दौड़े। किशोर को सहारा दे के तिवारी जी अंदर आँगन में पहुंचे ही थे, कि कुंती की ज़हर घुली आवाज़ सुनाई दी-
"इस कुलच्छनी ने जिस दिन से इस घर मे पैर रक्खा है, उसी दिन से घर मे केवल बुरा ही बुरा हो रहा। संकटों का पहाड़ बन के टूटी है ये लौंडिया।"
इतना सुनना था कि जानकी चौके से निकल के बाहर आ गयी। माथे तक ढंका आँचल उसने पीछे को फेंका और कुंती की ओर दौड़ पड़ी। जब तक कोई कुछ समझता, तब तक कुंती की गर्दन जानकी के बलिष्ठ हाथों में थी। जानकी वैसे भी अच्छी कद-काठी की थी। स्वास्थ्य भी अच्छा भला था, जबकि कुंती छोटे से क़द की दुबली-पतली महिला। कुंती के वश में ही नहीं था खुद को जानकी से छुड़ा पाना। सब किशोर की तीमारदारी छोड़, कुंती की तरफ़ दौड़े। किसी प्रकार कुंती को जानकी के पंजों से छुड़ाया। गर्दन सहलाती कुंती चीख के रोना ही चाहती थी कि जानकी गरजी-
"मौं सें आवाज़ न निकारियो तुम अम्मा। भौत हो गओ तुमाओ गाली गुप्ता। औ जिये तुम जानकी समझ रईं न, बा जानकी नौंई, हम हैं पीपल वाले बब्बा जू। ई मौड़ी की रच्छा हमें करने । अब बोलियो कछु। बोलबो तौ दूर, तुम केवल सोच देखियो। अंधेरे में आ कें घिचिया मसक दैने तुमाई। अपनी खैर चाने, तौ सुदर जइयो।"
इस आकाशवाणी ने कुंती की आवाज़ वहीं गले में घोंट दी। वो कुंती, जिसके आगे सब थर थर काँपते थे, पीपल वाले बब्बा जू का नाम सुनते ही थर थर काँपने लगी।
सुमित्रा जी कुछ समझ ही न पाईं। अज्जू, रूपा, दीपा सब भौंचक खड़े थे। जानकी को पल्लू पीछे फेंकते देख, तिवारी जी ने ज़रा आड़ में होते हुए खुद ही पर्दा कर लिया था। सबको जानकी की लाल-लाल आंखें देख के डर लग रहा था। सुमित्रा जी ने सबसे पहले कुंती को वहां से हटाया। अब तक आवाज़े सुन के रमा भी आ गयी थी। रमा ने जानकी को पकड़ने की कोशिश की तो वो ज़मीन में लोटने लगी। फिर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। थोड़ी ही देर में लगा जैसे बेहोश सी हो रही। रमा दौड़ के लोटा भर पानी ले आई और जानकी के चेहरे पर छींटे देने लगी। थोड़ी देर में ही जानकी ऐसे उठी, जैसे सो रही थी। खुद ही अचकचाई सी देखने लगी।
लेकिन पिछले एक घण्टे से चल रहे ड्रामे के विषय में कोई कुछ नहीं बोला। जानकी ने बड़े भोलेपन से जैसे खुद से ही कहा-
"लगत है, हमें फिर दौरा पड़ो" मन ही मन कुछ बुदबुदाती सी उठी और चौके की ओर चल दी। वहां खड़े सब लोगों ने जैसे राहत की सांस ली।
क्रमशः