भदूकड़ा - 43 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 43

अब सबका ध्यान किशोर की ओर गया जो खुद को अपराधी सा मानता, एक ओर बैठा, अपने मोच खाये पैर को सहला रहा था। सुमित्रा जी से नज़र मिलते ही किशोर के आंसू आ गए।
"देख रहीं न छोटी अम्मा? इत्ते दिनों में जे चौथी बार दौरा पड़ा तुम्हारी बहू को। हम तो परेशान हो गए। न अम्मा को रोक पाते न जानकी को रोक पा रय। अब तुमई करौ कुछ।"
सुमित्रा जी किशोर के सिर पर हाथ फेरतीं चुपचाप बैठी रहीं। वे और कर ही क्या सकती थीं?
सबके इधर-उधर होते ही सुमित्रा जी ने तिवारी जी के सामने जानकी को ग्वालियर ले चलने का प्रस्ताव रखा, जिसे तिवारी जी ने सहर्ष स्वीकार किया। अब सुमित्रा जी रमा को साथ ले के कुंती की अटारी में गयीं। उसे मनाना थोड़ा मुश्किल काम था।
कुंती साड़ी के पल्लू से मुंह ढाँपे, अपने बिस्तर पर पड़ी थी। हमेशा सबको नीचा दिखाने वाली का आज सबके सामने भीषण अपमान हुआ था। अपमान के आंसू रुक ही नहीं रहे थे। अब ये दिन आ गए!! उसी की गर्दन पकड़ी जाएगी, वो भी अभी चार दिन पहले आई बहू के हाथों!!
"जिज्जी...." रमा ने धीरे से आवाज़ लगाई।
कुंती ने तब भी पल्लू न हटाया।
"सुनो कुंती, कुछ बात करनी है तुमसे। बहुत ज़रूरी...!"
सुमित्रा जी की आवाज़ सुन के पता नहीं कैसे कुंती ने पल्लू हटाया। आंसुओं से भीगा चेहरा और लाल हुई आंखें देख के सुमित्रा जी का मन भी रोने को करने लगा। बस यही तो कमज़ोरी है सुमित्रा जी की। वे जानकी के दुख से जितनी दुखी हैं, कुंती के आंसू भी उन्हें उतना ही दुखी कर रहे।
"कुंती.....! जे सब, जो हुआ, हम समझ न पा रहे। ऐसा पहली बार दौरा पड़ा जानकी को कि पहले और भी पड़ चुका?"
" बैन...... हमाई दुर्दशा देखी न तुमने? खुश तो भौत हुईं होगी तुम, कि लो, चखो कुंती अपने करमन का मज़ा। काय से तुमें तो हमने भौत परेशान किया है।" आज पता नहीं कैसे, ,कुंती की ज़ुबान सच उगल रही थी वरना पहले कभी कुंती ने ये स्वीकार ही नहीं किया कि उसने सुमित्रा को कभी परेशान भी किया है।
"अरे नईं बैन। हमें कायकी खुशी? तुम ऐसा कैसे सोच लीं? तुमाई तक़लीफ़ में हम खुश हो सकते हैं? हमें जानती तौ हौ कुंती....! हम तो इस चिंता में हैं कि अगर जानकी को ऐसे दौरे आते रहे तो तुम्हारी तो आफ़त हो जाएगी। किसी दिन घर में कोई न रहा और उसे दौरा पड़ गया तो तुम्हारी तो जान ही चली जायेगी। पहले भी दौरा पड़ा था क्या?" सुमित्रा जी ने अनभिज्ञ बनते हुए पूछा।
"हाँ बैन। जे चौथी बार हुआ ऐसा। अब तो हमें जानकी के साथ अकेले में डर लगने लगा है।"
कुंती के मुंह से डर शब्द सुनना, बड़ा अटपटा लग रहा था सुमित्रा जी को। लेकिन यही मौक़ा था जब सुमित्रा जी, जानकी को साथ ले जाने का प्रस्ताव रख सकती थीं। उन्होंने पहली बार मौक़े का फ़ायदा उठाया और तुरन्त प्रस्ताव रखा-
" कुंती, तुम कहो तो हम जानकी को गवालियर में किसी बड़े डॉक्टर को दिखा दें? क्या जाने कोई बीमारी हो उसे।"
" हां बीमारी हो भी सकती, नईं भी....... पीपल वाले बब्बा जू का नाम काय लेती वो? तुमे मालूम सुमित्रा, गांव की एक जनी के ऊपर आते थे पीपल वाले बब्बा जू।
उसने आफ़त मचा दी थी फिर झड़ाई फुंकाई हुई तब जा के ठीक हुई। तो जानकी की भी झड़ाई करवाएं का?" कुंती की आवाज़ में कँपकँपी स्पष्ट थी।
"बैन, तुम तो पढ़ी लिखी हौ। हमाये बाबूजी ने कभी जे टोटके न माने न मानने दिए। तुम भी इन पे भरोसा न करो तो बढ़िया। बाकी हम तो चाहते कि जानकी का इलाज हो फिर तुमाई जैसी इच्छा।
झड़ाई-फुंकाई पे कुंती का भी भरोसा था नहीं। उनके मायके का पूरा माहौल पढ़े लिखों का था, तो इन बहनों में भी वही संस्कार थे। कभी किसी की बात न मानने वाली कुंती, सुमित्रा जी के प्रस्ताव को थोड़े ना नुकुर के बाद मान गयी थी।
इतवार की शाम को ही सुमित्रा जी को लौटना था, तो उनके साथ ही जानकी और किशोर की भी तैयारी हो गयी। जानकी के जाने के नाम पर कुंती के चेहरे पर भी अजब राहत का भाव झलक रहा था।
क्रमशः