बेहा Renu Yadav द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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बेहा

गाँव के किनारे घने जंगल के कोने से दुबकी नहर गर्मी के डर से पेट में पानी चिपकाए खेतों की ओर पैर पसार कर पट्ट लेटी पड़ी है, जिस पर मुँह उचका उचका बेहा (बेहया) के पौधे चारों ओर झाँक-झाँक कर तरी खोजने में लगे हैं । भकुआ मारे इन पौधों के बीच आज रेखवा और उसकी अम्मा सुनरिया साँप-गोजर की बिना परवाह किए लुका (छिप) कर बैठी हैं । आखिर वे करतीं भी क्या, बाहर विषैले इंसान जो थे !

नहर में ये वही बेहा पसरे पड़े हैं जिन्हें नहर से लगे खेत में बार बार जाम (उग) जाने के कारण सुनरिया गरिया गरिया कर उन्हें उखाड़ फेंकती । कुछ को नहर के ऊपर रखती तो कुछ को नहर में फेंक देती । बेहों से जब नहर भर जाता और पानी सीधे-सीधे खेतों में नहीं पहुँचता तब फिर से उन्हें गरियाती हुई नहर के ऊपर फेंक उन्हें सूखने के लिए छोड़ देती । इतना मार गारी सुनने के बाद, सूख जाने के बाद और यहाँ तक कि जड़ों से उखाड़ देने के बाद भी वे बेहा इतने लतखऊक थे कि फिर फिर पनप आते ।

आज कल तो इतना पनपें हैं कि आदमी क्या गोरू-चउआ भी उसमें हेरा (खो) जायें । जब से रेखवा के ऊपर काल मँडराने लगा तबसे सुनरिया उसके जतन में लग गयी, खेतों की ओर ध्यान ही न दे पायी । बहुत दिनों के बाद इतने सारे बेहा देखकर उसके आखों में आँसू आ गये कि जिन्हें वह बार बार उखाड़ती रही वे ही उसके सामने ढाल बनकर खड़े हैं । वैसे तो गाँव वाले लाठी डंडा से कोच-कोच कर दोनों को ढूँढ ही रहे हैं पर रात के समय झाड़-झंखाड़ के बीच जाकर बेहों में भीतराने के खयाल से ही उनके हाड़ काँपने लगते । सुनरिया बंदर के बच्चे की तरह रेखवा को पेट में चिपकाये साँसें रोके पड़ी है और रेखवा सुनरिया के बाँहों की ओट में मुलूर मुलूर देखे जा रही है । देख क्या रही है बल्कि डर के मारे उसके प्राण सूख चुके हैं । सुनरिया की अफनाहट अपनी बेटी और अपनी जान बचाने के साथ-साथ इसलिए भी है कि कैसे भी करके मौका देखकर वे वहाँ से भाग-परा सकें और किसी वकील साहब से मिल सकें ।

‘कहाँ गयीं दोनों… कहाँ हेरा (खो) गयीं’ ?

‘जमीन खा गया कि...’

‘रंडियों... अब डर के कहाँ छुपी हो... निकलो बाहर... देखूँ कितना दम है…’

‘दम होता तो भागतीं... सामना नहीं करतीं...’

‘साली मेहरारू (औरत) की जात...’

‘ओहर मिली का’… ?

‘नाहीं भाई... पता नाहीं कहाँ चली गयीं’…

‘अच्छा चलो देखते हैं… इधर हैं कि नहीं’

गाँव वालों की आवाज सुन सुन कर दोनों का जी सन्न सन्न करता । ऐसा लगता है कि बोरसी की आग में देह रख कर भूजा जा रहा हो और परान निकलने की खातीर छटपटा रहा हो लेकिन निकल नहीं पा रहा हो । इतने में रेखवा के ऊपर से गिरगिट रेंग गया वह चिहुँक गयी लेकिन सुनरिया झट से उसके मुँह पर हाथ रख कर उसे कसकर अंकवारी में दबोच ली । आज सुनरिया को कोई डर हरा नहीं पा रहा । कान चौकन्ने, आँखें खुली की खुली और शरीर का हर अंग तुरन्त प्रतिक्रिया देने के लिए तत्पर थे । उसके आँखों के सामने पूरा का पूरा जीवन घूम गया - ‘हाय रे भाग (भाग्य) ! जन्म भी बेहा में और मरन भी’ ।

सुनरिया को याद है कि जब वह आठ साल की थी तब उसे गाँव के लइके चिढ़ाते थे – ‘बेहा.. आ..आ.. बेहया’ । लइके-बच्चे तो लइके बच्चे गाँव के बहुत सी काकी चाची भी उसको बेहवा बेहवा कह कर बुलातीं । बहुत दिनों तक उसे समझ में ही नहीं आया कि उसका नाम बेहा है या बेहया या सुनरिया या लछमीनिया । क्योंकि गाँव के लोग बेहवा कहतें, माई सुनरिया और बाबूजी लछमीनिया । एक दिन जब बड़का घर के सामने महुँआ बिटोरते हुए वह पकड़ी गयी थी तब बड़का घर के काका ने उसे सटहा से पीटते हुए कहा था, ‘बेहया कहीं की... जितना मना करो उतना ही आती है....’

उतने में काकी हाथ भाँजते हुए आँखें तरेर कर कहने लगीं, ‘बेहा में जन्मी है न... कुछ तो असर होगा ही’

‘बेहा में जनमी है’... सुनरिया रो रो कर आँखें लाल कर ली कि बेहा ने हमको जन्म दिया है तो उ हमार माई हुई । फिर घर पर कवन हमार माई है । हमारे माई बाबूजी कौन हैं ?

हजार सवाल लेकर वह माई के पास पहुँची । पहले तो माई बताने में बड़ा आना-कानी की लेकिन सुनरिया के बहुत रिरियाने के बाद उन्होंने बताया – ‘बेहा उखाड़ते समय नहर के बेहा में मिली थी हमरी सुनरिया । भर देह च्यूटा ने छाप रखा था, होठ करीया गया था और पूरा देह खुनअ-खून हो गया था । खून धो-पोछ के साफ किया, दवाई लगा लगा के घाव ठीक किया तब जाके बनी हमरी सुन्नर सी राजकुमारी । सब देख कर हैरान रह गयें । सब कहने लगें कि जरूर कौनों सरग की अप्सरा ने जन्म दिया होगा हमरी सुनरिया को । उसकी कौनो मजबूरी रही होगी तभी छोड़ गयी, वरना कौन भला अपने बच्चे को छोडता है । तब से तू हमार सुनरिया हो गयी लेकिन बाबूजी के लिए लछमी (लक्ष्मी) माई से कम नहीं थी, ऐही से वे तुमको लछमीनिया कहने लगें’ ।

जैसे जनक जी को सीता जी घड़े में मिली थी वैसे ही बेऔलाद माई-बाबूजी के लिए सुनरिया बरदान साबित हुई । सुनरिया के साथ लक्ष्मी जी घर में प्रवेश कर गयीं । चीनी मिल में बाबूजी को नौकरी मिल गयी । दो जून की रोटी का इन्तजाम हो गया । धीरे-धीरे नहर के किनारे बाबूजी ने एक-दो बिगहा खेत खरीद लिया, घर बनवाया । और तो और पाँच साल बाद चालीस पार माई की कोख से लछमन (लक्ष्मण) पैदा हुआ । माई-बाबूजी जी के बंजर जीवन में खुशी की बरसात हो गयी ।

अपने चौथे साल में सुनरिया बहुत बीमार रहने लगी । उसको दिमागी बुखार हो गया । माई-बाबूजी के जीवन में जैसे अंधेरा छा गया । उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था । लिस्टोरा और तुलसी पत्ती का काढ़ा बना-बना कर माई ने खूब पिलाया और रात-रात भर जाग कर खूब सेवा की । काली माई, बरम बाबा सबसे बहुत मनौती मानने के बाद जान बच पायी वरना डाक्टर तो खाली बोतल ही चढ़ाये जा रहे थे और पता नहीं कौन कौन-सी मँहगी दवाई उसमें डालतें, फिर भी सुनरिया अचेत पड़ती रहती । दवाई खरीदने के खातीर माई अपने नइहर से लाया हुआ बिक्खो (गहना) भी बेच डाली । बहुत दिनों तक ड्यूटी पर न जा पाने के कारण बाबूजी को चीनी मिल से निकाल दिया गया । एक बार फिर भूखमरी घर में समा गयी लेकिन बाबूजी को इस बात का कौनो मलाल न था क्योंकि उनकी लछमीनिया बच गयी तो सब बच गया । बाबूजी मजूरी करना शुरू कर दिए ।

दसवें साल में सुनरिया को फोड़ा की बीमारी ने पकड़ लिया । पूरा देह जैसे बदक बदक के फफस रहा हो । एक फोड़ा ठीक नहीं होता तो दूसरा लाल पत्थर बनकर खड़ा हो जाता । माई बेहा का पत्ता पीस-पीस कर उन फोड़ों पर छापती और उसे बेहा के खड़े पत्ते या आम के पल्लो से ढ़क कर धोती की पट्टी फाड़-फाड़ कर उन्हें बाँधती, ताकि फोड़ा जल्दी-जल्दी पक कर बह जाये । कभी हाथ, कभी पाँव, कभी पीठ सब बँधा हुआ दिखायी देता । कई बार तो रात में लछमन देख कर डर ही गया कि घर में सफेद रंग का कपड़ा पहने चुडैल नाचती है । एक बार तो माई भी डर गयी थी और वह बेहोश होते होते बची । उसके बाद तो रात-रात भर ढ़ीबरी जला कर सोना पड़ा ।

बाबूजी की मजूरी से इतनी आमदनी नहीं होती कि वे दोनों को कहीं अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें । गाँवों से दूर अंग्रेजी का एक ही स्कूल था जिसमें फीस बहुत थी । रात दिन मजूरी करने के बाद भी इतना पैसा नहीं जुटा पायें कि दोनों बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ सकें । इसलिए लछमन को अंग्रेजी स्कूल में डाला गया और सुनरिया को सरकारी स्कूल में । सुनरिया के लिए सरकारी स्कूल में खुशी की सबसे बड़ी बात थी कि स्कूल में दुपहरिया के समय खाने के लिए दाल-रोटी और प्याज मिल जाता था और शाम में जब वह आंगनबाड़ी में जाती तब दर्रा भी मिल जाता । यह खुशिहाली पाँचवी के बाद समाप्त हो गयी । सुनरिया पढ़ने के लिए छटपटाने लगी । माई-बाबूजी जी समझा-समझा के हार गयें, ‘क्या करोगी पढ़ कर, कितनाहूँ पढ़ोगी बरतन ही धोना है । लछमन तो लड़का है उसे तो नौकरी करनी है, भला तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है जो पढ़ने की जरूरत हो’ !

सुनरिया बेहा तो थी ही भला जिद्द कैसे छोड़ दे । उसने बरम बाबा के सामने अनसन ले लिया । कई दिनों तक खाई-पी नहीं । बाबू जी आ-आकर उसे कोरा (गोदी) में उठा उठा कर ले जातें लेकिन क्या मजाल कि सुनरिया मान जाये । फिर फिर आकर वहीं बैठ जाती । हार मान कर बाबू जी ने तीन किलोमीटर दूरी पर एक सरकारी स्कूल में सुनरिया का नाम लिखवा दिया । वह तीन किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने जाती और फिर फुदकते हुए वापस लौटती । पर तीन किलोमीटर का समय भी तय होता । एक मिनट भी घर पहुँचने में देरी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो बाबू जी पूरा घर सर पर उठा लेतें । गर्मी के दिनों में शाम तक तो अजोर (उजाला) रहता लेकिन ठंड के समय अंहार (अंधेरा) हो जाता । जैसे जैसे अंहार होता वैसे वैसे माई का जियरा धक धक करने लगता । सुनरिया लम्बी लम्बी डेग डारते हुए जब तक घर नहीं पहुँच जाती तब घर भर की आँखें राह निहारती रहतीं । पढ़ने में अव्वल सुनरिया क्लास में भी अव्वल आने लगी । होनहार सुनरिया सबकी दूलारी धीया बन गयी । आठवीं पास पर तो बाबूजी ने गाँव भर में मिठाई बँटवाई, माई ने डीह बाबा और काली माई को कथा-कढ़ाई चढाई । घर घर जाकर परसादी बाँटी । गाँव घर में सुनरिया का नाम हो गया । गाँव वाले अपने अपने बेटों को कोसने लगें कि गाँव की एक्क लड़की पढ़ती है और सारे लड़कों का नाक कटा के रख दी है । सब पर भारी पड़ गयी सुनरिया ।

अल्हड़ सुनरिया को भर पेट खाने के लिए मिले या न मिले लेकिन देह धाजे में किसी देवी से कम न थी । नौवीं क्लास में जाते ही माई ने कड़क शब्दों में आदेश दे दिया कि दुपट्टा कंधे से गिरना नहीं चाहिए । इसलिए सुनरिया ने समीज पर दुपट्टा को सेफ्टीपिन से इस तरह से टाँक रखा था कि समीज निकालते समय भी दुपट्टा साथ के साथ निकलता । सिर्फ समीज धोते समय ही दुपट्टे को अलग करती । सुनरिया की सुन्दरता को लेकर माई की चिंता हर रोज बढ़ती जा रही थी । लछमन भी शहर में रहने वाली बुआ के घर रहकर पढ़ने चला गया, वहाँ और अच्छा अंग्रेजी स्कूल जो था ! पर सुनरिया की वैसी किस्मत कहाँ ! वैसे भी ये यहाँ इतना अच्छा पढ़ रही थी तो उसे कहीं और जाकर पढ़ने की जरूरत ही क्या !

माई ने अपनी चिंता का हल ढूँढ लिया । सुनरिया पटीदारी के चाचा के लड़के रमेश भईया के साथ पढ़ने जाने लगी । वैसे तो रमेश अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता था और उसका आना जाना उसी रास्ते से था । वह मोटरसाइकिल भी अच्छे से चला लेता इसलिए वह आते-जाते सुनरिया को पढ़ने के लिए ले जाया करता ।

रमेश अंग्रेजी कितनी अच्छी बोल पाता है यह तो सुनरिया को नहीं पता लेकिन वह उनके शुद्ध हिन्दी की कायल जरूर थी । उसी तरह सुनरिया के राइटिंग का कायल रमेश भी था । सुनरिया बचपन से ही पहसूल या हँसिया से गढ़-गढ़ कर नर्कट का कलम बनाती और उसे स्याही में डूबो डूबो कर ईमला लिखती । सारे मास्टर उसके ईमला की तारीफ करते नहीं थकते । सुनरिया और रमेश दोनों ने आपस में मिलकर फैसला किया कि रमेश उसे शुद्ध हिन्दी बोलना सिखायेगा और सुनरिया उसके गृह कार्य को पूरा करेगी । दो-तीन महिने तक सब-कुछ ठीक ठाक चला लेकिन बाद में रमेश कुछ बदला बदला-सा नज़र आने लगा । अब वह स्कूल ड्रेस पहन कर स्कूल नहीं जाता, सुनरिया से बड़ा संभल-संभल कर बोलता । या तो चुप रहता या एकटक उसे निहारता रहता । मोटरसाइकिल पर बैठने के बाद अगर सुनरिया का हाथ उससे छुआ जाता तो झनझना जाता, सनसना जाता । अब वह अक्सर घर से स्कूल के लिए देर से निकलने लगा, जिस पर सुनरिया रूष्ट हो जाती और उसे खरी-खोटी भी सुना देती ।

एक दिन वह सुनरिया को स्कूल ले जाने के लिए उसके घर नहीं आया तो वह खुद ही उसके घर चली गयी । बहुत देर के बाद वह बाहर आया तब इसने उससे पूछा, ‘का बात है भईया... तबीयत तो ठीक है ना... इतनी देर क्यों हुई’ ?

‘समझ में नहीं आ रहा था कि कौन-सा ड्रेस पहनूँ’ – मोटरसाइकिल चालू करते हुए हुए रमेश बोला ।

‘समझने वाली का बात है, कोई भी पहन लीजिए…’ ही...ही...ही...हँसते हुए सुनरिया रमेश के पीछे सीट पर बैठ गयी ।

‘अगर आपसे मिलना न होता, तो ड्रेस चुनने में इतनी दिक्कत न होती’

रमेश की गंभीर आवाज वह समझ नहीं पायी, ‘दिक्कत किस बात की भईया… हम तो रोज मिलते हैं ना’

‘मिलकर भी कहाँ मिल पाते हैं...’

‘मतलब’ ? मोटरसाइकिल रफ्तार पकड़ ली ।

उस ‘मतलब’ का जबाव सुनरिया को उस दिन समझ में आया जब पूरी कॉपी में सुन्दरी सुन्दरी लिखा हुआ पकड़े जाने पर चाचा से रमेश की खूब कुटाई हुई । स्कूल में पता करने पर पता चला कि वह दो महिने से अनुपस्थित रहने लगा है । उसके घर में ढ़ेर सारे नए नए कपड़े, सेन्ट (परफ्यूम) और सुनरिया के नाम से लव-लेटर पड़ा मिला । पूरे गाँव में हल्ला हो गया कि ‘भाई-बहन दोनों की आशिकी चल रही थी । पढाई के नाम पर दोनों अलग ही गुड़ खिला रहे थे...’

‘देखो न भईया भईया कहती थी...’

‘अरे दिन को भईया और रात को...’

सुनरी तो यह सब सुनते ही पहले हड़बड़ा गयी, फिर उसने अपने माई से सफाई दी... लेकिन न तो माई ने विश्वास किया और न ही बाबूजी ने । उस दिन पहली बार बाबूजी ने अपनी लछमी पर हाथ उठाया... और घर के पिछवाड़े जा कर अपना हाथ पकड़ पकड़ खूब रोये भी और लछमीनिया के इस करतूत पर अफसोस भी जताने लगें कि इतना जतन से जिसको पाले हैं वही नाक कटा के रख दी ।

सुनरिया की पढाई छुड़वाकर आनन फानन में बाबूजी ने उसका बियाह ठीक कर दिया । वह दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के लिए बहुत मन्नतें की पर बाबूजी नहीं माने । वह नहर पर बैठ बेहा पकड़ पकड़ कर कई दिनों तक रोती रही । उससे पहले उसे नहीं पता था कि वह उन बेहों से कितना प्रेम करती थी । अचानक से वे पौधे अपने-से जान पड़ने लगें । उनसे बिछड़ने का दुख सताने लगा । वे पौधे गवाह थे उसके जन्म का, उसकी माँ की मजबूरियों की, उसके बीमारियों की । पर अब पालने वाले माँ-बाप के प्रति भी कुछ फर्ज थे जो उसे निभाना था । माँ-बाप का कर्जा बियाह करके ही चुकाया जा सकता था ।

विदा हो गयी सुनरिया । किसी और के घर की लक्ष्मी बन गयी । ससुराल जाते ही उसके पति मनोहर लाल की रेलवे में नौकरी लग गयी । घुँघट में खड़ी हाथ पसारे बहू की अँजूरी में परसादी देते हुए ससूर जी ने कहा, ‘अब समझ में आया कि तुहरे बाबू जी तुमको लछमी जी काहे कहते थे’ ।

सुनरिया के आँखों में पानी भर आया । उसे लगा कि ससूर के रूप में उसे बाबू जी वापस मिल गये हैं । माई-बाबू जी को याद कर करके वह खूब रोई और भगवान को धन्यवाद भी दी कि मुझे इतना प्यार करने वाला ससुराल मिला है ।

लछमी जी आखिर लछमी जी थीं उन्हें जनम ले-लेकर परिच्छा देना पड़ा । फिर यह लछमिनियाँ भला परिच्छा देने से कैसे बच सकती थी । सात-आठ साल में पाँचवी बार कोख गिराने का अनशन लेकर सास-ससूर बैठे थे ।

पहली बार जब गर्भ ठहरने का पता चला था तब सुनरिया की सुनराई और बढ़ गयी थी । उसके कदम जमीन पर नहीं पड़ते थे । रात के अँधेरे में वह खुशी-खुशी मनोहर से अपने माँ बनने के सौभाग्य को सुना पायी थी । मनोहर का चेहरा क्या, अंग अंग खिल उठा । अँधेरे में मुँह तो दिखता न था, छुअन से ही भाव का आभास होता । बाहों में भींच कर सीने से लगाते हुए अपने भाग्य को सराहा था मनोहर ने उस दिन । देह विदेह-सी लगने लगी थी ।

सुबह होते ही मनोहर ने अपने माई को खुशखबरी सुनाई । माई उस समय मकई के खेत में बाली तोड़ रही थी, माई के हाथ क्षण भर रूकें और फिर से बाली तोड़ने लगी । उनके चेहरे पर सिकन तक न आयी । मनोहर माई के इस व्यवहार को समझ न पाया, ‘सुनकर खुशी नहीं हुई माई... ! कुछ तो बोलो’

माई मनोहर की ओर बिना देखे मकई की बाली तोड़ते हुए अपने धुन में कहती गयी, ‘देख रहे हो इ मकई का दाना… इसे जब जमीन में धंसाया जाता है तो पहले अंखुआता है, फिर धीरे-धीरे पुनगी निकलती है, उसके बाद पौधा बनता है । पौधा जब बड़ा हो जाता है तब उसमें से मकई की बाली फूटती है । जिस पौधे से बाली निकलती है वही पौधा जीवन में उपयोगी होता है, मानुष के लिए भी और गोरू-चउवों के लिए भी । यह बाली अगर पईया हो जाये या फिर बाली ही न निकले तो खाली गोरू-चउवों के खाने के काम आयेगा’ ।

‘का कह रही हो माई... हमारा पहला बच्चा है…’ खीझते हुए मनोहर ने कहा ।

‘तुमने अभी दुनियाँ नाहीं देखी है बेटा... पहली संतान बेटा होना चाहिए, कम से कम तुहरे लिए तो बहुत जरूरी है । अगर तुहरे चचेरे भाई को बेटा हो गया तो आगे चल कर घर का मालीक उ बनेगा । अभी उसका बियाह नाहीं हुआ है तब तक बेटा अगोर लो’ ।

‘तुमको कैसे पता कि बेटा है कि बेटी…? कुछ भी कहे जा रही हो’

‘हम तो मेहरारून की चाल देख के बता दें कि कौन-सा बच्चा जनमेगा... हमको पता चल गया था कि दुलहिन पेट से है । हम तीन पखवाड़ा बीतने का समय अगोर रहे थे । अब ले जायेंगे डगडर बाबू के पास...’

‘हम चलें साथ में’ ?

‘तू का चलोगे... अपनी नौकरी चाकरी देखो । हम तुहरे बाबूजी के साथ लिया जायेंगे’

मनोहर ड्यूटी जाते समय सुनरिया से गले लगते हुए कहा, ‘अपना ध्यान रखना… मन तो है कि हम भी साथ चलें पर सोच रहा हूँ कि माई बाबूजी क्या सोचेंगे...’ ।

सुनरिया घुँघट में सपना संजोये अस्पताल पहुँच गयी । डॉक्टर ने पहले चेक किया फिर अल्ट्रासाउंड किया । उसके बाद उसे एक सूई (इन्जेक्शन) लगा कर कुर्सी पर बैठा दिया । वह बैठे-बैठे बेहोश हो गयी और उसे हॉस्पीटल में भर्ती कर दिया गया । होश आने पर उसे समझ में नहीं आया कि उसे हुआ क्या था ? उसकी माई मुडवारी (सर की तरफ) और बाबू जी दूर कुर्सी पर बैठे थे । माई सिसक रही थी – ‘पहला बच्चा था । हमारी सुनरिया देह-धाँजा से तो ठीक ही थी फिर बच्चा कैसे खतम हो गया’ ?

सुनरिया कई दिनों तक सुन्न पड़ी रही । मनोहर कई दिनों तक खाना नहीं खाया । उसे अपने माई की कही बातें बार बार याद आतीं फिर वह खुद को ही झुठलाता कि यह नहीं हो सकता वह अपने ही माँ-बाप पर शक कैसे कर सकता है ! इसी बीच संदेशा आया कि सुनरिया के माई-बाबूजी टेम्पू (ऑटो) में बैठ कर कहीं जा रहे थे, जिसका एक ट्रक वाले से भिडन्त हो गयी और वे इस दुनियाँ में नहीं रहें । सुनरिया रोते धोते नइहर पहुँची । लछमन और वह अब टूअर (अनाथ) हो चुके थे । लछमन माई-बाबूजी का अंतिम क्रिया-करम कर उदास बैठा रहता । सुनरिया उसे समझा-बुझाकर खिलाती पिलाती । अचानक से उसे लछमन में अपना बच्चा दिखायी देने लगा । वह उसे अपने बच्चे की तरह पालने लगी । अपने कंधों पर उसकी सारी जिम्मेदारी ले ली । तीन साल बाद उसका बियाह-दान कर चिन्ता मुक्त हो गयी । ‘तुहार घर अब तुम्हीं दोनों सम्भालो’ कहते हुए ससुराल चली गयी ।

उसके बाद तीन बार और गर्भ से रही, लेकिन एक एक करके जबरदस्ती उसका गर्भ गिरवा दिया गया । वह लड़ती रही छटपटाती रही । मनोहर के सामने हाथ जोड़ जोड़कर मिन्नतें करती रही कि वह सुन ले । वह या तो माँ-बाप को समझा दे या उनसे अलग हो जाये । लेकिन मनोहर उसे अपनी गोल गोल बातों में उलझा देता और माँ-बाप की सेवा में लगा देता । पाँचवी बार गर्भ ठहरने पर उसने मनोहर से दृढ़ शब्दों में कहा कि अब उसे कोई न कोई फैसला कर लेनी चाहिए । लेकिन हर बार की तरह मनोहर यही कहकर बात टाल दिया, ‘अपने ही माँ-बाप के खिलाफ कैसे जाऊँ’?

‘तो का आप हमसे प्यार नहीं करतें, अपना बच्चा नहीं चाहतें’ !

‘मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और अपना बच्चा भी चाहता हूँ... पर माँ बाप को छोड़ नहीं सकता… ! आखिर वे हमारे ही माँ-बाप हैं, देश-दुनियाँ क्या कहेगा कि बीवी के लिए माँ-बाप को छोड़ दिया’!

‘आपको देश-दुनियाँ की परवाह है, हमारी नहीं’ ?

‘मुझे सबसे अधिक तुम्हारी ही परवाह है, इसीलिए...’

‘परवाह... इसे प्यार और परवाह कहते हैं’…? सुनरिया की भौंहे तन गयीं, वह गहरे विषाद से भर गयी और यह भी समझ गयी कि मनोहर उसका साथ कभी नहीं देगा । उसे उस घर में एक एक पल भारी लगने लगा । उस रात वह सबके सोने के बाद अपने कपड़े और कुछ गहने लेकर नइहर भाग आयी । पहले तो लछमन उसे ससुराल लौट जाने के लिए कहा लेकिन जब उसने सारी हालत सुनी तब उसका हृदय बहन के लिए उमड़ आया । भाई-भौजाई ने कुछ दिनों तक बहुत सेवा की । सुनरिया ने रेखा को जन्म दिया । ससुराल में संदेशा पहुँचवाने के बाद भी वे झाँकने तक न आयें । सुनरिया ने भी ठान ली कि वह उस घर में कभी वापस नहीं जायेगी ।

रेखा धीरे-धीरे बड़ी होने लगी । लछमन के बेटे के साथ खेलने लगी । पर पता नहीं क्यों सुनरिया और रेखा भाई-भौजाई के लिए अब बहन और भाँजी नज़र नहीं आतीं बल्कि पटिदार या हिस्सेदार नज़र आने लगीं । जलती आँखें अब पेट जलाने लगीं । एक-दो दिन जब दोनों भूखे सोयीं तब सुनरिया ने फैसला लिया कि अब वह गाँव में कटिया सोहनी करके पेट पालेगी पर भाई-भौजाई के आगे हाथ नहीं फैलायेगी ।

सुनरिया ने कुछ दिनों तक कटिया सोहनी किया । भाई का घर छोड़ माँ-बाप की जमीन के एक कोने पर मड़ई डाल कर रहने लगी । रमेश को सुनरिया का यह हाल देखा नहीं गया तो उसने गाँव में खुले नए स्कूल में उसे दाई की नौकरी दिलवा दी । स्कूल के प्रिंसिपल से दृढ़ता से यह कहलवा भी दिया कि किसी भी हाल में यह बात सुनरिया को नहीं पता चलनी चाहिए, नहीं तो वह नौकरी लेने से मना कर देगी ।

सुनरिया ने एक-एक पैसा जोड़ कर नहर के किनारे बेहा से भरा एक बिगहा खेत भी खरीद लिया । सुनरिया फिर से पनप आयी । रेखा अब उसी सरकारी इण्टर कॉलेज में आठवीं क्लास में पढ़ने लगी जहाँ सुनरिया कभी पढ़ा करती थी ।

इतने सालों में गाँव की हालत में कुछ खास बदलाव नहीं आया था । अब भी वहाँ टैम्पू की किल्लत थी । अगर टेम्पू चलता भी तो इतने पैसे नहीं थे कि रेखा टेम्पू से पढ़ने जाती । हालांकि सुनरिया ने बहुत कोशिश किया कि जो दुख उसे अपने जिनगी में मिला है उसकी बेटी को न मिले । लेकिन उसके सारी कोशिशों के बावजूद भी एक दिन अपने हालात के सामने रेखा हार गयी और सुनरिया भी ।

जुलाई के अंत में सुनरिया जब संझा बेरी धान का बीया देखने गयी उसी समय किसी के तड़पने-कहरने की आवाज आयी । सुनरिया डर गयी कि कहीं उसकी ही तरह किसी बच्चे को यहाँ जन्मा कर फेंक तो नहीं दिया गया... । लेकिन यह किसी बच्चे की आवाज नहीं... किसी बडी लड़की की है । काँपते कदमों से बेहा की ओर जैसे-जैसे वह बढ़ने लगी उसे आवाज स्पष्ट होने लगी । अनहोनी की आशंका से करेजा धकधकाने लगा । पैरों में जैसे जाँता बंध गया हो । गटई सूख गया । वह बेहों को हटाते हटाते जब नीचे झाँक कर देखी, उसके आँखों के आगे अंहार हो गया । उसे न कुछ सूझ रहा था न कुछ बूझ रहा था । वह रेखा रेखा कहकर दहाड़े मारने लगी । रेखा की सलवार दूर थी जाँघें खून से सना गयी थीं । उसका मुँह उसी के दुपट्टे से बंधा था जिससे वह आवाज भी नहीं लगा सकती थी । सुनरिया ने जल्दी से उसके मुँह पर बँधा दुपट्टा खोला, सलवार पहनाया । आस-पास आवाज लगाई, पर कोई हो तब तो सुनाई दे ! बहुत दूर खेतों में काम कर रहे गाँव के किसानों के कानों तक बड़ी मुश्किल से आवाज पहुँच सकी । वे आकर भारी कदमों से रेखा और सुनयना को घर ले गयें ।

‘लड़की जात अपनी ही ईज़्ज़त जायेगी, किसी को कानो-कान तक खबर नहीं होनी चाहिए’... ‘का पुलीस उलीस के चक्कर में पड़ोगी’... ‘साले सिर्फ पैसे खाते हैं, गरीबों की कौन सुनेगा’… ‘इसे ही बचकर चलना चाहिए’... ‘जुग-जमाना एतना खराब है, फिर पढ़ने भेजने की जरूरत का थी’… अब उतना दूर अकेले पढ़ने जायेगी तो’… ‘लड़की जात को पढ़ने की जरूरत ही का... बियाह-दान हो जाता... निके-सूखे ससुरइतिन हो जाती’… अनेक तानों-उलाहनों के बीच एक दिन सुनरिया रेखा को लेकर पुलिस थाने पहुँच गयी । पुलिस रपट दर्ज करने ही जा रही थी कि जैसे ही उन्होंने बड़का घराने के बेटा और उसके दो दोस्तों के नाम सुनी, वे हाथ जोड़ लिए और ईज़्ज़त के साथ घर लौट जाने की सलाह दी । सुनरिया चिखती रही चिल्लाती रही पर रपट दर्ज नहीं हुई । वह हार कर घर आ गयी । बड़का घराना जाकर उन्हें गरियाती रही । बड़का घराने ने आदमी बुलवा कर उसे उसके घर फिंकवा दिया । गाँव के बहुत से लोगों के सामने उसने हाथ जोड़ा लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी । एक महीने बाद लछमन उसे एक वकील के पास ले गया और वकील के हाथ-पाँव मारने पर एफ.आई.आर. दर्ज हुई । पुलीस पहले सुनरिया के घर आयी फिर बड़का घराना गयी और वहाँ न जाने क्या पट्टी पढ़ाई गयी कि पुलीस बिना किसी गिरफ्तार के वापस लौट गयी ।

उसी रात सुनरिया के मड़ई में आग लग गयी । छान धू-धू करके जलने लगी । बड़ी मुश्किल से दोनों जान बचाकर भागीं कि रास्तें में लाठी-डंडा लेकर इन्हें ढूँढते बड़का घराने के आदमी दिखायी देने लगें । भागते भागते वे जंगल में पहुँच गयीं । अगर खेतानी में भागतीं तो अजोरिया (चाँदनी) रात में दिखायी दे जातीं । जंगल में भी आदमी घूमते हुए नज़र आने लगें । जंगल से होते हुए नहर में बेहों के बीच छुप कर इन्होंने जान बचाने की कोशिश की । जन्म से लेकर बहुत बार सम्भाला है इन्हीं बेहों ने, आज भी सम्भाल लिया । सुनरिया का ध्यान तब भंग हुआ जब उसने किसी को बात करते सुनी-

‘समय का हो रहा भईया’?

‘वही एक या दो बज रहा होगा’

‘उ सरवा वकील का क्या हुआ, पकड़ाया या नाहीं’ ?

‘पकड़ा गया... भाग कर जायेगा कहाँ’ ?

‘इधर भी तो कुछ दिख नहीं रहा... चलो चलते हैं’

‘हाँ...चलना तो चाहिए... आखिर बिना वकील के ये लोग का उखाड़ लेंगी’

‘धरमेन्दरवा को कह देते हैं नज़र रखेगा… हम चलते हैं’

धीमी पड़ती कदमों की आवाज से जान में कुछ जान आयी । रेखा का गला बुरे तरिके से सूख चुका था वह प्यासी थी । खाँसने लगी । हिम्मत बँधाते हुए सुनरिया ने कहा, ‘धीरज धर बेटा । मन करे तो नहर का पानी पी ले । अजोर होने से पहले हमें यहाँ से भागना है... हिम्मत रख’ ।

सम्भलते सम्भलते दोनों नहर से बाहर निकलकर खेतों की ओर जाने ही वाली थीं कि धरमेन्दरवा लाठी लेकर सामने खड़ा मिला । सुनरिया हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी, ‘धरम भईया हो-हल्ला मत करना । हमें जाने दो । हम तुहार गोड़ धर रहे हैं’ ।

धरमेन्दरवा अड़ा रहा सुनरिया बोलती रही, ‘हमारी रक्षा करो आखिर हम इसी गाँव की बेटी हैं... हमारी रक्षा करो...’

धरमेन्दरवा अटल था सुनरिया सामने गिड़गिड़ाती रही ।

धरमेन्दरवा ने अपना मुँह खोला, ‘सीधे सीधे मान…’

मा कहते ही मौका देख कर रेखा ने पीछे से उसके मुँह में दुपट्टा फेंककर कस दिया । सुनरिया ने उसकी लाठी छीन ली । उसमें हाथी का बल समा गया, ‘हम अपनी बेटी को न्याय दिलवा कर रहेंगे... अब हम पीछे नाहीं हटेंगे । तू हमको मारेगा... मार मार मउग जात...’ कहते कहते उसने उसे उसकी ही लाठी से पहले खूब कूटा । धरमेन्दरवा ने बचाव करने की काफी कोशिश की लेकिन वह हार गया । रेखा बेहों की नरम नरम डंडिया तोड़ लाई, ऊँख के पत्तों की गुर्रही बनाया, उसके बाद उसी से उसे खड़ा करके ताड़ के पेड़ से बाँध दिया । सुनरिया ने अपनी साड़ी का कुछ हिस्सा भी फाड़कर गाँठ को मजबूत बनाया ।

अपनी पहली जीत से दोनों के चेहरे चाँदनी रात में दमक उठे । हौसला और बढ़ गया । दोनों खेतानी की ओर भागने लगीं । भागते हुए हाँफती आवाज में रेखा ने पूछा, ‘अम्मा, हम कहाँ जा रहे हैं’ ?

‘पुलीस स्टेशन’

‘पुलीस स्टेशन... !! लेकिन उ तो सब बड़का घराना से मिले हुए हैं’

‘यहाँ के पुलीस मिले हैं न... हम गोरखपुर के बड़का थाना जायेंगे’ ।

‘हमको बहुत डर लग रहा है अम्मा, हम फिर कभी गाँव लौट भी पायेंगे या नहीं ? इन लोगों ने तो हमें जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया…’

‘डर मत मेरी बच्ची... हिम्मत रख... ये जितना हमें उखाडेंगे, हम उतना ही पनपेंगे…’

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