हरिया इंदर भोले नाथ द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हरिया

"हरिया"

एक बूढ़ी दादी दरवाजे से बाहर आई, और रोते हुए मंगरू से बोली, बेटा तुम्हे लड़का हुआ है । पर बेटा तोहार मेहरारू बसमतिया इस दुनिया से चल बसी, अब इस अभागे का जो है सो तुम्ही हो । बेचारी इतने सालों से एक औलाद के लिए तरसती रही, इतने सालों बाद भगवान ने उसकी इच्छा पूरी की, तो बेचारी उसकी सकल देखे बिना ही इस दुनिया से चल बसी । बेचारी बड़ी अभागन थी ये कहकर बूढ़ी दादी रोने लगी । ये सब सुनके मंगरू को तो जैसे साँप सूंघ गया, बेचारा पागलों की तरह दहाड़े मार के रोने लगा । और चिल्ला चिल्ला कर ये कह रहा था, हे भगवान तूने ये क्या किया एक दुआ के बदले तूने मेरी पूरी दुनिया छिन्न ली । अगर मुझे पता होता के तूँ मेरी एक दुआ के बदले,मेरी पूरी दुनिया मुझसे छिन्न लेगा तो मैं कभी भी तुझसे औलाद न माँगता । इतने सालों से जिस औलाद के लिए मैं तरसता रहा, तूने इतने सालों बाद उसे दिया भी तो उसके बदले मुझसे मेरी पूरी दुनिया छिन्न ली । अब तूँ ही बता मैं क्या करूँ ?
मेरी बसमतिया मुझे छोड़कर चली गई ये कह कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा ।

बीना दूसरी शादी किए ही मंगरू बच्चे को पालने लगा।
दिन बीतते गये, मंगरू ने बड़ी मेहनत की उस साल खेतो मे अच्छे- ख़ासे फसल हुए, कुछ अनाज अपने लिए रख कर उसने सारे अनाज बेच दिए । उस पैसे से उसने दो जोड़ी बैल खरीद लिए। अपने खेत की बुआई-जुताई करने बाद, दूसरों के खेत भी जोतता और बोता, मिले पैसों मे से आधा तो वो बैलों पे खर्च कर देता, ताकि उनकी सेहत बनी रहे, तभी तो वो ज़्यादा से ज़्यादा खेत जुटाई कर पाएँगे, और आधा पैसा बचा के रखता,खाने की कमी तो थी नही, घर मे अनाज भरा पड़ा था।
दिन बीतते गये दूसरे साल भी अच्छी फसल हुई, अपने लिए कुछ अनाज रख कर उसने सारे अनाज बेंच दिए ।
मन्गरु बड़ा खुश था, काफ़ी पैसे उसने जमा कर लिए थे । सोचता काश ये अच्छे दिन देखने के लिए मेरी बसमतिया जिंदा होती, फिर मन ही मन कहता चलो जो हुआ सो हुआ,जो नही है उसके याद मे रोने से क्या फ़ायदा।
मंगरू के दिल मे अपने बेटे "हरिया" के लिए काफ़ी अरमान थे। गाव वालों से कहता मैं तो अनपद-गवार रह गया, लेकिन अपने बेटे "हरिया" को मैं एक काबिल इंसान बनाउँगा पढ़ा लिखा कर । खूब पढ़ाउँगा मैं उसे, जो ग़रीबी के दिन मैने देख हैं वो नही देखेगा।
लेकिन मंगरू के अरमान तब टूट गये जब "हरिया" 6 साल का हुआ। क्योंकि वो और बचों की तरह नही था, वो नाही किसी बच्चे के साथ खेलता ना किसी से बात करता, बस चुपचाप गुमसूम सा रहता, ना खुद ख़ाता ना नाहाता सारा कुछ मंगरू को ही करना पड़ता। बस यही दुख मंगरू को खाए जा रही था, के मेरे बाद इसका क्या होगा, मैं कब तक जिंदा रहूँगा और इसकी देख भाल करता रहूँगा । कितने अरमान सजाए थे, मैने इसके लिए, कभी खुद को कोसता तो कभी भगवान को बुरा भला कहता।
हे भगवान ये तूने क्या किया, इतने सालों बाद तूने एक औलाद दी,उसके बदले मेरी पत्नी मुझसे छिन्न ली । इसके बाद भी मैंने दिल पे पत्थर रख लिया, ये सोचकर के तूने औलाद तो दी, लेकिन किस काम की ऐसी औलाद, इससे अच्छा था के तू मुझे निवंश ही रखता । अरे मैं कब तक जीता रहूँगा इसकी देख भाल के लिए, मेरे मरने के बाद क्या होगा इसका कौन इसकी देख भाल करेगा।
बस यही चिंता मंगरू को खाए जा रही थी, ना ही खेती मे उसका मन लगता, ना किसी काम मे।

दिन बीतते गये, मंगरू जब उन्ह बच्चों को देखता जो हरिया से उम्र मे छोटे थे, और विद्यालय मे पढ़ने जाया करते थे ।
ये देख हरिया और टूट जाता और मन ही मन कहता काश मेरा हरिया भी इनकी तरह होता, तो कितना अच्छा होता।
हे भगवान तूने मेरे ही साथ ऐसा क्यों किया, और फिर खुद को कोसता और भगवान को बुरा भला कहता ।
हरिया अब 14 साल का हो गया था, लेकिन सिर्फ़ उम्र से, बाकी दिमाग़ से वो ५-६ साल का बच्चा ही था ।
एक दिन अचानक मंगरू की तबीयत खराब हुई, और वो भी हरिया को इस दुनिया मे अकेला छोड़ चल बसा।

हरिया को इतनी समझ तो थी नहीं वो क्या करता, पड़ोसियों ने जैसे-तैसे इंतेजाम कर लाश को श्मशान ले जाकर जलाया ।
मरने के बाद जो बिधि होती है वो चलता रहा, ९वें दिन एक पड़ोसी हरिया को लेकर पंडित जी के पास गया, और बोला पंडित जी कल दसवाँ है (जिस दिन पिंड दान होता है) उ दान का समान लिख देते का-का दान होता है ।
फिर क्या था, पंडित जी ने लंबी सी सामग्रियों का चिट्ठा पकड़ा दिया उन्हे । और कहा के ईमा जवन-जवन लिखा है उ सब लाना तभी मन्गरुवा के आत्मा को शांति मिलेगा नहीं तो उसकी आत्मा भटकती रहेगी ।
पैसे तो थे नहीं अब इसलिए पड़ोसी हरिया को लेकर लाला के पास गया, और जो थोड़ा बहुत खेत था लाला के पास गिरवी रख के पैसे लाया ।
दान का सारा समान खरीद लाए जो भी अक्कड़म-बक्कड़म पंडित जी ने लिखा था ।
पंडित जी ने आते ही पूछा, हाँ भाई सारा समान लाए हो न दान वाला जवन-जवन मैने लिखा था ।
हाँ पंडित जी हम उ सब समान लाया हूँ, जवन-जवन आप लिखे रहें, पड़ोसी ने कहा । पंडित जी बैठ गये पूजा पर, बैठते ही अरे उ दूब (एक प्रकार की घास,जिसे कुश भी कहते हैं पिंड दान के लिए अति-उत्तम आवश्यकता होती है उसकी) नही लाए क्या ?
तभी पड़ोसी ने हरिया से कहा के, जा खेत से दूब लेके आ ।और हाँ देखना साफ-सुथरा हो गंदा-वन्दा न हो.....
हरिया चला गया खेत मे दूब लाने, उसने एक गठर दुब काट लिए, खेत से दूब लेकर आ रहा था । तभी उसे रास्ते मे एक गढ़े मे मरी हुई गाय दिखी जो किसी ने फेंक रखी थी ।

अब हरिया ठहेरा मन्द-बुद्धी, सोचा गाय बड़ी कमजोर हो गई है, शायद इसने कुछ खाया नही होगा । घास का गठर उसके सामने रख वहीं बैठ गया ।
उधर पंडित जी गुस्से से आग बबुला हो रहे थें, गलियाँ दिए जा रहे थें । न जाने कहाँ जाके मर गया ससुरा, अबे तूँ क्या खड़ा-खड़ा मेरा मुँह देख रहा है, जाके देख कहाँ मर गया वो । गरजते हुए पंडित जी ने पड़ोसी को बोला.......

पड़ोसी भागता हुआ खेतों की तरफ निकल पड़ा, देखा के हरिया एक गढ़े मे मरी हुई गाय के पास, घास का गठर रख के बैठा हुआ है ।
तूँ यहाँ क्या कर रहा है रे हरिया बैठ के, उधर पंडित जी कब से बैठे हैं, चल जल्दी दूब लेके ।
दूब और हरिया को लेकर पड़ोसी पंडित जी के पास आया ।पंडित जी हरिया को देखते ही बरस पड़ें.....इतना देर से का कर रहा था रे हरामखोर कहाँ मर रहा था अब तक ।
उ पंडित जी गैया को घास खिला रहा था, हरिया ने कहा ।
क्या..... हम इहा पूजा पे बैठा तुम्हरा इंतजार कर रहा हूँ और तुम उँहा गाय को घास खिला रहे हो...... तभी पड़ोसी ने कहा" उ भी मरी हुई गाय को पंडित जी.....अब तो पंडित जी का पारा और गरम हो गया ।
क्या........... अरे हरामखोर मरी हुई गाय कभी घास खाती है रे.......जो तूँ उका खिला रहा था ।
पंडित जी के मुँह से निकला ये शब्द न जाने कैसे हरिया के दिमाग़ की बत्ती जला दी........
तभी हरिया ने चिल्ला कर के पंडित जी से कहा, जब मरल (मरी हुई) गैया घास नाही खाए सकत, फिर हमर मरल बाबू ई सब दान का समान कईसे ले जायेगा ।
जैसे ही पंडित जी ने हरिया के मुँह से ये शब्द सुना, उनके पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी । फिर क्या था, पंडित जी ने गाव वालों से कहा अरे ई मूर्ख का बकवास किए जा रहा है, और तुम लोग खड़े-खड़े सुन रहे हो । अरे ई पागल को मार के भागाओ इसे यहाँ से वरना अनर्थ हो जाएगा.....अरे ई तो पागल है तुम लोग तो सही हो मार के भागाओ इसे गाँव से ।

फिर क्या था गाँव वालों ने पंडित जी की बात सुनी नहीं के हरिया को गाँव से मार-मार के बाहर निकल दिया । ये कह कर कि तूँ पागल हो गया है......अगर तूँ गाँव मे रहा तो गाँव का सत्यानाश हो जाएगा.....................।।

आज भी न जाने कितने हरिया गाँव से निकाल दिए जाते हैं, या फिर उनकी आवाज़ दफ़न कर दी जाती है । जब भी खोखले रिवाज़ों के प्रति आवाज़ उठाते हैं...........................

मरे हुए की आत्म्शान्ति के लिए सर्वोत्तम दान बस पिंड दान ही है...........
और बाकी के दान तो अपनी इच्छानुसार है.......।।

............. समाप्त

लेखक- इंदर भोले नाथ…