स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (14) Anandvardhan Ojha द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (14)

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (14)
[फिर, स्वप्न हुए बचपन के दिन भी... अध्ययन पूरा हुआ... जीवन युवावस्था की सपनीली ज़मीन पर आ गया और कथा शेष रही--आनन्द.]

'दोनों के बीच मैं ही फाड़ा जाऊँगा...'

हम एक ही वर्ष में, लेकिन दो अलग-अलग शहरों, परिवारों और परिवेश में जन्मे थे। हमारा पालन-पोषण और पठन-पाठन भी भिन्न शहरों में हुआ था। युवावस्था की दहलीज़ पर पाँव रखते ही संयोगवश हम मिले, मित्र बने और हमारी गहरी छनने लगी। मित्रता घनिष्ठ से घनिष्ठतर होती गयी। लेकिन हमारी रुचियाँ भिन्न थीं। हम अलग पथ के पथिक थे। न बोध-विचार का साम्य था, न प्रकृति समान थी। दो अलग धारा में बहनेवाले प्राणी थे हम दोनों।...
वह गम्भीराचार्य था, मैं मुक्त मन का मुखर युवा! वह बाॅडी बिल्डर था, मैं कोमल मन का संवेदनशील युवा-कवि! लिखने-पढ़ने और साहित्य से उसका कोई वास्ता नहीं था। हमारी मनोरचना में भिन्नता बहुत थी। लेकिन, मित्रता शायद शर्तों पर नहीं होती, वह होती है; क्योंकि उसे होना होता है--विधिवशात्। हमारा साथ-संग दीर्घकालिक नहीं रहा, लेकिन मित्रता अक्षुण्ण रही और आज भी यथावत् है। जब तक मैं उसके साथ रहा, शाम होते ही मैं टेबल टेनिस खेलने क्लब चला जाता और वह वर्कआउट करने के लिए जिम। लौटता तो वह भर-कटोरा अंकुरित चना खाता और मैं अपने लिए काॅफ़ी बना लेता।

वह मित्रता का धर्म निभानेवाला शेरदिल इंसान था--मुंहफट, लेकिन स्वच्छ हृदय का। मुंहफट तो था, मगर जो बात उसे न बतानी होती, उसे उसकी ज़बान से कोई उगलवा भी नहीं सकता था। अपने मान-स्वाभिमान की बहुत फ़िक्र थी उसे। अभिमान उसमें बिल्कुल नहीं था, लेकिन स्वाभिमान प्रचुर मात्रा में था। उसका गठीला बदन और आकर्षक व्यक्तित्व हमारे लिए आदर्श बना रहा। मुख़्तसर में कहूँ तो वह एक अत्याधुनिक सुदर्शन पहलवान सरीखा नवयुवक था।...

साथ रहते दो वर्ष भी न गुज़रा था कि हम दोनों के परिवारों में हमारे विवाह की चिंता और चर्चा होने लगी। तब विवाह के लिए न मैं तैयार था, न मेरा पहलवान मित्र। लेकिन घर के बड़े-बुजुर्गों को रोकनेवाला भला कौन था? वे अपनी मनमर्जी चलाते रहे और हम उनकी आज्ञा मानने को विवश बने रहे। मेरे पट्ठे मित्र ने तो अपने घरवालों को दो टूक कह दिया था--'अभी नहीं करनी शादी-वादी...!' लेकिन विधि को यह मंजूर नहीं था। एक कन्या के पिता को अपनी पढ़ी-लिखी योग्य बिटिया के लिए मेरे पहलवान मित्र बहुत पसन्द आ गये थे। वह उसके पिताजी के घर के चक्कर लगाने लगे। बात बढ़ी तो बढ़ती चली गयी। नतीजा यह हुआ कि मित्रवर को न चाहते हुए भी कन्या-निरीक्षण के लिए घर जाना पड़ा। वह बड़ों की आज्ञा की अवहेलना न कर सके। वह ज़माना ऐसा था भी नहीं। जब वह लौटा तो मेरे बार-बार पूछने पर बमुश्किल इतना ही कह सका--'लड़की तो ठीके है।' उसका इतना कहना ही काफी था, मेरे चिकोटी काटने के लिए। मैं उसे जब ज्यादा परेशान करता तो एक रहस्यमयी मुस्कान उसके अधरों पर खेल जाती। कुछ महीने और बीत गये, अंतिम निर्णय का कुछ पता न चला। लेकिन बीतते वक्त के साथ अंदेशा होने लगा था कि बात यहीं बनेगी। चुप्पा पहलवान इस विषय पर ज्यादा कुछ बोलता ही नहीं था।...

एक दिन शाम के वक़्त, जिम जाने के ठीक पहले, जब वह मेरे सामने पड़ा तो शुभकामना-संदेश का एक कार्ड मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला--'ये देखो!'
मैंने पूछा--'क्या है?'
अनासक्त भाव से बोला पहलवान--'खुद ही देख लो, उसी लड़की की शुभकामनाएँ हैं।' इतना कहकर हल्की मुस्कान के साथ वह जिम चला गया और उत्सुकता से भरा मैं लिफ़ाफ़ा खोलकर देखने लगा। उसमें एक मुद्रित कार्ड था और हस्तलिखित एक छोटा-सा पत्र! कन्या का प्रथम पत्र पढ़कर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि कन्या तो सुबुद्ध है!

अब संकट पहलवान के पाले में था। मैं रोज उससे पूछता--'पत्र का उत्तर दिया?' वह मुस्कुरा कर प्रश्न टाल जाता, लेकिन उसकी मुस्कुराहट में ही उसकी पसंदगी का रहस्य छिपा था। एक दिन मैं उसके पीछे ही पड़ गया। मैंने कहा--'कमाल करते हो तुम भी यार! वह लड़की होकर तुम्हें शुभकामनाएँ भेजने और पत्र लिखने का साहस दिखा सकती है और तुम उत्तर देने की हिम्मत भी नहीं जुटा रहे, कितनी गलत बात है। तुम्हें भी तो कुछ लिखना चाहिए न!'
उसने खीझकर कहा--'ये चिट्ठी-पत्री मुझसे न होगी।' बहुतेरी जिरह के बाद, आखिरश मैंने उसे मना ही लिया कि उत्तर मैं लिख दूँगा और वह उसे अपनी हस्तलिपि में यथावत् उतार कर पोस्ट कर देगा। और, यह राज़ मेरे-उसके बीच पोशीदा ही रहेगा ताज़िंदगी।...

जिस शाम उसकी स्वीकृति मिली, उसी रात मैं पत्र लिखने बैठा और सोचता रहा क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ? किसी दूसरे के लिए ख़त लिखना कठिन था और वह भी ऐसे बनते हुए नवीन संबंध के नाम! किसी के लिए प्रेम (जैसा)-पत्र लिखने का मेरे जीवन में भी यह पहला ही अवसर था। क्या कहूँ, कठिन परीक्षा थी। बहुत देर तक चिंतन करने के बाद भी एक शिष्ट और स्नेहिल संबोधन के अतिरिक्त मैं कुछ न लिख सका। कागज़-कलम मेज़ पर छोडक़र मैंने शय्या की शरण ली।...
मैं लेटकर निद्रादेवी का आह्वान करने लगा, लेकिन नींद थी कि आती नहीं थी। मैं सोचने लगा कि अगर ऐसा ही एक पत्र मुझे अपनी भावी पत्नी को लिखना होता तो मैं क्या लिखता? इस विचार ने शब्द देने की शुरूआत की और उन शब्दों से वाक्यों का निर्माण होने लगा। मैं बिस्तर छोड़कर पुनः टेबल पर आ गया और लिखने लगा। भावी पत्नी को संबोधित करते हुए जो भाव-विचार मन में उपजने लगे, जितने रंग मनःलोक में भरने लगे, उन्हें शिष्ट शब्दों में पिरोकर मैं काग़ज पर फैलाता गया। और, देखते-देखते एक सुन्दर शब्द-चित्र तैयार हो गया, जिसे पढ़कर मैं स्वयं संतुष्ट हुआ।... उसी की प्रतिलिपि मेरे बलशाली मित्र ने अपनी भावी पत्नी को प्रथम पत्र के रूप में लिख भेजी।

कुछ दिनों के बाद कन्या का उल्लास से भरा दूसरा ख़त आ पहुँचा। पहलवान ने दूसरा ख़त भी मेरी ओर उछालते हुए कहा--'लो, यह नंबर टू है। अब झेलो।'... दूसरे ख़त में रस-माधुर्य अधिक था। पत्र पढ़कर मुझे आनन्द-लाभ हुआ। पत्र, मेरे लिखे पत्र के आलोक में लिखा गया था और उसमें मेरे लिखे शब्दों की प्रशंसा भी थी। मन पुलकित हुआ।...
मैंने दूसरे ख़त का भी अपने जानते ख़ासा अच्छा उत्तर लिखा--तब जितनी विद्या-बुद्धि थी, सबका उपयोग करते हुए। पन्द्रह-अठारह दिनों बाद तीसरा ख़त भी आ पहुँचा, जिसे मेरी ओर बढ़ाते हुए दबंग मित्र को अंततः कहना ही पड़ा--'अरे यार, तुमने तो मेरी बड़ी अच्छी इमेज बना दी है वहाँ...।'

लेकिन तीसरे ख़त का उत्तर देते ही मुझे बलवान मित्र की संगत से रुख़सत हो जाना पड़ा। इसके साल-भर बाद दिल्ली में मेरा विवाह हुआ और उसके कई महीनों बाद पहलवानजी का भी--उसी कन्या के साथ, जिसे मैं तीन प्रेमपूर्ण पत्र लिख आया था।...

हम संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए अपनी-अपनी राह लगे। वर्षों बीत गए। हम दोनों बाल-बच्चेदार हुए और शहर-दर-शहर भटकते रहे। जब मेरे बच्चे 3-5 साल के हो गये थे, तब एक दिन श्रीमतीजी ने मुझसे पूछा--'सुनिये, आप इतना पढ़ते-लिखते हैं। आपने विवाह के पहले कभी कोई पत्र क्यों नहीं लिखा मुझे? बस, दीपावली पर एक कार्ड भेजा था, जिसे मैंने आज तक सँजो रखा है।'
असावधानी में मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल गया--'मैंने पत्र लिखा तो था, पोस्ट कहीं और हो गया।'
मेरे इस उत्तर से श्रीमतीजी चकित रह गयीं और अन्तर्कथा बताने की ज़िद करने लगीं। विवश होकर मुझे सबकुछ खोलकर बताना पड़ा उन्हें। इस तरह मित्र के प्रति 'ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट' अनचाहे ही हो गया मुझसे। पूरी कथा सुनकर श्रीमतीजी ने ठंढी आह भरते हुए कहा था--'काश, वे ख़त कभी देखने को मिलते मुझे, आखिर लिखे तो थे मेरे लिए न...!'

कई वर्षों बाद प्यारे पहलवान मित्र से मिलने की राह मिली। हम मिले तो पुराने किस्से याद आये। मैंने मित्र से पूछा--'वह प्रारंभिक पत्राचार की बात अब तक परदे में ही है न?' अक्खड़ पहलवान बोला--'वह राज़ तो परदे चीरकर बाहर आ गया यार!'
मैंने पूछा--'वह कैसे? आख़िर तुमने भाभी को बता ही दिया न? जबकि हमारे बीच तय हुआ था, राज़ राज़ ही रहेगा।'
उसने कहा--'छोड़ो भी, जो हुआ, अच्छा हुआ। राज़ खुद ही फ़ाश होने को आमादा हो गया तो मैं क्या करता।' मैं समझ गया यह अकड़ू इसके आगे कुछ बतायेगा नहीं। दूसरे दिन मैं भाभी की शरण में गया और अचानक उनसे पूछ बैठा--'भाभी, वे शुरूआती चिट्ठयाँ कहाँ छुपा रखी हैं आपने, जो इसने लिखी थीं आपको? मैं भी तो देखूँ, क्या लिखा था इस दुष्टात्मा ने।'
भाभी तो जोरदार और निःसंकोची निकलीं। उन्होंने रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा--'छोड़िये भी... मुझे न बनाइए। मैं सब जानती हूँ, किसने लिखे थे वे ख़त।'
मैंने कहा--'जब आप जानती ही हैं तो अब संकोच कैसा? खोजकर दीजिए न चिट्ठयाँ।'
भाभी बोलीं--नहीं, संकोच कैसा? लेकिन, अब चिट्ठयाँ मैं दे नहीं सकती आपको।'
मैंने पूछा--'क्यों?'
वह बोलीं--'क्योंकि मैंने उन्हें फाड़कर नष्ट कर दिया है।'

उन प्रारम्भिक चिट्ठियों के नष्ट होने की जो कथा भाभी ने सुनायी, वह मुख़्तसर में यूँ थी कि गृहस्थी के किसी छोटे-से विवाद में बात बढ़ जाने पर भाभी ने उलाहना देते हुए पहलवान से गुस्से में कहा था--'अब आप मुझ पर चिल्लाने भी लगे हैं? पहले तो बड़े मीठे-मीठे पत्र लिखा करते थे...!'
क्रोध के वशीभूत पतिदेव भी तपाक में बोल पड़े--'अरे, उन चिट्ठियों की बात रहने भी दो। मैं थोड़े ही लिखता था चिट्ठयाँ! हऽ हहा, वो चिट्ठयाँ तो 'ओझा' लिखता था। मैं तो सिर्फ़ उसकी काॅपी करके भेज देता था तुम्हारे पास।'

इस उत्तर से भाभी को बड़ा क्रोध आया और उसी दिन उन्होंने चिट्ठयाँ फाड़कर फेंक दी थीं। इस तरह, सर्वप्रथम मेरे हृदय में उपजनेवाली कोमल भावनाओं का यह हश्र हुआ था, जो सूर्य की पहली किरण सरीखी नर्म थीं। ओह, वे आत्मीय उद्गार अब कभी पढ़ने को न मिलेंगे मुझे!... इस पीड़ा के साथ जब मैं सोने लगा तो पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की एक क्षणिका अन्तर्मन में स्वयं ध्वनित होने लगी, जिसका शीर्षक था-- 'लिफ़ाफ़ा' :
'मजमून तुम्हारा और पता उनका,
दोनों के बीच मैं ही फाड़ा जाऊँगा।'
(क्रमशः)