उदासियों का वसंत - 3 - अंतिम भाग Hrishikesh Sulabh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उदासियों का वसंत - 3 - अंतिम भाग

उदासियों का वसंत

हृषीकेश सुलभ

(3)

दिन सिमट रहा था। अब साँझ का झिटपुटा घिरने लगा था। रोज़ तीसरे पहर बरसने वाले बादल आज जाने कहाँ आवारगी करते रहे! अपनी तिपहरी कहीं और बिताकर अब पहुँचने लगे थे। उनके आने की आहट से साँझ का अहसास तेजी से घना हो रहा था। देखते-देखते धुआँ-धुआँ बादलों से पूरी घाटी भर गई। कुछ वृक्षों के शिखर पर जा बैठे, ......कुछ घाटी में तैरने लगे। एक मेघ-समूह कॉटेज के बरामदे में घुसकर जाने क्या तलाश रहा था! उनके होठों पर मुस्कान तिर गई। उन्होंने बिन्नी की ओर देखा और अपनी आँखों से बादलों की ओर संकेत किया। बिन्नी ने बादलों की ओर देखा था और फिर उनके प्रसन्न चेहरे की ओर देखने लगी थी। उसे मालूम था कि वे सुबह से इन बादलों की प्रतीक्षा में थे। यहाँ आने से पहले वे यहाँ की मेघलीलाओं का वर्णन करते रहे थे। बिन्नी बोली - ‘‘ चलिए बरामदे में। ....अब लगता है वर्षा शुरु होगी।‘‘

‘‘हूँऊँऊँ....!‘‘ एक अह्लाद भरी हुँकारी भरते हुए वे उठे। बिन्नी के साथ बरामदे में पहुँचे। उनको आता देख बादलों ने बरामदा ख़ाली कर दिया था। वे बरामदे में रखी बेंत की कुर्सी पर बैठ गए। बिन्नी ने बरामदे की बत्ती का स्विच ऑन किया। हल्की रोशनी वाला बल्ब दीप्त हुआ। ...........बहुत कुछ ऐसा था उनके पास, जिससे वे मुक्त हो सकते थे। बहुत सारी स्मृतिया, .........बहुत सारे सुख-दुःख, जिनका बोझ वे अपनी आत्मा पर लादे ढो रहे थे और बहुत-सी आदतें, जिन्हें वह सहलाते हुए पाले-पोसे हुए थे ......और बहुत सारी घ्वनियाँ और दृश्य, जिन्हें वह अपनी आँखों में भरकर जी रहे थे, उनसे मुक्ति सम्भव थी। पर वे मुक्त नहीं होना चाहते थे। एक दुर्दम हठ। वे सहज घट जाने वाले पल को अघट बनाने की पर ज़िद पर तुले हुए थे। वे दुर्निवार पलों के सामने अपनी छाती तानकर खड़े थे। वे अमुक्त जीना चाहते थे, यह जानते हुए भी कि अमुक्त नहीं जी सकते। बिना मुक्त हुए, सब धू-धू कर जल उठेगा इन लहराती हुई अग्निपताकाओं की लपटों की आँच में । भस्म हो जायेगा सब कुछ। ये जो, .......कुछ बहुमुँहे घाव, ......कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव टीस रहे हैं, इनकी टीस और बढ़ जाएगी। हर पल सजग और सचेत रहते हुए, ......गरदन की नसों पर अतीत, वर्तमान और भविष्य के अँगूठों का दाब सहते हुए जीने का हठयोग कर रहे थे वे।

रात थी। देर से आनेवाले मेघ जमे हुए थे और झमाझम बरस रहे थे। हवा भी थी। झोंकों-झपेड़ों के साथ जंगल में वर्तुलाकार भाँवर काटती हवा। धरती और आकाश के बीच लम्बवत् वलय बनाती हुई हवा। घाटी की तलहटी से ऊपर उठकर पहाड़ों के शिखर को छूती और शिखर छू कर नीचे तलहटी तक उतरती.....नाचती.....जलबूँदों से खेलती हवा।........ यह हवा उनको उड़ाए लिये जा रही थी। सामने बिन्नी थी। हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामा पहने बिस्तर पर लेटी हुई।

......बिन्नी उन्हें फेसबुक पर मिली थी। उसने ही फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा था। फिर लगभग तीन-चार दिनों की चैटिंग के बाद उसने मिलने की इच्छा प्रकट की थी। पहली बार उससे मिलने जाते हुए वे असहज थे। उनके भीतर डर की एक लकीर लहरा उठी थी। वे दोनों एक कॉफी शॉप में मिले थे। पहली मुलाक़ात में बिन्नी ने उनसे बहुत कुछ पूछ लिया था। मसलन, ....उनके घर-परिवार के बारे में, ......कुछ अतीत और कुछ वर्तमान के बारे में। बिन्नी उन्हें सहज और समझदार लगी थी। गम्भीर भी। और सुन्दर तो वह थी ही। गोरी-चिट्टी, .....तीखे नाक-नक्ष और साँचे में ढली देह वाली। इसके बाद उनकी बिन्नी से ऐसी ही चार-पाँच मुलाक़ातें हुईं। कभी किसी रेस्तराँ में, .......तो कभी किसी कॉफी शॉप में। एक बार उन्होंने साथ-साथ श्रीराम सेन्टर में नाटक भी देखा। अक्सर सुनसान रहने वाली उस अर्द्धचन्द्राकार नीम-अँधेरी सड़क पर पैदल चलते हुए वे बिन्नी के साथ मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन तक आए थे। साथ-साथ पैदल चलते हुए बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी। उन्हें पता तक नहीं चला कि कब वह उनके काँधे पर झुक आई, ........कब उसने अपना सिर टिका दिया, ........और कब उसकी बाँहें उनकी कमर से लिपट गईं। जब सिकन्दरा रोड का किनारा आया, बिन्नी ने अलग होते हुए कहा था - ‘‘यह सड़क मुझे बहुत प्रिय है। जाड़ों में इस सुनसान सड़क पर मैं अक्सरहाँ अपने सुख-दुःख को उधेड़ती-बुनती हुई कई फेरे लगाती हूँ।‘‘

अगले सप्ताह वे बिन्नी के घर थे। बिन्नी ने उन्हें खाने पर बुलाया था। मदनगीर में चौबीस नम्बर की सँकरी-सी गली के एक मकान के तीसरे तल्ले पर दो कमरों के चारों तरफ़ से बन्द दमघोंटू फ्लैट में पहुँच कर जिस सच से उनका सामना हुआ, वह अकल्पनीय तो नहीं, पर विस्मित करने वाला ज़रूर था। बिन्नी के किचन से आ रही मसालों की ख़ुशबू में पूरा घर आप्लावित था। दो कमरे थे। एक में क़िताबों के कुछ बँधे, .......कुछ अधखुले बंडल, दो बड़े बैग, .....और भी कुछ सामान जैसे-तैसे ठुँसे हुए थे। दूसरे में एक गद्दा ज़मीन पर बिछा था। गद्दे पर सफ़ेद चादर थी हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे आर्किड के फूलों की छाप वाली। बिन्नी का खुला हुआ लैपटाप, .......कुछ क़िताबें, जिनमें खुले हुए पन्नों वाली एक अँग्रेज़ी की क़िताब, .....एक नेलकटर, .....एक मॉइस्चराइज़र ट्युब, .......एस्प्रिन टैबलेट्स का एक रैपर, ....सब बिस्तर पर ही पड़ा था। एक स्टील का आलमीरा भी कमरे में था, जिसके एक पल्ले में शीशा लगा हुआ था। बिन्नी ने सकुचाते पूछा था - ‘‘ आपको नीचे बैठने में दिक्क़त तो नहीं होगी?‘‘

उन्होंने तेजी के साथ अपने भीतर उभरते कुछ पुराने दृश्यों को नियंत्रित किया था। चेहरे पर किसी कुशल अभिनेता की तरह इत्मिनान का भाव लाते हुए मुस्कुरा कर बिन्नी की ओर देखा था। .......वे दीवार से पीठ टिकाए गद्दे पर बैठे थे और सामने खड़ी बिन्नी बोल रही थी - ‘‘ अभी हफ्ता भर पहले ही इस घर में शिफ्ट हुई हूँ। सब इधर-उधर बिखरा पड़ा है। बस किचन को किसी तरह ठीक-ठाक कर सकी हूँ कि खाना बन जाए। वैसे भी कुर्सियाँ हैं भी नहीं। सोच रही हूँ चार प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक टेबल...और एक फोल्डिंग कॉट ले लूँ। ...... आप बस पाँच मिनट दीजिए, .....चिकेन तैयार है, ......गरम-गरम रोटियाँ सेंक लूँ, ...फिर ......। आप रोटियाँ लेंगे या चावल बना दूँ? ......या पराठें?’’

‘‘नहीं-नहीं, ........रोटियाँ ही ठीक रहेंगी। चिकेन के मसालों की ख़ुशबू से भूख इतनी तेज़ हो गई है कि पानी आ रहा है मुँह में। जल्दी करो...।’’ उन्होंने हँसते हुए कहा था।

‘‘ नवाबों के शहर लखनऊ की हूँ। लखनऊ के लोग नानवेज के स्पेशलिस्ट होते हैं। ....हर फैमिली की अपनी रेसिपी होती है। .....बस दो मिनट।‘‘ बिन्नी किचन की ओर भागी थी।

उन्होंने ख़ूब सराह-सराह कर खाना खाया था और वहीं उस नीचे बिछे हुए गद्दे पर लेटे हुए आराम कर रहे थे। बिन्नी उनकी बगल में दीवार से पीठ टिकाए बैठी थी, उनकी एक हथेली को अपने बाएँ हाथ की हथेली में लेकर दाएँ हाथ से सहला रही थी। कभी तलहथी, तो कभी अँगुलियों को सहलाती हुई बोल रही थी बिन्नी - ‘‘.........पिछले दो-तीन महीनों से तनाव में थी। जीवन नर्क हो गया था, पर मैं नर्क का दरवाज़ा तोड़कर भाग निकली। ......हम दोनों तीन साल से लिव-इन रिलेशन में रह रहे थे। मैं नहीं गई थी उसके पास रहने। तुहिन ही आया था मेरे पास। हालाँकि उस समय इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता था कि कौन किसके पास रहने गया! ........या अब भी, अश्लील होकर अतीत बन चुके इस सम्बन्ध की कथा में इस बात का कोई अर्थ नहीं कि मैं उसके पास रहने गई या वह मेरे पास आया। मैं उन दिनों अच्छी नौकरी कर रही थी। चालीस हज़ार तनख़्वाह थी मेरी। मैं जी.के. के पम्पोश में रहती थी। कुछ ही महीनों बाद जब उसकी नौकरी लगी, उसकी सलाह पर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर से ही अनुवाद का काम करने लगी। तुहिन के प्यार में बौरा गई थी मैं। एक लाख से ऊपर तनख़्वाह थी उसकी। लगभग छोड़ी हुई नौकरी के वेतन के करीब-करीब मैं भी अनुवाद से कमा लेती। जीतोड़ मेहनत करती और उसकी देखरेख भी। मेरी कमाई से घर चलता और उसकी तनख़्वाह से नई ख़रीदी गई कार के लोन की किश्त का भुगतान होता और बाक़ी जल्दी ही फ्लैट ख़रीदने के लिए जमा हो रहा था। वह रूठता और मैं उसे मनाती। मैं रूठती और फिर अपने रूठने से, अपने ही परेशान हो जाती। मुझे लगता, मैं रूठकर उसे तनाव दे रही हूँ, सो ख़ुद ही मान जाती और अपराधबोध से भर कर उससे वायदा करती कि अब नहीं होगा ऐसा। ......अब सोचती हूँ अपनी मूर्खताओं पर तो हँसी आती है मुझे। ......कुछ महीनों पहले मेरा माथा तब ठनका, जब वह अकारण मुझसे खीझने और ऊबने लगा था। जिन बातों और अदाओं पर वह फिदा रहता था, वे बातें और वे ही अदाएँ उसे चिढ़ाने लगी थीं। मेरी नंगी देह काँपती रह जाती और वह......! कल तक जो दीवानों की तरह मेरे पीछे-पीछे डोल रहा था, .......जो रात-रात भर जागता और आटे की लोई की तरह मेरी देह को गूँधता, वह मुँह चुराए फिर रहा था। .......और एक दिन उसने रहस्य खोला कि .........उसे अपने ऑफिस की एक लड़की से प्यार हो गया है। वह उसके साथ काम करती है। ......कि वह उससे शादी करना चाहता है। .......पर वह मुझे भी प्यार करता है और मेरे बिना जी नहीं सकता। .....कि अगर मैंने उसे छोड़ दिया तो वह उस लड़की के साथ सामान्य जीवन नहीं जी पाएगा। .......मैं सुनती रही पहले। फिर रोई ........चीख़ी-चिल्लाई .........दो दिनों तक खाना नहीं खाया। पहली बार तुहिन ने दो दिनों बाद मुझे मनाया। मैं मान गई। आप सोच सकते हैं कि दो दिनों तक भूखी रह कर मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की थी। यह मान जाना तुहिन को स्वीकारना नहीं बल्कि, अपनी मूर्खता से वापसी थी मेरी। इस बीच तुहिन हाथ-पाँव जोड़ता रहा। एक बार जाने किन कमज़ोर पलों में मैंने तुहिन को अपने पास आने दिया था और उसके बाद मुझे अपनी ही देह से घिन आने लगी थी। मुझे सेक्स बहुत प्रिय है, पर वह बलात्कार था। पर क्या करती मैं? ख़ुद ही तो बलात्कार के लिए तैयार हो गई थी। बहुत मुश्किलों से उबर सकी थी मैं। तुहिन मेरे निकट आने की हर सम्भव कोशिशें करता। पर मैंने उसे इसके बाद अपनी अँगुली तक नहीं छूने दी। ......मैं अब और सहने को तैयार नहीं थी। ......वह चाहता था, उस लड़की से शादी करना, जो उससे उम्र में कुछ छोटी थी और उसके बराबर कमा रही थी। ........वह चाहता था कि मैं भी उसके जीवन में प्रेमिका की तरह उपस्थित रहूँ। ......वह चाहता था कि मैं उसे शादी के लिए अनुमति दे दूँ और उसकी रखैल बन कर रहूँ। जिस रात तुहिन ने यह प्रस्ताव दिया उसके दूसरे दिन मैं किराए का मकान लेने निकली। एक दोस्त ने मदद की और मकान उसी शाम मिल गया। दूसरे दिन अपनी क़िताबें सहेजती रही। और तीसरे दिन अपनी क़िताबों और कपड़ों के साथ यहाँ आ गई। अपना सारा सामान वहीं छोड़ आई मैं। मैं चाहती तो उसे कह सकती थी कि वह पम्पोश वाला फ्लैट छोड़कर चला जाए, पर.......। पीछे-पीछे वह आया था भागते हुए। दूसरे दिन यह गद्दा .........गैस का चूल्हा .........कुछ बर्तन लेकर मेरी अनुपस्थिति में आया और नीचे मकान मालिक के पास रख गया। अब इसे कहाँ फेंकती! मकान मालिक संदेह करता.....। बहुत थक गई थी। लगातार बिना सोए .......अपने-आप से जूझते-लड़ते हुए भी तो थकान होती ही है। इस घर में जब से आई हूँ ख़ूब सो रही हूँ। जाने कैसे इतनी नींद लिये इतने दिनों से जी रही थी! सोचती हूँ लखनऊ हो आऊँ। अम्मा-पापा से मिले दो साल बीत गए। दोनों नाराज़ हैं। तुहिन के साथ मेरे लिव-इन रिलेशन को वे किसी क़ीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए थे और उन लोगों ने मुझसे अपने रिश्ते तोड़ लिये। पापा से मिलने को जी छटपटा रहा है। वे बीमार चल रहे हैं। मेरी दोनों छोटी बहनों की इस बीच शादियाँ हो चुकी हैं। जल्दी ही जाऊँगी लखनऊ। यह मकान भी बदलूँगी। अगले दो-तीन महीनों में व्यवस्थित हो जायेगा सब। आज पहली बार मेरे किचन में खाना बना है। सोचा, आपके साथ अपनी नई गृहस्थी का पहला भोजन शेयर करूँ ......सो रात ही आपको कहा था मैंने कि आप मेरे साथ खाना खाएँगे........। आपको अजीब लग रहा है न यह सब सुन कर? ’’

अपने सवाल के जवाब का इंतज़ार किए बिना बिन्नी ने उनकी हथेली को अपने चेहरे से सटा लिया था। बिन्नी ने जब बोलना शुरु किया था, वे लेटे हुए थे और बिन्नी बैठी थी। पर जब उसने अपनी बात के अंत में सवाल किया वे बैठे हुए थे और उनकी गोद में सिर रखे बिन्नी लेटी हुई थी। उनकी मुद्राएँ कब बदल गईं, उन्हें भी पता नहीं चला।

वे ग़ौर से बिन्नी को निहार रहे थे। हौले-हौले उनकी आँखें बिन्नी के चेहरे पर टहल रही थीं। उदासियों के घने कोहरे में डूबा हुआ था बिन्नी का चेहरा।

‘‘उदासियों का भी अपना वसंत होता है।‘‘ धीमे स्वर में कहा था उन्होंने और बिन्नी की उदास आँखों में उनकी आँखें बहुत गहरे तक उतर गई थीं। बिन्नी ने अपनी आँखें हौले से बंद कर ली थीं।

उनकी एक हथेली बिन्नी का सिर सहला रही थी। अँगुलियाँ उसके बालों में उलझ रही थीं। दूसरी हथेली बिन्नी के हाथ में थी। वह बोली -‘‘आपकी अँगुलियाँ बहुत लम्बी और नाज़ुक हैं।‘‘

वे मुस्कुराते हुए उसे चुपचाप निहारते रहे थे। बिन्नी ने फिर कहा था -‘‘ आपको मालूम है...आपकी अँगुलियों में जादू है...?‘‘

बिन्नी की उदासियों का गझिन कोहरा कुछ झीना हुआ। उन्होंने कहा था -‘‘तुम्हारी प्रशंसा से मैं आत्ममुग्ध नहीं होनेवाला।‘‘

बिन्नी मुस्कुराई थी। कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को। फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था।

..........वे बिन्नी को निहार रहे थे। गरज-बरस कर थम चुके थे मेघ। कमरे में हल्की रोशनी थी। हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामे में सोई बिन्नी के होठ नींद में लरज़ रहे थे। उन्होंने अपनी अँगुली से उसके होठों को छुआ। उनके छूते ही और ज़ोर से लरज़े उसके होठ। उन्होंने अँगुली से ही होठों को सहलाया। नींद में ही कुनमुनाई थी बिन्नी और उसकी आँखें खुल गई थीं।

करवट सोई बिन्नी पीठ के बल हो गई। उसने आँखें बन्द कर ली थीं। वे उसके चेहरे पर झुक रहे थे। उनकी उष्म साँसों की छुवन से बिन्नी के चेहरे की त्वचा का रंग बदलने लगा था। चेहरे की गोराई में ईंगुर की लालिमा घुलने लगी थी। उसकी त्वचा से छनकर उसके मन का अंतरंग झिलमिल कर रहा था। ......बिन्नी के होठों की पंखुड़ियों पर चिराग़ जल उठा। उर्ध्व उठती, ......काँपती, ....लपलपाती लौ। बिन्नी की दोनों बाँहें ऊपर उठीं और वे उसके पाश में बँध गए थे। .........बिन्नी की निरावृत देह को जहाँ-जहाँ उनके होठों ने छुआ, ......असंख्य दीप-शिखाएँ झिलमिला उठीं। उसके मदिर रोमहास में वे सुधबुध खो रहे थे। उसके रुधिर का संगीत उसकी शिराओं में गूँज रहा था। बिन्नी की आत्मा के अतल में बतास फूट रहा था और वे ग्रे हार्न बिल की तरह अपने डैने फैलाए परवाज़ भर रहे थे। ........कि अचानक चुनचुन करती एक थ्रश चिड़िया घुस आई उस कमरे में। पीले रंग की समीज़ और नीले रंग की सलवार पहने ‘‘पापा......पापा‘‘ पुकारती टुशी की छाया उनकी आँखों के सामने लरज़ी और लोप हो गई। पंख कटे ग्रे हार्न बिल की तरह गिरे वे। ...........बिन्नी की मुँदी हुई आँखें, मुँदी रहीं ......बहुत देर तक। उसे दिन में देखी हुई ढलान वाली वह नदी याद आई......जिसकी जलधारा सूख गई थी।

रात असहज कटी, .....दोनों की। आकुलता थी, पर आर्त्तनाद नहीं था। न बिन्नी के अतल में और न उनके। सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई जिस चीख़ को साथ लिये वे जी रहे थे, वो चीख़ घुल गई थी, .......या नीचे कहीं गिर कर धूल-माटी में मिल गई थी, ......या फिर विवशताओं की किसी ऊँची भीत पर जाकर बैठ गई थी! दो अबोले आख्यान एक साथ गूँजते रहे सारी रात उस कमरे में। दुखते, टीसते, कराहते, छटपटाते हुए कई-कई आभाओं और गतियों वाले क्षण आते-जाते, ....कभी ठिठकते और कभी विराम करते रहे थे रात भर। अपनी आत्मा में अग्निपताकाओं का आरोहण उन्होंने स्वयं ही किया था और अब अपने ही हाथों अवरोहण कर रहे थे। इन अग्निपताकाओं में कुछ उभरे हुए, .......कुछ छिपे हुए आत्मा के घाव-सा जो बहुत कुछ लहरा रहा था वो सब अपनी टीस और मवाद के साथ दब गया था।

अगम था सब कुछ उनके लिए। .......और बिन्नी के लिए? बिन्नी के लिए कुछ भी अगम नहीं था। वह उनकी तरह अँधियारे में नहीं भटक रही थी। अँधेरा था ज़रूर, पर बिन्नी उसे पहचान रही थी। वह राख-माटी के बगूलों के बीच अपने लिए राह बनाकर निकलना सीख गई थी इन कुछ ही महीनों में। उसे उस गंध की तलाश थी, जो उसकी प्राणवायु से निःसृत होती और उनकी प्राणवायु से टकरा कर नई गंध में ढलती, पर........।

वे कमरे से बाहर जाकर लिविंग रूम में बैठे थे। मौन। उनका चेहरा कुछ उबड़खाबड़ हो गया था। आँखों के नीचे हल्की स्याही छा गई थी। ठुड्डी और गाल की हड्डी कुछ उभर आई थी। अपने ही जीवन के रहस्यों के गुंजलक को काटकर बाहर निकलने की कोशिशों में वे लोप हो गए थे और वहाँ होते हुए भी नहीं थे। उनके चारों ओर पसरा था एक वीरान, ...हू-हू करता उजाड़ बंजर।

बिन्नी उनके पास आई। उन्होंने उसकी ओर निमिश भर को देखा। बिन्नी बहुत पास आकर खड़ी हुई, .....लगभग उनसे सट कर। वे बैठे रहे। बिन्नी बोली - ‘‘सर, आपने ही कहा था, .....उदासियों का भी अपना वसंत होता है। ......क्या हम दोनों इस वसंत को नहीं जी सकते?’’

वे फफक उठे, .......जैसे कोई वाण महावेग से चलते हुए आकर पृथ्वी से टकराया हो और जल की अनगिन धाराएँ फूट पड़ी हों। धनुही की तरह उनपर झुक आई थी बिन्नी की देह और उन्होंने सहारे के लिए अपनी बाँहों से उसकी कमर को बाँध लिया था। ........वे रो रहे थे। उनकी आँखें धरासार बरस रही थीं और बिन्नी उनका सिर सहला रही थी।

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