उदासियों का वसंत - 2 Hrishikesh Sulabh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उदासियों का वसंत - 2

उदासियों का वसंत

हृषीकेश सुलभ

(2)

.......पाँच बरस बीत गए टुशी को देखे। गई, तब से एक बार भी नहीं लौटी। अब तो इस साल बाईसवाँ लगेगा उसका। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सांता बारबरा कैम्पस से उसने पिछले साल अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और इस साल शोध के लिए चुन ली गई है। पाँच साल पहले जब राधिका का बुलावा आया, टुशी दुविधा में थी, पर उन्होंने उसे दुविधा मुक्त कर दिया था। वह पापा को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी। वे नहीं चाहते थे कि बाहर जाकर पढ़ने की अपनी सहज इच्छा को दबा कर टुशी यहाँ रहे। वे यह भी नहीं चाहते थे कि वह राधिका से दूर होती जाए और वे जीवन भर इस लांछन के साथ जीएँ कि उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए बेटी को उसकी माँ से काट कर अलग कर दिया। .....उसके कैरियर को नष्ट किया। अजीब दिन थे वे, जब उन्होंने टुशी को विदा किया! ....वे जानते थे कि टुशी जब तक ख़ुदमुख़्तार नहीं हो जाती राधिका उसे मिलने-जुलने के लिए भी आने नहीं देगी। .....पर उन्होंने टुशी को प्रसन्नता के साथ विदा किया। इस प्रसन्नता के गर्भ में जो हाहाकार छिपा था, उसे वे दबाए रहे। टुशी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। और टुशी? वह बच्ची ही तो थी। सोलह-सत्रह की उम्र भी भला कोई उम्र होती है! सपनों और उमंगों के पंख लगाकर इस डाल से उस डाल उड़ती हुई उम्र। हालाँकि टुशी के मन में कहीं बहुत गहरे अपने पापा के अकेलेपन और अवसाद की टीस और चिन्ताएँ थीं, पर.....। वे जानते हैं कि ये टीस और चिन्ताएँ लगातार उसके भीतर बनी रहती हैं और उसे गाहे-ब-गाहे ज़्यादा परेशान करती हैं। जब उनका पाँव टूटा और उसे यह ख़बर मिली बेचैन हो गई थी। रो-रो कर कई दिनों तक उसने अपना बुरा हाल किये रखा। फोन करती और बिलख-बिलखकर बस एक ही रटन कि ‘पापा मुझे आना है आपके पास, .....पापा मुझे....।‘ राधिका ने बस एक बार फोन किया था। उनका कुशल-छेम पूछने के लिए नहीं, .....यह कहने के लिए कि उन्हें टुशी को समझाना चाहिए कि अभी उसका जाना उसके कैरियर पर बुरा असर डालेगा, .....कि अगर उसकी तैयारियाँ ठीक से न हुईं तो रिसर्च के लिए स्कालरशिप नहीं मिल पायेगा और फिर अब तक की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, .....कि उन्हें टुशी को.......। उन्होंने टुशी को हर तरह से समझाया। डॉक्टर भटनागर से फोन पर बात करवाई। बिन्नी से भी। बिन्नी का मोबाइल नम्बर दिया कि वह जब चाहे सीधे उससे बात कर उनके बारे में सारी सच्ची जानकारियाँ ले सकती है। उन्होंने यह भी बताया टुशी को कि बिन्नी मेरी दोस्त है और जब तक मैं अपने पैरों से चलने-फिरने लायक़ नहीं हो जाता दिन-रात मेरी देखभाल करेगी। .......पता नहीं टुशी ने कितना भरोसा किया, .....कितना समझ सकी, .....या कितना अपने मन को मार कर समझने का नाटक किया! यह आज भी उनके लिए रहस्य बना हुआ है। पर इन दिनों ख़ूब प्रसन्न रहती है टुशी। फ़ोन पर बातें करते हुए उसकी प्रसन्नता छलक-छलक पड़ती है। इन्टरनेट पर चैटिंग करते हुए तो लगता है, ......लैपटॉप से कूद कर बाहर आ जायेगी और गले में बाँहें डाल कर झूल जाएगी। वहाँ जाकर टुशी का रूप-रंग और निखर आया है। उसने राधिका से न रूप-रंग लिया है और न ही स्वभाव। हाँ, प्रतिभा ज़रूर ली है। बिन्नी से भी ख़ूब पटने लगी है उसकी। वह बिन्नी को पसंद करती है। पता नहीं क्या सोचती है बिन्नी के बारे में!

एक सुबह अकारण, यानी न वे नशे में थे और न ही फिसलन थी, वे वाशरुम में गिरे। और गिरे भी तो ऐसे कि अपने दाएँ पाँव की पिंडली की एक हड्डी तोड़ बैठे। उनके ड्राइवर और पड़ोसियों ने उन्हें लाद कर अस्पताल पहुँचाया। उसी शाम ऑपरेशन हुआ। आपरेशन के तीसरे दिन जब बिन्नी का फ़ोन आया, तो उसे मालूम हुआ। फिर तो बिन्नी ने सबकुछ टेकओवर कर लिया। दस दिनों तक, ज़ख़्म के टाँके सूखने और प्लास्टर होने तक वह रोज़ सुबह अस्पताल आ जाती और रात तक रुकती। प्लास्टर होने के बाद, जब वे घर गये, बिन्नी साथ थी। वहाँ भी यही रूटीन। वह रात को तभी निकलती, जब उनका ड्राइवर आ जाता। रात की देखभाल का जिम्मा उसी पर था। बिन्नी उन्हें एक पल के लिए भी छोड़ना नहीं चाह रही थी, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थे कि वह रात में रुके। हालाँकि इस बीच उन्हें विवश होकर कई बार बिन्नी का रात में रुकना स्वीकार करना पड़ा। जिस दिन भी ड्राइवर ने औचक छुट्टी मार दी, बिन्नी रुकी। कई बार ऐसा भी हुआ कि ड्राइवर के होते हुए भी बिन्नी अपने घर नहीं गई और वे उसे जाने के लिए नहीं कह सके। प्लास्टर कटा। फिर फ़िज़ियोथेरॉपी शुरु हुई। फ़िज़ियोथेरापिस्ट को देखते ही उनकी रूह काँप जाती थी। बच्चों की मानिंद वे हर सम्भव कोशिश करते कि आज जान छूट जाए, ........पर बिन्नी सामने आकर खड़ी हो जाती। वे बहाने करते और बिन्नी तर्क देती। साँप-सीढ़ी के खेल की तरह कई बार वे बिन्नी के प्रति कटु होने का नाट्य करते और जब उनकी एक न चलती, मिन्नतें करते। पर बिन्नी को डिगा पाना मुश्किल था। ........बिन्नी की दिनचर्या बरक़रार रही। देवदूत की तरह बिन्नी प्रकट ही नहीं हुई बल्कि, उनके जीवन में शामिल हो गई। वे संकोच करते रहे, पर बिन्नी ने कभी संकोच नहीं दिखाया। बिन्नी के सामने उनकी एक न चलती थी। डॉक्टर की सलाह पर अमल करने के मुआमले में वह बेहद कठोर थी। ज़रा भी छूट देने की हिमायती नहीं।

चाय ख़त्म हो चुकी थी। नाश्ता भी। बिन्नी भीतर थी। लैपटॉप पर अनुवाद का अपना काम निबटा रही थी। वह अपना काम अपने सिर पर लिये चलती है। जब तक डेड लाइन न आ जाए वह टालती रहती है। कहती है कि दबाव में ही वह बेहतर काम कर पाती है। वे गुमसुम बैठे थे, .....अपने भीतर के सान्द्र, ......निविड़ एकांत में डूबे हुए। वे वहाँ थे भी और नहीं भी थे। वे अपने एकांत में धीरे-धीरे घुलते हुए लोप हो जाते और फिर उसके भीतर डूबते-उतराते, ........लिथड़ते, .........फिर से आकार लेते और प्रकट होते अपने होठों पर तिर्यक मुस्कान के साथ। धूप सीधी गिरने लगी थी। धूप उन्हें प्रिय लग रही थी, पर उन्हें बादलों की प्रतीक्षा थी। धुआँ-धुआँ से बादल, जिन्हें उन्होंने अपनी पिछली यात्रा में मुन्नार की घाटियों में अठखेलियाँ करते हुए देखा था।

दोपहर के भोजन के बाद वे नदी तट तक जाना चाहते थे और बिन्नी चाहती थी कि वे थोड़ा आराम कर लें। उनकी आकुलता देखकर बिन्नी ने ज़िद नहीं की। पूछा - ‘‘ आप अकेले जाएँगे या.......?‘‘

‘‘नहीं-नहीं तुम भी चलो। उस नदी को देखकर तुम सम्मोहित हो जाओगी। ......अनूठी है वह नदी। .......पारदर्शी जल, .....तरह-तरह के आकारों-रंगों के पत्थरों से सजा हुआ तल, .....और झिर-झिर प्रवाह। जल-प्रवाह का ऐसा संगीत कि जादू की तरह बस जाए आत्मा में। .....चलो तुम भी।‘‘

वे बिन्नी के साथ निकले, ......वही अपनी छोटी मूँठवाली काले रंग की छड़ी लिये। धीरे-धीरे ऊपर की ओर चढ़ते हुए उस कॉटेज के पास पहुँचे। उन्होंने ठिठक कर कॉटेज को भर आँख देखा। उनकी आँखों में कोई सपना तैर गया था। बिन्नी उन्हें एकटक निहार रही थी। उनकी आँखें नम हो रही थीं। वर्षों से संचित सपना छलकने-छलकने को आतुर हो रहा था। जैसे सावन-भादो के मेघ उनमत्त होकर उड़ेलते हैं जल पृथ्वी पर....वैसे ही उनमत्त दिख रही थीं उनकी आँखें। बिन्नी ने हौले से अपनी हथेली उनके काँधे पर रख दी। उनकी आँखों में अपने सम्पूर्ण वजूद के साथ उतरने की कोशिश की। बोली - ‘‘ नदी से मिलने नहीं चलना आपको? ......चलिए।‘‘

फिर वही तीर्यक मुस्कान की रेख-सी खिंच गई उनके होठों पर। उन्होंने अपनी आँखें झुका लीं। बोले - ‘‘चलो। .....जानती हो बिन्नी, ......मैं यह कॉटेज ख़रीदने वाला था। राधिका इसे खरीदना चाहती थी। गोपी ने कहा था कि वह लछमी इस्टेट वालों से बात करेगा। अगर वे लोग बेचने को तैयार न हुए तो लम्बे समय के लिए लीज पर तो लिया ही जा सकता है। फिलहाल इसका लीज मेरे नाम है ही। अगर राधिका चाहे तो इसे आगे उसके नाम ट्रांसफ़र करवाया जा सकता है। राधिका का चचेरा भाई था गोपी नायर। गोपी ने ही राधिका से मेरी मुलाक़ात करवाई थी।‘‘

वे धीरे-धीरे चलने लगे थे। थोड़ी दूर की चढ़ाई के बाद उस पार की ढलान शुरु होती थी। इसी ढलान के बीच से बहती थी वह नदी। बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी। लगभग उनके काँधे पर झुकी हुई। इतनी क़रीब कि उसकी साँसें उनकी गरदन को, .......चेहरे को छू रही थीं। वे ऊपर चढ़ते हुए धीमी आवाज़ में बोल रहे थे - ‘‘...... मैं सोच ही रहा था कि इस कॉटेज के बारे में बात करुँ कि वह दुर्घटना हो गई और गोपी नहीं रहा। सड़क दुर्घटना में बहुत दर्दनाक़ मौत हुई थी उसकी। ....... राधिका से पहली बार उसके घर ही मिला था मैं। सुनहले बार्डरवाली सफ़ेद मालबरी रेशमी साड़ी में बडी़-बड़ी आँखोंवाली साँवली राधिका से, ......वो जिसे पहली नज़र में प्यार हो जाना कहते हैं न, ......वैसा ही प्यार हो गया था मुझे। ......गोपी और मैं साथ-साथ काम ही नहीं करते थे, अच्छे दोस्त भी थे। मैं उसके यहाँ एक पारिवारिक आयोजन में शामिल होने गया था। राधिका कुछ ही दिनों पहले दिल्ली रहने आई थी। कोच्चि से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने आईआईटी दिल्ली में एमटेक में दाखिला लिया था। वह डिजाइन की छात्रा थी। .....उस शाम पूरे आयोजन में मेरी आँखें राधिका के पीछे-पीछे घूमती रही थीं। उसे मालूम हो गया था कि मेरी आँखें उसका पीछा कर रही हैं। उसने मेरी आँखों के रास्ते मेरे मन की आकुलता पढ़ ली थी। जैसे ही मुझसे उसकी आँखें मिलतीं, वह नज़रें झुका लेती और कुछ देर के लिए उस भीड़ में जाने कहाँ छिप जाती। मेरी बेचैनियों का मज़ा लेती रही थी वह।‘‘

doobवे अपनी रौ में थे। चढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी। और दूसरी ओर की नीचे उतरती हुई ढ़लान शुरु हो रही थी। रपटीली ढ़लान, ........दूब की चादर से ढँकी हुई। बिन्नी ढलान पर उतरते उनके पाँवों को लेकर सतर्क थी। उनकी देह के भार को अपने काँधे पर साझा कर रही थी। ......स्मृतियाँ, जो उनके एकांत में मौन दुबकी हुई थीं, ..........बाहर आने को आकुल थीं। वे चाहते थे रोकना। अपने को बंद रखना, पर मुन्नार की सिहरन भरी हवा की आँच उन्हें पिघला रही थी। ठंडी सिहरन भरी हवा की आँच गर्म लू के थपेड़ों की आँच से ज़्यादा ताक़तवर होती है। वह कॉटेज, वह घर, ......जिसके सम्मोहन में खिंचते हुए वे मुन्नार तक आए थे, अपनी जगह पर था। उसे कहीं नहीं जाना था, सो वह टिका हुआ था। जैसे पृथ्वी टिकी हुई है अपने अदृष्य अक्ष पर, वैसे ही उनकी स्मृतियों की अदृष्य आभा के अक्ष पर टिका था कॉटेज। बस उसमें रहनेवाला, उसमें नहीं था। वहाँ कोई और होता तो भी, .....वह खुला और लोगों की आवाजाही से भरा भी होता, तो भी उनके लिए वह सूनसान ही होता। नहीं रहना और नहीं रह पाना में बड़ा फ़र्क़ होता है। वह कॉटेज था पर वे राधिका और टुशी के साथ उस में नहीं रह पाए थे। और अब, जबकि एक तृशा, ......एक हाहाकार, .....एक नामालूम-सी व्यग्रता उन्हें खींच लाई थी, उनके भीतर बहुत कुछ बीत रहा था। .......लोप हो रहा था। एक दीर्घ अवसान हो रहा था उनकी आत्मा के अतल में। वे बार-बार इस लोप होने को, .......बीतने को, .......इस अवसान को अपने मन की अदृश्य भुजाओं में भींचकर रोकना चाह रहे थे।

बिन्नी मुस्कुराई थी। कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को। फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था।

सामने नदी थी। नदी में जल न के बराबर था। लगभग सूखी हुई नदी। बीच-बीच में, ......कहीं-कहीं, ........छिट-फुट जल के छिछले चहबच्चे थे। नदी तल में बिछे पत्थर के निरावृत टुकड़े। निस्तेज। धूमिल। जल ही तो था जो उन्हें सींचता, ......जिसका प्रवाह उन्हें माँजकर चमकाता, .......आकार देता और आपने साथ लाये खनिजों से उन्हें रँगता, ......आभा देता। जल की थाप से ही मृदंग की तरह बोलते थे ये पत्थर और लहरें अपने प्रवाह से इन्हें तारवाद्य की तरह झंकृत करतीं थीं। अब जल नहीं था।

उन्हें काठ मार गया था। उनके पाँव थरथरा रहे थे। उनकी देह को सँभाल पाना अब काले रंग की छोटी-सी मूँठ वाली छड़ी के वश में नहीं था। उनकी देह का लगभग पूरा भार बिन्नी के काँधे पर था। अपनी देह की सारी शक्ति संचित कर बिन्नी उन्हें तब तक सँभाले रही थी, जब तक वे धीरे-धीरे ज़मीन पर बैठ नहीं गए थे। वे नदी को निर्निमेश निहार रहे थे। बिन्नी उनके पास थी। रेत के बगूलों के बीच फँस जाने पर पशु-पक्षी जैसे अपने शिशुओं को छाप लेते हैं धूल-धक्कड़ और तेज़ हवा से बचाने के लिए, वैसे ही खड़ी थी बिन्नी उनकी पीठ पर। कभी उन्हें देखती, तो कभी नदी को, .......और कभी पीछे मुड़कर उस चढ़ाई का अंदाज़ा करती, जिससे उतरते हुए यहाँ तक आए थे वे। पानी की बोतल साथ नहीं थी। बिन्नी को मालूम था कि उन्हें प्यास महसूस हो रही होगी। पर अब किया क्या जा सकता था! कुछ नहीं। धीरे-धीरे उनकी साँसें पुरानी लय में लौटने लगी थीं। बिन्नी उनसे मुन्नार, इस कॉटेज, इस नदी के बारे में पहले ही इतना कुछ सुनती रही थी कि उसके लिए कुछ भी अपरिचित नहीं था। वह नदी तट तक गई। उसने कुछ छोटे-छोटे पत्थरों को चुना और उनके सामने लाकर रख दिया। वे पहले तो उन्हें देखते रहे। ....फिर छुआ। बिन्नी की ओर देखा। बिन्नी फिर भागती हुई नदी तट तक गई और अपने गले में लिपटे स्टोल में ढेर सारे छोटे पत्थरों को बटोर लाई। उसने देखा, वे घर बनाने की कोशिश कर रहे थे। पहले उन्होंने घर बनाया। फिर चिड़िया, .......और फिर फूल।

वे बड़ी देर तक दूब से पटी ढलान पर नन्हें-नन्हें पत्थरों से बनी आकृतियों को निहारते रहे थेे। अजीब दिख रहे थे वे। वे सोच रहे थे कि अगर उन्होंने अपने अतीत को भुला दिया तो क्या यह अब तक के जीवन की आहुति नहीं होगी! ........मिथकों और पुराकथाओं की तरह क्या उनके वर्तमान में गर्द-ओ-गुबार की तरह बहुत कुछ अयाचित नहीं घुस आएगा! ऐसा अतीत विहीन घातक वर्तमान क्या वे जी सकेंगे! किंबदंतियों की तरह यह जीना क्या उनकी आत्मा के पटल पर अपमान की नई लिखावटें दर्ज़ नहीं करता जायेगा! अपनी चित्तवृति से से युद्ध करते हुए दैन्य, दुविधा और निग्रह, ....सब था उनके चेहरे पर। वे अपने जीवन के, ......अतीत के, तथ्यों के स्वीकार-अस्वीकार के युद्ध में उलझे हुए थे। कुछ देर तक यूँ ही बैठे रहे वे। थ्रश चिड़ियों का एक झुंड नदी तट पर आया। वे सब फुदकते हुए नदी तल में एक छोटे चहबच्चे के किनारे तक पहुँचीं। वे चिड़ियों का जल-किलोल निहारते रहे। चिड़ियों का झुंड उड़ा। फिर वे अचानक बिन्नी से बोले - ‘‘चलो.....।‘‘

बिन्नी ने अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए। वे खड़े हुए। बिन्नी ने नीचे से छड़ी उठाकर दी। उन्होंने दाएँ हाथ में छड़ी ली। बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखा और चलने लगे। बिन्नी ने अपना दायाँ हाथ पीछे किया और धीरे-धीरे उनकी कमर को सोमलता की तरह लपेट लिया।

वे अपेक्षाकृत तेज़ी से ढलान चढ़ रहे थे। .......बहुत लम्बी नहीं चली थी उनकी प्रेम कहानी। पहली मुलाक़ात के तीसरे दिन ही वे राधिका से मिले और यह मिलने-जुलने का सिलसिला पाँच महीनों तक चलता रहा। छठवें महीने उन्होंने एक सादे और पारिवारिक आयोजन में राधिका से विवाह कर लिया था। उनके कुछ दोस्तों के सिवा ज़्यादातर गोपी और राधिका के परिवार के लोग ही थे। उनका अपना कोई घरवाला या रिश्तेदार नहीं था। माँ-पिता, जब वे अबोध थे, तभी गुज़र चुके थे। बड़े पिताजी ने पाला-पोसा। ज़िन्दगी आकार ले ही रही थी कि वे भी चल बसे और उनके बेटों ने सम्पत्ति की लालच में ऐसा आतंक मचाया कि उन्होंने विरक्त मन सबकुछ छोड़कर अपने शहर से ही नाता तोड़ लिया। ........बीच की कथा दुःखों और संघर्ष की अनंत कथा है। दिल्ली पहुँचकर वो सब किया जो ऐसे हालातों में जीवित रहने तथा अपनी निर्मिति के लिए एक आदमी कर सकता है। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो पश्चाताप का कारण बने। प्रतिभा के बल पर हमेशा अव्वल रहे और सबकुछ बनता गया। बड़ी कम्पनी की ऊँची नौकरी, ......दोस्तों से भरा एक संसार, .......अपना घर, ......गाड़ी और एक उछाह भरा व्यस्त जीवन। विवाह के बाद जीवन उन्हें ज़्यादा सुन्दर और आश्वस्तकारी लगने लगा था। साल भर के भीतर ही टुशी आ गई। जब टुशी ढाई-तीन की रही होगी वे राधिका के साथ मुन्नार आए थे।

जब टुशी दस की हुई राधिका पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च के लिए स्कॉलरशिप पर स्टैनफ़ोर्ड चली गई। तब से टुशी के यूएस जाने तक वे टुशी के पापा और माँ दोनो रहे। दोस्त तो थे ही उसके बचपन से। माँ बनकर टुशी को पालते हुए उन्होंने जीवन को नए सिरे से जाना-पहचाना। स्त्री-जीवन के अनन्त दुखों के सूत्र उनके हाथ लगे। उनकी आत्मा की धरती पर कई नए हरे-भरे प्रदेश रचे-बसे। यह माँ वाला कायांतरण ही उनके जीवन की फाँस बन गया। सात साल तक कोई पिता अपनी बेटी को माँ बनकर पाले-पोसे और........। हालाँकि इन सात सालों में दो बार आई राधिका। रिसर्च के बाद वहीं दो सालों तक बतौर रिसर्च लीडर एक प्रॉजेक्ट में रही। इसके बाद वहीं स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ डिज़ाइन में पढ़ाने लगी। शुरु में उन्होंने राधिका की वापसी के लिए बहुत कोशिशें की। उससे मिन्नतें की, .....टुशी का हवाला दिया, पर.......। टुशी के जाने के बाद उन्होंने राधिका से उसकी वापसी के बारे में कोई सम्वाद नहीं किया था। कई सालों बाद उन्होंने उस दिन राधिका की आवाज़ सुनी थी, जब उसने इस बात के लिए फ़ोन किया था कि वे टुशी को समझाएँ कि टुशी उनके पास जाने की ज़िद न करे। .......ज़िन्दगी सहल नहीं रह गई थी। वे बसते-बसते उजड़ गए थे। उनकी देह और उनके मन, दोनों का छन्द भंग हो रहा था। .......और वे थे कि बार-बार भंग हो रहे छन्दों के सहारे जीवन की लय पकड़ने में लगे थे।

वे जोसेफ होम स्टे के सामने वाले हिस्से के लॉन में गार्डेन चेयर पर बैठे बिन्नी के साथ चाय पी रहे थे। यह हिस्सा ख़ाली ही था। बिन्नी मौन थी। वातावरण में अदृश्य काँपते मौन के स्पन्दन को वह अपनी देह और आत्मा की त्वचा पर महसूस कर रही थी। बिन्नी मौन के इस गुंजलक से उन्हें बाहर निकालना चाह रही थी। और चाह रही थी ख़ुद भी इससे बाहर निकल कर अपने फेफड़े में प्राणवायु भरना। वह इस गुंजलक के दुर्निवार कपाटों को खोज कर उन्हें खोल देना चाहती थी ताकि उन तक भी प्राणवायु पहुँच सके। अपने विशाल डैने फैलाए ग्रे हार्न बिल वापस अपने बसेरों की ओर जा रहे थे। अपने चौड़े ताक़तवर डैनों की धारदार गति से हवा को काटते। सरसर की अजीब-सी रहस्यमय ध्वनि के साथ वे आगे निकल गए। वे उस सेमल को पार करते हुए आ रहे थे, जो कॉटेज के सामने था। अब उस सेमल पर इनका बसेरा नहीं था।

क्रमश..