एक दिया मुंडेर पर Satish Sardana Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • इश्क दा मारा - 26

    MLA साहब की बाते सुन कर गीतिका के घर वालों को बहुत ही गुस्सा...

  • दरिंदा - भाग - 13

    अल्पा अपने भाई मौलिक को बुलाने का सुनकर डर रही थी। तब विनोद...

  • आखेट महल - 8

    आठ घण्टा भर बीतते-बीतते फिर गौरांबर की जेब में पच्चीस रुपये...

  • द्वारावती - 75

    75                                    “मैं मेरी पुस्तकें अभी...

  • Devil I Hate You - 8

    अंश जानवी को देखने के लिए,,,,, अपने बिस्तर से उठ जानवी की तर...

श्रेणी
शेयर करे

एक दिया मुंडेर पर


सिरसा!
जाने कैसा शहर है यह?
फतेहाबाद से पीलीबंगा बुआ के घर जाते समय यह शहर रास्ते में पड़ता था।बचपन से लेकर कॉलेज में ग्रेजुएशन करने तक मैं बहुत कम बार अपना फतेहाबाद शहर छोड़कर कहीं गया।मेरे सारे रिश्तेदार यहीं फतेहाबाद में ही थे एक बुआ को छोड़कर जो पीलीबंगा में थी।गर्मी और दिवाली की छुट्टियों में साल में दो बार बुआ के यहां जाना होता था।तब मैं सिरसा से निकलता था।इससे ज़्यादा सिरसा के बारे में मैं कुछ न जानता था।
मलौट,मानसा,अबोहर और भटिंडा मेरे लिए पंजाब के नक्शे पर छोटे छोटे बिंदु से ज्यादा महत्व नहीं रखते थे।तब तक जब तक मैं उससे नहीं मिला था।
वह मुझे डबवाली एक शादी में मिली थी।गोरी,चंचल,सुंदर,कटीली और नशीली!इतने शब्दों में उसकी सुंदरता बंधती नहीं थी।हमारे संस्कृत शास्त्री के शब्दों में अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी वह दैवयोग से ही मुझ भिखारी की झोली में आ गिरी थी।नहीं तो कहां वह कहां मैं।मैं काला, मेरा दिल मेरी त्वचा से भी काला!मेरा स्वभाव तेज और मेरी जबान कोड़े की फटकार से भी तीखी और चोट पहुंचाने वाली।उसका और मेरा क्या जोड़ था।ऊपर वाला जोड़ से जोड़ मिलाने का जिम्मा नहीं लेता।संयोगवश किसी को किसी से भी मिला देता है फिर कद्र न करने पर बिछोड़ा भी दे देता है।कोई हूर परी मिले ऐसा तो मैं सोचे न बैठा था।बस इतना सोचता था कि किसी लड़की से दोस्ती हो जाए।
"किसी लड़की की आंखों में मेरी चाहत की तितली फड़फड़ाये। मां क़सम उस रोज जीने का खूब मजा आये।"टाइप कविताएं लिखकर डायरी के पन्ने भरा करता था।कभी इधर उधर छपने भी भेज देता था लेकिन कभी छपती नहीं थी।
शादी डबवाली में थी।मुझे जाना भी नहीं था,जबरन भेज दिया गया था।तीन दिन कौन रहेगा।एक दिन में ही बुआ के घर चला जाऊंगा।आखिर पीलीबंगा डबवाली से दूर ही कितना है!
यह सोचकर बस में बैठ गया था।हमेशा की तरह बस सिरसा बस स्टैंड में लगी थी।दस मिनट रुककर चल पड़ी थी।मैं खिड़की वाली सीट पर था।बगल की दो सीट खाली थी।वह मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठी थी।साथ में एक नवयुवती और थी।शायद वह नवयुवती शादी शुदा थी।हाथ में चूड़ा था और मांग भरी हुई थी।दोनों नवयुवतियों की शकलें इतनी अधिक मिल रही थी कि आसानी से उन्हें बहने समझा जा सकता था।
दोनों बहनें ही थी।उनकी आपसी बातचीत से स्पष्ट हो गया था।वे किसी गुरु के गद्दीनशीन होने के उत्सव में सम्मिलित होकर आई थी और उन्हें किसी शादी में जाना था।इतनी जानकारी उन्होंने मुझे नहीं बल्कि पास में बैठी किसी परिचित वृद्धा को दी थी।मैंने तो बस सुन लिया था।विश्व के इस भाग में लोग इतने सरल हैं कि आप उनसे बग़ैर ज़्यादा कोशिश किये सारी जानकारी हासिल कर सकते हैं।आप जानने के इतने उत्सुक नहीं होते जितना वे लोग बताने के लिए उतावले हो जाते हैं।
उस दिन 25 सितंबर 1990 था और हवा में थोड़ी ठंडक थी।
गुरुगद्दी 23 सितंबर को मिली थी और उस दिन मेरे बग़ल में बैठी लड़की का जन्मदिन भी था।यह बहुत बड़ी बात थी और युवती इस बात से बहुत ज़्यादा खुश थी कि यह संयोग जानकर नए गुरु ने उसे गालों पर छुआ था।वह बता रही थी कि गुरु ने एक्सकैटली उसे कहां छुआ था।यह बताते हुए उसके पहले से ही ग़ुलाबी गालों में खून उतर आया था।उत्तेजना के मारे उसे छींक भी आ गई थी।
उसकी छींक के कुछ छींटे मेरी कमीज़ पर गिरे थे।कमीज़ का रंग खाकी था और यह मेरी पसंदीदा शर्ट थी।उन दिनों खाकी शर्ट को मक्खन जीन्स पेंट्स के साथ पहनने का चलन जोरों पर था।मैंने भी वही पहना था।पैरों में मेरे बालूजा के जूते थे और मैं अपने आप में कुछ बन भी रहा था।उसका इस तरह मुंह पर बग़ैर हाथ रखे छींकना मुझे नागवार गुजरना चाहिए था। लेकिन मुझे खास बुरा नहीं लगा था। उसने अपनी भूल महसूस की थी और सॉरी बोला था।अपने कढ़ाई वाले जामुनी रंग के रुमाल से ख़ाकी शर्ट पर गहरा गए छींक के दाग साफ करने की कोशिश भी की थी।
"इट्स नेचुरल !सम टाइम्स यू कान्ट कंट्रोल!"मैंने कहा तो उसने मेरे चेहरे को गौर से देखा था।शायद कहना चाह रही हो कि मजदूरों जैसा मुंह और इतनी बढ़िया अंग्रेजी।
मैं अब सीधे उसके चेहरे को देखने लगा था।वह मेरे इतने नजदीक थी कि मुझे उसके गालों के हल्के हल्के रोएं भी दिख रहे थे।वह समझ चुकी थी कि मैं उसे बड़े गौर से देख रहा हूं।
वह अपनी बहन से गुरु जी की बातों में तल्लीन हो गई थी।गुरु जी मेरी ही उम्र का जवान आदमी था लेकिन लोग उसे पिताजी कहते थे।उनसे पहले वाले गुरुजी भी पिताजी कहलाते थे। मुझे उसके गुरुजी में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी।लेकिन कहावत है न कि मुझ से प्यार करना है तो मेरे कुत्ते से प्यार करो।मुझे उस लड़की से पहचान बढ़ानी थी।इसलिए पूछा,"कौन है ये गुरु जी।फिल्मी हीरो जैसा सुंदर लग रहा है।"
जवाब उसकी बहन ने दिया,"हमारे महाराज जी के सामने फिल्मी हीरो क्या हैं।उनका प्रभाव ही ऐसा है कि आदमी का अहंकार टूट जाता है।"
आपकी बहन में तो बहुत अहंकार है,इसका अहंकार नहीं तोड़ा महाराज ने,मैंने मन में सोचा।
"अच्छा !इतने महान हैं?कभी मौका लगा तो मैं भी उनके दर्शन करके जन्म सफल कर लूंगा।"मेरे स्वर में इतना ज़्यादा बनावटीपन था कि लड़की ने ताड़ लिया।
"मख़ौल उड़ाने की बात नहीं है।सरिता दीदी सही कह रही हैं।"
उसने इस तरह से मुंह बिचकाया कि मुझे प्यार हो आया।
"सॉरी,आपको बुरा लगा तो,मुझे इन पाखंडी बाबाओं पर विश्वास नहीं है।लेकिन हो सकता है।आपके गुरुजी पाखण्डी न हों।"
"हमारे गुरुजी भूत, भविष्य,वर्तमान सब जानते हैं।उन्होंने हमें सच्चा मार्ग दिखाया है।"बहन थी कि पूरी भक्ति में तल्लीन।
"आपकी भावना देखकर मुझे कहने में थोड़ा अफसोस होता है कि आप लोग सचखंड के दर्शन छोड़कर पाखंड के पीछे लग पड़े हैं।ऐसा क्या है जो गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं है और ये सिखा देंगे।दसवें पातशाह का हुक्म है कि गुरु मान्यो ग्रंथ।और आप लोग उस महापुरुष, सर्व वंश दानी का हुक्म न मानकर देहधारी को गुरु मान बैठे हो।"
दो तीन आदमी मेरे समर्थन में बोलने लगे थे।इसलिए वे दोनों चुप लगा गई।
सिरसा से डबवाली थोड़ी ही दूर है लेकिन इतनी भी कम दूरी नहीं थी कि उन लड़कियों से दुबारा बात शुरू न हो पाए।आप कह सकते हो कि आज मौसम ठंडा है।यह कहते हुए आप मौसम की तरफ देखते रह सकते हैं।हो सकता है कि आपको लगे कि लड़की आपकी बात सुनकर आपकी तरफ देख रही है।लेकिन आप मुड़कर देखने की धृष्टता न करें तो बेहतर।अगर आपने मुड़कर देख लिया और लड़की ने आप की बात का मंतव्य ताड़ लिया,जो कि वह ताड़ ही लेगी,शत प्रतिशत चांस है,तो आपके कहे का असर शून्य हो जाएगा।न केवल शून्य हो जाएगा बल्कि लड़की आगे के लिए भी सावधान हो जाएगी।
अगर वह कुछ कह दे तो सोने पे सुहागा।अगर कुछ न कहकर बगलों में हाथ दबा ले तब भी बड़ा अच्छा संकेत है।
खिड़की से अंदर तैरकर आती ठंडी हवा से मेरे शरीर में स्वाभाविक सिरहन हुई और मेरे मुंह से अपने आप निकला,"बड़ी ठंडी हवा चल रही है।"
वह हंसी और कटाक्ष करती भाषा मे बोली,"ये देखो आज के नौजवान सितम्बर की हवा में दांत किटकिटा रहे हैं।"
यह छोटे वाली थी।उसकी बात सुनकर बड़े वाली खुलकर हंसी।
मुझे ठंड में गर्म गुस्सा आ गया।
"क्यों नौजवान को ठंड नहीं लगती?"यह कहते कहते मुझे जुकाम सा भी होने लगा।
छींक न आ जाये इस डर से मैंने नाक मुंह पर रुमाल लगा लिया था।
"सबकी तासीर अलग अलग होती है।"बड़ी ने हंसी रोककर मुझे तसल्ली देने वाला वाक्य कहा।
मुझे तसल्ली न हुई।यह लड़की मुझे नाजुक तबीयत का नौजवान समझ रही थी।इसे मालूम होना चाहिए कि सुबह सुबह मैं योगाभ्यास करता था।उसके बाद वर्जिश,फिर बादाम वाला दूध पीता था।यह बात मैं उसे बताना चाहता था लेकिन इस डर से न बताया कि वह लड़की और ज्यादा न हंसे।वैसे उसकी हंसी बड़ी प्यारी थी बशर्ते वह मुझ पर न हंसे।
"मेरा बचपन में निमोनिया बिगड़ गया था।मेरी मां बताती है कि तब मेरा सांस चीखता था।"मैंने सहानुभूति लेने के लिए एक सच्ची बात सच्चे मन से बोली।
"वह तो अब भी चीखता है।"वह जोर से हंसी।
उसके इस तरह हंसने पर उसकी बहन से उसे धौल मारा।
"बड़ी खचरी है।"
खचरी!बड़ा अजीब शब्द है यह?
डबवाली आ गया था।बस ने अड्डे की तेजी से परिक्रमा की और ड्राइवर ने बड़ी मेहनत से एक असुविधाजनक जगह देखकर ब्रेक लिए।बस को गेयर में छोड़कर सामने एक खोखेनुमा दुकान पर चाय पीने बैठ गया।
लड़कियां पहले उतरी।उनके पीछे मैं।
उनके पास इतना ज्यादा सामान था कि वे उसे संभालते संभालते दोहरी हुई जा रही थी।
रिक्शा बहुत देर एक जगह पंक्ति बनाकर खड़े थे और कोई भी रिक्शावाला उधर आने का उपक्रम नहीं कर रहा था।
छोटी ने बड़े आशा भाव से बड़ी को देखा।बड़ी बहन ने अधिकार भाव से मुझे।
मैंने उनके सामान में से भारी- भारी सामान उठा लिया और वे हल्का सामान उठाकर मेरे पीछे चल पड़ी।वजन उठाकर चलने के उपक्रम में मेरी सांस इतनी तेजी से चल रही थी कि मैं साफ सुन सकता था कि कब सांस अंदर गयी कब बाहर आई।
रिक्शे तक आते आते माथे और मुंह पर पसीना भी चुहचुहा आया।
रिक्शा पर सामान लादकर बड़ी बहन रिक्शा पर बैठती हुई बोली,"आनंदपुर की कुटिया के पास चलो।"
रिक्शावाला मुंह बिचकाकर बोला,"तीन सवारी के तीस रुपये लगेंगे।"
"हैं!भैया पंद्रह में हमेशा जाते हैं और सवारी तो दो ही हैं।"
"आपका घराला नहीं जाएगा।"
रिक्शावाले ने मुझे इतनी इज्जत बख्शी कि जी करा इसका मुंह चूम लूं।
"मोया!ये मेरा घराला नहीं भाई है।"बड़ी बहन तल्खी से बोली।
छोटी हंसते हंसते दोहरी हो गई।
"बैठो जीजा दीदी के साथ।मैं तो पीछे लटक लूंगी।"वह रिक्शे की टोकरी में विपरीत दिशा में मुंह करके बैठ गई।
"मुझे भी उधर ही जाना है।"कहते हुए मैं दीदी के बगल में बैठ गया।
रिक्शा वाला गद्दी पर बैठकर तेज तेज पैडल मारने लगा।उसके गद्दी से उठकर पैडल मारने में और फिर गद्दी पर आ गिरने में जो लय थी उसे देखते देखते आनंदपुर कुटिया वाली गली कब आ गई मुझे पता ही न चला।
रिक्शा से उतर कर तीस रुपये मैंने अदा किए।मैं भी उसी घर में घुसा जिसमें वे घुसी।वे समझी कि मैं उनका सामान छोड़कर अपने रास्ते लगूंगा।
मेरी बुआ की लड़की पप्पी उर्फ बिमलेश ने मुझे प्यार से चूमा और बोली,"मेरा लंबू भाई आ गया।मैं तो कब से तांघ रही थी।"
"यह तुम्हारा भाई है?"दोनों ने एक साथ पूछा।
"हां!लगता है तुम लोग इकठ्ठे आये हो।"पप्पी हंस कर बोली तो वे भी हंसी।हमारे बीच अपरिचय की दीवार भरभराकर गिर गई।
शादी वाले घर से हमारा संबंध बुआ के रिश्ते से ही था।शादी बुआ के जेठ के लड़के की थी।जेठ का लड़का सुरेंद्र मेरा भी अच्छा दोस्त था।इस वजह से मुझे आमंत्रण गया था।आज का तो पता नहीं लेकिन 1990 में तो शादी में आमंत्रण को कोई नहीं ठुकराता था।मैं तो वैसे भी शादी में शामिल होने को उत्सुक रहता था।मेरी बुआ के परिवार के सब जन, बुआ,फूफा जी,बुआ की लड़की पप्पी और तीनों लड़के राजू,नेशी और श्यामा भी आये थे।शादी हंगामाखेज रहने वाली थी,अब कुछ कुछ ग्लैमर वाली भी हो गई थी।ग्लैमर किधर से आया था ,आप जानते हैं।
एक बात बताता चलूं कि मेरी बुआ और मेरी मां की बिल्कुल भी नहीं बनती थी।
सुरेंद्र मुझे बड़े प्यार और गर्मजोशी से मिला।वे दोनों लड़कियां भी सुरेंद्र को नमस्ते करने आई थी।उनके प्रति सुरेंद्र का व्यवहार औपचारिक ही था।वहीं से ही पता चला कि वे सुरेंद्र की मां की तरफ से रिश्ते में थी।सुरेंद्र के अपने मामाओं और मौसियों से रिश्ते खराब थे।इसलिए अपनी ननिहाल से आये रिश्तेदारों से वह औपचारिक अभिवादन ही ले दे रहा था।कैसे लोग होते थे उन दिनों स्वागत में ठंडापन होने के बावजूद नाराज न होते थे।क्योंकि उनकी लड़की इस घर में ब्याही थी वे अपना फर्ज अपमान सहकर भी पूरा करने आये थे।
सुरेंद्र के पिता जी जिन्हें मैं बड़े फूफा कहता था एक हलवाई और किरयाना मर्चेंट थे।उनके तीनों बेटे सुरेंद्र,वीरेंद्र और धर्मेंद्र दुकान पर ही बैठते थे।इन लड़कों के इलावा दो लड़कियों और थी जिनका नाम मैं भूल गया।कहानी कहने के उद्देश्य से इनका नाम सरिता और बबिता रख लेते हैं।सरिता 15 वें और बबिता 14वें वर्ष में थी।बड़ी खूबसूरत थी।दोस्त की बहनें मेरी बहनें थी इसलिए उनके प्रति कोई और ख्याल मन में नहीं आता था।
सरिता मेरी बस की सहयात्री छोटी बहन जिसका नाम संजू या संजना मुझे यहीं आकर पता चला था,से बड़ी बड़ी हिली मिली थी।उससे दीदी कहकर चिपक रही थी।यहां मैं बताता चलूं कि सुरेंद्र का पूरा परिवार भी सिरसा वाले गुरुजी का भक्त था इस वजह से मेरा सावधान रहना जरूरी था।मैंने अपने तर्कशील मन को कोड़े मारकर चुप करा रखा था।क्योंकि यहां बहस कड़वी होने पर शादी बेमजा होने का खतरा था।इतने खूबसूरत और मिलातू लोगों के बीच मैं अपनी छवि बिगाड़ने नहीं बनाए रखना चाहता था।
युवा गुरु जी की एक बड़ी तस्वीर ड्राइंग रूम में लगी थी जिस पर रोज ताजी गेंदे के फूलों की माला चढ़ाई जाती थी। सुबह शाम नाम सिमरन के बाद 'मिलता है सच्चा सुख केवल गुरु जी आपके चरणों में' प्रार्थना गाई जाती थी।गुरु जी पाखण्ड से दूर रहने का उपदेश देते हैं यह सगर्व बताने के बाद पंडित जी द्वारा बताए गए सारे पाखण्ड पूरी श्रद्धा से किये जा रहे थे।हिंदू परिवारों की इस दोगली खूबसूरती पर मैं हमेशा से रीझा रहता हूं।गुरु जी भी सही और पंडित जी भी सही के भाव को मैं सच्चा भाव समझता हूं।इसी हिप्पोक्रेसी में ही जीवन का सारतत्व छिपा है।
संजू और मुझ में अब सहज परिचय हो गया था।उसकी खूबसूरती को निकट से निहारने पर अब वह चिहुंकती न थी।इधर -उधर बेध्यानी में हाथ लगने पर वह चिढ़ती कुढ़ती नहीं थी।शादी की रस्मों के बीच हमारी सहभागिता साहचर्य में बदल रही थी।लड़की इस प्रोग्राम के बाद इतनी सहज न रहने वाली थी।इसलिए बेहतर यही था कि जो करना है अभी कर लिया जाए।Make hay while the sun shines!
इसके दो तरीके थे।एक तो इशारों इशारों में दिल की बात कहने का,जिसमे मैं निरा घामड़ था।सौ दिन भी लगा रहूं यह बात न समझ पाऊंगा।दूसरा दूत या दूती के माध्यम से अपनी बात पहुंचाने का।इस काम में मेरी मदद मेरी फुफेरी बहन पप्पी ही कर सकती थी जिसकी नजर में मैं अमिताभ बच्चन था।मैंने फुफेरी बहन से संपर्क साधा।अकेले में रोककर उसे अपने दिल की बात बताई।उसने जो कहा उसे सुनकर मेरा दिल छनाक सा टूट गया।
"देख लंबू!वे बड़े कमीने,नदीदे और नाशुक्रे लोग हैं। तू अभी छोटा है।उसकी खूबसूरती पर मत जा।इससे भी खूबसूरत दुल्हन लेकर आऊंगी मैं मेरे भाई के लिए।इसे तू रहने दे"वह मुझे पुचकारते हुए बोली।
मेरी आँखों में जिद देखकर बोली,"नहीं मानता तो मर लंबू!मैं तेरी कोई मदद नहीं करने वाली।मुझे फीके गन्ने नहीं चूसने।आप ही हिरन मार और आप ही खा।मुझसे कोई उम्मीद मत रख!"कहकर वह मेरा हाथ झटककर चली गई।
पप्पी दीदी सही कहती थी।लेकिन मैं उस वक़्त कुछ सुनना न चाहता था।मैं दिल के हाथों मजबूर था।
असंयोग और संयोग के बीच झूलती इस दुनिया में बड़े बड़े काम संयोग से बन जाते हैं और छोटे छोटे मसले असंयोग के चलते अटके रह जाते हैं।यह संयोग ही था कि मेरी बात उससे आगे बढ़ी।बारात दस किलोमीटर दूर एक गांव के मैरिज प्लेस तक जानी थी।दो तीन कारों के साथ बस का भी इंतजाम था।मैं बस में खिड़की वाली सीट चुन कर पहले से ही बैठ गया था।मैंने अपनी एम्ब्रॉयडरी की हुई फ़ेवरिट वाइट शर्ट के ऊपर ग्रे जैकेट पहना था।मेरी मैचिंग रेडीमेड ग्रे पेंट के साथ ग्रे शूज जो मैंने एक ही दिन पहले डबवाली के बाजार से सस्ते ही खरीदे थे,पहने थे।जंच कर सीट पर बैठा कुछ गुनगुना रहा था जब एक अल्पपरिचित दीदी ने वह सीट मुझसे हथिया ली है।
"सीट दे दे वीर बनके"कहकर मुझे इमोशनल बनाकर मुझे बे सीट करके वह तो बैठ गई थी।मैं सीट के लिए भटकता पीछे को आया था।बस तकरीबन भर चुकी थी और मैं खड़े खड़े ही यात्रा करने का मन बना चुका था जब मेरे कानों में उसकी सुमधुर और सुपरिचित आवाज पड़ी,"सतीश जी!यहां आ जाईये।यहां सीट है।"
मैंने मुड़कर देखा उसके बगल की विंडो सीट खाली थी।वह सीट वो थी जिस पर कोई बैठना मजबूरी में ही चाहता था।उस सीट पर पैर रखने की जगह ऊंची होती है।
"नहीं!मेरी टांगे इसमें एडजस्ट नहीं होंगी।"मैंने कहा तो वह हंसी नहीं।
वह उस सीट पर हो गई और बेहतर सीट खाली करके मुझे आफर की।
मैं उसकी बगल में बैठ गया।
उसकी बगल में बैठकर उसे देखने की सहूलियत कम थी।लेकिन बात तो की जा सकती थी।
"लुकिंग नाइस,"वह बोली तो मेरे मुंह से सिर्फ" हैं?"निकला।
"थैंक्स"मतलब समझ आने के बाद मैंने जोड़ा।
"किसी सोच में गुम हो।"वह खनकती आवाज में बोली।
"न!ऐसी तो कोई बात नहीं।तुम्हें एक बात कहना चाहता था।पता नहीं यह जगह और यह वक्त सही है या नहीं?"
"बात सही होगी तो वक्त और जगह अपने से ही सही हो जाता है।"
"यह बात भी गुरु जी ने कही है।"
"सब बातें गुरु जी नहीं कहते।कुछ बातें उनके मुर्शिद भी कह देते हैं।"वह हंसी।उसकी हंसी में नदी की उच्छऋंखलता और नीलापन था।
"तुम एक बात कहने वाले थे?"
"आई लव यू!"मैंने कहा तो वह थम गई।
"दोबारा कहना!"वह मुस्कराई,"मैंने सुना नहीं!"
"लड़का तुम्हें आई लव यू कह रहा है और तुम्हें सुनाई नहीं दिया।"पीछे बैठी एक महिला ने कहा तो सब हंस पड़े।
"आपने सुना है तो आप लव कर लो इनसे।"वह बड़ी दयानतदारी और हाजिरजवाबी दिखाते हुए बोली।
"हय!काश हमें भी कोई कहता!हम तो तरसते रहे और अरेंज्ड मैरिज में फंस गए।"वही महिला मुस्करा कर कह रही थी।
"क्यों?अंकल जी ने आपको कभी आई लव यू नहीं बोला।"
"इनको सेब,संतरों के भाव से फुरसत ही कहां है।"उनके पति बगल में ही बैठे थे।
"बगैर आई लव यू बोले तीन बच्चे हो गए।"उनके पति हंसते हुए बोले तो पूरी बस ही हंस पड़ी।
मेरा इजहार कहीं दब गया।कैसी किस्मत पाई मैंने।
बारात को उतार कर बस चली गई।वह अपने गोल्डन शेड के लहंगा चोली में इधर से उधर लाइट बिखेरती घूमती रही।कभी मुझसे नजरें मिलती तो वह मुस्करा कर मुंह फेर लेती।जाने इस लड़की के मन में क्या है,यह सोचता हुआ मैं भी रिश्तेदारों के टोल में घिरा एक ऑटोमेटिक पुर्जे सा घूमता रहा।
सुबह से पहले ही तारों की छांव में डोली विदा की गई।
उनींदी आंखों से थके मांदे लोग उबासियाँ लेते हुए बस में सवार हुए।
वह मुझे ढूंढती हुई मेरी सीट की तरफ आई और बोली,"आप यहां बैठे हो।"
वह इस वक्त नीली साड़ी में थी और फ्रेश लग रही थी।शायद नहाकर आयी थी।
वह मेरी बगल में बैठ गई।
"मैंने तुमसे एक बात कही थी।तुम्हें याद है या फिर से कहूं!"मैंने उसकी आँखों में झांकते हुए कहा और फिर इधर उधर देखा।किसी का ध्यान हमारी तरफ नहीं था।
"अगर वह मजाक नहीं था तो मुझे पता था कि आप दुबारा कहोगे।"वह मुस्कराई और उसने साथ की तीन सीटों की तरफ देखा।
"अच्छा!क्या अभी दुबारा कहूं तब तुम्हें यकीं होगा।"मैंने हंसते हुए कहा।
"डिपेंडस!"
"अभी भी शक है।"
"डिपेंडस!"
"ओ!शायद पंजाबी में कहूं तब तुम्हें विश्वास हो।"
"डिपेंडस!"
मुझे न जाने क्या सूझा।मैंने उसे होंठो पर चूम लिया और बोला,"मैं तेनु बहुत प्यार करदा हां।"
वह हल्की सी बदहवास हुई और बोली,"यह क्या हरकत हुई?"
"पंजाबी में वर्ड के साथ एक्शन भी होता है।"मैं हंसा तो उसने हल्के से मुझे उल्टे हाथ से थप्पड़ मारा।
"मैं अभी आपको आई लव यू टू कहने वाली थी आप तो बड़े इमपेशेंट निकले।"
इमपेशेंट नहीं पेशेंट!लव पेशेंट!!"
"लगे रहो!"पीछे की सीट पर रात वाले अंकल थे,"हमने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं।"
उन्होंने कहा तो सारी बस फिर से हंस पड़ी।
शादी के बाद होता है रिसेप्शन!दूल्हा दुल्हन स्टेज पर पास पास बैठते हैं।लोग खाना खाते हैं और फोटो खिंचवाते हैं।उन दिनों मोबाइल फोन तो होता नहीं था।पेंटेक्स का कैमरा लेकर प्रोफेशनल फोटोग्राफर इधर उधर दौड़ता रहता था।लोग पोज़ बना कर फोटो खिंचवाते थे।अच्छे आने पर फोटोग्राफर से संपर्क करके एक्स्ट्रा कॉपी प्रिंट करवाने का आर्डर देते थे।
मैंने और संजू ने भी दूल्हा दुल्हन के अगल -बगल खड़े होकर फोटो खिंचवाए।अब ये फोटो ही मेरी यादों के जख्मों को जिंदा रखती हैं।इन फोटो को देखकर जो टीस उठती है उस टीस में ही मैं दस कविताएँ या एक मार्मिक कहानी कह सकता हूं।आप मुझे व्यापारिक बुद्धि वाला बनिया कह सकते हैं।या अधिक कठोर होकर मेरी तुलना उस भिखारी से कर सकते हैं जो अपने जख्म को खुरचकर ताजा रखता हूं और उस बहाने से ज्यादा भीख ले सकता हूं।
शादी से लौटकर अन्मयस्कता का भाव तारी रहने लगा।मेरे घर के लोगों को मेरी मानसिक हालत कुछ पता न थी।इधर उधर बेमतलब डोलता रहता था।दिल करता था अबोहर चला जाऊं।उसने मुझे अबोहर का एक पता दिया था जिस पर मैं चिट्ठी भेज सकता था।लेकिन मुझे कुछ ध्यान ही न था कि वह पता कहां चला गया।उसकी बहन सिरसा में कहीं रहती थी।कहाँ,यह मालूम न था।उसके जीजा का क्या नाम था यह भी पूछा नहीं था।शादी के दौरान भी हमारी बहुत बातचीत न हो पाई थी।जो जो उसने जितना जितना बताया था वह भी पूरा कहां याद रहा था।अपने से तो मैंने कुछ पूछा ही न था।
ऐसे में एक दिन उसकी चिट्ठी आई।इस चिट्ठी को कोई पढ़ भी लेता तो पता नहीं चलता कि चिट्ठी एक लड़की ने अपने प्रेमी को लिखी है।चिट्ठी का मजमून यूं था।
"यार सतीश!
जब से आपसे शादी में मिला हूं आपकी याद दिन रात आती रहती है।दिल चाहता है एक दिन आपके फतेहाबाद अचानक आऊं।आपसे मिलूं और दुनिया जहान की बातें करूं।पता नहीं मेरा प्यारा सतगुरु मुझे कब मौका देगा और कब मैं अपने मन की मुराद पूरी करूंगा।
आपकी फिक्र में दिन रात रहने लगा हूं।अगले हफ्ते मैं अपनी बहन से मिलने सिरसा आऊंगा।मेरी बहन आई टी आई के सामने गली में 33 नंबर मकान में रहती है।उस मकान के सामने बड़ा पार्क है।आप यह निशानी याद रखना।आपको मकान आसानी से मिल जाएगा।
आपकी इंतजार रहेगी।
आपका प्यारा दोस्त,
संजू
अबोहर
I LOVE YOU
कमाल की बुद्धि थी इस लड़की में।कह भी सब कुछ दिया और अपनी आइडेंटिटी भी छुपा ली।चिट्ठी में लिखाई इतनी बचकाना थी कि मुझे लगा कि किसी बच्चे से लिखवाई गई है।हो सकता है उसने खुद ही बाएं हाथ से लिखी हो।
बहरहाल चिट्ठी ने मेरे मिजाज पर जादुई असर किया।इस असर में ही मैं खुश खुश नए जूते कपड़े लाया।बाल कटवाए और शैम्पू किये।यहां तक कि रूमालों और जुराबों का एक बॉक्स खरीद लिया।
मां ने मेरे इस क्रियाकलाप को संदेह से देखा और पूछा,"क्या बात है?कहां जाने की तैयारी हो रही कुछ दिन से!"
"अगले सप्ताह मेरा दोस्त सिरसा आएगा।उससे मिलने जाऊंगा।"
"दोस्त है या सहेली?"मां मुस्करा कर बोली।
"मां!"मैंने लगभग चीख कर कहा।
"मतलब सहेली ही है पक्का!कौन सी बदकिस्मत लड़की है जो मेरे लंबू पर मर गई।"मां फिर हंसी।
"मां!अब और ज्यादा मजाक करा तो सारे कपड़े कैंची से काट दूंगा।"
"काट दे!मुझे क्या?अपनी छमकछल्लो को क्या पहनकर दिखाएगा?"मां ने मजाक उड़ाया तो मैं समझ गया कि मां से पार पाना असंभव है।
यह सही बात है कि लड़के लड़की की तरह नहीं सोच सकते।उसकी सोच की गहराई की थाह नहीं पा सकते।एक रंग में कितने रंग जी लेती हैं लड़कियां।एक सपने में कितने सपने गूंध देती हैं लड़कियां!उसके सपने एक सादालोह लड़के के पैरों में रेशम के धागे की महीन बेड़ियां डाल देते हैं।चाहते न चाहते लड़का उस रेशम की डोर के खिंचाव से बंधा चला आता है।उसने न दिन दिया था न वार।न वक्त ही मुकर्रर किया था।फिर भी मैं रविवार की सुबह एक जोंगा जीप में चढ़कर सिरसा चला जा रहा था।जोंगा में इसलिए क्योंकि उस दिन बसें डेरे वाले बाबा जी की मेहरबानी से भरी चल रही थी।खिड़कियों और छतों पर भी प्रेमीजन लटके थे।वे रूहानी इंसान के प्रेमी थे,वे ईश्वर से साक्षात्कार करने का दावा करने वाले गुरु के दर्शन को जा रहे थे।मैं एक खूबसूरत लड़की का प्रेमी था।मेरा प्रेम दैहिक था,रूहानी नहीं।इसलिए मैं बस में न जाकर जोंगा जीप में जा रहा था।बदमाश हवा मेरे हेयरक्रीम लगे बालों की चिकनाई चूसे ले रही थी।मेरे नए कपड़े मुचड़ न जाएं इस डर से मैं किसी से सटना नहीं चाहता था।इस जोंगा में ऐसी सुविधा कहां मिलती।यहां तो मैले कपड़ों में गंधाते किसान मेरे ऊपर ही चढ़े जा रहे थे।कहने पर भी मानते न थे।एक को जरा जोर से डांटा,"ऊपर न चढ़।परे होकर बैठ"तो उसने आंखें तरेरी और लगभग मार डालने वाले अंदाज में बोला," इतना इश्नाकपाक है तो अपनी प्राइवेट गाड़ी लेकर आता।ये तो सवारियों की जीप है।इसमें तो सवारियां ही भरेंगी।"सबने हां हां करके समर्थन किया।मैं अकेला था और ड्राइवर भी मेरी फेवर में नहीं था।ज्यादा चौड़ा होने पर मुझे हाइवे पर कभी भी कहीं भी उतारा जा सकता था,इस डर से हाथ जोड़कर बोला,"भाई !मेरा थोड़ा कुड़माई का चांस है।इसलिए तेरे आगे हाथ बांधता हूं।मेरे कपड़ों का कुछ ख्याल कर!उधार खरीदे हैं।अभी टेलर का पैसा भी बकाया है।"
मेरी विनती इतनी मार्मिक थी कि सब हंस पड़े।मुझे थोड़ी खुली जगह तो मिल गई।लेकिन इसके बदले सारे रास्ते मेरा मजाक उड़ाया।
सिरसा आ गया था।सिरसा इतना खूबसूरत शहर है मैन पहले इस तरह से न देखा था।सड़कों के दोनों तरफ ठेलों पर ताजा फल थे।केले,सेब,संतरे,चीकू और पपीते, सब इतने ताजे और बड़े बड़े।
डेरे के भक्त इन फलों को खरीदने के लिए ठेलों को घेरे हुए थे।
डेरे के भक्तों के लिए सिरसा तीर्थ है।उनके लिए सिरसा के लिए वह भावना और आदर है जो मुसलमानों के मन में मक्का के लिए है या कैथोलिक के मन में रोम के लिए है।
मेरे मन में तो यह भावना उस दिन बनी थी क्योंकि मेरा प्यार वहां था।
फतेहाबाद से चलते समय सोचा था कि सिरसा के बाजार से उसके लिए और उसकी बहन जीजा के लिए कुछ गिफ्ट वगैरह खरीद लूंगा।सुरखाब चौक तक इसी वजह से पैदल आ गया।बाजार अभी दूर था।मुझे थकान होने लगी थी।एक रिक्शा वाले से बात करी तो वह पूछने लगा,"कौनसा बाजार?"
"कितने बाजार हैं यहां?"
"बड़े हैं बाउ!"
"अच्छा!जो तुम्हें ठीक लगे वहां पहुंचा दो!"
"ठीक है बाउ !बैठो!"
मैं रिक्शा पर बैठ गया।रिक्शा सामान से भरी दुकानों के बीच से खुले मार्गों की तरफ बढ़ चला।मैं उसके हसीन चेहरे की स्मृति में खोने लगा।मेरी तंद्रा तब टूटी जब रिक्शा वाले ने कहा,"बाजार आ गया बाउ!और आगे किधर जाना।"
"एक मिनट!"मैंने वहां एक दुकानदार से पूछा,"भाई साहब!यहां लेडीज सामान की दुकान किधर हैं?"
उस भाई साहब ने इतना पूछने पर इतने विस्तार से बताया कि अगर उनका कहा एक एक शब्द लिखने बैठूं तो एक अलग कहानी बन जाये।बहरहाल उनकी बताई दुकानों पर जाकर दो लेडीज सूट,एक जेंट्स पेंट शर्ट क्लोथिंग,एक वैनिटी बॉक्स,दो इयरिंग के जोड़े,छह दर्जन चूड़ियां और न जाने क्या क्या दुकानदार के आग्रह पर खरीद डाला।एक किलो ढोढा चावला स्वीट्स का भी पैक करवा लिया।इतना सारा सामान खरीदने की वजह से एक बैग भी खरीदना पड़ा।सामान खरीद कर फिर से रिक्शा किया और आई टी आई गेट के सामने गली में पहुंच गया।चिट्ठी निकालकर पता फिर से पढ़ा। 33 नम्बर मकान ढूंढने में ज्यादा दिक्कत पेश नहीं आई।ब्राउन कलर के लोहे के गेट के बाहर ग्रेनाइट की नम्बर प्लेट लगी थी।मकान मालिक का नाम वीरेंद्र चावला अंकित था।हाथों में आये पसीने को पोंछकर बेल के स्विच पर हाथ रखा।अंदर कर्कश स्वर की घंटी की आवाज कहीं दूर से आई।पांच मिनट इंतजार किया।अंदर से आने वाली किसी आवाज,किसी पदचाप को सुनने को कान चौकन्ने थे।लेकिन अंदर से कोई आवाज न आई।
दोबारा बेल बजाई।कोई गतिविधि नहीं।मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था।इतनी तैयारी की थी लेकिन इस क्षण की तैयारी न की थी कि अगर वे लोग न मिले तो क्या करना है।अब यह अप्रत्याशित क्षण मेरे सामने प्रत्यक्ष था और मैं क्या करूँ,क्या न करूं की उलझन लिए उस बंद गेट के सामने खड़ा था।उस बंद गेट ने सिर्फ उस घर में प्रवेश में ही बाधा उत्पन्न न की थी।बल्कि पूरे जीवन की उपलब्धि पाने के सुअवसर के समक्ष ही बाधा उत्पन्न कर दी थी।
एक बार और बेल बजा कर देखता हूं, फिर लौट जाऊंगा।यह सोचकर बेल स्विच की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि बगल के मकान का दरवाजा खुला।एक मोटी पंजाबी औरत निकली,उसका गोरा शरीर उसके कपड़ों से बाहर निकलने को छटपटा रहा था।वह मुझे देखकर बोली,"किससे मिलना है भैया?"
"इनसे!"मैंने नेमप्लेट की तरफ इशारा किया।
"मंजू तो अपने मायके अबोहर गई है। वीरेंद्र भी साथ ही गया है, मंजू की बहन गुजर गई है।"
वह औरत अफसोसनाक चेहरा बनाकर बोली।
"क्या?"मेरे सूखे गले से इतना ही निकला।
"हां उसकी बहन को डेंगू हो गया था।दो दिन के बुखार में ही खत्म हो गई।आप क्या उनके पहचान वाले हो?"
"न!नहीं!!"
"कुछ सामान देना हो तो मेरे पास छोड़ जाओ!मैं दे दूँगी।"शायद उसने मेरा बैग देखकर कहा।
"न!नहीं!!"मैंने कहा तो गले में तेज कांटे जैसा चुभा।उस औरत ने भी शायद मेरे चेहरे पर उड़ती हवाईयां देख ली थी।
"भैया!पानी लाऊं?पानी पिओगे?"
"न!नहीं!!"कहकर मैं पैदल ही चल दिया।मुझे दिशा भान नहीं था।बस चला जा रहा था।एक दो बार किसी वाहन के नीचे आते आते बचा।ड्राइवर के कर्कश स्वर और तेज हॉर्न का प्रशाद पाया।पता नहीं कैसे?मुझे याद नहीं,अपने आप को एक गुरुद्वारे के दरवाजे पर खड़ा पाया।गुरुद्वारा सफेद संगमरमर के पत्थरों की कलाकारी से धूप में झिलमिला रहा था।दिव्य गुरुबानी का स्वर मेरे कानों में पड़ा।
"जिस दा साहिब ढाढा होए तिस नु मार सके न कोय!"
उन शब्दों में जो संदेश छिपा था उससे मुझे लगा कि भगवान ऐसा नहीं कर सकता।भगवान मेरी संजू को अपने पास नहीं बुला सकता।भगवान इतना बेरहम नहीं हो सकता।
मेरा बैग मेरे कंधे पर एक लाश की तरह टंगा था।इस लाश से पीछा छुटाना जरूरी था।मैं एक संगमरमर की बेंच पर बैठकर अपने होशो हवास ठिकाने लगाने की हरचंद कोशिश कर रहा था।मेरा मन रोने को भी न कर रहा था।
तभी एक सरदार जी नम्रता से हाथ जोड़ते हुए आए और मुझसे बोले,"भगत जी!आओ प्रशादा छको!सच्चे पातशाह मेहर करेंगे।"
मैं उनके पीछे पीछे यंत्रवत चल दिया।आगे एक सरदार जी और मिले,"गुरुघर में पाप के भागी न बनो।सिर पर कपड़ा ले लो।"
उन्होंने मुझे एक चमकीला कपड़ा सिर पर बांधने के लिए दिया।जिसे मैंने कसकर बांध लिया।
लंगर हाल में लोगों की बड़ी भीड़ थी।भुनी हुई उड़द चने की उबाली और घोटी हुई दाल के साथ मशीन के पलेथन लगे फुल्के थे।निम्बू-मिर्ची का अचार था।मैं तीन फुल्के छक गया।पनियल पतली लस्सी के दो गिलास पीकर बिल्कुल सेट हो गया।अब मैं शांति से सोच सकता था।बैग अभी भी मेरे कंधे पर था।
बैग जिसमें प्रेमिका और उसके बहन-जीजा को खुश करने का बड़े मनोयोग से खरीदा गया सामान था।वह सामान एक अवांछनीय बोझ बन कर कंधे दुखा रहा था उससे छुटकारा कैसे पाया जाए।यूं ही सड़क पर तो छोड़ा नहीं जा सकता था।मुझे एक ही उपाय सूझा।सामान वापिस कर दिया जाए।
यह सोचकर मन कुछ हल्का हुआ।एक रिक्शा लेकर फिर से उसी बाजार में पहुंचा।
मिठाई की दुकान चावला स्वीट्स पर अपनी सच्चाई बयान की,"भाई साहब!जिसके लिए यह मिठाई खरीदी गई थी वह इस दुनिया में नहीं रही।अब इस मिठाई का कोई प्रयोजन नहीं।आप इसे रख लें।"
मिठाई की दुकान वाले वह भाई साहब बड़े मायूस हुए।उन्होंने मिठाई रखकर दाम लौटा दिया।
कपड़े वाले इतने दयानतदार न निकले।बोले,हम बिका हुआ माल वापिस नहीं लेते।
"मैं आपसे पैसे नहीं मांग रहा।आप रख लीजिए।किसी को दे देना।"मैंने उन्हें सच्ची कहानी सुनाई थी।उनकी शक़्ल से लग रहा था कि उन्हें मेरे कहे एक शब्द पर भी यकीन नहीं था।मैं उन्हें या तो पागल दिख रहा था या ठग!
मैंने ज्यादा बहस करना उचित न समझा।बाहर निकला।अभी फुटपाथ पर खड़ा हुआ था कि दुकान का नौकर मेरे पास आकर खड़ा हुआ।
"मैं ये कपड़े आधे दाम पर खरीद सकता हूं।"वह बोला।
"मैं तो बगैर पैसे वापिस करूंगा वो भी दुकानदार को,आपको नहीं।या फिर मैं इसे साथ ले जाऊंगा।"
मेरी बात सुनकर नौकर मुंह बनाते हुए दुकान में वापिस चला गया।
वैनिटी बॉक्स भी वापिस न हो पाया।
इसलिए सामान समेत ही मैं फतेहाबाद अपने घर लौट आया।
वह बैग मैंने ऐसी जगह डाल दिया जहां अगली दीवाली से पहले किसी की निगाह नहीं पड़ने वाली थी।
अब मेरा फतेहाबाद में बिल्कुल जी नहीं लगता था।मैं कहीं बाहर जाना चाहता था।मेरा बी कॉम का रिजल्ट आ गया था।मेरा इरादा पहले एल एल बी करने का था।लेकिन अब मैं किसी काम में लगना चाहता था जिससे मैं बीते दिनों की यादों से पीछा छुड़वा सकूं।
फरीदाबाद में मेरे कुछ रिश्तेदार थे।वे कई बार आने को कहते थे।मैंने फरीदाबाद जाकर नौकरी ढूंढने का निश्चय किया।मेरे पास कुछ रकम थी जो मैंने ट्यूशन पढ़ाकर जमा की थी।उसे बैंक से निकालकर मैं फरीदाबाद चला आया।रोज सुबह अखबारों में आई जॉब वेकैंसी की भरमार में से अपने काम की नौकरी ढूंढकर उस जगह जाकर इंटरव्यू देने में पूरा दिन निकल जाता था।इस काम में इतनी थकावट हो जाती थी कि बगैर थपकी के नींद आती थी।पंद्रह दिन बहुत भटकने के बाद विक्टर केबल में ट्रेनी एकाउंट्स क्लर्क की जॉब मिली।वह भी किसी की सिफारिश से।पंद्रह सौ रुपये तनख्वाह थी और आठ घंटे ड्यूटी।कंपनी का माल पूरे देश में जाता था इसलिए काम की भरमार थी।एकाउंट्स डिपार्टमेंट हफ़्ते के छह दिन व्यस्त रहता।एक बार कंपनी में घुसने के बाद न समय का ध्यान रहता, न खाने पीने का।कंपनी के अफसर लोग मुझे बहुत पसंद करने लगे थे।आठ महीने इतनी जल्दी निकल गए कि पता ही न चला।घर में मेरी खबर- सार रिश्तेदार दे देते थे।उनके पड़ोस में मैं अपना कमरा लेकर रह रहा था।इसलिए घर वाले निश्चिंत थे।
आठ महीने बाद दीपावली की छुट्टियों में मैंने घर जाने का निश्चय किया।सबके लिए गिफ़्ट और कपड़े खरीदे।रात की साढ़े ग्यारह बजे की बस से मैं सुबह पांच बजे फतेहाबाद पहुंच गया।
दोपहर तक सोया रहा।चाय नाश्ते तक ही शाम हो गई।अपने कमरे में गया तो सोचा कुछ साफ सफाई करनी होगी।लेकिन वहां तो सब कुछ करीने से रखा हुआ और साफ सुथरा था।
मां मेरे पीछे पीछे आई।
"मां!मेरे पीछे से आप रोज मेरा कमरा साफ करती थी।"
"हां!जब भी तुम्हारी याद आती तुम्हारे कमरे में चली आती थी।तुम इतने व्यस्त हो गए कि मां को एक भी चिट्ठी नहीं लिखी।मैं पूरे आठ महीने तुम्हारे पत्र का इंतजार करती रही।"
मैं अपराधी की भांति खड़ा था।मैंने सोचा था कि फतेहाबाद में मेरी चिट्ठी की इंतजार में कौन बैठा होगा।टेलीफोन पर हालचाल तो मालूम हो ही जाता है।
"तुम्हारे लिए आये पत्र मैंने तुम्हारी डायरी में संभाल कर रखे हैं।पढ़ लेना।"
मैंने डायरी उठाई।असावधानी वश दस बारह पत्र उसमें से निकलकर फर्श पर गिर पड़े।
एक अंतर्देशीय पत्र पर वह लिखाई देखकर मैं चौंक पड़ा।इस लिखाई को मैं नींद में भी पहचान सकता था।
संजू का पत्र था।
बारह पत्रों में से आठ पत्र संजू के थे।चार अंतर्देशीय पत्र और चार लिफाफे।
मैंने काँपते हुए हाथों से पत्रों पर डाकखाने की मोहर की तारीखों को देखना शुरू किया।मैं दिसंबर में फरीदाबाद गया था।मेरे जाने के बाद दूसरे महीने से लेकर लगभग हर महीने के हिसाब से एक पत्र आया था। फरवरी में एक,मार्च में एक ,अप्रैल में एक, मई में एक,जून में एक,जुलाई में एक, एक ,सितंबर में एक।अगस्त और अक्टूबर में कोई पत्र नहीं था।
मैंने सारे पत्रों को खोला और बारी बारी से पढ़ना शुरू किया।
फरवरी में पहुंचा पत्र जनवरी में लिखा गया था।
25 जनवरी 1991
प्यारे दोस्त सतीश!
मैंने तुम्हारा बहुत इंतजार किया।तुम आये ही नहीं।एक बुरी खबर है,मेरे चाचा की लड़की रंजू जो हमारे घर ही रहती थी,डेंगू बुखार से सचखंड चली गई।वह मेरी ही उम्र की थी और मेरे लिए सगी बहन से भी बढ़कर थी।इतनी सुंदर थी कि क्या बताऊँ।उसे अपनी खूबसूरती का जरा भी घमंड न था।ऐसे सरल और सीधे लोग सच्ची आत्मा वाले होते हैं।उन्हें परम पिता परमात्मा अपने पास बुला लेता है।ऐसे बंदों की उसे भी लोड़ पड़ती है।हमारे जैसे पापी लोग इसी धरती पर रहकर अपने पापों का घड़ा धीरे धीरे भरते रहते हैं।
आप सुनाओ आपका समय कैसा गुजर रहा है।अब मैं वापिस जा रहा हूं।मुझे मिलने आपको अबोहर ही आना होगा।
आपका प्यारा दोस्त
संजू!
इसका मतलब जो मरी थी वह संजू नहीं,रंजू थी।पड़ोसन ने गलत खबर थी या शायद उसने गलत समझा था।
दूसरा पत्र जो मार्च में पहुंचा उस पर 1 मार्च 1991 की तारीख पड़ी थी।
उसका मजमून पढ़ने बैठा।
प्यारे सतीश,
आपने मेरे पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया।क्या आप मेरे को इस लायक नहीं समझते।मैंने तो सिर्फ आपकी तवज्जो चाही थी,थोड़ा टाइम मेरे लिए निकालकर एक पत्र मुझे लिख देते तो मेरे दिल को तसल्ली आ जाती।आप को मालूम नहीं कि मुझे आपकी कितनी फिक्र लगी रहती है।
मैं तो यह मानता हूं कि बंदे को या तो प्यार डालना नहीं चाहियें या फिर निभाना चाहिए।
आप बताओ आप अगले महीने सरसे आ सकता हो।पिता जी ने बुलाया है।हाजिरी तो देनी पड़ेगी।आप आ जाते तो मजा दोबाला हो जाता।
आपका दोस्त
संजू!
तीसरा पत्र अप्रैल की पंद्रह तारीख को लिखा गया था और पच्चीस अप्रैल को यहां पहुंचा।
प्यारे यार!
पता है मुझे तुम्हारी कितनी याद आई।पिताजी के बुलाने पर मैं डेरे आया था।उनके दर्शन लाभ पाकर मैं कितना खुश था।कितना नूर दिखता था मुझे उनके चेहरे पर।इंसानियत को उनकी कितनी जरूरत है,मैं यह समझता थी।डेरे में मैं एक हफ्ता रुका।दो रात मेरी सेवा में ड्यूटी आई थी।वाहेगुरु की किरपा से मैं बच गया।सेवा से एक रात पहले गुरुजी ने जिन्हें लड़कियां अपने जिस्मानी पिता से ऊपर का दर्जा देती हैं।उस गुरु ने एक लड़की से छेड़खानी की थी।
मुझे आपसे बस में हुई पहली मुलाकात याद आई।आप कितना सही थे,देहधारी गुरु पर भरोसा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर है।अब मैं कभी भी वहां नहीं जाऊंगा। न मैं वहां सुनी बात किसी से बताऊंगा।क्योंकि सुनने वाले यकीन नहीं करेंगे और खामखा गुरुनिन्दा कर पाप की भागी बन जाऊंगा
मुझे पत्र जरूर लिखना।
तुम्हारी अपना
संजू!
चौथा पत्र
12 मई 1991
डिअर सतीश,
मेरा मन बड़ा बेचैन है।गुरुद्वारे जाकर भी मन नहीं टिकता।इतने दिन जिस दुष्चक्र में फंसे थे उससे बाहर निकलकर कुछ करने को काम ही नहीं रहा।सिरसा जाने के नाम पर एक खुशी सी तारी रहती थी।अब सिरसा के नाम से ही डर लगने लगा है।भगवान के नाम पर बने घर में क्या क्या कुकर्म होने लगे हैं कौन जानता है।जान लेना ही काफी नहीं है,उसे मानने के लिए भी मनःस्थिति भी बनानी पड़ती है।मैं तो वाहेगुरु की कृपा से उस काली दुनिया से निकल आया।लेकिन डर इतना लगता है कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए।वे लोग बहुत ताकतवर लोग हैं।ताकतवर लोग जब बुरे रास्ते पर चलते हैं तो बहुत जालिम हो जाते हैं।उनके लिए लड़कियों की इज्जत,इंसानों की जान की कोई कीमत ही नहीं रह जाती।मैं उनका यह राज जान गया हूं, यह जानकर कहीं वे मुझे चोट ही न मार दें,इस डर से रात में सोए सोए मेरी सांस रुक जाती है।
बताओ मैं क्या करूं।आप मिलने आ जाते तो दिल को तसल्ली हो जाती।
आपका
संजू
5 वां पत्र
5 जून 1991
प्यारे दोस्त सतीश,
कैसे हो?आपने तो लगता है कसम ही खा ली है कि मेरे किसी पत्र का जवाब नहीं दोगे।
मैं हूं कि पत्र के बाद पत्र लिख रहा हूं।आप पता नहीं पढ़ते भी हैं या नहीं।अगर पढ़ते होते तो इतने कठोर दिल न बनते।मैं सिरसा जाना नहीं चाहता।बहन है कि बुलाये जा रही।बहन को मैंने डेरे का हाल बताया था।या तो उन्हें पहले से ही मालूम था या वह मेरी बात पर विश्वास नहीं करती।वे अभी भी डेरे जाती हैं।कमाल है न,उन्हें अपनों के मुकाबले परायों पर विश्वास है।ऐसी बहन के घर जाना कौन चाहेगा?
बस आज इतनी ही बात
आपका
संजू
6टा पत्र
यार!
मैं यहां मुसीबत में फंस गया हूं।इस मुसीबत में फंसाने की वजह तुम्हारी तरफ से कोई पहल न होना है।कभी कभी तो मुझे शक होता है कि तुम वहां हो भी या नहीं।अगर नहीं हो तो इन चिठियों को कौन ले रहा है।यह मेरी छटी चिट्ठी है।अगर इस चिट्ठी का भी जवाब न आया तो मुझे या तो आपके घर आना पड़ेगा या चिट्ठी लिखना ही बंद करना पड़ेगा।
मुसीबत यह है कि रिश्ते वाले चक्कर मार रहे।बहन भी उनके साथ मिलकर मुझे फांसी पर चढ़ाने को मुस्तैद है।
बताओ यार क्या करूं।
तुम्हारा दोस्त
संजू!
सातवां पत्र
24 जुलाई 1991
प्रिय मित्र,
शायद इसे मेरा आखिरी पत्र समझो।क्यों?क्योंकि मेरी सगाई तय हो गई है।आए हुए तीन रिश्तों में से दो सिरसा से थे और डेरा भक्त थे।तीसरा फतेहाबाद से है और वे लोग डेरे को नहीं मानते।पता नहीं क्यों?लेकिन डेरा भक्तों और सिरसा से वितृष्णा सी हो गई है।सिरसा मुझे एक नकली दुनिया का शहर लगता है।जैसे रामलीला में गत्ते के महल और किले बनाये जाते हैं और लोग बांस पर चमकीले कागज चढ़ाकर धनुष बाण चढ़ाए राजा और राक्षस बने फिरते हैं ऐसा ही मुझे सिरसा में लगता है।स्वप्नलोक या नाटककार की रामलीला में और गुरु द्वारा बनाई गई परंपराओं के पालन में मेरी कोई रुचि ही न रही।एक प्यार ही है जिसे मैं देह का आकर्षण समझता था और इसे रूहानी प्यार से निचले दर्जे का समझता थी।अब लगता है कि रूहानी प्यार की बख्शीश बांटने वाले खुद देह के पीछे पागल हैं और रूहानी प्यार का छदम आवरण धोखे की आड़ है तब मेरा विश्वास दैहिक प्यार की तरफ लौट आया है।अब कहीं तो शादी करनी ही है।फतेहाबाद में ही सही।एक और रुचिकर बात यह है कि जिस कॉलोनी में उनका घर है उसे सतीश कॉलोनी कहते हैं।आपके शहर में आपके नाम से बसी कॉलोनी में हम रहेंगे और आप से मिलने में भी सुविधा रहेगी।बस इतना ही हमें जीने के लिए पर्याप्त है।
अब भी तुम्हारे पत्र के इंतजार में।
संजू!
आठवां पत्र
पांच सितंबर 1991
सतीश,
दस सितंबर को मेरी शादी है।आज आपका जन्मदिन।आपने मुझे अपना जन्मदिन बताया था।मुझे याद रह गया।
शादी करके आपके शहर में रहना है।आप चाहें तो अब भी मौका है।मैं जागते हुए यह सपना देखती हूं कि आप को यह चिट्ठी नौ तारीख तक मिल जाये और आप मेरी शादी रुकवाने अबोहर आ जाएं।आप मेरी चिट्ठियां बिरादरी को दिखा दें और लड़के वाले गुस्से में रिश्ता तोड़ दें।उसके बाद आप मुझसे शादी की मांग मेरे घरवालों से करें और वे खुशी खुशी राजी हो जाएं।लेकिन ऐसा तो फिल्मों में होता है न!हकीकत में नहीं होता।मेरे पास आपसे एक मुलाकात की जमा पूंजी है।पता नहीं आप उस मुलाकात को सीरियसली लेते भी हैं या नहीं।अगर लेते होते तो एक चिट्ठी का तो जवाब जरूर देते।यही लिख देते कि शादी के माहौल में वह तो एक हल्का फुल्का मजाक भर था।मैं इसी बात को पढ़कर तसल्ली से किसी दूसरे से शादी कर सकती।अब तो मुझे लगता है कि मेरा जिस्म मेरे पास आपकी अमानत है जिस पर आपने अपने चुम्बन की मोहर लगाकर अपनी मिल्कियत बना लिया था। उसे मैं आपसे इजाजत लिए बगैर किसी दूसरे को सौंप रही हूँ।इस गुनाह की माफी मुझे सात जन्म भी नहीं मिलेगी।आपने अपनी तरफ से खामोशी अख्तियार करके सारे पत्ते अपने पास रख लिए हैं।आप किसी दिन भी आकर मुझे झिंझोड़ते हुए कह सकते हैं,"संजू क्या था यही तुम्हारा प्यार!तुम एक दो साल भी मेरा इंतजार न कर सकी।मैं तो दुनिया भर के झंझट में फंसा था तुम्हारी चिट्ठी पढ़ने का अवकाश ही मेरे पास कहां था।तुम्हें मेरा इंतजार करना चाहिए था।
मेरी शादी हो रही है मुझे पता है कि आप रोकने नहीं आओगे।फिर भी मेरा दिल कहता है कि मुझे आपके लिए अपना जिस्म पवित्र रखना चाहिए।दस सितम्बर से दस अक्तूबर तक मैं कैसे भी अपना जिस्म पवित्र रखूंगी।मेरे पति को हाथ भी न लगाने दूंगी।आपको आकर बस इतना कहना है,चल संजू!यहां क्यों बैठी है,मैं उठकर आपके साथ चल दूंगी।
आपके इंतजार में बेबस और लाचार
संजू
आठवीं चिट्ठी पढ़कर मेरी आँखों में आंसू आ गए।मेरे जैसे साधारण लड़के के लिए वह कितना बड़ा त्याग करके बैठी है।आज बारह अक्टूबर है।सतीश कॉलोनी में जाकर उसकी ससुराल का पता लगाना कोई नामुमकिन काम नहीं है।मैं उठकर जाने को उद्यत हुआ कि मां आ गई।
"मां!मुझे जाना होगा।एक दोस्त से मिलना है।"
"वो तो मुझे पता है तू मां से कहां मिलता है।मौका मिलते ही दोस्तों से मिलने भागता है।मैं तो एक बात पूछ रही थी।तूं किसी संजू नाम की लड़की को जानता है?"
"क्यों!क्या हुआ?"
"दो दिन पहले वह लड़की मेरे पास आई थी।बोली,आंटी मेरी शादी सतीश कॉलोनी में राजेंद्र अरोड़ा से हुई है।इनकी बाजार में कलकत्ता क्लॉथ के नाम से दुकान है।मेरी सास आपको जानती है।"
"अच्छा!"
"मैं आपसे मिलने आई हूं।कहकर वह काफी देर तक इधर उधर की बातें करती रही।कह रही थी आपकी ननद से हमारी रिश्तेदारी पड़ती है।मुझे लगा कि वह कुछ और कहना चाहती है।मैंने पूछ लिया कि कोई और बात है मन में तो कहो।इधर उधर देखकर कहने लगी सतीश जी दिखाई नहीं दे रहे।कहीं बाहर गए हैं।मैं उस लड़की को गौर से देखने लगी।तुम्हारा नाम बड़ा झिझकते हुए और बड़ी शरमाकर ले रही थी।मैं एक औरत हूं, एक मां भी हूं तुमसे कह रही हूं।अगर वह तुमसे परिचित है तो उससे परे ही रहना।मुझे वह लड़की कुछ ठीक नहीं लगी।जसोदा(मेरी बुआ) के रिश्तेदार मुझे वैसे भी कभी ठीक नहीं लगे।शादी हुए महीना हुआ है और बगैर सास ननद के अकेली घूम रही है।अपरिचित घर में आकर लड़के के बारे में शरमाकर पूछ रही है।मानो मैं कुछ जान ही न पाऊंगी।मैं राजेंद्र अरोड़ा की मां को जानती हूं।स्कूल के दिनों में मेरी सहेली थी।तुम कोई ऐसी हरकत न करना उन लोगों के सामने हमारी आँखें नीची हों।"
मां कुछ देर के लिए रुकी,"वैसे तुम्हें यह लड़की मिली कहां थी?"
"डबवाली शादी में!"
"कोई सीरियस बात थी।"
मैं कुछ न बोला।
मां मुझे बहुत देर तक देखती रही।
"अब उसकी शादी हो गई है।कोई बात थी भी तो अब नहीं होनी चाहिए।तुम अपने पापा का गुस्सा जानते हो न?"मां तो साफ साफ धमकी देकर चली गई।
मैं उठकर बाहर चल दिया।मां मुझे जाते हुए देखती रही। न टोका,न पूछा।
राजेंद्र अरोड़ा का घर कहां है,मैंने सतीश कॉलोनी के एक किरयाना दुकानदार से पूछा।
"उधर आगे गली में मंदिर से थोड़ा पहले है।उनके साथ बहुत बुरा हुआ।"
"क्यों?क्या हुआ?"
"राजेंद्र की पत्नी ने जहर खा लिया।अभी एक महीना हुआ था शादी को।पुलिस दहेज उत्पीड़न के केस में राजेंद्र ,उसके मां बाप और उसके भाई को भी उठा ले गई।"दुकानदार अफसोस से बोला।
मैं वहीं खड़ा खड़ा जम गया।
"आप को कुछ काम था राजेंद्र से!"
"हां!नहीं!!"मैं कहकर उसकी दुकान से चला आया।
घर में घुसते ही मां ने पूछा,"क्या हुआ।अभी गया था अभी वापिस आ गया।"
मैने मां की तरफ देखा और टूटे स्वर में बोला,"संजू मर गई!संजू ने जहर खा लिया।"
"क्या?"मां ने कहा और मुझे अपने अंक में भर लिया।
दो घंटे बाद मैं हिसार के बस स्टैंड पर खड़ा फरीदाबाद की बस का इंतजार कर रहा था।मेरी घर से निकासी इतनी जल्दी में हुई कि कुछ करने सोचने का अवसर न मिला। मां ने मौके की गंभीरता को समझा और मुझे फरीदाबाद जाने का आदेश दिया।मेरी फतेहाबाद में उपस्थिति कई सवालों को जन्म देती।सारी चिट्ठियां मेरे बैग में थी।मां को पता लगता तो वे इन चिट्ठियों को कभी मुझे अपने साथ लाने नहीं देती।रात भर सफर करके तड़के मैं फरीदाबाद पहुंच गया।कमरे में जाकर नहा धोकर कपड़े बदले।एक दिन बाद दीवाली थी।कंपनी जाना नहीं था।नाश्ता करके जो लेटा तो शाम को ही नींद खुली।
कमरे से बाहर निकला तो मकान मालकिन आंटी ने आवाज दी।
"सतीश!आपकी चिट्ठी आई है।"
मैंने जाकर चिट्ठी ली।एक लिफाफा था जिस पर उसकी लिखाई थी।मुझे मालूम था उस चिट्ठी में क्या था।मेरी उसे खोल कर पढ़ने की हिम्मत न हुई।मैंने उसे तह करके जेब में डाला और मकान मालकिन आंटी से बातें करने लगा।
इधर उधर घूम कर वापिस आया तो देखा लोग धनतेरस की खरीदारी करके हंसते और खुशी मनाते घर लौट रहे थे।मेरे मन के कोने के भीतर कहीं हल्की सी टीस उठी।अगर!अगर चिट्ठियां पहले मिल जाती तो मैं भी संजू के संग दीवाली मना रहा होता।वाहेगुरु ने मुझे जो दात बख्शी थी वह मेरे हाथ से निकलकर राख में तब्दील हो गई थी।
कमरे पर आकर कपड़े बदलते समय वह चिट्ठी जेब से निकलकर फर्श पर आ गिरी।उस चिट्ठी पर मुझे संजू की दो आंखें दिखाई दी जो विनय कर रही थी,"सतीश!प्लीज मेरी इस चिट्ठी को पढ़ लो।यह मेरी आखिरी चिट्ठी है।वादा करती हूं इसके बाद तुम्हें कोई और चिट्ठी नहीं लिखूंगी।"
भरे मन से मैंने चिट्ठी पढ़ना शुरू किया।
सतीश जी,
मैं एक मृगतृष्णा के पीछे भागती हुई फतेहाबाद आपके घर तक पहुंची।आपकी मम्मी जी से मिलने के बाद मेरी चिरनिद्रा खुली और मैंने कठोर धरातल की वास्तविकता देखी।आपको मेरी एक भी चिट्ठी नहीं मिली होगी मुझे अब विश्वास हो चला है।मैं आपको या आपके परिवार को दोष नहीं देती।मैं अपनी फूटी किस्मत और जल्दबाजी में लिए गए नादानी में लिए गए शादी के फैसले को दोष देती हूं। और मेरे जैसा बेवकूफ कौन होगा।अगर आपके घर ही आना था तो पहले भी आ सकती थी।व
सिरसा का बहाना बनाकर फतेहाबाद पहुंच सकती थी।आपके घर जाकर मुझे पता चला कि आप तो फरीदाबाद में नौकरी कर रहे हैं मेरे दिल की तड़प से अनजान।मैं बेवकूफों की तरह बगैर जवाब मिले ही चिट्ठी पर चिट्ठी लिखे जा रही हूं।जीवन में मैं ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जहां मेरा मन मेरे तन के स्वामी को अपना तन सौंपना नहीं चाहता और मेरे मन के स्वामी को कुछ पता ही नहीं।मैंने अपने आप को एक महीने तक का टाइम दिया था।अगर आप नहीं मिलते तो मैं जान दे दूँगी।महीना पूरा हो चुका।आपका पता मुझे बड़ी मुश्किल से हासिल हुआ है।मैं चाहती हूं कि आपसे मरने से पहले मुलाकात हो जाती।लेकिन कोई सूरत नजर नहीं आती।एक महीने की ब्याहता को कौन अकेला फरीदाबाद जाने देगा।ऊपर से अपने पति को अपना बदन छूने नहीं दूँगी यह प्रण अब जिद बन गया है।वह रोज मेरी चिरौरी करता है।गुस्सा दिखाता है,चिढ़कर चला जाता है।लेकिन घर के किसी सदस्य को नहीं बताता।मैं जहर की शीशी साथ लेकर सोती हूं।अगर उसने जोर जबर्दस्ती करने की कोशिश की तो मैं जान दे दूँगी।अपने जीते जी इस बदन को जो तुम्हारी अमानत है किसी को छूने भी नहीं दूंगी।
मैं सारी उम्र एक अपराध बोध के साथ जीने की बजाय मर जाना चाहती हूं।
काश मेरे जीते जी यह चिट्ठी तुम तक पहुंचे और तुम मेरे लिए कोई रास्ता निकालो।
इस आशा के साथ
केवल आपकी,
संजू!
पुनश्च:
अगर आप को यह चिट्ठी मेरे मौत के बाद मिले तो मेरी याद में एक दीपक जरूर जला देना और रोना मत!मेरी आत्मा को कष्ट होगा।
आपकी संजू
मैं रोना चाहता था लेकिन उसकी आत्मा को दुख न पहुंचे इसलिए रोया नहीं।
उठकर एक गिलास पानी पिया और मकान मालकिन आंटी से जाकर बोला,"आंटी!दीपावली के लिए दीये लायी हो तो एक दिया मुझे दे देना।"
आंटी ने एक दिया दे दिया था।मैंने दिया मुंडेर पर जला दिया था।दिया जला कर मुड़ा तो मुझे लगा कि अंधेरे में खड़ी संजू मुस्करा रही थी।