मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - अनुभव Neelima Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - अनुभव

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

अनुभव

लॉकडाउन कहानियों का सफ़र

क्या आप सब में से कभी किसी ने ऐसे दिनों की कल्पना की थी कि सारी दुनिया ठहर जायेगी ? फरवरी में छुट पुट खबर सुन रही थी कि चीन में ऐसीअजीब बीमारी फैली हैं कि जिससे लोग तेजी से संक्रमित हो रहे हैं | सब लोगो को एक दूसरे से दूरी बनाकर रहने को कहा जा रहा हैं | भारत में इस बार होली भी बहुत फीकी फीकी सी रही | मार्च के तीसरे सप्ताह तक भारत में भी इस बीमारी का प्रकोप बढ़ने लगा था | केंद्र सरकार ने एक दिन के जनता कर्फ्यू के बाद २१ दिन का लॉकडाउन घोषित कर दिया | मुझे तो बचपन में खेला जाने वाला गेम स्टेचू एंड ओवर वाला गेम याद आ गया था |

अब सब दुनिया घर पर हैं तो जाहिर हैं ऑनलाइन गतिविधियाँ ही बढेंगी | मातृभारती पर अब पाठक ज्यादा आयेंगे ही इसलिए कुछ नए उपन्यास प्रकाशित करने होंगे | इस सिलसिले में सोचते सोचते इस प्रोजेक्ट का विचार मन में आया आया और जयंती के साथ बात की | उत्साही जयंती रंगनाथन ने “ बिलकुल इसको करते हैं “ कहकर अनुमोदन किया | इस प्रोजेक्ट को मात्रुभारती के फाउंडर महेंदर शर्मा जी से पास कराया गया

इस अनूठे विचार को उनकी तत्काल अनुमति मिल गयी |

अब इस प्रोजेक्ट में किन लेखकों को शामिल किया जाये ?इसकी कमान जयंती के हाथ में दी गयी क्योंकि इस पोर्टल का उद्देश्य ही नए पाठको और लेखको को साहित्य के माध्यम से आपस में जोड़ना हैं तो कुछ नए और कुछ (पहले से पोर्टल पर शामिल) कहानीकारों को लेकर कहानियां लिखवाने की बात शुरू हुयी |

नॉएडा के सेक्टर ७८ में मेरा अक्सर आना जाना होता हैं तो उस बिल्डिंग की कल्पना करके सेक्टर ७१ की क्राउन प्लाजा बिल्डिंग नाम देकर कार्य शुरू किया गया | चूँकि लॉक डाउन का पहला फेज २१ दिन का था तो २१ दिन २१ कहानियाँ यह थीम चुनी गयी | हर बंद दरवाज़े के पीछे घटित होने वाली कहानी को लिखने की पूरी स्वतंत्रता हरेक लेखक को दी गयी | व्हात्सप्प ग्रुप में सबने अपनी अपनी कहानी का प्लाट बताया | कुछ लोगो को कहानी का प्लाट सुझाया भी गया | सबने कहानियाँ लिखी | जयंती और मैंने सब कहानियों को बारी बारी से पढ़ा | बहुत ही कम लोगों को उनकी कहानी कथानक बदलने या सुधारने के लिए वापिस दी गयी |

पत्रकारों को रोजाना लिखने की आदत होती हैं और कहानीकारों को अपने मूड के हिसाब से लेकिन यहाँ सबने अनुशासित होकर समय से अपनी कहानी भेजी | अब काम था कवर बनाने का तो पोर्टल की क्रिएटिव टीम ने ३ कवर भेजे तो वर्तमान कवर का चुनाव किया गया | ४ मई से इस सीरीज को फेसबुक पर जोरदार तरीके से प्रचारित करके लांच किया गया |

पहली कहानी प्रेम कहानी थी तो जाहिर हैं लोगों को पसंद आनी ही थी | अब हर घर के अलग अलग मूड की कहानियों का रोजाना रात को ९ बजे आना ऐसे लगता था जैसे प्राइम टाइम पर किसी चैनेल पर कोई कवर स्टोरी आ रही हैं |

मैं ठीक साढें आठ बजे अपने सब काम छोड़कर कहानी को नित नए नवीनतम तरीके से परिचय देकर लिंक और सबको टैग के साथ फेसबुक वाल व्हात्सप्प के पोर्टलग्रुप में लगाया करती थी |हर कहानी से मिलती पंक्तियाँ खोजने में कई बार गूगल करना होता था तो कई बार अपने ही लिखे अश्ररों के साथ कहानी को प्रस्तुत किया करती थी |

उसके बाद शुरू होता था टिप्पणी और रेटिंग का अनूठा सिलसिला और उस दिन के स्टार लेखक की धडकनों का तेज होना कि मेरी कहानी कैसी होगी ?

कुछ औपचारिक, पूर्व परिचित और कुछ अपरिचित बीस लेखकों की यह टीम एक परिवार बन कर एक दूसरे के साथ इस प्रोजेक्ट में शामिल थी | रोजाना महेंद्र शर्मा जी मुझे अगले दिन आने वाली कहानी का कवर शेयर/ मेल करते थे | जयेश कोई भी दिक्कत आती तो फ़ौरन से कॉल करते |

अब तो यह सिलसिला कुछ इस तरह चला कि हर कहानी का किरदार दिन भर हमारे साथ रहता. हम लोग कैरोल नर्स को कोरोना होने पर दुआ करने लगे तो अक्षर के चले जाने पर ग़मगीन भी हुए | नसरीन को अचरज से देखते रहे तो नंदीप की संवेदनशीलता के कायल भी हुए | शर्मा जी तो कई कहानियों में अपने अलग अलग रंग के साथ मौजूद रहे |

आज मेरी हालत एक परिवार के उस मुखिया सी हैं जिसके बच्चे छुट्टियों में घर आये थे...उनके साथ कब यह (लॉकडाउन का)समय बीत गया पता ही नहीं चला | अब प्रोजेक्ट से विदा का वक्त हैं और विदा डिक्शनरी का सबसे रुआंसा शब्द हैं |

कल की अंतिम कड़ी ने एक सार्थक प्रयोग को विराम तो दिया हैं वहीँ एक चुनौती पूर्ण अवसरों को स्वीकार कर उसमें पूर्ण क्षमता के साथ शामिल होने के लिए प्रेरित किया हैं| हम सब इस प्रोजेक्ट को एक खूबसूरत सकारात्मक मोड़ तक ले जाकर छोड़ रहे हैं लेकिन रास्ते अभी बहुत लम्बे हैं | किसी न किसी चौराहे पर आप सबसे फिर बात होगी, मुलाकात होगी हम फिर से इसी मंच पर एक साथ काम करेंगे |

आप सबके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ |उम्मीद करती हूँ आप सबका मातृभारती के साथ सफर बहुत खुशनुमा रहा होगा | कृपया जयंती और नीलिमा को धन्यवाद देने की औपचारिकता से अलग होकर इस प्रोजेक्ट से जुड़ने का अनुभव साझा कीजियेगा |

नीलिमा शर्मा निविया

सूत्रधार

लेखिका,संपादक मातृभारती

www.matrubharti.com

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२ - लॉकडाउन के बहाने

हममें से किसने सोचा था कि कभी ये दिन भी देखने पड़ेंगे। ये दिन, यानी पूरी दुनिया में कोरोना वायरस की महामारी से त्रस्त लोग, पिछले दो महीने से ज्यादा लॉक डाउन, क्वारंटाइन और भविष्य को लेकर भयंकर आशंका कि पता नहीं कल क्या होगा? कब ठीक होगा सबकुछ? कब हम सामान्य जिंदगी बिता पाएंगे? क्या जब हम लॉकडाउन से बाहर आएंगे तो दुनिया पहले जैसी ही होगी या बदल जाएगी?

तमाम दुश्वारियां। घर में बंद लोग। डरे हुए लोग। तनाव से भरे लोग। करने को बहुत कुछ है, पर कर नहीं पा रहे।

इस आशंका के बीच नीलिमा शर्मा द्वारा मातृभारती के लिए लॉकडाउन प्रोजेक्ट जैसे संजीवनी बन कर सामने आया।

कैसी होगी घर में बंद लोगों की जिंदगी? अपनी जिंदगी तो हम जी ही रहे थे। बस झांकना था अड़ोस-पड़ोस में। हमारे सामने सबकुछ हो रहा था। रिश्ते बन रहे थे, बिगड़ रहे थे। प्रवासी मजदूरों का दर्द सड़क पर छलछला रहा था। जानवरों और पंछियों का बुरा हाल लगभग रोज ही नजर आ रहा था। टीवी पर खबरें जितनी डराती थी, उससे कहीं ज्यादा असल जिंदगी की त्रासदी थी।

ये सारी छवियां अलग-अलग रूपों में हमारे सामने कहानियों में आई। कहानियां पढ़ते समय कभी मैं मुस्कराई, कभी परेशानी से भर गई, कभी आंखें छलछला पड़ीं तो कभी दिमाग ने काम करना बंद कर दिया।

तमाम कहानियों ने मजबूती से एक संदेश दिया कि अंधेरे की बंद गलियों की सुराखों से उजाले की किरण बस फूटने को है। यही जिंदगी है। ये दिन भी गुजर जाएंगे। याद रह जाएगा 21 बेहतरीन लेखकों और दोस्तों के साथ मातृभारती के लिए किया गया बेहतरीन लॉकडाउन प्रोजेक्ट।शुक्रिया मेरे सभी दोस्तों का जिन्होंने एक आवाज़ पर मुझे और मात्रुभारती की संपादक नीलिमा को कहानी लिख कर दी | महेंद्र भाई का शुक्रिया कि उन्होंने हम दोनों पर विश्वास किया |

जयंती रंगनाथन

सूत्रधार, लेखिका

एग्जिक्युटिव एडिटर हिंदुस्तान

एडिटर नंदन

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३--एक चुनौती

मूड्स ऑफ लाकडाउन’ कथा श्रृंखला का हिस्सा बनना किसी रोमांच से कम नहीं था. एक आलीशान सोसाइटी का हिस्सा होते हुये लॉकडाउन के दरम्यान उसकी चारदीवारियों के भीतर के दृश्यों और घटनाओं को कलमबद्ध करना आसान नहीं था. लॉकडउन के उदास और उद्विग्न कर देने वाले समय में किसी रचनात्मक लेखन का हौसला जुटाना ही सबसे बड़ी चुनौती थी पर जब इरादे बुलंद हों और नज़रें खुदा पर हों तो क्या नामुमकिन?

कहानी दो बैठकों में ही पूरी कर ली और लिखा वही जो आस पास इस दौर में घट रहा था. एकाकीपन, भय, आशंकायें, जिजीविषा, सहअस्तित्व, हाशिये पर पड़े लोगों का संघर्ष और इन सबसे ऊपर इंसानी हौंसलों का आसमान. कुल मिलाकर यह मातृभारती समूह की अभिनव पहल थी. सम्पादिका नीलिमा और जयंती के अनथक प्रयास और उनकी हौंसलाआफजाई ने लेखकों को समयबद्ध लक्ष्य पूरा करने में जो मदद की उससे ये नामुमकिन सी लगने वाली परियोजना सम्भव हो पाई.

मुझे आखिरी लम्हों में सम्पादक की सलाह पर कहानी का पुनर्लेखन करना पड़ा पर इससे कहानी और निखरकर सामने आई. “ मूड्स ऑफ लॉकडाउन’ ने वाकई हमारे मूड्स और हौंसलों को इस

चुनौतीभरे वक्त की कसौटी पर कसा और कलम का इंकलाब जिंदाबाद ही रहा.

-ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी

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4-सकारात्मक प्रयोग

लॉकडाउन के बाद घर में कैद होकर जब मन अनिश्चतताओं के गोते लगा रहा था तभी मातृभारती के प्रोजेक्ट मूड्स आॅफ लॉकडाउन से जुड़ने के लिए फोन आया। पहले तो लगा कि अभी उदास मन में कहां लिखी जाएगी कहानी, फिर लिख ही लिया और भेज दी। पहले सोचा था कि कहानी लिखी और बात खत्म। लेकिन यह प्रोजेक्ट तो जीवन से जुड़ने जैसा हो गया। मैं बचपन से कहानीखोर हूं। आज भी बिना खाना खाये सो जाऊं लेकिन रात को बिना कहानी पढ़े नींद नहीं आ पाती। इस प्रोजेक्ट ने जैसे कहानियों के कारवां से जोड़ दिया। बच्चों की तरह रात नौ बजे का इंतजार और एक सांस में कहानी पढ़ जाती। ये रात का इंतजार दिन को थोड़ा कम बोझिल कर रहा था। खास बात वाट्सऐप ग्रुप से कहानीकार से जुड़ाव। हर लिखनेवाला, पढ़नेवाला भी था। यह पहला अनुभव था जहां पढ़ना भी रचनात्मक टीम का हिस्सा था। अलग-अलग तरह की कहानियां बहुत सरल भी और बहुत क्लिष्ट भी। किसी कहानी में लगता कि ओह इतनी आसानी से भी बात कही जा सकती है तो किसी पर लगता कि मेरे कहानीखोर दिमाग को सुकून मिला, लेकिन इस शिल्प में जाने के लिए लिखनेवाले के दिमाग को कितनी तकलीफ हुई होगी। इन 21 कहानियों ने तालाबंद जिंदगी तक जो ताजा हवा का झोंका पहुंचाया वो इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात हुई।

-मृणाल वल्लरी

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5- सहभागिता

'मातृभारती' पर आई 'मूड्स ऑफ लॉकडाउन' श्रृंखला की सबसे बड़ी खासियत मुझे तो ये लगी कि इसने जिस हद तक पाठकों को झिंझोड़ा, उसी तरह कथाकारों को भी बार बार रोमांचित, उल्लसित, आक्रोशित, उद्वैलित, हास्यसिक्त और उदार बनाया।

आमतौर पर देखा गया है कि कहानीकार कथा गढ़कर एक मूर्ति की तरह उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं और फिर श्रद्धा भरी नज़र से उसे देखते हुए कहानी के संसार से बाहर हो जाते हैं। कितनी सुंदर बात है कि इन कहानियों ने अपने रचनाकार का पल्लू नहीं छोड़ा और कथा रचयिता भी उनके लोक में बार-बार दाखिल होते रहे।

यही नहीं, साथी रचनाकारों की कहानियों को पढ़ने की उत्सुकता और उन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की ललक हमसे कभी बालिश्त भर दूर नहीं हुई।

कहानियों के बैकड्रॉप में लॉक हुई कॉलोनी ज़रूर थी, लेकिन कल्पना की उड़ान कहां कोई पाबन्दी मानती है। न जाने कितनी यादों के मौसम आए और गुजर गए। कितने ही अनछुए प्रतीकों से सामना हुआ। भाषा का ऐन्द्रजालिक जगत मुग्ध करता रहा, वहीं कई बार ये भी लगा कि इस नज़र से हम क्यों नहीं देख पाए?

कुछ रचनाएं पहली बार में मन मोहने में कामयाब रहीं, वहीं कई कथाओं के निकष तक पहुंचने के लिए कई परतों तक जाकर जद्दोजहद करनी पड़ी।

इसका अर्थ ये नहीं कि वे कहानियां जटिल या अमूर्त थीं, बल्कि उनकी विशिष्टता यही रही कि कथा को सिर्फ छूकर हटना संभव नहीं हो सका। वहां कई बातें जो दिखती थीं, उनसे कहीं आगे तक चलकर जाती थीं।

और अंत में, 'मूड्स ऑफ लॉकडाउन' की उपलब्धि इसकी मौलिकता, द्विपक्षीय जुड़ाव, आश्चर्य में डालने वाली विविधता और बहुरंगी रचनाकारों का जुटान है।

एक पुराना गीत है - 'ज़िन्दगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते।' उम्मीद है कि इन पंक्तियों को झूठलाते हुए 'मूड्स ऑफ लॉकडाउन' के जैसी पहल के मुकाम इस पोर्टल पर बार-बार आते रहेंगे और एक और गीत की पंक्तियां चरितार्थ होंगी- 'कहीं तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते, कहीं पे निकल आएं, जन्मों के नाते।'

¶ चण्डी दत्त

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6-मानव मन के अलग अलग रंग

हम सबके मूड्स नैगेटिव से पॉज़िटिव के बीच झूल रहे थे। कोरोना ने मानो सारी रचनात्मकता छीन - सी ली थी। तभी जयंती रंगनाथन जी का फोन आया, लॉकडाउन पर कहानी लिखोगी एक सीरीज़ के लिए। जब उन्होंने आइडिया बताया तो मुझे चैलेंजिंग लगा मैंने 'मूड्स ऑफ लॉकडाऊन' के लिए कहानी लिखना तय कर लिया। उसके बाद नीलिमा जो हर दम ऊर्जा और क्रिएटिव आइडियाज़ से भरी रहती है, मुझसे रोज़ तक़ाजे़ करने लगी। एक वाट्सेप ग्रुप बना जिसमें हर रोज़ उत्साह से लोग आपस में अपनी कहानियां डिसकस कर रहे थे। मेरे मन की निष्क्रियता इस सुंदर क्रिएटिव हलचल को देख तुरंत हट गयी। एक सकारात्मक माहौल था ग्रुप में।

मैंने आखिरकार कलम उठाई। शुरू में मैंने अपनी कहानी में कल्पना की थी कि एक फोटोग्राफर लॉकडाउन की फोटोज़ के लिए ड्रॉन से फोटो खींचता है उसे तब कुछ दूर छत पर, कैमरे की निगाह से एक लड़की को नाचती दिखती है। उदास दिनों में झूम कर नाचती लड़की.....जो बाद में मर जाती है। लेकिन नीलिमा ने कहा नहीं नहीं उसे मारो नहीं।

हमें उम्मीदों से भरी कहानियां चाहिएं।

तब मैंने उसे कोरोना वारियर नर्स बनाया। और उसे कोरोना को मात देकर जीते हुए दिखाया।

इस सीरीज़ की जब अन्य सारी कहानियां पढ़ीं तो लगा मानव मन, जीवन के कितने रंग! मृत्यु को निकट पाकर कैसे बदलते हुए मानस और विविध मनोवेग।

यह एक सार्थक सीरीज़ है जो जयंती जी और नीलिमा शर्मा के अथक प्रयासों के चलते संभव हुई। मुझे खुशी है इसे पढ़ा भी खूब जा रहा है।

मातृभारती मंच के लिए मेरी शुभकामनाएं।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

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7- नकारात्मकता से दूरी

आवागमन पर लॉकडाउन लगा है, विचारों पर तो नहीं लगा है ! मन की कल्पना तो हर जगह उड़ान भर ही सकती है. नीलिमा जी( मैं इनके हर प्रोजेक्ट में होती हूँ) और जयंती जी के साथ-साथ अन्य बड़े हस्ताक्षरों के साथ मूड्स ऑफ लॉकडाउन प्रोजेक्ट से जुड़ना, मेरे जैसे छोटे से बिंदू को गर्व महसूस हो रहा है.

कहानी में मेरे पात्र, बुजुर्ग दम्पत्ति है. खुश-मिजाज और समय के साथ चलने वाले हैं. बुढ़ापे का मतलब कमजोरी, शिकायतें, बीमारियाँ, अकेलापन ही तो नहीं होता न ! समय के साथ चल कर परिस्थितियों से निभा कर खुश रहना, अपने कड़वे-मधुर अनुभवों की शिक्षा देना भी बुढ़ापा खुशहाल बनाया जा सकता है.

कहानी लिखते समय कहानी खुद ही चल पड़ती है मैं कुछ नहीं लिखती ! लिखने के बाद मुझे बहुत संकोच हुआ कि मेरी कहानी पर सबकी क्या प्रतिक्रिया होगी.... लेकिन सबकी टिप्पणियों ने हौसला दिया.

मैं बुजुर्गों के सानिध्य में अधिक रहती हूँ, जिनमें खुश कम और शिकायती ज्यादा है तो मैं चाहती हूँ कि मेरे आस पास के बुजुर्ग खुश रहें. कहानी में सीमित शब्द सीमा होने के कारण बहुत सी बातें कहने को रह गई.

यह कहानी मेरे पापा को समर्पित है जो इसी महीने की एक तारीख़ को हमें छोड़ कर चले गये. उनको यह बहुत पसंद आती.

नीलिमा जी का प्रस्तुतीकरण कहानी पढ़ने में उत्सुकता बढाता है. मुझे बाकी कहानियाँ भी बहुत पसंद आई. बहुत सारा सीखने को मिला.

उपासना सियाग़

ग~~~~~~~~~~~~

8-नयी शुरुवात

कहते हैं दो तरह के लोग होते हैं। आशावादी और निराशावादी। निराशावादी हर मौके में खुर्दबीन से मुश्किलें ढूंढ लेता है। आशावादी हर मुश्किल में मौके को ढूंढ़ लेता है। जब अपने बारे में सोचता हूं, तो पाता हूं कि तीसरी तरह के लोग भी होते हैं, जो मौका मिलने पर घबरा जाते हैं, लेकिन कुछ देर बाद अपनी घबराहट को समेट कर मौके पर जुट जाते हैं। हो सकता है, तीसरी, चौथी, पांचवी या अनेक तरह के लोग होते हों। लेकिन बात अपनी करता हूं। जयंती मैम ने जब मुझसे ‘लॉकडाउन सीरीज’ से जुड़ने को कहा, तो मैं घबरा गया। लगा, झमेले में नहीं पड़ना चाहिए। फिर लगा, जो झमेला जो अभी चल रहा है, उससे बड़ा झमेला क्या होगा! प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, लेकिन संशय घना था कि कर पाऊंगा या नहीं। फिर खुद को तैयार किया और शुरू हो गया। कहानी कैसी बनी, पता नहीं (जानता हूं, आप सबों की सराहना आप लोगों का बड़प्पन था), लेकिन उसे लिखने की प्रक्रिया में आनंद आया। कभी झमेले की तरह नहीं लगा। लिखने का आत्मविश्वास आया। इस सीरीज से जुड़ने की सबसे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए यही रही। फिर शुरू हुआ कहानियों के हर रोज प्रकाशित होने का सिलसिला। सच मानिए, हर दिन नई कहानी का इंतजार रहता। हर कहानी पढ़ी, समझदानी में कहानी जितनी आई, उसी के अनुसार प्रतिक्रिया दी। हर तरह की कहानियां थीं इस सीरीज में, जिन्होंने भाव लोक से लेकर यथार्थ लोक की सैर कराई। निस्संदेह इस सीरीज से जुड़ना मेरे लिए एक बेहद समृद्ध करने वाला अनुभव रहा। लिखने की हिचक टूटी। ‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’ सीरीज की दोनों संपादक जयंती जी और नीलिमा जी को इसके लिए अशेष धन्यवाद।

राजीव रंजन

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9-नया अनुभव

जब लॉक डाउन विषय पर कहानी लिखने का आग्रह आया तो लॉक डाउन शुरू हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे. दो दिनों के अंदर ही कहानी भेजनी थी. मेरे लिए एक तरह से यह अच्छा ही हुआ. जो विषय ध्यान में आया उसपर लिख डाला था.ज्यादा समय मिलता तो शायद सोचती ही रह जाती. लॉक डाउन के उदासी भरे माहौल में सम्पादिकाद्वय द्वारा सृजनात्मकता का ये अवसर उपलब्ध करवाना सचमुच सराहनीय है.

जब कहानियों का प्रकाशन आरम्भ हुआ तो जैसे हम भी उस सोसायटी के बाशिंदे बन गए. रोज अलग अलग फ़्लैट के बंद दरवाजों के भीतर की दुनिया से रू ब रू होने की उत्सुकता जाग उठती. कहानियों के सभी किरदार बड़े जाने-पहचाने से अपने आस-पास के ही लगते. उनसे एक आत्मीयता सी प्रतीत होती. भावनाओं के जितने रंग होते हैं, सभी इन कहानियों में समाहित थे. लेखन की विभिन्न शैली, कहानी का क्राफ्ट, कहन का अंदाज सब एक मंच पर ही पढने को मिले. बहुत कुछ जानने और गुणने को मिला.इस प्रोजेक्ट से जुड़ने का अनुभव बहुत ही आनन्दायक रहा. सभी को हार्दिक शुभकामनाएं|

रश्मि रविजा

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१०- उम्मीद की किरण

लॉकडाउन वाले दिन बहुत ही उदास बीत रहे थे. मन को सकारात्मक रखने की कोशिश जारी थी. हर दिन की ख़बरें मन को और दुखी कर देतीं. ऐसे में सृजन? उस दिन जयंती जी का फ़ोन आया. उन्होंने पूछा-मातृभारती के लिए लॉकडाउन पर कहानी लिखोगी? पलभर सोच कर हां कर दिया कि शायद इसी बहाने मन लेखन की ओर मुड़े. अपनी कहानी मैंने दो दिनों के भीतर ही लिख कर एडिटर्स को मेल कर दी थी. उस पर मिली प्रतिक्रिया ने उत्साह बढ़ाया. नीलिमा जी से बात कर के ये नहीं लगा कि हमारी बातचीत पहली बार हो रही थी. इधर लॉकडाउन प्रोजेक्ट का एक वॉट्सऐप ग्रुप बन गया था. जहां इससे जुड़ी चर्चाएं या कहूं कि मज़ेदार चर्चाओं की शुरुआत हो रही थी. नए लोगों से लॉकडाउन में इस तरह जुड़ना? कोरोना के फैलाव के बीच इससे ज़्यादा सकारात्मक क्या हो सकता था? लेकिन ये तो इब्तिदा थी. पहली कहानी ने इस प्रोजेक्ट का समा बांध दिया था और फिर तो आने वाली हर एक कहानी को पढ़ने का उत्साह रात के नौ बजे घड़ी देखने को मजबूर कर देता, ये अलग बात है कि अपनी व्यक्तिगत व्यस्तताओं के चलते मैं इन कहानियों को देर रात या दूसरे दिन सुबह पढ़ पाती, पर इन कहानियों का इंतज़ार ऐसा होता, जैसे परिवार के किसी सदस्य की बाट जोही जाती है. ये जो ऐसा वाला इंतज़ार है न, ये सकारात्मकता की इंतेहां है. लॉकडाउन में हम सभी घर के भीतर ही थे, लेकिन अपनी रचना की उड़ान के ज़रिए; एक ही बिल्डिंग में रहने की कल्पना के ज़रिए हमने अलग-अलग जीवन जिए, और हमने जीवन को हर रोज़ किसी अलग नज़रिए से भी जिया. सार ये कि जब हम लोगों के साथ मिल कर, साथ-साथ राग लॉकडाउन गाते हैं तो त्रासदी भरा समय आसान ही नहीं हो जाता, बल्कि जीवन के सुख-दुख बांटने को नए मित्र भी मिलते हैं. तो ज़िंदगी का गीत अपनों के साथ गुनगुनाते रहिए, हमेशा...

शिल्पा शर्मा

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११- रोजाना नयी कहानी

लॉकडाउन शुरू हुआ, तो दुनिया के साथ-साथ जैसे मन में भी सूनापन पसर गया था। ज़ोर से बोलते भी जैसे मन सहम जाता था। लगता जैसे कोरोना ने दिलो-दिमाग़ पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है।

किसी को ठीक से कुछ पता नहीं, रोज़ नए-नए शगूफ़े उठ रहे थे, नए-नए नियम बन रहे थे। एक भेड़चाल सी थी। जिधर हांक दिया, उधर ही सब मुंह झुकाए चल पड़ें। ऐसे में जब जयंती जी ने मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन में कहानी लिखने को कहा, तो बरसों से अपना कुछ न लिखा होने के बावजूद झट हां कह दिया। लेकिन मन में कोई कहानी उमड़ ही नहीं रही थी। चारों तरफ़ क़यामत का आलम हो तो प्रेम कहानी कहां फूटती! मन बार-बार कभी बचपन में जाता, तो कभी आसपास हो रही घटनाओं से दहल-दहल जाता। कभी कुछ दरकता, तो कभी मदद को उतरे हाथों को देखकर हौसला बंधता। सही मायनों में, मैंने उसकी बातें में लॉकडाउन के दौरान कुछ अपनी, कुछ पराई, कुछ दुनिया की बातों को समेटते हुए पल-पल बदलते मूड्स को ही पकड़ने की कोशिश भर की है। अब तो जब “बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी।”

यह वाक़ई एक नया अनुभव रहा, रात नौ बजे का इंतज़ार... कहानी पढ़ना... कोशिश करना कि उसी वक़्त या वक़्त मिलते ही कोई टिप्पणी लिख दूं। इस दौर में कुछ नए अनदेखे दोस्त मिले, परदे के पीछे से कई बार मुलाक़ातें हुईं।

इस अनुभव को इस (किसी अनजान शायर के) शेर के ज़रिए बयान करूंगी

ये फ़ख़्र तो हासिल है बुरे हैं कि भले हैं

दो चार क़दम हम भी तेरे साथ चले है

शुचिता मीतल

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१२ हौसलों की कहानियाँ

लॉकडाउन सीरीज़ एक बहुत ही मुश्किल वक्त में शुरू हुई। "आज 70,000 मरीज़ हो गए", "इतने सस्पेक्ट बढ़े गए हैं कोरोना के", ऐसी ही बातों से दिन शुरू होते थे और रात तक आते-आते एक अजीब सी उदासी, दिलोदिमाग से लेकर माहौल तक पर तारी हो जाती थी। ऐसे में आया, लॉकडाउन सीरीज़ में शामिल होने का फ़ोन। बिना कुछ सोचे, बस मुँह से निकला, "हाँ"। मूड ऐसा था कि कहानी भी लिखी तो ट्रैजिक। समय कम था, व्यस्तता बहुत ज़्यादा। पर जब सीरीज़ शुरू हुई, पहली कहानी जयंती मैम की और दूसरी नीलिमा जी की... ऐसा समां बँधा कि बस। फिर सिलसिला चल निकला... रिश्तों की नाज़ुक डोर से बँधी कहानियों के ज़रिए ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं को जैसे एक-एक एपिसोड में सामने रखता कोई सीरियल - मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन। आस-पास बिखरी न जाने कितनी ही कहानियाँ। कोई प्यार मोहब्बत के रंग बिखेरती, कोई यादों के कारवाँ से जोड़ती। कोई दिल की गहराइयों में बैठे मनोभावों को ज़ाहिर करती तो कोई संवेदना के धरातल पर इनसानी फ़ितरत की पड़ताल करती। एक-एक अध्याय के ज़रिए जैसे लॉकडाउन सीरीज़ का कोई महाकाव्य पढ़ा हो। लॉकडाउन सीरीज़ यह संदेशा लेकर आई- वक़्त की गर्दिशों का ग़म न करो, हौसले मुश्किलों में पलते हैं। और ईमानदारी से कहूँ, तो बहुत खुशी इस बात की कि ऐसे ज़हीन और अच्छे इनसानों के साथ यह प्लेटफॉर्म शेयर करने का मौका मिला।मेरी शुभकामनाएं|

रिंकी वैश्य

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१३ - भरोसे पर भरोसा रखना

किसी सीरिज़ से जुड़ने का मेरा यह पहला अनुभव रहा। इतने सारे लोगों के साथ एक विषय पर कहानी लिखने का विचार मेरे लिए नया था। पहले से तय किए गए विषय पर, निश्चित शब्द सीमा में लिखते हुए मैं आश्वस्त नहीं थी कि लिख पाऊँगी अथवा नहीं। लेखकों के साथ मन की, आईडिया स्ट्राइक करने जैसी बहुत सारी परेशनियाँ होती हैं। हाँ, लेकिन नीलिमा जी को विश्वास था कि मैं लिख लूँगी।शुरू में दूसरी कहानी लिखना तय हुआ था लेकिन लिखते-लिखते यह कहानी लिखी गयी जिसे नीलिमा जी और जयंती जी ने उदारता से जगह दी।

हर रात नौ बजने का इंतज़ार रहता था कि नयी कहानी पढ़ सकूँ। एक ढर्रे पर चलती ज़िंदगी में एक नया काम आ जुड़ा था जो मज़ेदार था। मेरे लिए कहानियाँ पढ़ना सुकून है। लेकिन इस सुकून में बेचैनी के कतरे भी थे कि इन कहानियों में भी किसी न किसी स्तर पर बेचैनी घुली थी।

कुछ लोगों को छोड़कर मेरे लिए सब अपरिचित थे। उन सभी को इस सीरीज़ ने एक सूत्र में बाँध दिया। शुक्रिया।

दिव्या विजय

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१४- संगठित योजना

इतने कम समय में इतनी शानदार और मजबूत बिल्डिंग को खड़ी होते देखने का अनुभव लाजवाब रहा। बिल्डर प्रोजेक्ट को बढि़या ढंग से पूरा करके सही समय पर गृहप्रवेश करा दे और कोई चिकचिक न हो, कम ही होता है। और कोई हुई हो तो बिल्डर्स जाने...। और सोसायटी वालों की बात करें तो अनजान तो वे कोविड-19 से पहले थे। परिचय तो उनका लॉकडाउन ने करवाया। बिना किसी प्रधानमंत्री के फरमान के हर रात नौ बजे घरों की खिड़कियां खुल जाया करती थीं। उसके बाद सब दूर से किसी एक घर को सुनने-समझने बैठ जाते थे। सबकी यात्रा अलग थी। उसके पड़ाव और तय करने के तरीके अलग थे। उसके बावजूद कहानियों का कॉमन एरिया इतना बड़ा था कि सब झट से जुड़ जाते थे। एक-दूसरे के सुख-दुख में साझी बन जाते थे। कभी पढ़ा था कि जो अपने समय का नहीं हुआ वह किसी दूसरे समय का क्या होगा। ये कहानियां हमारे अपने समय की हैं और कई पहलुओं को समेटे हैं। इसलिए लगता है कि इनकी गूंज भी देर तक सुनाई देती रहेगी। और बेला पुस्तक के बाद मेरी हालत तो उस लड़की की थी, जिसने पहली बार अपना एक घर खरीदा था। घर बनाने में दिक्कतें आती ही हैं। अपनों का सहयोग भी लेना पड़ता है। उस घर को ढंग से सजाना आया या नहीं, ये अलग बात है। पर घर, घर होता है। खासकर लॉकडाउन के समय में एक घर होना मेरे लिए बड़ा ही सुखद रहा।सस्नेह |

पूनम जैन

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१५ जन्मदिन का तोहफा

मेरा जन्मदिन था, जयन्ती का फोन विश करने के लिए आया। चाहें हम अपनी अपनी व्यस्ताओं में जितने भी डूबे हों, एक दूसरे का बर्थडे नहीं भूलते। मैंने पूछा क्या गिफ्ट दे रहे हो तो उन्होंने इस प्रोजेक्ट के बारे में बताया और जुड़ने के लिए कहा। यहाँ तक कि ये भी बता दिया कि मेरी कहानी के मुख्य किरदार होंगे कौन.... अब जब सारी सामग्री सामने रख दी गई हो कुछ इस तरह-लॉक डाउन- एक सास बहू- नोएडा का एक फ्लैट। और कहा अब तुम्हारी मर्ज़ी है बहू से सास की हत्या करवाओ या जो करना है करवाओ। मैं सोचने लगी कि मैं आख़िर इस 36 के आंकड़े वाले रिश्ते से क्या करवाना चाहूंगी!...अब मैंने जो करवाया है आपके सामने है। लेकिन कहानी लिखने और पढ़ने की पूरी यात्रा बहुत दिलचस्प रही। साहित्य एक काल के दौर, मानसिकता और मूड को कैप्चर करता है, इसलिये वह इतिहास का हिस्सा होता है। श्रृंखला की सभी कहानियों ने इस महामारी कोरोना के दौर और मूड को सूक्ष्मता से कैप्चर किया है। सभी कहानी की कुछ न कुछ खासियत है। मैं हर शाम जब नई कहानी लेकर पढ़ने बैठती थी तो ये बात दिमाग में ज़रूर आता था- किसी बात को कहने की कितनी सारी शैली होती है!!! बधाई

अमृता ठाकुर

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16- आशा की किरण हैं कहानियां

मैं जब ‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’ प्रोजेक्ट से जुड़ी, तब तक सिरीज की कुछ कहानियां शेयर की जा चुकी थीं। इस मुश्किल दौर में एक राहत भरी फुहार सी लगीं ये कहानियां। कोई रूठी सी, तो कोई मनाने को आतुर। कोई खिलंदड़ तो कोई संजीदा। इस दौरान हर रोज़ रात नौ बजे का इंतजार करना एक रिवाज-सा हो गया, मानो कोई पसंदीदा टीवी शो आने वाला हो। इन सभी कहानियों से झांकते किरदार, उनकी मुस्कुराहटें, आंसू, शरारतें, संजीदगी, संकोच... एक स्तर पर आकर आपस में मिल गए। किसी कहानी में गिले-शिकवे दूर हुए तो किसी में जिंदगी ही, जिंदगी भर का गिला-शिकवा सौंप कर चली गई। मातृभारती एप पर इन कहानियों को पढ़ते हुए लगा कि हर लेखक ने तमाम दुश्वारियों के बावजूद अपनी कहानी को जिया, चंद रोज़ ही सही। आखिरी एपिसोड का वक्त जैसे-जैसे करीब आता गया, यह ख्याल भी दिलो-दिमाग पर तारी होता गया कि अब नौ बजे क्या किया जाएगा। मातृभारती एप पर इन कहानियों को पढ़ना, उन पर प्रतिक्रिया देना और उन्हें शेयर करना बेहद आसान रहा। उम्मीदों और खुशफहमियों से भरे ऐसे रचनात्मक प्रोजेक्ट्स समय-समय पर लॉन्च होते रहने चाहिए। लंबे समय तक इसका एहसास जेहन में रहेगा।

ज्योति दिवेदी

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17-लॉकडाउन लाइफ

मातृभारती पर लाकडाउन शृंखला से जुडऩे का अनुभव निजी तौर पर मेरे लिए बेहद रोचक और समृद्ध करने वाला रहा। जब नीलिमा और जयंती से बात हुई तो हामी भर लेने के बावजूद दिमाग लगभग खाली सा ही था। कुछ सूझ नहीं रहा था कि कहानी कहाँ से शुरू हो और किस दिशा में जाए। मगर ये भी सच है कि कहानी खुद अपने आपको लिखवा ले जाती है। एक मक्खी कहीं से घूमती घामती मेरे घर मे आ गई। कहानी शुरू हो गई। फिर सुना कि पास की एक सोसायटी मे कोई मेड को कार की डिक्की मे छिपा कर ला रहा है। तो बस कहानी मे रूह बस गई। शृंखला की सभी कहानियां एक से बढ कर एक हैं। कहीं प्रेम की पराकाष्ठा तो कहीं दांपत्य जीवन के दांवपेंच। इस अनूठी सोच और इसके सफल क्रियान्वयन पर महेंद्र जी, नीलिमा और जयंती को हार्दिक बधाई ।

प्रितपाल

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18- लेखकीय संतुष्टि

लॉकडाउन प्रोजेक्ट मेरे लिए एक बढ़िया अनुभव रहा। इसकी दो वजह हैं। पहली तो ये कि इस मुश्किल समय में अगर एक भी पाठक हमारी कहानियाँ पढ़ के अपने घर की क़ैद में बेहतर महसूस करे तो ये हम सभी के लिए एक ख़ुशी की बात होगी। घर में रहते हुए भी हम पाठकों तक पहुँच पाए, एक दूसरे के दुःख दर्द को इस माध्यम से साझा किया, कुछ हँसे, कुछ हैरान हुए, जी लिए थोड़ा सा। दूसरी वजह लेखक के अपने नज़रिए से महत्वपूर्ण है। किसी भी लेखक के लिए दरअसल एक जगह पर बैठ के लिखते रहना कोई बड़ी बात नहीं होती। हमारा काम ही है बैठे बैठे कहानियाँ गढ़ना। भला लेखक से झूठा भी कोई होगा! कुछ सोचो और कुछ का कुछ लिख डालो! लेकिन सब कुछ हमारे ही दिमाग़ की गाँठों से उत्पन्न होता है इसलिए बाहर निकलने की कोई ख़ास ज़रूरत होती नहीं। लेकिन ऐसे में लॉक्डाउन का समय अलग था। घर में बैठे रहना एक मजबूरी थी, हमारा ख़ुद का सोचा-समझा निर्णय नहीं। यही वजह है कि इन कहानियों को लिखने से हमारी अपनी भी सहायता हुई। कुछ समय कट गया, कुछ ख़याल पक कर काग़ज़ पर उतर गए। दिल हल्का हो गया शायद। इस प्रोजेक्ट को बढ़िया कहने की इस से बेहतर भी वजह क्या होगी?

प्रतिष्ठा सिंह

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19 रचनात्मकता

मातृभारती एप के मूड्स ऑफ लॉकडाउन के इस प्रोजेक्ट से जब जुड़ना हुआ, तो लगा अब आया लाइफ में जिंग...। उस वक्त स्थितियों की निगेटिविटी से डरा मन कोई बहाना ढूंढ रहा था चैन पाने का। बंध कर रह जाना खुद भी महसूस कर रही थी, सो प्रोजेक्ट का विषय बड़ा अच्छा लगा। जब स्पैशियल सीमाएं बंधी हों, तो मन को उड़ने के लिए कुछ प्रेरणा चाहिए होती है। सो, इस प्रोजेक्ट के लिए कहानी लिखते समय मन खूब उड़ा और माहौल और दुनिया की सारी निराशाओं, कड़वाहटों के बीच बड़ा पॉजिटिव महसूस किया। फिर शुरू हुआ हर दिन कहानियों का दौर। कहानियां तो एक-से एक आई हीं। हर कहानी से कुछ ना कुछ सीखने वाला है। किसी की शैली, किसी का दृश्य वर्णन, किसी के किरदार, तो किसी के घटनाक्रम। ये रोचकता का पूरा समुद्र है, जिसमें रात नौ बजे हर किसी को डुबकी लेने की आतुरता रहती। तो, पूरे दिन की एक खूबसूरत घटना होती रात का नौ बजना। इस चीज ने सोशल डिस्टेंसिंग के इस वक्त में मुझे खूब रमाए रखा। ऐसे प्रोजेक्ट केवल किसी लेखक की प्रतिभा के लिए मंच ही नहीं होते, ये उन्हें निखारते हैं, उनकी प्रेरणा बनते हैं। ये प्रोजेक्ट लॉकडाउन के दिनों की एक खुशनुमा बात है मेरे लिए। मैंने बहुत से मित्र कमाए इन दिनों।

प्रतिमा पाण्डेय

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२० व्यस्तताओ में लेखन

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन के लिए लिखना मेरे लिए वाक़ई कई मूड्स से होकर गुज़रने का अनुभव था. जब जयंती जी ने मुझे इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के लिए कहा तब मैंने तुरंत हामी भर दी. उनके साथ कार्य के बेमिसाल अनुभव के बाद शायद ही कोई होता जो उनके साथ काम न करना चाहता. अब बात अलग-अलग मूड्स से गुज़रने की, लॉकडाउन से एक हफ़्ते पहले से ही वर्क फ्रॉम होम करते हुए ज़िंदगी पहले की तुलना में काफ़ी व्यस्त हो गई थी. नॉर्मल डेज़ की तुलना में लगभग डेढ़ गुना बढ़ चुके वर्क लोड के चलते कहानी लिखने का समय ही नहीं मिल पा रहा था. ऑफिस के काम के अलावा जल्द ही परिवार में एक नए सदस्य के आने का सोचकर हम सब ख़ुश थे, पर लॉकडाउन के दौरान सब मैनेज कैसे होगा इसका टेंशन भी लगातार बिल्ट हो रहा था. दरअस्ल मेरी बहन का ड्यू डेट क़रीब था, जिसको लेकर घर में ख़ुशी के साथ-साथ थोड़ी घबराहट भी थी. मैं रोज़ सोचता आज कहानी लिख लूंगा, कल लिख लूंगा, इस चक्कर में एक हफ़्ता बीत गया. फिर लगने लगा अब लिख पाना सम्भव नहीं होगा. क़रीब-क़रीब हार मानते हुए मैंने जयंती जी को एक राइटर का नाम सुझाते हुए एक कहानी भी भेज दी, पर उन्होंने भरोसा जताते हुए डेडलाइन एक्सटेंड कर दिया. इस बीच बहन की डिलीवरी डेट आ गई. मैंने कहानी बीमारी के दो दिन का रफ़ ड्राफ़्ट अस्पताल में बैठे-बैठे पूरा किया. अस्पताल में हर घड़ी लगने वाले डर का हैंगओवर कहानी पर में भी दिखता है. कहानी की अंतिम लाइन लिख लेने के बाद ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरा दिमाग़ लॉकडाउन से आज़ाद हो गया हो. कहानी कैसी है इसपर मैं ज़्यादा श्योर नहीं था, पर यहां शिल्पा जी से बेहतर जज कौन होता, जो 10 साल से अधिक समय से मेरी सभी कहानियों की पहली रीडर और समीक्षक हैं.उनके गो अहेड के बाद मैं थोड़ा निश्चिंत हो गया कि कहानी जैसी कुछ तो लिख ही दिया है.

इस प्रोजेक्ट के लिए काम करते हुए मैंने कहानी लिखने के अलावा बहुत ज़्यादा ऐक्टिव नहीं रहा. इस बात का मलाल रहेगा.मैं व्हाट्सऐप ग्रुप में सबसे कम पोस्ट करने वाला व्यक्ति रहा, पर ऐप्प पर जाकर सारी कहानियां पढ़ने की कोशिश की. हर कहानी अलग मिज़ाज की थी, जिसने लॉकडाउन की इन 21 कहानियों को ख़ास बना दिया. उम्मीद है फिर कभी ऐसे किसी प्रोजेक्ट पर साथ काम करने मिलेगा. अगली बार ज़्यादा ऐक्टिव पार्टिसिपेशन के वादे के साथ आप सभी का शुक्रिया और अलविदा

अमरेन्द्र यादव

२१ यह अंत नहीं हैं

कोई भी यात्रा जब समाप्ति की ओर बढ़ती है, तो न जाने क्यों दुख होता है। अब जब लाकडाउन के दौरान लिखी इन कहानियों की यात्रा खत्म होने को है, तब भी लग रहा है कि अरे इतनी जल्दी। नीलिमा, जयंती और आप सभी ने मिलकर इस यात्रा को एक अनोखी यात्रा बना दिया।

मुझसे जब जयंती ने कहानी लिखने को कहा था, तो तीन-चार दिन का समय दिया था। मुझे अकसर दी गई डेड लाइन पर काम करने की आदत है, लेकिन न जाने क्यों कहानी लिखने का मन ही नहीं कर रहा था, इसलिए मैंने जयंती से दो दिन का समय और मांगा था। लेकिन एक सवेरे लिखने बैठी तो लिखती ही गई। साथ रहने वाले सज्जन बोले कि तुम अपना काम करो। आज घर का काम मैं निपटा लूंगा। तो हुआ यह कि अगले दिन तक कहानी पूरी हो गई। एक बार उस ड्राफ्ट को फिर देखा, कम्पोजिंग की गलतियां ठीक कीं और जो डैड लाइन जयंती ने पहले दी थी, उसी पर कहानी भेज दी।

आप सबका यह प्रयोग आशा से अधिक सफल रहा इसके लिए बधाई स्वीकार कीजिए। आगे भी ऐसा ही होता रहे, क्योंकि एक सफलता अगली सफलता की राह हमेशा खोलती है।

क्षमा शर्मा