सुनो पुनिया
(2)
घिनुआखेड़ा अहीरों का ही गांव है---एक सौ तीस घरों का छोटा-सा गांव. सभी काश्तकार. परिश्रमी और अपने काम में प्रवीण किसानों का गांव है यह. रामभरोसे का बाप रघुआ के पास पच्चीस बीघे मातवर खेत हैं. खुद का ट्यूबवैल है और करने वाले दस मजबूत हाथ. गांव में वह सबसे अधिक सम्पन्न है. रामभरोसे उसका तीसरा और छोटा लड़का है—कम पढ़ा, लाड़-प्यार में पला-बढ़ा. कुछ-कुछ जिद्दी. पुनिया उसके मन में चढ़ गई तो वह शांत कैसे बैठ सकता था? कुछ दिनों तक वह दलपत खेड़ा के चक्कर काटता रहा---पुनिया से मिलकर अपनी बात कह देने के लिए पुनिया के घर के चक्कर भी लगाए उसने, लेकिन एक दिन भी पुनिया उससे नहीं टकराई.
रामभरोसे ने दूसरा उपाय सोचा—वह बापू को मनाएगा. बापू उसकी शादी के लिए परेशान है. उसने बापू के मन के दो रिश्ते वापस कर दिए थे. रामभरोसे ने बापू से अपनी बात कह देना बेहतर समझा. और एक दिन चौपाल में बैठा बापू जब हुक्का गुड़गुड़ा रहा था, पास बैठा रामभरोसे बोला, “बापू, एक बात कहूं?”
रघुआ उसकी ओर देखने लगा.
“दलपत खेड़ा के बुधई काका हैं न---आपकी तो पुरानी यारी---.”
“हां—हां—क्या हुआ बुधई को?”
“हुआ कुछ नहीं, बापू.”
“फिर---तू बोलता क्यों नहीं.” हुक्का गुड़गुड़ाना बंद कर रघुआ उसके चेहरे की ओर देखने लगा.
“बापू—ओहकी बेटी है---.” रामभरोसे का स्वर कांपने लगा था. सोच रहा था, कहीं बापू बमकने न लगे, “पुनिया नाम है ओहका---.”
“पूरी बात क्यों नहीं बोलता?” रघुआ की त्योरियां चढ़ गईं.
“आप मेरे साथ उसका रिश्ता---.”
“चोप्प साले—मैं जाऊंगा बुधई के यहां रिश्ता मांगने!” हुक्का के नेप मुंह में डालते हुए रघुआ बोला.
रामभरोसे का चेहरा उतर गया.
“पता नहीं तेरे भेजे में का-का घूमता रहता है—सोचा कभी—कहां बुधई—और कहां हम---मैं नीचे उतरूंगा—रिश्ता मांगने जाऊंगा—तुझे सोचकर सरम नहीं आई. एक-से-एक ऊंचे खानदान की शादियां तूने लौटा दीं---और अब मैं तेरे लिए रिश्ता मांगने जाऊं---!” रघुआ को बोलते-बोलते खांसी आ गई. खांसता रहा वह कुछ देर.
रामभरोसे जमीन पर छोटी-सी लकड़ी से आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचता रहा.
“मैं पूछता हूं, तूने वे रिश्ते क्यों लौटाए---बीस-बीस हजार के रिश्ते---और अब बुधई के पास भेज रहा है मुझे---जहां पांच हजार भी मिलने की उम्मीद नहीं.”
“आप नहीं जानते, मैंने वे रिश्ते क्यों लौटाए थे? दोनों लड़कियां काली-कलूटी---बदसूरत---. दहेज के पीछे मैं उन्हें गले मढ़ लेता---?”
“तो सुन ले कान खोलकर—मैं बुधई के पास नहीं जाऊंगा और तुझे रिश्ता वहीं करना होगा, जहां मैं चाहूंगा.” रघुआ फिर नेप मुंह में रख हुक्का गुड़गुड़ाने लगा था. लेकिन वैसा नहीं होने दिया रामभरोसे ने, जैसा रघुआ ने कहा था. उसने काम भी छोड़ दिया उस दिन से, और खाना भी. सुबह होते ही जंगल की ओर निकल जाता, और दिन-भर पड़ा रहता किसी पेड़ के नीचे. चार दिन में ही व्याकुल हो उठा था रघुआ. पांचवें दिन उसे ढूंढ़ता जा पहुंचा था जंगल में. रामभरोसे दलपत खेड़ा के बनियों के बाग में आम के एक पेड़ के नीचे लेटा था अंगोछा बिछाए. चेहरा उसका आमचूर हो रहा था और शरीर शिथिल. बापू को देखकर भी वह लेटा रहा---बल्कि करवट लेकर उसने उसकी ओर पीठ कर ली.
“भरोसे!” रघुआ उसके पास लाठी टेक बोला.
रामभरोसे कुछ नहीं बोला, “लेकिन कानों को उसने सक्रिय कर लिया बापू की बात सुनने के लिए.
“का कहना होगा बुधई से—कुछ बता तो दे!” रघुआ के स्वर में गिड़गिड़ाहटा-सी उभर आई थी.
“मैं कुछ नहीं जानता.” दबे और भर्राए स्वर में रामभरोसे बोला.
“फिर भी.”
“कहा न---जो मर्जी हो कहिए जाकर.” और रघुआ की बात आगे सुने बिना वह तेजी से उठा और अंगोछा समेट गांव की ओर चल पड़ा.
रघुआ उसे जाता देखता रहा---फिर हलका-सा मुस्कराया और दलपत खेड़ा की ओर मुड़ गया.
-0-0-0-
रामभरोसे के साथ पुनिया के रिश्ते में बुधई को आपत्ति ही क्या होनी थी. यह उसके लिए सुखद समाचार था. रामभरोसे का बाप स्वयं रिश्ता मांगने आया था---इससे बढ़कर खुशी उसके लिए और क्या हो सकती थी. बड़ी लड़की की शादी कर चुका था. लड़का कोई था नहीं. अब ले-देकर पुनिया ही बची है. वह उसकी शादी के लिए परेशान रहने लगा था. पुनिया के लिए खुद रघुआ रिश्ता मांगने आया तो उसे लग रहा था, जैसे वह स्वप्न देख रहा था.
बुधई को याद आया, जब वह अपनी बड़ी लड़की सोनिया का रिश्ता रघुआ के बड़े लड़के से मांगने गया था, रघुआ ने दो-टूक जवाब दिया था, “बुधई भाई, इस बारे में हम बात न करैं तो ही अच्छा होगा---हमारी घरवाली की मांग आप पूरी न करि पइहौ—फिर ई बातें करिकै अपनी पुरानी यारी काहे को---.”
“हम त यारी को और पक्का करैं खातिर आए रहन.”
“न भइया या बात छेड़बै न करौ---लड़कवा की माई कहीं बात पक्की करि रही है---.”
बुधई पर स्पष्ट हो गया था कि रघुआ अपनी पत्नी का बहाना लेकर स्वयं मोटे दहेज के कारण रिश्ता नहीं करना चाहता.
और आज वही रघुआ रामभरोसे के लिए पुनिया को मांगने आया था. रघुआ की संपन्नता के समक्ष वह पुराने घाव को भूल गया और उसने ’हां’ कर दी. बात पक्की हो गई. बुधई उन दिनों कुछ आर्थिक संकट में था, इसलिए उसने चार फसलें समेटने के बाद शादी करने के लिए रघुआ को तैयार कर लिया.
रघुआ को प्रस्ताव बुरा नहीं लगा. उसने सोचा-इस बीच संभव है, रामभरोसे का मन बदल जाए---तब कुछ और ही सोचा जाएगा---कुटिल मुस्कान फैल गई थी रघुआ के मुखपर.
-0-0-0-
अहीरन टोला में यह बात आम चर्चा का विषय बन गई कि रघुआ रामभरोसे के लिए पुनिया का रिश्ता मांगने आया था. औरतें पुनिया के भाग्य की सराहना करने लगीं, “बड़े भाग्य लेकर आई है छोकरी—अच्छे खाते-पीते घर में जाकर राज करेगी. सुना है, रघुआ के घर की औरतें खेत-पात नहीं जातीं. घर के काम तलक के लिए नौकर हैं.”
“बरतन तक नहीं मांजतीं---नवाबजादियों की तरह रहती हैं---अब का है---पुनिया की ठसक देखना अब.” औरतें हार-पतार जाते हुए, खेतों में काम करते हुए, आपस में यही चर्चा करती रहतीं.
लेकिन पुनिया चुप थी. माई-बाप ने केवल खबर-भर सुनाई थी. उससे पूछा भी नहीं था कि उसे यह रिश्ता स्वीकार है या नहीं. पूछते क्यों? गांव में जैसा प्रायः होता है---मां-बाप कभी पूछते ही नहीं लड़की से. लड़कियों की भावनाओं का भी कोई मूल्य होता है---वे नहीं जानते. और बुधई ने भी समझ लिया कि उसने पुनिया के लिए जो निश्चत कर दिया, पुनिया इससे खुश ही होगी.
लेकिन पुनिया खुश न थी. वह कुछ और ही सोच रही थी.
-0-0-0-
उस दिन पुनिया खेत से मटर तोड़कर लौट रही थी. रास्ते में पारस मिल गया.
“पुनिया, एक बात पूछनी थी!” पगडंडी में उसके सामने खड़ा होकर लाठी मेड़ से टेकते हुए पारस बोला.
पुनिया उसकी ओर देखने लगी.
“सुना है, तुम्हारे बापू ने रामभरोसे के साथ---. का यह सच है?”
पुनिया ने पारस के चेहरे पर आंखें गड़ा दीं. उसकी आंखें गीली हो आईं.
“ओह पुनिया!” पारस विचलित हो उठा, “तुम इस रिश्ते से इनकार कर दो---कह दो अपने बापू से---.” पारस ने पुनिया के चेहरे की ओर देखा. आंसूं उसके गालों पर लुढ़क आए थे.
पारस ने आगे बढ़कर दायें हाथ से आंसू पोछ दिए.
“पुनिया, तुम नहीं समझ सकती---मैं तुम्हे कितना---.” पारस का गला भर आया. शब्द अटक गए. कुछ क्षण तक वह पुनिया के चेहरे की ओर देखता रहा, फिर गला साफ करके बोला, “पुनिया, तुम मना कर दो---साफ-साफ कह दो कि ---कि तुम क्या चाहती हो.”
“मैं क्या चाह सकती हूं?” कांपते स्वर में पुनिया बोली.
“तुम—तुम—कह दो न कि तुम---.”
दोनों एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे—अपलक---शब्द अटक गए थे गले के अंदर.
“मैंने जब से सुना है---मैं कितना परेशान हूं---तुम नहीं समझ सकतीं.” काफी देर बाद पारस बोला.
“तुम---तुम---क्यों---?”
“जानकर भी यह न पूछो, पुनिया—तुम बापू से मना कर दो, बस –फिर हम देख लेंगे.”
“तुम क्या देख लोगे---मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.”
“सब कुछ समझ में आएगा तुम्हारे---“ पारस पुनिया की ओर बढ़ा और उसने कंधे के पास उसे पकड़ लिया, “तुम मना करके तो देखो---फिर---.”
पुनिया ने एक झटके से अपना कंधा छुड़ा लिया और एक कदम पीछे की ओर हट गई. लेकिन मेड़ से नीचे उसका दाहिना पैर फिसल गया---संतुलन बिगड़ने से धोती की कोंछ हाथ से छूट गई और मटर बिखर गई.
पुनिया का चेहरा लाल हो गया. उसने भौंहें चढ़ाकर पारस की ओर देखा और कोंछ में बची शेष मटर भी वहीं गिरा दी और तेजी से जाने लगी. पारस ने लाठी फेंक दी और बैठकर मटर बीनने लगा. उसने पुनिया को रोकना चाहा---आवाज दी---लेकिन वह नहीं रुकी.
पारस नहीं सोच पा रहा था कि पुनिया चाहती क्या है? उसे अपने ऊपर भी खीझ हो रही थी. वह क्यों नहीं बात स्पष्ट कर देता. अगर पुनिया को उससे प्यार है तो स्पष्ट हो जाएगा. लेकिन कहे कैसे---वह चाहता तो है कहना—लेकिन---.
वह उस दिन शाम को पुनिया के घर गया—यह निर्णय करके कि एकांत पाते ही वह अपनी बात पुनिया से कह देगा. लेकिन उसे खाली लौटना पड़ा था. पुनिया माई के साथ रसोई में कुछ पका रही थी. वह उसके बापू से बातें करता रहा था और पुनिया के बापू पूरे समय अपनी फसल और रामभरोसे के साथ पुनिया के रिश्ते की बातें ही करता रहा था, जिसमें पारस की बिलकुल रुचि न थी.
पारस दुःखी था कि वह अपनी बात क्यों नहीं कह पाता पुनिया से. उसने यहां तक सोचा कि उसे पुनिया की माई या उसके बापू से कह देना चाहिए कि वह पुनिया को प्यार करता है--- और---और वह सोचता ही रहा. न वह पुनिया से कुछ कह सका ---न उसकी माई से और न ही बुधई से. धीरे-धीरे समय बीतता गया.
-0-0-0-