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बहीखाता - 44

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

44

अविश्वास और तलाश

चंदन साहब द्वारा घर बेचने पर तो मैंने रोक लगवा दी थी, पर उसके बाद कुछ नहीं किया। चाहिए तो मुझे यह था कि घर में से और दिल्ली वाले फ्लैट में से अपना हिस्सा माँगूं, पर इस बात पर बेपरवाह और सुस्त ही रही। शायद अपनी ज़िन्दगी में खुश थी इसलिए किसी सिरदर्दी से बचना चाहती थी। चंदन साहब तो आराम से बैठे थे। दिल्ली वाला फ्लैट उन्होंने किराये पर दे दिया था, वहाँ से किराया आता था। यहाँ भी घर का एक हिस्सा किराये पर देकर पैसे कमा रहे थे। और उन्हें क्या चाहिए था। लगभग दो वर्ष इसी तरह निकल गए। मेरे मित्र बार बार स्मरण करवाते कि मैं अपना हिस्सा लूँ और उसका कोई घर आदि खरीद लूँ। एक दिन मैं अपने वकील शर्मा से मिली। मैंने तलाक और अपने हिस्से के लिए केस कर दिया। अब चंदन साहब सुलह कर लेने के लिए संदेशे भेजने लगे। वह कह रहे थे कि मैं दिल्ली वाला फ्लैट ले लूँ और इस घर (इंग्लैंड वाले) में से हक़ छोड़ दूँ। यह सौदा मुझे ठीक तो बैठता था, पर मुझे चंदन साहब पर कोई विश्वास नहीं रहा था। वह कागजों में दिल्ली वाला फ्लैट मुझे देने के लिए मान लेंगे, पर फिर दुबारा कब्ज़ा कर लेंगे। भारत के कानून को मानने वालों पर मुझे कोई भरोसा नहीं था। चंदन साहब पहले भी दो बार कब्ज़ा कर चुके थे, पर कानून ने मेरी कोई मदद नहीं की। वहाँ तो लाभ की बजाय नुकसान ही था। इसलिए मैं सारा लेन देन यहीं इंग्लैंड में करना चाहती थी।

हमारा केस चल पड़ा। चंदन साहब के पास जितना कैश था, उन्होंने सारा ही दबा लिया। पता नहीं किस खाते में रखा होगा। मैंने भी इस ओर अधिक ध्यान न दिया। दिल्ली वाले फ्लैट की और वुल्वरहैंप्टन वाले घर की, दोनों की मिलाकर पड़ने वाली कीमत में से मुझे आधा मिलना था। चंदन साहब ने इन दोनों की कीमत बहुत कम करके बताई। मेरे वकील ने विरोध किया, पर मैंने कहा कि जैसे भी होता है, जल्दी निपटारा करो। मुकदमेबाजी से मैं ऊबी पड़ी थी। आखि़र वकीलों ने कचेहरी के बाहर ही फैसला कर लिया। ये दोनों सम्पत्तियाँ चंदन साहब के पास ही रहेंगी और वह मुझे पचासी हज़ार पौंड देंगे। यह बहुत कम थे लेकिन मैंने बात खत्म करने के लिए कागजों पर दस्तख्त कर दिए। इस प्रकार हमारा फैसला हो गया। तलाक भी हो गया। कोर्ट ने चंदन साहब को आदेश दिए कि वह शीघ्र से शीघ्र पचासी हज़ार पौंड मुझे अदा कर दें।

अदालत के इस फैसले का मित्रों के बीच मिला-जुला असर हो रहा था। मित्र कहते थे कि यह मेरे साथ अन्याय है क्योंकि पचासी हज़ार में से बहुत सारे खर्चे भी निकलने थे। फिर इतने पैसों में कहीं भी घर नहीं खरीदा जा सकता। न दिल्ली में, न ही वुल्वरहैंप्टन में। घरों की कीमतें बहुत ऊपर जा चुकी थीं। चंदन साहब इस रकम को अधिक बताते हुए मेरे विरुद्ध घटिया-सा प्रोपेगंडा कर रहे थे। मुझे अब उनकी अधिक परवाह नहीं थी। मेरे लिए तो यही बहुत था कि झगड़ा खत्म हुआ। अब मुझे इस मसले को लेकर और नहीं सोचना पड़ेगा। मैं चंदन साहब की ओर से आने वाले चैक की प्रतीक्षा करने लगी ताकि अपने सभी कर्जे उतार सकूँ और शेष बचे पैसों में भारत में कोई छोटा-मोटा फ्लैट देख सकूँ। असल में मैं भारत में ही स्थायी तौर पर रहना चाहती थी। मेरी माँ और भाभी वहाँ थे जिन्हें यद्यपि मैं हर वर्ष मिलने जाती थी। लेकिन अब मुझे प्रतीत होता था कि इस देश में मेरा अपना कोई नहीं था जिसके सहारे मैं जी सकूँगी। यद्यपि साहित्यिक मित्रों द्वारा बहुत प्रेम-आदर मिला था, परंतु फिर भी अकेले होने का एक डर बना हुआ था। मेरी दुनिया अब दिल्ली में बसती थी और मैं वहीं जीवन के शेष दिन गुज़ारना चाहती थी।

चंदन साहब के वकील ने कहा था कि चंदन साहब दिल्ली वाला फ्लैट बेचकर मेरे पैसे देंगे। वह भारत गए। फ्लैट बेच आए और साथ ही, उसमें पड़ा मेरा सारा सामान पता नहीं कहाँ फेंक आए। यहाँ तक कि जिन अल्बमों को वह मेरे तक पहुँचाने के लिए डॉ. जगबीर को दे आए थे, उनमें से मेरे बचपन, स्कूल, कालेज और यूनिवर्सिटी की सारी तस्वीरें गायब थीं। मुझे फिर एक बार वह घटना स्मरण हो आई जब उन्होंने अपने पुत्र अमनदीप के बचपन की तस्वीरों को फाड़ा था और साथ ही यह यकीन भी पुख्ता हुआ कि मेरी तस्वीरों को भी इसी तरह गुस्से में फाड़ दिया होगा। इसके साथ साथ मेरी व्यक्तिगत यादें जैसे कि इमरोज द्वारा बनाया गया मेरा स्कैच, कालेज के रिटायरमेंट के समय मिला चाँदी का स्मृति-चिन्ह आदि भी उनके गुस्से की भेंट पता नहीं कहाँ चढ़ गए। एक बात और कि मुझे पैसे देने की बजाय उन्होंने वुल्वरहैंप्टन में ही अलका के नाम एक और घर खरीद लिया और उसको किराये पर चढ़ा दिया। मुझे पैसे तो क्या देने थे, बल्कि उन्होंने अपनी आमदनी का एक और जरिया बना लिया था। बाद में पता चला कि एक फ्लैट मुम्बई में भी खरीदकर किराये पर दे रखा था। महीना, दो महीना, तीन महीना देखा, पर चंदन साहब ने तो जैसे मुझे कुछ देना ही न हो। इसी दौरान जो फ्लैट मैं दिल्ली में लेना चाहती थी, उसकी कीमत भी डेढ़ गुनी हो गई। मुझे घाटा पड़ रहा था, पर मैं चंदन साहब के चैक की प्रतीक्षा किए जा रही थी। हर रोज़ मैं डाक देखती, पर मुझे तसल्ली देती कोई चिट्ठी न होती। पूरा साल देखकर मैं पुनः वकील के पास गई। वकील उल्टा मेरे साथ गुस्सा होने लगा कि मैं इतनी देर बाद क्यों आ रही हूँ। इतने समय में तो पचासी हज़ार का ब्याज ही बहुत बन जाता। चंदन साहब पर कोर्ट के हुक्म की अवहेलना करने का एक जुर्म लगता था। मैंने वकील से कहा कि मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मुझे तो अपने पैसे चाहिएँ। वकील ने चंदन साहब पर दुबारा केस कर दिया। चंदन साहब को आदेश हो गए कि यदि वह एक महीने के अंदर मुझे पैसे नहीं देते तो उनका घर जब्त कर लिया जाएगा और उसको बेचकर पैसे मुझे दे दिए जाएँगे। इस बात को भी दो साल लग गए। हमारा तलाक का फैसला 2007 में हो चुका था और मुझे पैसे 2009 में मिले, वह भी दुबारा केस करने पर। यह कैसा लेखक था जो लेखन में कुछ और था, पर अपनी ज़िन्दगी में बहुत ही घटिया साबित हो रहा था। मुझे उर्दू का एक शेर याद हो आया -

बस ज़रा-सी बात पर बरसों के याराने गए

चलो अच्छा हुआ कुछ दोस्त पहचाने गए।

पिछला एक वर्ष हमारे साझे मित्रों के लिए ज़रा कठिन था। हम दोनों ही समारोहों में जाते थे। चंदन साहब द्वारा मुझे पैसे न देने के कारण मित्र असहज-से थे, पर बात करने से बचते थे। जब उन्होंने मुझे चैक दे दिया तो मित्र भी खुश हो गए। मुझे फोन भी आने लग। चंदन साहब हमेशा की भाँति मेरे खिलाफ़ प्रचार-सा कर रहे थे। मुझे पता था कि उनकी बात से कोई सहमत नहीं होगा। एक मित्र ऐसा था जो उनके हक़ में थो। वह था - अवतार जंडियालवी। इसका कारण मैं समझती भी थी। किसी समय अवतार जंडियालवी की किताब ‘मेरे परत आउंण तक’(मेरे लौट आने तक) के बारे में मैंने लिखा था कि यह जगतार ढा की पुस्तक ‘गुआचे घर की तलाश’ से प्रभावित है। बस, तभी से वह मेरे विरुद्ध था। मुझे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। मेरी समस्या तो यह थी कि ये पैसे मेरी मदद नहीं कर सकते थे। ये मेरे लिए घर भी नहीं खरीद सकते थे। दिल्ली में फ्लैटों की जो कीमत चल रही थी, उससे यह बहुत कम थे।

मैं पैसे जेब में डाल भारत आ गई। दिल्ली के किसी भी इलाके में इस कीमत का फ्लैट नहीं था। हारकर मुझे गुड़गांव में जाकर फ्लैट खरीदना पड़ा। यह फ्लैट तो मेरे पास जमा पूंजी से भी नहीं मिलने वाला था यदि मेरी बड़ी भतीजी ने मेरी मदद न की होती। फ्लैटों का अभी निर्माण होना था। कई साल लग जाने थे इस फ्लैट की चाबी मिलने में। यह सोचते हुए कि सारे पैसे एकमुश्त नहीं, बल्कि किस्तों पर देने होंगे, मैंने दो फ्लैट बुक करवा लिए और दोनों फ्लैटों की किस्तें भरती रही। जब सालभर बाद पैसे खत्म हो गए तो एक फ्लैट बेचने का फैसला कर लिया। फ्लैट की कीमतें काफ़ी बढ़ गई थीं। दूसरा फ्लैट मेरी भतीजी और उसके पति ने खरीद लिया और मेरे फ्लैट में कम पड़ने वाले पैसे भी डाल दिए। नहीं तो मुझे डर था कि फ्लैट मिलने से पहले ही मैं हथियार न फेंक दूँ। आदमी का क्या भरोसा। चंदन साहब तो पहले एक बार दिल्ली में रहते हुए मुझे मरा हुआ समझते रहे थे।

कभी कभी मैं सोचती कि यह जो मैं घर का सपना उठाये उठाये फिरती थी, यह क्या था - छलावा, मृगजाल, मृगतृष्णा, नज़र का धोखा। यह भी हिसाब करने लगती कि चंदन साहब के साथ विवाह करवाकर इंग्लैंड आकर मैंने क्या कमाया और क्या गंवाया। मेरे हाथ लगता कि मैंने बहुत कुछ गंवाया है। मैंने चैबीस साल की नौकरी उस वक्त छोड़ी जब मैं रीडर बन चुकी थी। उम्मीद थी कि कालेज की पिं्रसीपल भी बन जाती या फिर यूनिवर्सिटी में जा लगती। अब तक तो कई फ्लैटों की मालकिन बन जाती। साहित्यिक तौर पर भी मेरा अब से अधिक बड़ा नाम होता। दिल्ली में रहकर साहित्य से वाबस्ता रहने का अर्थ ही और होता है। फिर सोचती कि यदि मैं इंग्लैंड न आती तो यह नए नए अनुभव कैसे होते। जो मित्र इंग्लैंड में मिले हैं, ये कैसे मिलते। चंदन साहब के साथ विवाह करवाने का यही एक लाभ हुआ कि इंग्लैंड में बसते सभी लेखकों से मेरी मित्रता हो गई। इंग्लैंड से जहाँ मुझे टूटे हुए घर का सपना मिला, वहीं मुहब्बतों के कई अहसास मेरे दिल के आँगन को भी रौशन कर गए। ऐसे अहसास की जगह मेरे दिल में सुरक्षित है। इसी प्रकार जहाँ दिल्ली के कालेज की नौकरी छोड़नी पड़ी, वहीं इंग्लैंड के कालेज में काम करने का भी अवसर मिला जिसने अध्यापन के अनुभव में एक नए प्रकार का इजाफ़ा किया और इंग्लैंड की पढ़ाई के तरीकों के बारे में मुझे ज्ञान हुआ।

केस खत्म होने के बाद मैं भारत गई हुई थी। एक दिन जम्मू से एक लेखक हमारे पहाड़गंज वाले घर में आया। एक दिन पूर्व मैं किसी समारोह में शामिल हुई थी, शायद उसको वहीं पता चला हो कि मैं भारत में आई हुई हूँ। वह बहुत देर तक हमारी ब्याहता ज़िन्दगी को लेकर बातें करता रहा और फिर हमारे तलाक के बारे में भी। और फिर वह बोला -

“मैडम, मुझे इंग्लैंड ले जाओ। आपकी सेहत ठीक नहीं रहती, मैं सारी उम्र आपकी सेवा करूँगा।”

पहले तो मैं हैरान हुई और फिर परेशान भी। सोच रही थी कि जब यह आदमी हमारे घर इंग्लैंड में आया था तो बहुत ही शरीफ-सा प्रतीत होता था। परंतु अब यह क्या कह रहा था। मैं इसकी पत्नी को भी जानती थी। वह पंजाबी की जानी-पहचानी लेखिका थी। मैंने कहा -

“यह तुम क्या बकवास कर रहे हो ?”

“मैडम, मैं दिल से कह रहा हूँ।”

“मैं तेरी पत्नी को फोन करके बता दूँगी।”

“बेशक बता दो, पर मैं सच कह रहा हूँ।”

उसने खुद ही फोन मिलाकर मेरे हाथ में थमा दिया। मैं गुस्से में आ गई और उसकी पत्नी को सारी बात बताई। वह भी एकदम बोली-

“मैडम, इसमें मैं क्या कर सकती हूँ। यदि वह ऐसा चाहते हैं तो उनकी मर्ज़ी।”

मैं और भी हैरान और दंग हुई कि ये पति-पत्नी क्या चाल चल रहे हैं। मैंने उस लेखक को तो झिड़ककर वहाँ से भगा दया, पर सोच में पड़ गई। यदि मैंने तलाक न लिया होता तो शायद ऐसा सवाल मुझे कोई न करता। सभी लेखक एक भाईचारे की तरह होते हैं। इसलिए एक दूसरे के बारे में अधिक जानते हैं और शायद इसलिए वह इतनी हिम्मत कर गया हो।

यदि मेरा विवाह लेखक स्वर्ण चंदन के साथ न होकर साहित्य से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ हुआ होता तो शायद कई बातों में तकलीफ़ कम होती। हम दोनों के एक ही शहर में रहने के कारण भी कई बार मेरी सहेलियाँ उनको मिल जातीं। वह भी उनके साथ हँस-हँसकर बातें करते। एक दिन मेरी जिहोवा विटनैस वाली सहेली को वह पॉर्क में मिले, बहुत खुश लग रहे थे। महिंदर का कहना था कि उन्होंने उसे घर आने के लिए भी कहा था।

यह मेरी वही सहेली थी जो मेरे भाई की मृत्यु पर कई दिन तक खाना लेकर आती रही थी। यह चंदन साहब के स्वभाव को भलिभाँति जानती थी क्योंकि इसको एकबार चंदन साहब ने घर से चले जाने के लिए कह दिया था, पर फिर भी वह चंदन साहब की सारी ज्यादतियों को भूल बैठी थी।

लेकिन बहुत सी स्त्रियाँ चंदन को लेकर मुझसे बुरी बातें करने लगतीं। कोई कहती कि वह पाॅर्क में बैठकर शराब पीता है। कोई कहती कि वह डे-सेंटर में आकर झगड़ा करता है। कोई कहती कि चंदन साहब ने किसी को गालियाँ बकी हैं। मुझे इन सब पर गुस्सा आता कि जब मेरा उस आदमी के साथ कोई वास्ता ही नहीं है तो मुझे आकर क्यों बताती हैं। कभी कभी चंदन को लेकर की गई शिकायतें अच्छी भी लगतीं कि कम से कम ये लोग अभी भी मुझे उसके साथ जोड़ रहे हैं। जब पता लगता कि चंदन साहब बहुत पीते हैं तो बुरा भी लगता। पहले पहले जब मैं उनसे कहा करती थी कि इतनी शराब क्यों पीते हो तो वह कहते कि तुझे क्या ? मैं खुद से ही खेल रहा हूँ। कई बार समारोहों में या लेखकों की निजी महफ़िलों में उनके किए हुए काम की तारीफ़ होती तो मुझे बुरा न लगता। मेरी लड़ाई किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि उसकी आदतों और उसके स्वभाव से थी।

(जारी…)

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