मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 16 Neelima Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 16

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 16

लेखिका: रिंकी वैश

अधूरी कहानियों के खंडहर

“ज़िंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जहाँपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं न मैं। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उँगलियों में बंधी है, कब, कौन, कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता है. हाहाहा, हाहाहा.” निहारिका अपने 11 साल के बेटे अक्षर के साथ हिंदी फ़िल्मों के डॉयलॉग बोलने का गेम खेल रही थी। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ था, उसने यह नया तरीका निकाला था अक्षर का मन लगाए रखने के लिए। वरना तो उसे मोबाइल और कंप्यूटर के सामने से हटाना ही मुश्किल था। सच बात तो यह थी कि अक्षर के बहाने वह एक बार फिर अपना अतीत जी लेना चाह रही थी। पुरानी हिंदी फ़िल्में उसे बेहद पसंद थीं, उनके गाने, डायलॉग… ख़ासतौर से हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में। यह लॉकडाउन तो अभी शुरू हुआ था; उसकी ज़िंदगी सालों से लॉकडाउन में चल रही थी।

इसी हाहाहा के बीच निहारिका को कुछ शोर सा सुनाई पड़ा। बाहर बालकनी में निकलकर देखा, तो कुछ पुलिस फ़ोर्स नज़र आई। उसने तुरंत सिक्योरिटी को फ़ोन किया।

गार्ड ने बताया, “मैडम जी, आपके सामने वाले फ़्लैट में जो सर रहते हैं, वो शायद पिछले महीने अमरीका गए थे। पुलिस को पता चला गया, उन्हीं से बात करने आई है। वो रोज़ बाहर भी जाते हैं। अब क्या कहें, कितना मना करें। लेकिन पोज़ीशन की धौंस दिखाकर बाहर चले जाते हैं। लॉकडाउन से कोई मतलब नहीं उनको। सबके लिए मुसीबत कर देते हैं ऐसे लोग... मैडम जी, बहुत ध्यान से रहिएगा।”

निहारिका के दिल में शक बैठ गया। अभी 2-3 दिन पहले ही अक्षर उनके घर खेलने गया था। अब तक कुछ देश, कुछ शहर, कुछ मोहल्लों दूर बैठा हुआ डर कुछ शक-सुवह के साथ आज उसके घर के सामने था। अक्षर को वैसे भी साँस से जुड़ी तकलीफ़ रहती थी। उसका इम्यून सिस्टम भी बहुत मज़बूत नहीं था। वह जी भरकर दिल्ली-एनसीआर की आबोहवा को कोसती पर इससे अक्षर की तकलीफ़ तो कम नहीं होती थी। निहारिका के डर के दो हिस्से थे- पहला, जो घर के सामने शक के रूप में मौजूद था और दूसरा, जो उसके दिल की गहराइयों में कहीं छिपा था। इसे सिर्फ़ और सिर्फ़ वह महसूस कर सकती थी। अक्षर जब से इस दुनिया में आया था, निहारिका के जीवन की पूरी किताब जैसे उसी एक अक्षर में सिमट गई थी। नीहार के साथ भी वह शायद इसीलिए रिश्ता निभा रही थी कि अक्षर की ज़िंदगी मुकम्मल रहे।

“क्या हुआ, माँ!” अक्षर की आवाज़ आई।

“कुछ नहीं।” निहारिका ने संयत होते हुए कहा।

“बेटा, पुलिस देखी न! सामने वाले अंकल से पूछताछ करने आई है, कोरोना के सिलसिले में। इसका मतलब है कि अब तुम बिल्कुल भी घर से बाहर नहीं निकलोगे। सामने आरव के साथ खेलने भी नहीं जाओगे।”

“पर मम्मा...”

“इस पर मुझे कोई बहस नहीं चाहिए। बस, बात खत्म हो गई। जाओ, पढ़ाई करो।”

अक्षर चुपचाप अपने कमरे में चला गया। रिश्तों के टूटने की आहट बच्चे भी सुन लेते हैं। अक्षर ने अपने माँ-बाप के बीच पड़ रही दरारों को बचपन से ही महसूस कर लिया था। वे दरारें ही जैसे उसके हाथों की लकीरें बन गई थीं। अपने पापा के लिए वह एक ‘अनवॉटेंड चाइल्ड’ था। नीहार ने पहले ही साफ़-साफ़ कह दिया था कि उसे बच्चे नहीं चाहिए। धीरे-धीरे निहारिका से दूरियाँ बढ़ने लगीं और दूरियों के साथ झगड़े, और बात तलाक तक पहुँच पाती, उससे पहले ही अक्षर ने अपने आने का एलान कर दिया था। उसे भी लगा कि एक बच्चा शायद उसकी मुश्किलें कम कर देगा। तो इस तरह अक्षर उसके लिए ‘प्रॉब्लम सॉल्विंग एलिमेंट’ था। और हकीकत में हुआ भी यही। ज़िम्मेदारी की चादर निहारिका ने ओढ़ ली, नीहार और भी आज़ाद होता चला गया। इमोशनल और फ़िज़िकल सपोर्ट से तो वह पहले ही हाथ खींच चुका था। खर्चे उठाने का जिम्मा भी निहारिका ने ही उठा लिया। ऐसा नहीं था कि उसे बच्चे से बिल्कुल भी प्यार नहीं था, पर शायद उसका प्यार करने का, ज़िंदगी जीने का, चीज़ों को देखने का नज़रिया ही अलग था। एक ही घर में रहने वाले नीहार और निहारिका की ज़िंदगियाँ ऐसी थीं जैसे एक-दूसरे से थोड़ी दूर पर खड़े दो टापू जिनके बीच अगर कभी कोई संवाद होता भी था, तो बहते पानी यानी अक्षर के लिए या अक्षर के माध्यम से।

निहारिका आज कितने दिनों बाद नीहार के कमरे में गई, उसे खुद भी याद नहीं।

“नीहार, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।”

“बोलो,” नीहार ने कुछ हैरान होते हुए पूछा।

“सोसायटी में पुलिस आई है। मि. प्रजापति पिछले महीने अमेरिका से लौटे थे, उसी सिलसिले में आई है शायद। वी नीड टु बी रियली केयरफ़ुल। दो दिन पहले अक्षर उनके घर खेलने गया था। सो, वी नीड टू ऑबसर्व हिम वेरी क्लोज़ली।” निहारिका ने सपाट लहजे में कहा।

“तुम भी न! अरे, पुलिस पूछताछ करने आई है और तुम ऐसे बिहेव कर रही हो, जैसे उन्हें कोरोना हो गया हो।” नीहार ने थोड़ा चिड़चिड़ाते हुए कहा लेकिन फिर उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर बोला, “ चिंता मत करो, अक्षर को कुछ नहीं होगा। मैं हूँ ना।”

अब हैरान होने की बारी निहारिका की थी। नीहार और निहारिका के बीच जो पिछली कुछ बातें हुई थीं, उन्हें शायद बातें नहीं लड़ाई ही कहा जा सकता था। आज उसकी आवाज़ में एक आश्वासन, एक स्नेह था। एक पिता के मन में अपने बच्चे के लिए जो फ़िक्र होनी चाहिए, वह उसकी आवाज़ में झलक रही थी।

“हाँ, आई रियली होप सो, थैंक्यू।” निहारिका का लहजा भी कुछ नरम हो गया।

लॉकडाउन के दौर ने शायद कुछ जमी हुई परतों को पिघलाना शुरू कर दिया था। ज़िंदगी के साथ ज़्यादा वक्त बिताने का शायद यह पहला मौका उन्हें मिला था। खुद के अंदर उतरकर खुद को करीब से देखने का। ज़िंदगी की रफ़्तार में कितना कुछ छूट जाता है और पता भी नहीं चलता, कितनी अजीब बात है न। इंसान यह समझ ही नहीं पाता कि आगे बढ़ते रहने के लिए रुकना भी ज़रूरी है। दिन निकलने के लिए रात का आना ज़रूरी है। आप हमेशा चल सकें, उसके लिए थोड़ा ठहरना ज़रूरी है। लॉकडाउन से उन दोनों को शायद यही ठहराव मिला था।

पिछले कई सालों से नीहार और निहारिका एक ही घर में अजनबियों जैसी ज़िंदगी जी रहे थे। दोनों का पूरा दिन ऑफ़िस में निकल जाता और फिर खाना खाकर अपने-अपने कमरों में सोने चले जाते। लॉकडाउन की वजह से अभी वे पूरा दिन घर में रहने के लिए मजबूर थे। नफ़रत का आलम यह था कि दोनों एक-दूसरे के सामने पड़ने से भी कतराते थे। कभी बात करने की कुछ ज़रूरत भी पड़ी, तो उस बातचीत का झगड़े में बदल जाना तय था। ऐसे में, लॉकडाउन का शाप उनके लिए वरदान ही साबित हुआ।

दो दिन यूँ ही गुज़र गए। इन दो दिनों में दो अजनबियों ने एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराना सीख लिया था। अकेलापन शायद दोनों के लिए भारी पड़ रहा था। अकेले तो वो पहले भी थे, पर शायद भीड़ के बीच वे उसी का हिस्सा बन गए थे। अब जब एक छत के नीचे अकेलापन अपनी विकरालता के साथ सामने आया, तो उन्हें अपने साथ-साथ दूसरे की तकलीफ़ का एहसास भी हुआ। वह तकलीफ़ जो आपको खुद से और दूसरों से जोड़ने का काम करती है। वह तकलीफ़ जो अकेलेपन से उपजती है। अकेलापन एक दीमक की तरह होता है, जो इंसान को अंदर से खाना शुरू करता है और फिर उसे एक दिन खोखला करके अवसाद के गर्त में ढकेल देता है। घर का माहौल कुछ हलका हो चला था। अक्षर भी थोड़ा चहकने लगा था। अब कभी-कभी तीनों मिलकर फ़िल्मों के डायलॉग वाला गेम खेलते। इस गेम में नीहार हमेशा पीछे रह जाता। हालाँकि उसे भी निहारिका और अक्षर के गेम के चलते काफ़ी डायलॉग याद हो चुके थे और डायलॉग का यह गेम धीरे-धीरे असली ज़िंदगी में भी उतर आया था। एक दिन होमवर्क करते-करते जब निहारिका ने उसे इंग्लिश स्ट्रॉन्ग करने का उलाहना दिया, तो अक्षर बोल पड़ा, “लो, कल्लो बात, अरे बाबू जी, ऐसी इंग्लिस आवे कि आई कैन लीव अंगरेज बिहाइंड। आई कैन टाक इंग्लिस, आई कैन वाक इंग्लिस, आई कैन लाफ इंग्लिस बिकॉज इंग्लिश इज ए वेरी फनी लैंग्वेज.” निहारिका की हँसी छूट गई। नीहार भी अपने कमरे में मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका।

अब लॉकडाउन ने लोगों की ज़िंदगी अपने हिसाब से ढाल दी थी। हर स्थिति के साथ इंसान सामंजस्य बिठा ही लेता है। प्रकृति है उसकी। इधर हर गुज़रते दिन के साथ निहारिका आश्वस्ति की ओर एक कदम बढ़ाती थी। कोरोना का डर दो पग पीछे छूट जाता था। पंद्रह दिन गुज़रने के बाद उसने चैन की साँस ली। कम से कम एक डर से उसे निजात मिली थी। घर की हवा में भी थोड़ा सुकून घुल गया था।

शनिवार। ऑफ़िस का काम आज के दिन दूसरे नंबर पर आ जाता था। निहारिका अक्षर को भी जल्दी नहीं उठाती थी। सुबह वह जल्दी-जल्दी घर के हफ़्ते भर से रुके हुए काम पूरे करती थी ताकि जब अक्षर उठे, तो उसके साथ अच्छा समय बिता सके। अक्षर को भी अकेलापन न लगे। मगर जब 12 बज गए और अक्षर नहीं उठा, तो वह उसके कमरे में गई।

“अक्षू, अक्षू बेटा! उठो। कितनी देर हो गई आज।”

अक्षर ने धीरे से आँखें खोलीं।

“माँ, मुझे बहुत अजीब लग रहा है। मेरा गला भी दर्द हो रहा है।”

निहारिका जैसे फिर किसी आशंका के बोझ तले दब गई। फिर एकाएक अपने को सँभालते हुए बोली,

“कितनी बार कहा कि ठंडा पानी मत पीया करो, लेकिन तुझे समझ में कहाँ आता है। मौसम भी ठीक नहीं है, इसलिए गला खराब हो गया होगा। मैं अभी हर्बल टी बना देती हूँ। अब सारा दिन गरम पानी ही पीना। खबरदार, जो फ़्रिज के पास नज़र आया। नमक के पानी से गरारा भी करना। अब उठो और फटाफट ब्रश कर लो। मैं अदरक-तुलसी वाली चाय लाती हूँ।”

अक्षर ने मुस्कुराकर बस सिर हिला दिया। निहारिका जल्दी से उसके कमरे से निकलकर सीधे नीहार के कमरे में गई। नीहार अभी तक सो रहा था। एक बार आवाज़ देने के बाद उसने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। अचानक सुबह हुई इस खट-खट से नीहार चौंककर उठा।

“क्या हुआ?”

“अक्षर की तबियत ठीक नहीं है, उसका गला दर्द हो रहा है।”

“ओह! और कोई प्रॉब्लम भी है?”

“कह रहा है कि अजीब-सा लग रहा है।”

“चिंता मत करो। सीज़नल फ़्लू होगा, ठीक हो जाएगा एक-दो दिन में। उसे वैसे भी जल्दी इन्फ़ेक्शन हो जाता है। नॉर्मल वायरल हो गया होगा। मैं होमियोपैथी की दवा बना देता हूँ। उससे ठीक हो जाएगा।” नीहार ने उसे दिलासा देते हुए कहा। आईटी फ़ील्ड में काम करने के साथ-साथ नीहार ने होमियोपैथी की भी काफ़ी किताबें पढ़ रखी थीं। छोटा-मोटा सर्दी-जुकाम, बुखार, दर्द-चोट का इलाज वह अपने आप ही कर लेता था, होमियोपैथी के ज़रिये।

“अगर उससे न ठीक हुआ तो...”, निहारिका ने अपना शक ज़ाहिर किया।

“तो हम एलोपैथ से कंसल्ट कर लेंगे। पर अभी किसी हॉस्पिटल में जाना सेफ़ भी नहीं है न!” नीहार ने फिर उसे आश्वस्त करने की एक नाकाम कोशिश की। निहारिका ने बस सिर हिलाया और किचन में चली गई। वह बिल्कुल भी सहज महसूस नहीं कर रही थी।

नीहार ने अक्षर के कमरे में झाँककर देखा। वह बाथरूम में था। नीहार वापस अपने कमरे में आ गया। उसने जल्दी से ब्रश किया और होमियोपैथी की एक किताब निकालकर देखने लगा। फिर उसने होमियोपैथी दवाओं का ड्रॉर खोलकर तीन-चार शीशीयाँ निकालीं और एक नई शीशी लेकर उसमें अक्षर के लिए दवाई तैयार की। दवा की शीशी लेकर वह अक्षर के पास गया। अक्षर तब तक वापस बिस्तर पर लेट चुका था। उसने अक्षर का माथा सहलाया और उसे दवाई खिलाई। फिर जब वह तेज़ी से मुड़कर जाने लगा तो अक्षर ने उसका हाथ पकड़ लिया और मुस्कुराते हुए बोला,

"एइसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो।" ऐंड फ़ॉर योर काइंड इन्फ़ॉर्मेशन, दिस वन इज़ फ़्रॉम ‘अमर अकबर एंथोनी’।

नीहार ने पलटकर उसकी ओर देखा और बोल पड़ा, “घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है, नौटंकी...।” ऐंड फ़ॉर योर काइंड इन्फ़ॉर्मेशन, दिस वन इज़ फ़्रॉम ‘शोले’। अक्षर की मुस्कुराहट थोड़ी और बढ़ गई। नीहार को खुद ही हँसी आ गई कि उसे क्या हो गया है। वह हमेशा से ही थोड़ा धीर-गंभीर, अंतर्मुखी प्रकृति का इंसान था। नीहार थोड़ी देर वहीं उसके सिरहाने बैठ गया। पूरे कमरे में सन्नाटा पसरा था। दोनों चुपचाप जैसे एक-दूसरे के साथ होने के इन पलों को वहीं रोक लेना चाहते थे। निहारिका भी चाय-बिस्किट लेकर आ गई।

अक्षर के गले का दर्द शाम तक काफ़ी बढ़ गया और खाँसी भी आने लगी। होमियोपैथी ने अपना असर सिर्फ़ ज़बान पर मिठास लाने तक ही सीमित रखा था। तीसरा दिन आते-आते तेज़ बुखार हो गया। अब निहारिका के मन में कोई शक नहीं बचा था। अक्षर की दिनोंदिन बिगड़ती हालत उसे किसी अनिष्ट की आशंका से भर रही थी। उसने नीहार से फटाफट हॉस्पिटल फ़ोन करने को कहा। कोई और दिन होता, तो शायद नीहार कुछ बहस करता। पर आज…उसने चुपचाप फ़ोन उठाया और नंबर मिलाने लगा। 1 घंटे के अंदर वे अस्पताल में थे। अक्षर की हालत देखते हुए उसका कोरोना टेस्ट करवाया गया। कुछ दिनों बाद अक्षर की रिपोर्ट आई- कोरोना नेगेटिव। पहले तो निहारिका की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसका शक गलत साबित हुआ था। पहले दिन से उसे जिस बात का डर सता रहा था, वह वाकई एक डर था, पर...। उसने डॉक्टर की ओर सवालिया निगाहों से देखा। डॉक्टर की आँखों में भी वही संशय था कि अचानक अक्षर की तबियत इतनी क्यों खराब हो गई। “हमें कुछ और टेस्ट करने होंगे,” डॉक्टर ने धीमी आवाज़ में कहा। एक-एक दिन निकल रहा था और अक्षर की तबियत ठीक होने की जगह जैसे धीरे-धीरे बिगड़ रही थी।

अक्षर की सारी रिपोर्ट्स आ गई थीं। डॉक्टर ने रिपोर्ट्स देखकर जो कहा, नीहार और निहारिका दोनों को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

“ऐसा कैसे हो सकता है? डॉक्टर पाठक, आप जानते हैं न, अक्षर सिर्फ़ 11 साल का है,” निहारिका ने पूरा अविश्वास जताते हुए कहा।

“कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी और का सैंपल टेस्ट हो गया हो,” नीहार ने अपने मन की शंका ज़ाहिर की।

“आइ एम रियली सॉरी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। हमने डबल चेक किया है। उसे फेफड़ों का कैंसर है।”

निहारिका का चेहरा जर्द पड़ गया था। उसके मुँह से बमुश्किल आवाज़ निकली, “वह ठीक तो हो जाएगा न!”

“हाँ, हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। अभी एडवांस स्टेज नहीं है, इसलिए हमें पूरी उम्मीद है कि हम अक्षर को ठीक कर लेंगे,” डॉक्टर ने निहारिका को ढाढस बँधाते हुए कहा।

निहारिका की हालत ऐसी थी जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन हटा ली हो। धीरे-धीरे उसने अपने को सँभाला। अगले कुछ दिन निहारिका जैसे मशीन बन गई। दवा से लेकर दुआ तक, उसने कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी। नीहार भी उसके पागलपन को देखकर हैरान था। और आखिरकार अक्षर की हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी। दवा ने काम किया या दुआ ने, कह पाना मुश्किल था। पर निहारिका की जैसे जान वापस आई। फिर अचानक एक दिन रात को फ़ोन की घंटी बजी…

“अक्षर को आईसीयू में ले जा रहे हैं। अचानक उसकी तबियत खराब हो गई है।” इस बार निहारिका अपने को नहीं सँभाल पाई। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। नीहार न होता, तो वह शायद गिर ही जाती। दोनों आईसीयू के बाहर खडे़ होकर डॉक्टर का इंतज़ार करने लगे। वक्त जैसे थम सा गया था। एक-एक पल उन दोनों की ज़िंदगी पर भारी था। वहाँ खड़े-खड़े अचानक उसे बहुत पहले पढ़े गए किसी उपन्यास की लाइन याद आ गई, “वरण की स्वतंत्रता कहीं नहीं है, हम कुछ भी स्वेच्छा से नहीं चुनते हैं।" जब हमें यह गुमान हो रहा होता है तब भी वह नियति नटी का ही खेल होता है। बचपन से लेकर आज तक का ज़िंदगी का सफर आँखों के सामने घूम गया… कहाँ थी वरण की स्वतंत्रता, कब हो पाया ऐसा। तभी डॉक्टर ने बाहर आकर उसकी ज़िंदगी की किताब के सारे पन्ने जैसे एक झटके में फाड़ दिए।

“अक्षर इज़ नो मोर, आइ एम रियली वेरी सॉरी।”

डॉक्टर के मुँह से बमुश्किल ही शब्द बाहर आ रहे थे। उनके हॉस्पिटल में फेफड़ों के कैंसर से किसी बच्चे की यह पहली मौत थी। पूरा स्टाफ़ इस अनहोनी से दुखी था। निहारिका तो पहले ही बुत बन गई थी। उसका चेहरा सफ़ेद हो गया था, जैसे किसी ने पूरा खून निचोड़ लिया हो। नीहार जैसे समझने की कोशिश कर रहा था कि अचानक ये क्या हो गया, कैसे हो गया। उसे तो यह भी ठीक से नहीं पता कि उसका बेटा वाकई में कैसा था, क्या सोचता था, क्या करना चाहता था। और वह चला भी गया...इतनी जल्दी, बिना कुछ कहे, बिना उसे दूसरा मौका दिए।

“अक्षर आप लोगों से कुछ कहना चाहता था शायद! मैंने अपने फ़ोन में उसकी आवाज़ रिकॉर्ड की है। मैं बाद में सुनवाता हूँ,” डॉक्टर ने भीगी-सी आवाज़ में नीहार से कहा।

“नहीं, हमें अभी सुनना है। प्लीज़ डॉक्टर!” नीहार ने डूबती हुई आवाज़ में कहा।

“ठीक है। 15 मिनट बाद मेरे केबिन में मिलिए।”

ठीक 15 मिनट बाद नीहार और निहारिका, डॉक्टर के केबिन में थे। नीहारिका बस यंत्रवत चल रही थी। नीहार ने किसी तरह खुद को सँभाला हुआ था। वैसे भी वह आदमी होने के संस्कारों के साथ पला था। डॉक्टर ने अपना फ़ोन ऑन किया,

“मम्मा, ये मेरा लास्ट डायलॉग है... बाबू मोशाय, ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं। मैं आप दोनों से यही कहना चाहता हूँ। बड़ी ज़िंदगी जीने की कोशिश करिए। मम्मा, आप ही कहती थीं न कि एक जगह रुके-रुके पानी सड़ जाता है, फिर यह तो ज़िंदगी है। आप दोनों यह बात मुझसे बेहतर जानते हैं। आप लोग क्यों रुके हैं एक जगह? एक साथ आगे नहीं बढ़ सकते, तो अलग-अलग रास्तों पर बढ़िए न।”

नीहार की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे पता ही नहीं चला कि उसका बेटा कब इतना बड़ा हो गया था। वह अपने आप से शर्मिंदा था कि अपने बेटे के लिए एक उदाहरण बनने की जगह वह अपने आप में इतना सिमट गया था कि उसके बेटे को उसे ज़िंदगी का सबक देना पड़ा। दुनिया कोरोना वायरस की त्रासदी का सामना कर रही थी। और इधर नीहार व निहारिका का अपना जीवन ही वायरस बन गया था। प्रकृति ने जैसे अपने साथ हुए अन्याय का बदला कोरोना वायरस और लॉकडाउन के रूप में लिया था। वैसे ही नीहार और निहारिका भी अपने गुनाह की सज़ा भुगत रहे थे, इंसानी प्रकृति के नियमों के खिलाफ़ जाने का गुनाह। अपने वजूद, अपनी प्रकृति के खिलाफ़ जाने का गुनाह।

कुछ महीनों बाद

नीहार और निहारिका एक साथ बैठकर खाना खा रहे थे। दोनों के चेहरों पर एक सुकून था। ज़िंदगी ने उन्हें मथकर उनके अंदर का अमृत शायद सतह पर ला दिया था। खाना खाने के बाद निहारिका ने अपने लिए मोहितो और नीहार के लिए जलजीरा बनाया। नीहार को एक मल्टीनैशनल कंपनी से ऑफ़र मिला था और उसे कुछ समय बाद टेक्सस जाना था। निहारिका एक बड़े और प्रतिष्ठित एनजीओ के साथ काम करने लगी थी। निहारिका को एकटक देखते हुए नीहार ने बोलना शुरू किया, “मैंने सारी तैयारी कर दी है। बस पूरी तरह लॉकडाउन खत्म हो जाए, उसके बाद हम फ़ॉर्मैलिटीज़ पूरी कर लेंगे।” इतना कहकर उसने तलाक के कागज़ात सामने टेबल पर रख दिए।

लेखिका परिचय

पूर्व पत्रकार, कुछ पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख और कहानी लेखन

अभी लिंग्विस्ट के तौर पर फ़्रीलांसिंग