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नीलांजना (थ्रिलर हॉरर कादम्बरी भाग-2)

अमृता और नवीन को पेहले ही पिक्-अप् कर लिया था सुबोधने. कृति आके फ़्रंट् सीट् पर बैठ गयी, अब सिर्फ़ चरण बाक़ी रेह गया था।

“प्राइमरी स्कूल् में भी मेरी जानेमन कितनी प्यारी दिखती थी की अगर फ़िल्मों में ऐक्ट् करने का मौका मिला हेता तों, मशहूर बाल कलाकार ज़रूर बन सकती थी। अब तो क्या क़ेहेना, यव्वन से इतनी निखर के ग्लामरस् दिख रही है की उस्की ख़ूबसूरती से नज़र हटाना मुश्किल का काम होगा ड्राइविंग् कर्ते कर्ते” ख़यालो में डूब गया था कुछ पल तक सुबोध, हक़ीक़त में आया था दोस्तों की डाँटे सुनके “रोड देख के ड्राइविंग कर्, नहीं तो हम सब बहुत ऊपर पहुँच जाएँगे।”

पीछे बैठे नवीन ने कहा “कृति बाजू में ही बैठी है, पूरा दिन बाक़ी है उस्को देखने को” जल्दी चलो लेट् हो रहा है, उस चरण भी बहुत स्लो है। जिम् से घर आके नहा रहा हूँ करकें मेस्सेज् किया था। जल्दी चलो यार बोलके छेड़ा था, पर मुस्कुराके क़ार् आगे बढ़ाया था सुबोध। चरण को पिक्-अप् करके लोणवला के जंगल् की तरफ जानेवाला रास्ते मे सफ़र कर रहे थे सब, ड्राइविंग के ज़िम्मेदारी चरण को सौंप के दो कपल्स् बिज़ी हो गये।

एक तरफ़ कृति-सुबोध के इश्क-बाजी, फुसफुसाना चालू था और दूसरि तरफ़ अमृता-नवीन बातों में चांद को ज़मीन पर लाने की बाते कर रहे थे। इस कदर प्यार भरे माहोल मे डूबे हुये जोडीयें को तिरछी नजरों से रीयर् मिरर् में देख के चरण भी ख़यालों में खो गया “आभा भी इस वक्त साथ होती तो सफ़र का मज़ा कुछ अलग ही रेहता। क्या करे बेचारी को उसकी मौसी इतना कंट्रोल् कर्ती है की मनचाहे काम करने भी नहीं देती। अब बस बहुत होगया इंतज़ार, कुछ दिन चुप रहा तो, उसकी मौसी अपनी शाराबी छोटे भई के साथ शादी तय करना तो पक्का है। मै ऐसा होने नहीं दूंगा, घरवाले चाहे ना चाहे तीन महीने के अंदर रजिस्टर् मैरेज् करके आभा को दिल की रानी बनाके खुश रखूँगा हमेशा के लिए.” ऐसे ही चल रही थी मन में योजनाये ...।

अब उन्के क़ार् जंगल् के बीचो-बीच पोहोंच गया था, जहाँ तक नजरे जाती थी सिर्फ पेड, पौधे, टार रोड और कभी-कभी तेजि से सामने गुजरती जाती अन्य वाहने दिखाई देते थे। वैसे मे दूर से चाय की टप्रि ‘दुक़ान’ दिखायी दिया पर वहाँ क़ार् से जाना असंभव था क्यों की, वो जंगलवासीयों का पैदल रास्ता था।

लगातार ड्राइविंग का थकान, उदासीनता से आती हुई नींद को भागने के लिए जीब खड़क् चाय की माँग कर रही थी। क़ार् रोक के बोला “गाय्स्, मुझे चाय की टप्रि के जैसा दिखायी दे रहा है, मै थोड़ा पूछताछ करके आता हूँ कही चाय वाय मिलने की चैन्सेस् है की नहीं।”

“मुझे अभी भी याद है, तू चाय के बिना ऐसे तड़पता था की जैसे जल बिना मछली. अभी भी जैसा था बिल्कुल नहीं बदला” टांग खींच रहा था सुबोध। बदले में चरण जवाब दिया “तेरा तो बेड़ा पार हो गया, साथ में तेरी दिलबर भी है। मै ठेहरा नसीब का मारा, आभा भी साथ में नहीं है करके दिल तडप रहा है। थोड़ा चाय पिलाकर दिल को क़ाबू कर लूँगा” बोल के चल पड़ा दुक़ान की ओर।

“प्रियतमा से प्यार जताना हो पार्क से बढ़कर अच्छी जगह मिल नहीं सकती.....
दोस्तों के साथ ख़ुशी बाँटना हो तो चाय से अच्छी चीज़ हो नहीं सकती.... “
सुबोध के इंन्सटंट् शायरी को “वाह! वाह!“ बोलते सब पीछा करने लगे चरण का।

नज़दीक जाके झाँके हुये चरण के चेहरे पे एक अनोखा मुस्कान था जैसे की उसने रेगिस्तान में से ओयासीस ढूँढ लिया हो। वहाँ पे एक बुजुर्ग इंसान, पुराने जमानेवाला केरोसिन चूले और बहोत बार जलकर काले हुये पतीला रखें, अजीब से निगाहे भरे बैठे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था की उन्होंने सदियों से हजामत और स्नान किया ही नहीं हो।

यह सब देखकर “चाय वाय कुछ भी नहीं चाहिए इस जगह से नौ दो ग्यरह होना ही बेहतर होगा” सोच रहा था चरण, तुरंत सुबोध आगे आया और कहा “दादाजी, क्या आप हम सबके लिए चाय बना सकते है??? मेरा इस दोस्त को चाय मतलब ज़िंदगी है” ऐसे बातों में उतर गया था बुज़ुर्ग के साथ। सूबोध बचपन से थोड़ा था ही बातूनी, कोई नहीं मिला तो पत्थरों से भी बातें शुरू कर देता था। इतना चालाक था की अपनी बातों से किसी को भी वश में कर लेता था। उस्का ग़ुस्सा कम देखने को मिलता था। बात करतेsss करतेsss वहाँ पे मिले लकड़ि को बेंच जैसे बनाके बैठ गया। बाक़ी दोस्तों ने भी वही किया और बैठ गए। अब वहाँ का माहोल ज़रा हट के उल्लासदायक परिवर्तित हो के मन को भा लिया था।

उन्होंने कब चूला जलाया!!!!! कब चाय बनाया!!!!! सब अंजान थे। सब को लगा बातों बातों में किसिने भी ध्यान नही दिया समझ के इस बात को टाल दिया। चाय के लिए इस्तेमाल किया गया गिलास देखने से लग रहा था साठ साल पुराना। “इस इंसान के साथ उसके टप्रि और चीजें किसी म्यूज़ियम में रखे तो उस म्यूज़ियम की शान ज़रूर बढ़ाएगी” सोच के अंदर ही अंदर हँसी आयी पर उसी क्षण वो बुज़ुर्ग के घूरती आँखे देख के चरण को ऐसा महसूस हुईं की वो उस्को कच्चा चबाजाएगा.. और ऐसा भी लगा कि अपनी शरीर को किसीने निचोड़ के रख दिया हो... पर ईस घटना एक ऐसा अजीब सा सद्मा था कि जिंदगी भर न भूल सके।

सुबोध खुद सर्व किया था सबको भापदार चाय की गिलासों को ट्रे जैसा लकड़ी की टुकड़े मे रख के। ऐसा अजीबोग़रीब जायकेदार चाय को ज़िंदगी में पेहेली बार पिया था सभी ने। एक दूसरे को आपस में मुँह देख रहे थे उस चाय खतम कैसे करे सोचके पर वो बुज़ुर्ग सामने ही बैठके घूरते नज़र आये इसीलिए किसी ने कुछ नहीं कहा।

“दादाजी कितने पैसे हुए???!!” ऐसा पूछने पर बिना जवाब दिए ख़ाली गिलासों को देखते बैठे रहे बुज़ुर्ग को सुबोध अपनी वेलेट् में से निकले हुए ₹100 का दो नोटों को ट्रे में रखा और सब वहाँ से निकल पड़े।

कुछ दूर चलते ही चरण अपनी पैंट् के सभी जेबोंको तलाश करने लग गया था, क़ार् की चाबी के लिए!!!! शक हुआ था की वही पे गिरा होगा जहां चाय पीने बैठा था। उस सद्मे को याद करके वापस टप्रि की तरफ़ जाने की हिम्मत नहीं जुटापा रहा था।

चरण के असहायाक परिस्थिति को नज़रंदाज़ करते हुये सुबोध “क़ार् की चाबी नहीं मिल रही हैना!! आप लोग यही कही आस पास ढूँढते रहो... मै जाके उस टप्रि मैं और आस पास ढूँढके आता हूँ” बोल के निकल गया था बिना किसी की इजाज़त के।

हुबहू वही रस्ते से जा रहा था, जिस रस्ते से सब लोग टप्रि पहुँचे थे!!! पर उस टप्रि की नामोनिशान भी नहीं था वहाँ पे। कुछ पल तक हैरान हो गया था “क्यों आज मेरे साथ अजीबोग़रीब घटनायें घट रही है या मैने गलती से दूसरा राह तो नहीं पकडा हो!!!!???” सोचने में मजबूर होगया था सुबोध। अचानक उसकी नज़र दूर से उस लकड़ी पर पड़ी जिसपे बैठके सब चाय पिया था। वहाँ पे S.K. लिखा हुआ किचैन, सूरज के रोशनी से चमकता नज़र आया.... ठीक वही जगह पे जहाँ पे चरण बैठा था।

क़ार् की चाबी मिलने की ख़ुशी में दौड़ते नज़दीक पोहोंचा। जब लेने के लिए झुका था, ऐसा महसूस हुआ की कोई उसे छू के निकले और जिस्म कुछ पल के लिए फ़्रीज़ हो के साँस भी थम गया हो।

कुछ भी हो क़ार् की चाबी जल्दी मिलने की ख़ुशीने उस हादसे को भुला दिया था... सीटी बजाते हुए क़ार् की तरफ़ कदम बढ़ाया था उसने।

To be continued

लेखिका: प्रेरणा प्रवीणकुमार कलकर्णि
अनुवाद: प्रवीणकुमार कुलकर्णि

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