विधवाएं
नीला प्रसाद
‘किसी का हर वक्त आसपास होना वह तटस्थता स्थापित होने नहीं देता जो उसे ठीक से समझ पाने की दृष्टि देता है। हर वक्त का साथ एक ऐसा आवरण रच देता है जिसमें से दूसरे व्यकितत्व का सच छन कर ही आ पाता है, जस का तस नहीं! आसपास जिससे और जैसी बातों से धिरे रहते हैं, उसे भी विश्लेषित करने में चूकने और उसके पार की दुनिया भूलने लगते हैं हम! एक घर होता है - सजा-सजाया, सुरक्षित; दो बच्चे होते हैं - सुंदर, स्वस्थ, होनहार; बैंक बैलेंस होता है - भारी और कई-कई शाखाओं में पसरा हुआ.... और इस सबको रच कर देने वाला 'पति होता है - प्यार करने और प्यार चाहने वाला। रोज-रोज एक देह के अंदर बसे किसी अनजाने गुह्य अंधेरे को अपने लिए थोड़े-थोड़े प्रकाश में बदलता, चूमता-चाटता, एक सुडौल काया में शिशु का बीज डालकर उसे बेडौल करता, फिर उसे भारी-भरकम गहन-कपड़े से सजा-लदा अपने सुसज्जित घर के ड्राइंग रूम में प्रतिष्ठित करता! ऐसा पति पत्नी को अच्छा लगता है क्योंकि उसके बिना पत्नी है भी क्या? कुछ भी नहीं! पत्नी पति का दिया एक अलंकार है, वह मां है पति के बच्चों की, वह हुक्म देने वाली मालकिन है पति के नौकरों की...... नहीं, बाहर से ऐसा लगता है कि घर भी उसका है, बच्चे उसके, बैंक बैलेंस उसका है, नौकर भी उसके! पर यह बाह्य खोल पति नामक प्राणी के अनुपस्थित होते ही उघड़ जाता है। पत्नी जो ब्याह से पहले एक उमड़ती-घुमड़ती-बहती नदी हुआ करती थी, ब्याह के बाद धीरे-धीरे सूखती, सिमटती, संकरी होती धारा होती जाती है। जब पूरी तरह सूख जाती है तब भी यह अहसास उसे हरियाता रहता है कि 'वह कभी नदी थी’ पत्नीपने का यह किला इतना सुरक्षित, इतना मजबूत होता है कि लगभग हर पत्नी उसके अंदर ही बनी रहना चाहती है - उसे तोड़ने से उत्पन्न होने वाली असुविधाओं की कल्पना मात्र से डरती, बचती हुई। पर एक दिन इस रचे-बसे सुख संसार को तोड़, नष्ट कर पति नामक प्राणी मर जाता है और तब पत्नी यानी मैं...
'हैं? आप? आपके पति का निधन हो चुका है?’ मैं चौंकती हूं, मानो अब तक का उनका कथन आत्मकथ्य न होकर कोई प्रवचन रहा हो। वे क्षण भर को चुप हो जाती हैं, मैं भी। चौंकी वे भी हैं, मैं भी। मैं संकोच में पड़कर कि आधुनिक होने का दावा करने वाली मैं उनकी साज-सज्जा के आघार पर उन्हें सधवा समझ रही थी; वे शायद इसीलिए कि कहीं गलत व्यक्ति के सामने तो अपना मन नहीं खोल बैठीं। फिर मेरे अंदर का वह संकोच, वह चौंकना गल गया। उनकी साड़ी की सुनहरी किनारी,कानों के कुंडल,गले का हार,हाथ की चूडि़यां, अंगूठियां, लिपस्टिक सब अलग अर्थ देते चमकने लगे। उनकी पानीदार आंखों का काजल मधुर अभिव्यक्ति देने लगा, लिपस्टिक स्व के लिए गुनगुनाने लगी, चूड़ियों में विद्रोह के स्वर बजने लगे और उनका पूरा व्यक्तित्व एक चुनौती की तरह तन कर खड़ा हो गया। वे शायद चाहती भी यही थीं - चुनौती देना। मैंने स्वीकारा कि अपनी आधुनिकता के बावजूद किस तरह हमारी सोच, परंपराओं से अनजाने ही प्रभावित होती रहती है। पर हम दोनों के बीच फैली असुविधाजनक चुप्पी को तुरंत तोड़ना जरूरी था। नहीं तो वह परत-दर-परत जमती चली जाकर ठोस हो जाती और उसे तोड़ने के लिए कठिन प्रयास करना पड़ता। मैं सायास मुस्कुराई और पूछा - 'फिर आप?
'फिर मै? वे भी सायास मुस्कुराई - 'मैं तो चमकते प्रकाश के शिखर से तरल अंधेरे में गिरी और तैरना नहीं जानने के कारण छटपटाने लगी। एक विवाहिता जब अकेली हो जाती है तो बिस्तर का खालीपन ही नहीं, हाथों, पैरों, मांग, पूरे शरीर का सूनापन एक परंपरा के रूप में उसे दे दिया जाता है। वह इस परंपरा को मजबूरन गले से लगाती और जिंदगी भर उसे ओढ़ती-बिछाती रहती है। दूसरों की नजरों में खुद को अच्छा सिद्ध करने की कोशिश में खुद को न्यौछावर करती हुई। मैंने भी पहले 'अच्छी बनने की कोशिश की, पर मन विद्रोह कर उठा। आलमारी में रखे गहने-कपड़े बुलाने लगे - तीस साल का साथ जो ठहरा! क्या आपके पति को अच्छा नहीं लगेगा यदि आप सिंदूर लगाएं, मंगलसूत्र पहनें, पांवों में बिछिया, हाथों में चूडि़यां डालें - कम-से-कम कान, गले और हाथों का आभूषण तो होना ही चाहिए न?’ उन्होंने मुझसे पूछा।
अबकी उनका द्वंद्व उजागर हुआ था, अत: खुष होने की बारी मेरी थी। मैं हुई भी। खिलखिलाते हुए जवाब दिया - 'नहीं, मेरे पति को मेरा ऐसे रहना ही भाता है। गहनों, कपड़ों, विवाह चिह्नों से इस कदर प्यार करने वाली कि उनसे ऊपर उठ ही न सकने वाली महिला उन्हें विरक्त करती है।‘
'अच्छा!’ उनकी आंखें मुझे ऐसे बेधने लगीं मानो मैंने झूठ बोला है और उन्होंने इस झूठ को पकड़ लिया है, या शायद वे सोचने लगी हों कि तब तो वे मेरे पति को और मेरे पति उन्हें पसंद नहीं कर सकेंगे... पर नहीं, यह विचारों का प्रक्षेपण था, क्योंकि यह तो मैं सोच रही थी। वे बोलती गईं - 'मैं तो बीस की उम्र में ब्याही गई और ब्याह होते ही मुझे गहनों का चस्का लग गया। मायका-ससुराल मिलाकर एक सौ बीस तोला गहने मिले थे। उन्हें बारी-बारी पहनती तो सालों एक गहने को दुबारा पहनने की नौबत नहीं आती। साडि़यां तो इतनी थीं और इतनी खरीदी जाती रहीं कि पति की मौत के बाद जब आलमारी खोल कर गिना तो पाया कि पति की दी डेढ़ सौ साडि़यां तो बिन पहनी ही रह गईं।
मैं चौकन्नी हो गई कि यह वर्णन क्यों? वे मुझ पर अपने पति के धन का प्रभाव डालना चाहती हैं या उनके प्यार का? 'आप याद कर-कर पहनती, सराहती, सहेजती रहीं - मैंने तो विवाह में मिले गहने लाकर में रख दुबारा झांका तक नहीं, साडि़यां गिनने और बारी-बारी पहनने की जहमत कभी नहीं उठाई, उपहार में मिले कॉस्मेटिक्स की एक्सपायरी देख-देख उन्हें फेंकने भर का काम करती रही, कभी लगाया नहीं।‘ मैंने मुस्कुराहट के साथ आक्रमण परोस दिया, पर उन्हें चोट नहीं लगी।
'सजी-धजी स्त्री खुद को भी अच्छी लगती है, दूसरों को भी। उन्होंने बोलना चालू रखा', पर विधवाओं के मामले में परंपरा, मानसिकता, बुरी नजरों से बचने का सवाल वगैरह जटिलता पैदा करने लगते हैं, इसीलिए पति के मरते ही रिश्तेदारों, पड़ोसियों ने मेरा सिंदूर पोंछ दिया, चूडि़यां तोड़ दीं और सफेद कपड़े पहना दिए। मैं भूतनी की तरह पति के आठ कमरों के बंगले में डोलती पुरानी बातें याद करती रहती। बाहर पढ़ने वाले बच्चे आए और यह जता कर चले गए कि पिता की जगह दफ्तर में दी जाने वाली नौकरी वे नहीं लेंगे, मैं चाहूं तो ले लूं! तब जाकर दफ्तर वालों की तरफ से पूछ शुरू हुई। पी.एफ. लेना है, ग्रैच्युटी लेनी है, नौकरी के बारे में तय करना है - आप नॉमिनेशन पेपर निकालें, रिक्वेस्ट दें, यह करें, वह करें.... और मैं खुद को रात के अंधेरे में चौराहे पर अकेली खड़ी महसूस करूं। नॉमिनेशन के पेपर खोलूं तो एन.एस.सी. के सर्टिफिकेट हाथ आएं, पी.एफ. की पासबुक खोजूं तो बैंकों की पासबुक की गड्डियां मिलें... और मैम, मैं तो चकित रह गई। पैसे ही पैसे, निवेश ही निवेश - कहां से आया इतना पैसा? मैंने तो पति के साथ बार-बार विदेश घूमते हुए भी यह जाना ही नहीं कि मैं इतनी धनी हूं। पैसे वे कमाते थे, वे ही सहेजते थे - मैं जब जो मांगती, मिल जाता था। पति कहते, घूमने चलो, मैं तैयार हो जाती। मैं कहती यह खरीदो, वे मान जाते। हम आपसी सामंजस्य वाले पति-पत्नी समझे जाते थे - उनके निधन तक मैं समझती थी कि यही सच है। पर उनके नहीं रहने पर यह लगा कि जिसे आपसी सामंजस्य समझती थी मैं, वह कुछ और था - नौकर और मालिक का रिश्ता, जहां मुंहलगा वफादार नौकर थोड़ी छूट ले लेता है, सलाह दे देता है तो उदार मालिक बुरा नहीं मानता, श्रेष्ठता का बाना ओढ़े उसे कह लेने देता है। नौकर के हाथ पसारने के पहले ही उसकी जरूरत का अंदाजा लगा उसे अतिरिक्त पैसे दे देता है....’
'आप पति के बारे में कुछ ज्यादा ही कठोर नहीं हो रहीं?’ मैंने असुरक्षा सी महसूस करते हुए उन्हें बीच में ही टोक दिया- अपने वैवाहिक जीवन के विश्लेषित से बचती हुई कि कहीं वह भी मालिक और नौकर का रिश्ता मात्र ही सिद्ध नहीं हो जाए।
'हो सकता है मैम कि कठोर हो रही होऊं, पर जब विश्वास टूटता है तो या तो विश्वास तोड़ने वाले पर गुस्सा हावी हो जाता है या आप खुद आत्मदया, कातरता के शिकार हो जाते हैं। आप जरा सोचिए कि एक व्यकित आपको तीस वर्षों तक विश्वास दिलाता रहता है कि वह आपसे कुछ नहीं छुपाता, आपको बहुत प्यार करता है; पर यह बताने की आवश्यकता वह कभी महसूस नहीं करता कि वह हर साल अनाथालयों को कितनी रकम दान में देता है, कि उसने आपके नाम पर कितने ही निवेश कर रखे हैं ('... पर आपके हस्ताक्षर? यह प्रश्न मैं मन में दबा गई। ).. वे बता रही थीं, 'उसकी तनख्वाह और खर्चे की जानकारी आपको है तो उसकी बचत का अनुमान भी आप लगा सकती हैं, फिर बाकी के पैसे कहां से आए... और आपको बताया क्यों नहीं गया? अब तो कल उनकी एक और पत्नी कहीं से निकल आए तो भी अविश्वास नहीं करूं! मैं चाहती तो इन तथ्यों को एक प्लेजंट सरप्राइज के रूप में ले सकती थी और खुश हो सकती थी कि पति मेरे लिए इतना सब कर गए हैं, पर मुझे तो यह धोखाधड़ी लगी। अपने अंदर उफनता- उमड़ता गुस्सा अपने साथ-साथ दूसरों को भी लीलने लगा। खुद पर गुस्सा इसलिए आया कि मैं भी एक औसत - नितांत औसत - पारंपरिक पत्नी की तरह, पति के इशारों पर, उसके इच्छानुसार जीवन जीने वाली महिला ही सिद्ध हुई। बिना तर्क किए पति के लिए सिंदूर लगाने, व्रत करने वाली... वह बैल जिसने पति नामक धुरी के चारों ओर घूमने के अलावा का जीवन जाना ही नहीं। पति ने कहा, मैंने माना; पति ने प्यार दिया, मैंने ले लिया; जब मेरी इच्छा होने पर उसने नहीं दिया तो मन मार लिया - वह भी कोई जीवन था? मैंने सोच-विचार कर तय किया - अब अपने लिए जिऊंगी, अपने तरीके से। एक दिन सुबह की सैर पर जाते वक्त कपड़े बदलने को मैंने आलमारी खोली तो फीकी के बदले चमकदार साड़ी डाल ली। उस दिन पड़ोसियों से नजरें मिलाने में मैं जाने क्यों घबरा रही थी, पर धीरे-धीरे आदत पड़ गई। सिंदूर नहीं लगाया, शायद परंपरा के थोड़े अंश अंदर जीवित बच रहे हों - पर बाकी सारे श्रृंगार करने लगी। खुद को ऐसा ही अच्छा लगता था, इसीलिए। बड़े मकान में ही रहती रही - अपना मन क्यों मारती! जितने नौकर-चाकर काम करते थे किसी को नहीं हटाया - कहां जाते बिचारे!! पड़ोसियों, रिश्तेदारों ने कानाफूसी की, भाषण दिए, समझाया। मैं मन-ही-मन खूब हंसती - जाने क्यों मुझे लगता रहा कि उन्हें शक है कि मेरी साज-सज्जा, ठाट-बाट किसी दूसरे पुरुष की प्राप्ति की इच्छा से हैं! वे खिलखिला रही थीं, मैं मजे लेती हुई भी अंदर ज्यादा, और ज्यादा असुरक्षित होती जा रही थी। कहीं किसी ने मन के अंदर के उस दरवाजे को दस्तक देकर खोल दिया था जिसे बरसों से बंद किए बैठी थी।
एक ही कमरे में मेज के इस और उस तरफ दो परस्पर विपरीत महिलाएं बैठी थीं। मैंने सधवाओं की साज-सज्जा और विधवाओं की सादगी की सामाजिक मान्यता का विरोध करने की खातिर, जो स्त्री को मात्र आकर्षण और भोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करता है, विवाहिता होते हुए भी साज-सज्जा और विवाह चिह्न विहीन रहना चुना था... उन्होंने विधवा होते हुए भी सारे श्रृंगार करना।
स्त्री-पुरुष समानता के हामी हम पति-पत्नी, नौकरी करते हुए, बराबरी के स्तर पर दोस्तों की तरह जीने की हरसंभव कोशिश करते थे। पर कहीं कुछ तो था पति-पत्नी की तरह हम जी ही नहीं पाते थे। हमारे बीच 'वह कुछ’ पनप ही नहीं पाया था जो एक-दूसरे को शिद्दत से चाहने या घृणा करने के लिए चाहिए होता है। यह कैसा जीवन था कि हम एक-दूसरे को कुछ दे ही नहीं पाते थे - न शरीर, न भावनाएं, न उपहार; न थोड़ा-सा वक्त, थोड़ी हंसी, थोड़ी गप, थोड़ा प्यार!!
मिसेज राय के जीवन में सबकुछ भरा-पूरा था - उनकी मांग और बिस्तर को छोड़ कर! पर मेरा? मेरे जीवन में तो अलग-अलग कारणों से सबकुछ सूना था - मांग भी, शरीर भी, मन भी, बिस्तर भी!!
और सहसा एक अहसास ने मुझे जड़ बना दिया। कमरे में मेज के इस और उस ओर दो परस्पर विपरीत महिलाएं नहीं बैठी थीं - दोनों ही तरफ विधवाएं बैठी हुई थीं।
(जनसत्ता, दिल्ली में फरवरी 2001 में प्रकाशित।)