लिपस्टिक Neela Prasad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लिपस्टिक

लिपस्टिक

  • नीला प्रसाद
  • ये कहां आ गई मैं!

    सबकुछ नया। शहर, दफ्तर, वातावरण, पति और इस चार्टर्ड बस में बैठने का अनुभव भी। अदिति रोमांचित है। ऊंची-ऊंची इमारतें और वाहनों की लंबी कतारें, बस की तेज रफ्तार और अंदर बिल्कुल चुपचाप बैठे लोग - ये सब अदिति के अंदर कुछ पलों के लिए खौफ पैदा करते हैं। रोमांच और खौफ, खौफ और रोमांच। अदिति बस में बैठी-बैठी अपनी बढ़ी हुई धड़कनें महसूसती, मानो लहरों में डूब-उतरा रही है। वह पहले ही दिन नए दफ्तर में लेट होना नहीं चाहती। पर बाहर दीखतीं इमारतें अनचीन्ही हैं, इसीलिए उसे अंदाजा नहीं कि दफ्तर कितनी दूर है। वह तो अपने दफ्तर की इमारत भी नहीं पहचानती। यह बस जब उसके दफ्तर पहुंचेगी तब बस में बैठे एक सज्जन उसे इशारा कर देंगे और वह उतर जायेगी।

    एक बड़ा झटका - ड्राइवर ने ब्रेक लगाया और सवारियां अपनी-अपनी सीटों से खड़ी होकर बाहर झांकने, एक-दूसरे से कुछ कहने लगीं कि अचानक अदिति का ध्यान गया - बस में बैठी जिस भी महिला पर नजर डालो, वही सजी-धजी लिपस्टिक पुती थी। यहां की महिलाएं कितनी सुंदर, कितनी प्रेजेंटेबल हैं- उसने सोचा और अचानक ही सजग हो आई कि उसने न तो कोई मेकअप किया है, न ही लिपस्टिक लगाई है। हल्की क्रीम जो चेहरे पर थी, अबतक पसीने से धुल चुकी थी - हां, बिंदी जरूर मौजूद थी। उसे कुछ अटपटा-सा लगा जो दफ्तर पहुंच कर और भी बढ़ गया। वहां भी सभी महिलाएं क्रीम-पाउडर से लिपी-पुती, लिपस्टिक भरे होठों से मुस्कान बिखेरती घूम रही थीं।

    'आप कहां से आए हो? अच्छा-अच्छा , बिहार से। हां, हमने तो देखते ही समझ लिया था। अच्छा चलो, अब तो रोज ही मिला करेंगे।’ इस लहजे ने अदिति को छीला, क्योंकि वह उन सबों से ऊंचे पद पर थी।

    'कल को ये सभी मुझे रिपोर्ट करेंगी, पर हेंकड़ी देखो’, उसने घर आकर पति से शिकायत की। ''धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा,’ पति ने दिलासा दिया।

    ‘क्या ठीक हो जायेगा - उनका रवैया या मेरे महसूसने, रिऐक्ट करने का तरीका?’ उसने मन में प्रश्न किया।

    दिन गुजरने लगे। कटे बाल, सिल्क की साड़ी, और लगभग मेकअप विहीन चेहरे पर बड़ी-सी बिंदी - अदिति अपनी उसी पुरानी धज में दफ्तर पहुंचती जैसे पिछले शहर में पहुंचती और प्रशंसित होती थी। पर यहां दफ्तर में रोज सुनना आहत करता था कि यहां के लोगों की नजरों में बिहारी लड़कियां कैसी ठेठ देहाती, बेवकूफ और उपहास-घृणा की पात्र समझी जाती हैं। अलग साज-सज्जा और बोलीबानी के कारण। इस कारण कि बिहार शिक्षा और राजनीति के कीचड़ के लिए बदनाम है। उसी कीचड़ में खिले कमलों से राजधानी के बड़े-बड़े दफ्तर, मंत्रालय, प्रशासन, पुलिस विभाग शोभित हों, यह राजधानी वाले पचा नहीं पाते। निरंतर गालियां देते और प्रताड़ित करते रहते हैं - बिना किसी तर्क, बिना किसी योग्यता के। अदिति सोचती और कुंठित होती रहती। महिलाओं की बातें और उनके लाल-गुलाबी-फिरोजी-काले होंठ उसे जैसे चुनौती देते रहते... और वह सहम जाती कि इनके बीच जिंदगी कैसे कटेगी।

    लिपस्टिक पुती महिलाओं के शहर में।

    आश्चर्य कि अब साज-सज्जा उसे खींचने और आकर्षित करने लगी है। कभी उसे लगता है कि क्यों न वह भी सज कर देखे कि वह कैसी लगती है - आसपास बिखरी महिलाओं से कम, या ज्यादा आकर्षक! वह बस में बैठी अनुमान लगाती रहती कि अमुक-अमुक महिला ने लिपस्टिक नहीं लगाई होती तो कैसी लगती और लिपस्टिक लगाकर वह खुद, क्या उनसे ज्यादा आकर्षक नहीं लगेगी? क्रीम पाउडर ज्यादा थोपना अच्छा नहीं लगेगा - उसका मन सीधे विद्रोह करता। पर लिपस्टिक? हां, वह तो लगाई जा सकती है ,क्योंकि उसने पहले भी लगाई है - कभी-कभार। पर वह अपनी सादगी, अपना अनूठापन क्यों छोड़े? क्या सुंदर लगना इतना जरूरी है? वह तर्क करती तो कोई जवाब नहीं मिलता।

    'क्या बताऊं, यहां आकर कितनी बुरी फंस गई हूं नमिता! उसने पुराने शहर की अपनी मित्र को पत्र लिखा, 'यह तो सजी-धजी, लिपस्टिक पुती महिलाओं का शहर है। यहां की महिलाएं और कोई सज्जा करें, न करें, लिपस्टिक जरूर लगाती हैं। वैसे तो वे क्रीम-पाउडर, आई लाइनर ओर नकली गहनों से लदी-फंदी ही नजर आती हैं पर इनमें से कुछ कभी छूट भी जाए, लिपस्टिक नहीं छूटती। कॉलेज जाने वाली किशोरी बालाओं से लेकर युवा, मध्यवय, यहां तक कि प्रौढ़ाएं भी लिपस्टिक वायरस से ग्रस्त हैं। लिपस्टिक लगाए बिना कोई घर से निकल कैसे सकता है? - वे आश्चर्य प्रकट करती हैं। वैसे लिपस्टिक महानगरीय जीवन का जरूरी हिस्सा नहीं है, यह दूसरे महानगरों के उदाहरण से स्पष्ट है। यह खासमखास दिल्ली का चलन है। बिहारी यहां कितने अलोकप्रिय हैं, यह तो तुम जानती ही हो। वे कहते हैं कि दिल्ली की एक-तिहाई जनसंख्या बिहारी है और उन्हीं ने दिल्ली को भ्रष्ट कर रखा है। जहां बातें तर्क से परे, काल्पनिक आंकड़ों, निश्कर्षों पर आधारित हों, वहां बहस निरर्थक है।

    मैं कोई रंग हूं कि पानी!

    'नमिता, कुछ लोग पानी जैसे होते है, उनका अपना कोई रंग नहीं होता। जिस रंग में डाल दो, वैसे ही हो लिए। रंग को खुद में मिलाकर थोड़ा हल्का या चमकदार कर लिया। वे जहां जाते हैं, वहीं के भाषाई और सांस्कृतिक रंग में, वेशभूशा और ढंग में रम जाते हैं; और दूसरे वे होते हैं जो जहां कहीं भी जाते हैं, अपनी खास पहचान और अपना अलग रंग लिए घूमते हैं... कि तुम्हें हमारे जैसा होना हो तो हो जाओ, हम तुम्हारे रंग में नहीं रंगेंगे। मैं सोचती रहती हूं कि मैं रंग हूं या पानी?

    'एक दिन मैंने गुस्से में दफ्तर में कह दिया था, राजधानी के सरकारी दफ्तरों की महिलाओं के पास है ही क्या, सजाए-संवारे चेहरे के सिवा?.. तो खासकर महिलाओं के समूह में हलचल मच गई। मेरे विरुद्ध बयानों का तांता लग गया। घृणा, व्यंग्य और द्वेष से सुसजिजत वाक्य बोले जाने लगे। सारे तीर झेलती, विश्लेषित करती, घायल होती मैं परेषान हुई; साथ ही चकित भी कि मैं ही सही थी - दिल्ली के सरकारी दफ्तरों की महिलाओं के पास और है ही क्या, सजाए-संवारे चेहरे के सिवा? जहां उपभोक्ता संस्कृति का असर जितना ज्यादा है - रंग, रूप का महत्व उतना ही गहरा। इस छटपटाहट से निकलने का कोई ठोस उपाय नमिता?’

    मैं कटा हुआ कुंदा हूं?

    अदिति के साथ छोटे-मोटे हादसे होते रहते। चर्चा करने पर दफ्तर और पड़ोस की महिलाएं उसे बतातीं कि दरअसल वह पहली नजर में ही 'बाहर की’ लग जाती है इसीलिए ऑटोवालों द्वारा ठग ली जाती और डी.टी.सी. बसों में जेबकतरों द्वारा लूट ली जाती है। अदिति को सहमत होना पड़ता। अभी हाल में ही तो बस स्टाप पर एक महिला ने पूछा था, 'आप पूरब की हो?’ 'हां, पर आपने कैसे जाना?’ अदिति ने प्रतिप्रश्न किया तो महिला ने पूरे आत्मविश्वास से कहा, 'आपकी साड़ी, काजल, बिंदी से... और लिपस्टिक नहीं लगाने से। उसके आत्मविश्वास के समक्ष अदिति का अपना आत्मविश्वास हिलने लगा। पिछले शहर के दफ्तर में सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा, सादगी और परिधानों के कारण उसकी अलग पहचान थी। वह स्मार्ट और इंटेलिजेंट कही जाती थी और इतने में उसे संतोष था। लिपस्टिक वह विशेष अवसरों पर ही लगाती थी; पर जब भी लगाती थी - सब कहते थे कि सुंदर लगती है। वहां भीड़ का हिस्सा न होने का संतोष था, यहां भीड़ का हिस्सा बनने की छटपटाहट! वहां अलग होने के कारण विशिष्ट थी, यहां अलग होने के कारण हीन। नहीं, हीन थी नहीं, न ही खुद को ऐसा समझती थी पर अक्सर उसे ऐसा अहसास दिलाने की कोशिश होती रहती थी।

    लगाऊं कि न लगाऊं?

    सुबह आठ पच्चीस का समय। अदिति पांच मिनट का काक-स्नान करके, मजबूरी में दो दिन पहना सूट तीसरे दिन पहन, आईने के सामने खड़ी, दाहिने हाथ से चेहरे पर क्रीम की हल्की परत थोपती, बाएं हाथ से लिपस्टिक ढ़ूंढ रही थी। लगाऊं या नहीं? उसके मन में द्वंद्व चल ही रहा था कि पीछे संकल्प आकर खड़े हो गए और चुटकी लेते हुए बोले - 'लिपस्टिक लगाओगी? खून पिए, खून रंगे होंठ?!’ पति के मजाक ने अदिति की दुविधा और बढ़ा दी। वह लिपस्टिक पर्स में फेंक साढ़े आठ की बस पकड़ने लपकी। बस में बैठकर उसने सोचा कि सज्जा यदि पति की प्रसन्नता के लिए है तो लिपस्टिक नहीं लगाकर मैंने ठीक ही किया।

    आज तो तुम बड़ी अच्छी लग रही हो!

    उस दिन गर्मी कम थी। आसमान में बादलों के टुकड़े थे - रेगिस्तान में पानी का भ्रम? अदिति ने सूखे होंठों को वेसलीन खिलाई। फिर उन्हें लिपस्टिक का हल्का, मीठा-सा स्वाद दे दिया। उसका सांवला चेहरा, फीकी गुलाबी साड़ी, वैसे ही ब्लाउज और एकदम वैसे ही होंठों में खिल उठा। यह ठीक है - उसने आईने में खुद को देख दाद दी। मैंने इतनी गहरी लिपस्टिक भी नहीं लगाई कि अलग से दिखे, मुझे भीड़ का हिस्सा बनाए और न ही गुलाबी साड़ी के संग होंठों को फिरोजी छोड़ा। 'संकल्प देखना, मैं कैसी लग रही हूं?’ उसने पति की राय जाननी चाही। 'तुम तो रोज ही अच्छी लगती हो,’ संकल्प ने उसे देखे बिना ही चलता करना चाहा। 'चलो बनाओ मत, इधर आओ।‘ उसने पति को पुकारा। 'क्या मैंने तुम्हारा चेहरा देखकर तुमसे शादी की थी? क्या सुंदर चेहरे वाली मूर्खाओं की यहां कमी थी जो उतनी दूर से तुम्हें ब्याह लाया! मैंने तुमसे शादी की है, इसके लिए’ - संकल्प ने भेजे की ओर इशारा किया। 'ठीक है, ठीक है, पर देखो तो सही, नई साड़ी में मैं कैसी लग रही हूं?’ अदिति अधीर होने लगी। संकल्प कुछ फुट दूर खड़े हो गए और सोचते हुए बोले - 'रोज से ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं लग रही, पर कुछ अलग लग रही हो – नॉट बैड! आज तुम कुछ ज्यादा प्यारी-सी लग रही हो। बताओ न, रोज से क्या अलग है आज?’ 'नहीं बताऊंगी।‘ अदिति खुश होती हुई बस पकड़ने को लपकी।

    क्या जरूरी है हमेशा पति की पसंद से सजना!

    बस में बैठकर अदिति ने सोचा कि विवाह में जरूरी थोड़े है कि पति की इच्छा के लिए अपना पूरा व्यक्तित्व ही छोड़ दिया जाय! सजें तो उसके लिए, खाएं-पहनें-जिएं तो उसी के लिए!! आधुनिक विवाह दो व्यक्तियों का समाहन नहीं , बल्कि दो व्यकितत्वों का सुंदर साथ है। एक-दूसरे के साथ खिलते, विकसित होते रहने का नाम है। तो दोनों पक्षों को पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे अपनी मर्जी से सजें-संवरें।

    वाह, क्या बात है!

    अदिति हवा में उड़ती हुई दफ्तर पहुंची और जैसी कि उम्मीद थी, पहुंचते ही प्रशंसात्मक वाक्यों से घिर गई। 'आज तो बहुत जम रहे हो। 'क्या साड़ी है! 'लिपस्टिक आप पर बहुत फबती है। हमें क्या पता था कि लिपस्टिक लगाकर आप इतने अच्छे लगोगे...’ 'रोज लगाया करो न!’ यह सब अनुमान से बहुत ज्यादा था - खासकर लोगों की नजर में लिपस्टिक का उस पर इस कदर फबना, खासकर लिपस्टिक लगाए अदिति का इस तरह लोगों के आकर्षण का बिंदु बनना... खासकर यह अहसास कि लिपस्टिक एक जादू है जो उसके पूरे व्यक्तित्व को इस कदर उभारकर लोगों पर चस्पां कर सकता है।

    हम तुम्हें अपने रंग में रंग डालेंगे!

    अब अदिति लिपस्टिक लगाकर जाने लगी। दिन अच्छे गुजरने लगे। सज्जा और वेशभूषा को लेकर अदिति के मन में पल रही कुंठाएं गल गईं। दफ्तर की महिलाओं ने उससे दोस्ती कर ली। कपड़ों, साज-सज्जा, खरीदारी वगैरह पर सलाह मिलने और दी जाने लगी। सही ब्रांड और शेड्स के चक्कर में अदिति को अन्य महिलाओं से उपहार भी मिले। अब वह बिहारी से दिल्लीवाली में परिवर्तित होती जा रही थी - सर से पांव तक। होटलों, पार्टियों, प्रोग्रामों में वह नए लोगों से मिलती तो लोग कहते, 'अरे, आप बिहार की हो? लगती तो खासमखास दिल्ली वाली हो।‘ अदिति खुश हो जाती, मानो उसने बड़ी सफाई से लोगों को बेवकूफ बनाया हो और पकड़ी न गई हो।

    धारा में बहने का सुख

    एक दिन उसने पति से कहा, 'संकल्प, 'जैसा देस, वैसा भेस’ का मर्म अब मुझे समझ में आने लगा है। लोगों के बीच उन जैसा ही बनकर रहने की एक अलग सुविधा होती है, एक अलग ही सुख। आप उन जैसे नहीं होते हैं तो हर वक्त कसौटी पर कसे जाते रहते हैं और आपकी छोटी-से-छोटी बात बढ़ा- चढ़ाकर देखी-सुनी जाती है। आप उन जैसे ही होते हैं तो कोई अलग से आप पर ध्यान नहीं देता और आप इतनी सुविधाजनक स्थिति में होते हैं कि आसानी से अपना काम निकलवा लेते हैं। तभी हमारे मैनेजमेंट की पढ़ाई में अपीयरेंस और ऐक्सेप्टेबल पर्सनैलिटी को इतना महत्व दिया जाता है। संकल्प ने उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा और कुछ कहता-कहता रुक गया। अदिति संभ्रम में पड़ गई। इस पति-पत्नी के रिश्ते में देह तक पहुंच की यात्रा जितनी ही सहज होती है, मन तक की उतनी ही कठिन। और संकल्प तो वैसे भी खासमखास महानगर में जन्मे, पले-बढ़े, महानगरीय संस्कृति के प्रॉडक्ट हैं। उनके व्यकितत्व में महानगरीय व्यावहारिकता और रहस्य है, अदिति के व्यक्तित्व में कस्बाई खरापन, खट्टा-मीठा खुलापन। अदिति तीता-मीठा मुंह पर बोलती है। संकल्प अप्रिय सत्य पत्नी तक से मुंह पर नहीं बोलते, चुप लगा जाते हैं।

    आप तो बड़ी इंटेलिजेंट हैं!

    अदिति ने दफ्तर में छोटा-सा भाषण दिया। बिना पूर्व तैयारी के भी वह अच्छा बोल गई। 'अपने विषय की थोड़ी जानकारी का उत्कृष्ट उपयोग किया।‘ उसने पति को बताया। पति खुश होते हुए बोले, 'तुम आखिर तुम हो।‘ 'हां; मैं, मैं ही हूं - वही अदिति जो पिछले शहर में प्रबंधन संस्थाओं की जान हुआ करती थी।‘ अदिति ने रौ में आकर कहा। 'देखा , छोटे तालाब की बड़ी मछली समुद्र में आकर भी एकदम से खो थोड़े जाती है!’ कहते हुए पति ने उसे चूम लिया।

    सफलता एक नशा है।

    दिल्ली आए हुए बरस बीत गया। अदिति अब दिनोंदिन ज्यादा व्यस्त होती जा रही थी - घर, बाहर और दफ्तर की दुनिया में। समय का जैसे पता ही नहीं चलता। जिंदगी घड़ी के कांटों के हिसाब से जी जाती है - यहां तक कि पति-पत्नी छेड़छाड़, प्यार भी करते हैं तो घड़ी के कांटों की सीमा में! नहीं तो अगले दिन का पूरा रूटीन गड़बड़ा जाता है। प्रबंधन और दफ्तर की दुनिया में अदिति को लोग पहचानने, मानने लगे हैं। अदिति व्यस्त है - बहुत ही व्यस्त... और यह व्यस्तता, अपने-आप में एक नशा है। वह इस नशे की गिरफ्त में है।

    कौन हूं मैं?

    बिहारियों ने अपनी मजलिस में अदिति को बुलाया है। हर बिहारी की तरह वह भी साहित्यिक रुझान की है - इसीलिए। संकल्प बिहारी नहीं होते हुए भी निमंत्रित हैं - प्रखर आलोचक और अदिति के पति हैं, इसीलिए। अदिति साड़ी पहनकर फुर्सत से तैयार होने बैठी। क्रीम, बिंदी, काजल - हां, उसे पता है, काजल लगी उसकी आंखें बहुत मोहक लगती हैं - पर लिपस्टिक पकड़ते उसके हाथ रुक गए। उन्हीं पुराने लोगों के बीच तो जा रही हूं, जिन्होंने मुझे पचासों बार देखा है - बिना मेकअप, साड़ी, सूट या जीन्स में - सिर्फ बड़ी-सी बिंदी लगाए हुए। यहां लिपस्टिक लगाकर जाऊंगी तो सब कहेंगे, (कि हंसेंगे?) कि देखो कैसे दिल्लीवाली बनने की कोशिश कर रही है! पर क्या यह सच नहीं है कि मैं दिल्लीवाली बनने की कोशिश कर रही हूं? अरे! यह क्या कर रही हूं मैं? धोबी का कुत्ता बनती जा रही हूं - न घर की, न घाट की। अदिति का मन सिरे से बुझ गया। वह गई तो, पर मन खोया-खोया ही रहा।

    हां, मैं घुलनशील नहीं;मैं, मैं हूं।

    अगला दिन। सुबह का हड़बड़ी भरा दफ्तर की तैयारी का समय। फीका, मरा, बुझा-सा लगना। यह अहसास कि अभी तो वह दिल्लीवालों के बीच जा रही है, बिहारियों के बीच नहीं। द्वंद्व। बार-बार लिपस्टिक उठाकर रखते हाथ और अंतत: लिपस्टिक को वहीं छोड़, अदिति का उठ खड़ी होना। पर यह निर्णय प्रक्रिया इतनी छोटी थी नहीं, जितनी छह वाक्यों के इस लघु वर्णन में प्रतीत हुई। पति नामक प्राणी जो अदिति के अपने अंदर की यात्रा पूरी कर निर्णय ले चुकने के दौरान, उसी कमरे में उपस्थित था, सबकुछ से अनभिज्ञ रहा - भले ही वह कहता रहता था कि वह अदिति को इतना प्यार करता है कि उसे पढ़ सकता है। प्यार यदि एकात्मता है भी तो भावों के उतार-चढ़ाव को नापने का थर्मामीटर कतई नहीं!

    वही चार्टर्ड बस। वही विंडो सीट। वही कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड और धूलकणों से लदी हवा की सांसें। वही गर्मी से पसीने-पसीने हो रहे पुरुषों, महिलाओं का एक-एक कर चढ़ना। वही अंतर्वस्त्रों की प्रदर्शनी दिखाती, मेंहदी से लाल हो गए बालों वाली महिलाएं, वही गालों पर क्रीम-पाउडर की परत को चीरती पसीने की धार। अदिति को सबकुछ बहुत ही अरुचिकर लगा। अब वे अपने वातानुकूलित दफ्तरों में घुसते ही हाजिरी लगाकर सीधे बाथरूम में घुसेंगी और हाथ-मुंह पोंछकर, क्रीम-पाउडर, लिपस्टिक की नई परत चढ़ा, अपनी-अपनी सीटों पर विराजेंगी - तब ये झेली जा सकने लायक या सचमुच सुंदर लगने लगेंगी - अपने फूल आए पेट और झूल आए गालों के बावजूद। नहीं, भाषा की भूलों, सामान्य ज्ञान की कमियों और साहित्यिक, सांस्कृतिक अज्ञान के बावजूद। नहीं, राजनैतिक खबरों के आब्सेशन या फिल्मी बातों की बहुतायत और अंध धार्मिकता के बावजूद। नहीं... और बस के पूरे सफर के दौरान अदिति के दिमाग की चक्की चलती रही। दफ्तर में दुर्भाग्य से कोई एक व्यक्ति भी नहीं था जो सामाजिक बदलाव की जरूरत को सैद्धांतिक स्वीकृति मात्र भी देता हो; जो ईश्वर के अस्तित्व को सवालिया निगाहों से देखते डरता न हो - अरे! इन सब बातों की ओर मेरा ध्यान अब तक गया क्यों नहीं था? उसका मन उत्साह से घिर आया।

    'आप बीमार हो क्या?’, दफ्तर में घुसते ही एक पुरुष सहकर्मी और महिला मित्र ने लगभग एकसाथ पूछा। 'नहीं तो! कहती अदिति चकित हो गई कि क्या अंदर भरा उत्साह उसके सांवले चेहरे पर थोड़ी आभा भी नहीं बिखेर पाया था? फिर वह क्षण भर रुककर बोली 'हां, हो गई थी बीमार, दिल्ली आकर थोड़े अरसे। अब मैं बिल्कुल ठीक हूं।‘

    नहीं, उसे आशा थी ही नहीं कि कोई निहितार्थ समझ सकेगा।

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    (जनसत्ता, दिल्ली में नवंबर 2001 में प्रकाशित )

    नीला प्रसाद