जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
33. मैं क्वीना से मिलना चाहता हूं...
मैं अवाक् उसकी तरफ देख रहा था। उसकी आंखें मुझ पर टिकी हुई थीं, जैसे वह पूरी दृढ़ता के साथ अपनी जिंदगी के उस काले अध्याय को स्वीकारने का सामर्थ्य जुटा रहा हो। मैंने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह और भी फूट पड़ा।
‘‘बहुत छोटा था तब मैं, जब मां मुझे डे-बोर्डिंग में छोड़ जाती थी...’’ वह बताने लगा, ‘‘मेरी मां उस जमाने में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाने जाती थी।’’
उसने अंदाजे से बताया कि यह कोई तीस साल पुरानी बात होगी, तब वह लगभग नौ-दस साल का रहा होगा।
डे-बोर्डिंग की देविका मैम, अकसर उसके धूलभरे पैरों को साफ करने के बहाने उसे बाथरूम में ले जाती और फिर कपड़े गीले हो जाने का हवाला देकर उसके सारे कपड़े उतार देती और जहां-तहां रगड़-रगड़कर उसे नहलाया करती। मधुकर की आपत्ति पर वह उसे सहज करते हुए अपने भी कपड़े उतार देती और उसे अपनी गोद में बिठाकर उसके हाथों से अपने प्राइवेट पार्ट्स धुलवाया करती।
‘‘मैं इतना छोटा भी न था, मुझे उसकी हरकतों से बहुत चिढ़ होती, मगर मैं मां को कुछ कह नहीं पाया कभी।’’ मधुकर की आवाज में पछतावा था।
उसने कबूल किया कि शुरू में तो वह खुद में भी स्पष्ट नहीं था कि इस सबमें क्या गड़बड़ है और जब तक वह यह सब समझने लायक हुआ तब तक और भी बहुत कुछ समझने लगा था।
‘‘मेरी मां भी उसी की तरह एक सिंगल लेडी थी। किसी भी औरत के बारे में ऐसी कोई बात, मां को अलग तरह से चुभ सकती थी, इतना मनोविज्ञान तो मैं भी समझने लगा था। आखिर मनोचिकित्सक का बेटा जो था!’’ उसकी आंखों में नमी थी।
उसने जोर देकर कहा कि उसकी मां का काम पर जाना जरूरी था वरना उसकी परवरिश कैसे होती, घर का खर्च कैसे चलता। लिहाजा, वह मां की इस निश्चिंतता को तोड़ने का साहस कभी नहीं कर पाया कि बेटा अच्छे स्कूल के बाद वहीं बोर्डिंग में सुरक्षित रह कर पढ़ाई कर रहा है।
‘‘ये लोग जिगोलो की बात करते हैं?’’ डॉक्टर की आवाज में तैश आ गया था, ‘‘जिगोलो का कसूर तो बस इतना ही है न कि वे इसके बदले में पैसे या तोहफे लेते हैं, मगर शोषण तो उनका भी होता ही है। सिर्फ कीमत वसूल लेने से शोषण को शोषण न माना जाए, यह तो कोई वजह नहीं हुई...’’
मैं डॉक्टर की बातों को हैरानी से सुन रहा था। वह कह रहा था कि चाहे लड़की हो या लड़का, दोनों के शारीरिक और हॉर्मोनल परिवर्तन उसके भीतर एक तरह की निजता और गोपनीयता की मांग करते हैं।
‘‘इस गोपनीयता के असमय और भावात्मक लगाव के बिना भंग होने को मैं शोषण मानता हूं और इस नाते मैं लड़के और लड़की के शोषण को अलग-अलग नहीं देखता। सिर्फ इसलिए कि लड़के गर्भ-धारण नहीं करते, तो क्या उनकी यौन-शुचिता का कोई अर्थ नहीं होता?’’ डॉक्टर सवाल-पर-सवाल किए जा रहा था।
‘‘मुझसे यह सब शेयर करने की वजह? मैं भी तो तुम्हारे केस का एक हिस्सा ही हूं न?’’ थोड़ी उधेड़बुन के साथ मैं पूछ बैठा।
‘‘साइकाइटरिस्ट हूं, पहले ही दिन तुम्हारी सच्चाई भांप गया था,’’ डॉक्टर ने बड़े इतमीनान से बताया, ‘‘असमय मृत्यु से तड़पती आत्मा जिस तरह किसी सच्चे शरीर की तलाश करती है, उसी तरह मेरे भी मर चुके शरीर की आत्मा किसी सच्चे मानव को देखकर स्मृतियों की कैद से आजाद होने को छटपटाने लगी... और कब तक ढोता मैं इस पीड़ा को अपने ही भीतर?’’
डॉक्टर ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘तीस साल से टीस रहे जख्म का मवाद आज बह निकला है... मैं बहुत हलका महसूस कर रहा हूं, देवेन।’’
अचानक मैंने महसूस किया कि मैं त्रिपाठी नहीं, देवेन हूं। त्रिपाठी तो दफ्तर में काम करने वाले एक यंत्र का नाम है। त्रिपाठी तो मेरे परिवार के सभी लोग हैं, त्रिपाठी तो मेरे समुदाय का पहचान चिह्न है... मैं अपने स्कूल के दिनों में जा पहुंचा हूं जब मेरी कोई पहचान नहीं थी, तब इसी नाम से पहचानते थे लोग मुझे। मधुकर के इस संबोधन ने उस पात्र को जीवित कर दिया जो आज एक वर्किंग डिवाइस बनकर रह गया है। सिर्फ एक नाम ही तो है जिसके पुकारे जाने से कितनी हलचल हो उठी है। मधुकर अचानक ही मेरे कितने करीब आ गया है, कितना आत्मीय हो उठा है...
मैंने मधुकर का हाथ अपने हाथों में ले लिया और संवेदना से सिक्त इस पल को तहे दिल से स्वीकार किया।
दफ्तर का कामकाज धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने लगा है। फाइलें निकालकर मैं आने वाले ट्रेनिंग कार्यक्रमों की सूचनाएं विभागों में भेज रहा हूं ताकि प्रशिक्षार्थियों के नामांकन हासिल हो सकें। हाथ काम कर रहे हैं मगर जहन में दो दिन पहले मधुकर से हुई मुलाकात हावी है। उस रोज का एक-एक पल, मन में चलचित्र-सा घूम रहा है।
मधुकर ने कहा था कि मन पर पड़ा किसी तरह का दबाव, व्यक्ति के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर देता है। मैं महसूस करना चाह रहा हूं कि उस रोज की मुलाकात के बाद से मधुकर का मन कितना हलका हो गया होगा। वह कितना खुला-खुला और उन्मुक्त अनुभव करता होगा... उसके भीतर का आह्लाद मेरे आह्लाद को द्विगुणित कर रहा है। मैं उस कुदरत का बार-बार आभार व्यक्त कर रहा हूं जिसने मुझे मधुकर के मन की फांस निकालने का माध्यम बनाया... मैं अचानक कितना अहम और मूल्यवान हो उठा हूं...
सोचता हूं, जिंदगी कितने अलग-अलग रूपों में मुझ से मिल रही है। उसका हर चेहरा पिछले चेहरे से कितना जुदा है। अब से पहले मैं खुद को घर-दफ्तर दोनों जगह बेहद उपेक्षित और कुछ हद तक नाकारा भी महसूस करता था। मगर जहां अभिषेक ने मुझे अपना प्रेरणा-स्त्रोत कह कर मुझे महत्वपूर्ण बना दिया वहीं मधुकर ने खुद को व्यक्त करने के लिए मुझे सुपात्र बता कर मेरी सच्चाई को रेखांकित किया।
मुझे हमेशा लगता रहा कि विनीता मुझ से संतुष्ट नहीं मगर उस रात उसने मुझ में जो भरोसा व्यक्त किया, वह मेरे प्रति उसकी आत्मीयता का एक रूप नहीं तो और क्या था? कैसे कहते हैं लोग कि पति-पत्नी एक समय बाद एक-दूसरे से उकताने लगते हैं। उकताना तो दूर, मैं तो इतने वर्षों में भी विनीता को ठीक से जान नहीं पाया था! जिसे मैं उसकी जिद समझता रहा, वह उसकी दृढ़ता थी, उसके जिस अधिकार भाव को मैं अनधिकृत समझता रहा, वह उसके व्यक्तित्व की विराटता थी... ये मेरी ही दृष्टिहीनता थी कि मैं अब तक उसकी भव्यता के दर्शन नहीं कर पाया।
आश्चर्य! कि अब जब चश्मे का नंबर बढ़ रहा है, नजर कमजोर हो रही है, तब मेरे भीतर एक नई दृष्टि जन्म ले रही है!
ये बात कुछ बदले हुए ढंग से किसी ने कही थी मुझसे, किसने?
हां, याद आया, यह बात तो क्वीना की डायरी में पढ़ी थी जब समीर ने निकिता के अक्खड़-अड़ियल स्वभाव को उसकी खुद्दारी की तरह परिभाषित किया था। उस रात क्वीना भी कुछ इसी तरह का विश्लेषण करती रही थी कि हम पूरी जिंदगी जी लेने के बाद भी किसी को कितना पहचान पाते हैं। तब उसका भी मन किसी ऐसे प्यार के लिए तड़प उठा था जो उसकी जिद को दृढ़ता की तरह स्वीकार करता, उसके स्वाभिमान को समझ पाता।
क्वीना को याद कर मन मायूस हो गया। सोचने लगा, वह डायरी जो उसने अपनी आत्मकथा लिखने के लिए नोट्स के रूप में तैयार की थी और जो शायद भूल से रद्दी के साथ बिक गई थी, आज वह डायरी कितनी तरह के गफलत पैदा कर रही है। मेरी निगाहों में उस अनदेखी लड़की का मासूम चेहरा आकार लेने लगा जो यौवन की दहलीज पर होने वाले अहसासों को इस डायरी में निहायत खुफिया तरीके से दर्ज कर रही थी ताकि अपनी मुहब्बत को रुसवाइयों से बचा सके। उसे कैसे बताऊं कि ये जांच अधिकारी उस अबोध लड़की के मासूम प्यार और धड़कते अहसासात को कितनी गलत निगाहों से देख रहे हैं, उसके संकोच भरे कोड्स को किस कदर बदनाम करने पर तुले हैं।
मैं अनुभव कर रहा हूं कि जो डायरी मैंने एक कहानी की तरह पढ़ने के लिए उठाई थी और शॉर्ट नोट्स में लिखे जिसके जीवन चक्र को अपनी तरह से गढ़ने लगा था, जिसके ब्लैंक्स मुझे रचनात्मक स्पेस देते रहे, मुझे पता ही नहीं चला कि कब उसके किरदार और वह खुद मेरे इतने निकट आ पहुंची कि मैं उसके प्रति आसक्त होने लगा हूं, उस पर लगाए इलजामों को गलत साबित करने के लिए छटपटाने लगा हूं...
मैं क्वीना की मासूमियत को दागदार होने से बचाना चाहता हूं...
यह मानते हुए भी कि इस डायरी का बहुत-सा हिस्सा मेरी कल्पना ने गढ़ा है, क्वीना भी मेरी कल्पना से रचा गया व्यक्तित्व है, फिर भी, मेरा मन ‘क्यू’ लिख कर हस्ताक्षर करने वाली उस लड़की के असल स्वरूप से मिलने को मचलने लगा जिसका नाम भले ही क्वीना न होकर रानी या मल्लिका होगा मगर उसकी कहानी मेरी गढ़ी कहानी के बहुत करीब होगी।
वह लड़की जिसकी डायरी ने मेरी सोच को नई ऊंचाई दी, जीवन को देखने का अलग नजरिया दिया, मैं उस क्वीना से मिलना चाहता हूं...
वह लड़की जिसने मुझे फेथ परिवार से जोड़ा, मेरे भीतर की आस्था को जाग्रत किया, जिसने मेरी असल विनीता से मुलाकात कराई, मैं उस क्वीना से मिलना चाहता हूं...
मन-ही-मन अपनी कामना दर्ज करता हूं-
इस अनूठी दुनिया को रचने वाले अप्रतिम रचनाकार, मैं भी अपनी रचना से रू-ब-रू होना चाहता हूं, अपनी क्वीना से मिलना चाहता हूं...
‘‘क्वीना से मिलना चाहते हो तो तुरंत चले आओ, गाड़ी भेज दी है।’’
ऐन उसी वक्त मधुकर का फोन आया तो शरीर में झुरझुरी उतर आई। अभिमंत्रित-सा मैं गेट नम्बर दो की तरफ लपका।
पिछले दरवाजे से मुझे अंदर वाले कैबिन में पहुंचा दिया गया था। डॉक्टर ने आंख के इशारे से मेरा स्वागत किया।
(अगले अंक में जारी....)