जी-मेल एक्सप्रेस - 8 Alka Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जी-मेल एक्सप्रेस - 8

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

8. अधिकार और बंदिश के बीच

पूर्णिमा के आने के बाद से सेक्शन में जीवंतता आ गई है। ट्रेनीज भी अधिक आने लगे हैं या कहो, पूर्णिमा अधिक-से-अधिक ट्रेनीज रखने और उन्हें सिखाने के पक्ष में रहती है। अभी भी वह चरित को उसके प्रॉजेक्ट में गाइड कर रही है।

‘‘कोई ऐसा मॉडल तैयार करो कि हमें किसी प्राकृतिक आपदा के आने की पूर्व चेतावनी मिल सके, ताकि टूरिस्ट या यूं कहो कि ह्यूमन लाइफ को नुकसान पहुंचाने वाली किसी भी तरह की दुर्घटना से पहले अलार्म-सा बजने लगे...’’

चरित ऐसे किसी सिस्टम की संभावनाओं के बारे में पूर्णिमा से चर्चा कर रहा है। पूर्णिमा संभावित विकल्प सुझा रही है।

चरित पूर्णिमा की खोज है। उसे लगता है, चरित को किसी ने ठीक से पहचाना ही नहीं और उसकी काबिलियत कबाड़ में पड़ी धूल खाती रही। वह चरित से बहुत आशान्वित है और उसकी क्षमताओं के संवर्धन के लिए उसे नई चुनौतियों से जोड़ने लगी है।

मैं पूर्णिमा की बौद्धिक कुशाग्रता से भी चमत्कृत हूं। चरित तो तकनीकी बैकग्राउंड का ट्रेनी है, मगर पूर्णिमा प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ तकनीकी विषयों पर भी अच्छा दखल रखती है। धमेजा को बेवजह ही पूर्णिमा की प्रशंसा से चिढ़ होती है। उसकी दलील है कि पूर्णिमा क्योंकि क्वालिटी कंट्रोल सेल से यहां आई है, लिहाजा, इतनी तकनीकी जानकारी होना कोई तारीफ की बात नहीं। मुझे ध्यान है कि जब पूर्णिमा यहां पहले रोज आई थी तब उसने कितनी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया था। अब क्या हो गया कि उसकी जायज तारीफ भी गले से नीचे नहीं उतरती? दरअसल, जिस दिन से पूर्णिमा जीएम मैडम को सेक्शन में लाई है उसी दिन से धमेजा को बेचैनी शुरू हो गई है। उसे लगता है जैसे पूर्णिमा ने उसके संरक्षण की आवश्यकता को खारिज कर दिया है और धमेजा की उपस्थिति बेमानी हो गई है।

धमेजा हमेशा ही पूर्णिमा को नीचा दिखाने की कोशिश में लगा रहता है।

‘‘इसका किसी और पुरुष से संबंध था, इसके पति ने इसे रंगे हाथों पकड़ा था, ऐसे में वह इसे अपने घर कैसे रख सकता था?’’

जब वह दफ्तरी कामों में उसकी कमी नहीं निकाल पाता तब वह उसके व्यक्तिगत जीवन की परतें उधेड़ने लगता है, ‘‘वो दूसरा पुरुष और कोई नहीं बल्कि इसका अपना देवर ही था...’’

धमेजा के पास रोज ही पूर्णिमा के बारे में कोई नई जानकारी होती है।

फिर भी, धमेजा की बातों का किसी पर कोई खास असर नहीं पड़ता। और तो और, सोनिया भी ज्यादातर पूर्णिमा के आस-पास ही मंडराती रहती है। हो सकता है, धमेजा की चिढ़ की एक वजह यह भी हो।

अब सारा रौनक मेला पूर्णिमा के कमरे में लगने लगा है। जन्मदिन का जलसा जोर पकड़ चुका है। मैडम का यहां आना या लंच करना अब आम बात हो गई है। धमेजा की उपस्थिति मेरी तरह बड़ी खामोश और मामूली होती जा रही है। वह या तो किसी से फोन पर बात करता दिखता है या फिर अपने कमरे से गायब रहता है।

क्वीना मेरी दुनिया का अभिन्न हिस्सा बनती जा रही है। डायरी बता रही है कि उस रोज उसने पूरा दिन कुणाल के साथ बाहर बिताया है। वे खूब घूमे, महंगे रेस्तरां में खाना खाया, मगर शाम होते-होते क्वीना का मन कुछ बुझ गया। उसे लगने लगा कि कुणाल हमेशा अपनी ही चलाता है।

क्वीना ने ‘के’ के सामने लकीर खींचकर लिखा है-- ‘डॉमिनेटिंग’।

क्वीना का आशय शायद ‘पजेसिव’ यानी अधिकार वाले भाव से है।

यह तो प्यार जताने का एक तरीका है मगर क्वीना का अंदाज शिकायती क्यों लग रहा है? दरअसल कई बार यह अधिकार इतना अधिक हो जाता है कि घुटन होने लगती है, जैसे किसी की स्वतंत्रता पर हमला हो गया हो। फिर आजकल की लड़कियां तो अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रति ज्यादा ही सजग हैं। शायद क्वीना भी इसीलिए पजेसिव न लिखकर डॉमिनेटिंग लिखती है।

डॉमिनेटिंग शब्द से कॉलेज के जमाने की एक बात याद आ गई। हम लोग दूसरे वर्ष में आ चुके थे। सभी साथी दोपहर का खाना खाकर डाइनिंग हॉल से बाहर निकल रहे थे। खाने के बाद सिगरेट का दौर चल पड़ा। एक ही सिगरेट से सभी सुट्टा लगा रहे थे कि भास्कर ने चुपके से पास कर दिया। एकाध बार तो किसी का ध्यान न गया मगर फिर सब उस पर टूट पड़े, “साले, तूने धरम बदल लिया क्या, कश क्यों नहीं भरता?”

उनकी आपत्ति दूर करने के लिए उसे बताना पड़ा कि सुधा ने उससे वादा लिया है कि वह स्मोक नहीं करेगा।

“अबे, तो वो कौन-सा देख रही है तुझे?” दोस्तों ने खूब समझाना चाहा, उसकी खिल्ली उड़ाई, “पॉट्टी जाएगा तो उससे पूछ कर जाएगा क्या?”

मगर वह टस से मस न हुआ, “मेरा वादा है उसके साथ।” बस, यही कहता रहा।

“सुधा तो बड़ी डॉमिनेटिंग है, यार!” आखिर दोस्तों ने हार मान ली।

मगर ‘डॉमिनेटिंग’ शब्द सुनते ही पता नहीं भास्कर को क्या हुआ कि उसने सिगरेट छीन ली और तेजी से कश भरने लगा।

दोस्तों ने खुशी से तालियां बजा दीं।

इसी के बरक्स एक और घटना याद आती है मुझे।

रूपम और राघव के प्रेम के बारे में सारे कॉलेज को पता था। राघव फुटबॉल का बेहतरीन खिलाड़ी था। इन्टर कॉलेज टूर्नामेंट चल रहा था। राघव ने मैदान में उतरने से पहले रूपम को अपना कोट थमा दिया, “यहीं ठहरना, खेल कर आता हूं।”

उसका खेल बहुत अच्छा रहा। उसकी टीम जीत गई। इस जीत का खूब जश्न मना। सीटियां बजीं, हल्ला मचा और सभी दोस्तों ने उसे कंधे पर उठाकर समूचे कैंपस में घुमा दिया। अचानक उसने देखा, रूपम पिछले चार घंटे से उसका कोट थामे वहीं एक किनारे खड़ी थी जहां उसने उसे छोड़ा था। वह झट दोस्तों के कंधे से कूदकर नीचे उतर आया और विह्वलता में उसने सबके सामने ही उसे गले से लगा लिया।

वही दोस्त जो कल तक भास्कर को डॉमिनेटिंग का मतलब समझा रहे थे, आज राघव के आदेश पर रूपम को खड़े देख फूले नहीं समा रहे थे। रूपम ने राघव का ही नहीं, उसके दोस्तों का भी मन जीत लिया था। हर किसी की नजर में रूपम के प्यार की इज्जत बहुत बढ़ गई थी।

आज सोचता हूं तो लगता है कि हमारा समाज ही ऐसा है। एक ही हरकत पुरुष करे तो उसका अधिकार जताना है और अगर औरत करे तो बंदिश है। स्त्री का अधिकार भाव पुरुष की स्वतंत्रता पर आघात है जबकि पुरुष का अधिकार भाव उसका अपनापन है। स्त्रियों ने भी इसे ऐसे ही लिया है। वे किसी पुरुष से ऐसा अधिकार पाकर उसकी हो जाने का भ्रम पालने लगती हैं।

देर रात तक फोन पर गपियाने के बाद होस्टल के लड़कों का यह कह कर फोन रखना तो आम बात थी कि सुबह छः बजे मुझे जगा देना और लड़कियों के फोन ठीक छः बजे दस्तक देने लगते।

कॉलेज लाइफ के ऐसे कितने ही जोड़े ध्यान में उतर आए जो इस तरह के अधिकार भाव से एक-दूसरे पर अपना हक जताते रहे और लड़कियां उसी को उनकी होने का प्रमाण मानकर सुख उठाती रहीं।

फिर क्या हुआ? कॉलेज के बाद कौन कितनी दूर तक साथ चला? राघव का कोट टांगे कॉलेज कैंपस के किनारे खड़ी रहने वाली यही रूपम एक अच्छी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मोटे पैकेज पर मुम्बई चली गई जबकि राघव अपने घर के पिछवाड़े के मैदान में स्कूली बच्चों को खेल का प्रशिक्षण देता रह गया।

सुधा और भास्कर तो यहीं थे मगर पिता की फैक्टरी से बेदखल हो जाने के डर से भास्कर कभी उन्हें सुधा के बारे में अपना मन नहीं बता पाया और पिता की मर्जी मुताबिक उनके व्यापारी मित्र की बेटी से चुपचाप शादी कर गृहस्थी बसा ली।

मैं महसूस करता हूं कि वक्त बड़ी तेजी से बदला है। बात सिर्फ प्यार और अधिकार की ही नहीं है, भौतिकता जीवन का इतना अहम हिस्सा हो गई है कि भावात्मकता ने घुटने टेक दिए हैं। सभी करियर प्रधान हो गए हैं। मेरा परिचय, मेरी पहचान सबसे ऊपर हो गई है। रही बात भावना की, तो वह तो खुद को समझाने की बात है और जब आप खुद वही समझना चाहते हैं तो दलीलें आसानी से समझ आ जाती हैं।

फिर स्त्री विमर्श के नाम पर भी इस समीकरण की बेतरह धज्जियां उड़ाई गई हैं। लड़कियों को इस ओर जागरूक किया गया है कि उनमें भी सोचने-समझने की क्षमता है और इसका उन्हें अधिकार भी है। यह बात दूसरी है कि अपनी राय को जानने के बदले ज्यादातर मामलों में वे लड़कों की नकल करने लगी हैं। वे भी लड़कों की तरह जीवन जीना चाहती हैं, आजाद होना चाहती हैं।

स्त्रियों की बदलती सोच पर मैं अभी कुछ और गौर करता मगर पूर्णिमा ने मेरा ध्यान खींच लिया। वह परेशान-सी कभी अपने कैबिन में जाती है तो कभी कैबिन से बाहर आती है। उसने बाहर निकलकर हम सभी पर एक निगाह डाली। सोनिया गीतिका के काम में सहयोग कर रही है, चरित बड़ी गंभीरता से अपने प्रॉजेक्ट में डूबा है। अचानक पूर्णिमा की निगाह मुझसे मिल गई। मैं जब तक नजर घुमाता, उसने मुझे इशारे से अपनी ओर बुला लिया।

‘‘मिस्टर त्रिपाठी, मैंने दत्ता साहब के लिए जो चेक बनवाकर रखा था, वो मिल नहीं रहा...’’ अपनी दराजों को टटोलते हुए उसने जोर देकर बताया, ‘‘यहीं रखा था।’’

दत्ता साहब हमारे प्रशिक्षणों में लेक्चर देने के लिए, बाहरी विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए जाते हैं, इसलिए उन्हें उनके वक्तव्य के साथ-साथ ही भुगतान कर दिया जाता है। एक सीनियर वक्ता को सिर्फ चेक लेने के लिए दोबारा बुलाया जाना उचित नहीं मालूम पड़ता है। आज शाम चार से पांच की क्लास के लिए उनका आना तय है, ऐसे वक्त चेक का न मिलना पूर्णिमा की चिंता का जायज कारण है। पूर्णिमा ने अभी नया-नया ही यह काम संभाला है। शुरुआत में ही ऐसी लापरवाही, उसकी कार्यनिष्ठा पर सवालिया निशान खड़े कर सकती है।

समस्या तो गंभीर थी, पर मैं भी क्या कहता, चुपचाप उन्हीं दराजों को फिर से टटोलने लगा।

‘‘मैं ये दराजें अच्छी तरह देख चुकी हूं।’’ पूर्णिमा धैर्य खोने लगी थी।

एकबारगी समझ नहीं पाया, मैं किस तरह उसकी मदद कर सकता हूं। अपनी फाइलें तलाशने के बहाने मैं कमरे से बाहर निकल आया।

‘‘क्या हुआ?’’ मेरे बाहर निकलते ही मिसेज विश्वास ने मुझे घेर लिया। क्या करता, न चाहते हुए भी बताना पड़ा कि पूर्णिमा से फैकल्टी को दिया जाने वाला चेक कहीं खो गया है।

मिसेज विश्वास को बताने का मतलब बीबीसी न्यूज में खबर फ्लैश करना था। देखते-ही-देखते पूरे हॉल में खबर फैल गई कि पूर्णिमा से चेक खो गया है।

खबर सुनते ही धमेजा ऐक्शन में आ गया। वह लगभग झटकती चाल से पूर्णिमा के कैबिन में जा पहुंचा।

पूर्णिमा ने धमेजा से न जाने क्या कहा कि वह थोड़ी ही देर में उसके कैबिन से बाहर निकल आया।

मुझे बेहतर महसूस हुआ। पूर्णिमा बड़ी खुद्दार औरत है, उसने उसे पास फटकने ही नहीं दिया होगा।

फिर भी, मैं खुद में बड़ा शर्मिंदा महसूस कर रहा था। मेरी वजह से ये बात जगजाहिर हो गई और धमेजा को तो ऐसे ही मौकों की तलाश रहती है। मैं चुपचाप तमाशा देखने के लिए मजबूर था। बेचारी ने मुझसे यह सोचकर बात की होगी कि मैं शायद कुछ सहायता कर पाऊंगा। यह सहायता की मैंने!

मैं खुद को ही कोस रहा था।

अभी मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं हुआ होगा कि देखा, धमेजा हाथ में चेक लिए पूर्णिमा के कमरे में दाखिल हुआ।

हम सब भी उत्सुकता से धमेजा के पीछे-पीछे पूर्णिमा के कमरे में जा पहुंचे।

धमेजा ने अकाउंट्स अनुभाग में पुराने चेक का नम्बर देकर उसकी स्टॉप पेमेंट करा दी और नया चेक बनवाकर ले भी आया।

मैं किसी के बारे में बड़ी जल्दी कोई राय बना लेता हूं वरना यह बात तो सही है कि धमेजा थोड़ा बड़बोला भले हो, मगर वह हर किसी की मदद के लिए दौड़ पड़ता है।

(अगले अंक में जारी....)