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जी-मेल एक्सप्रेस - 7

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

7. अर्ली प्यूबर्टी

दफ्तर में राजनीति होने लगी है। बेचारी पूर्णिमा कितनी तरह से विभाग को ऊपर उठाने की कोशिश करती है और धमेजा उसका पंक्चर कर देता है।

सोचता हूं, पूर्णिमा इतनी मिलनसार और हंसमुख है, फिर अपने पति के साथ क्यों नहीं निभा पाई और क्यों उसका घर छोड़कर आ गई?

‘‘ये घर छोड़कर नहीं आई, इसके पति ने ही इसे निकाल बाहर किया।’’ मिसेज विश्वास फुसफुसा रही थी।

कोई कैसे किसी की निजी जिंदगी के बारे में इतने भरोसे से कमेंट कर सकता है, पता नहीं। मुझे ऐसी बातों में कभी दिलचस्पी नहीं रही।

मेरी निगाहें बरबस ही पूर्णिमा के व्यक्तित्व का आकलन करने लगीं।

खूबसूरत, हंसमुख, व्यवहारकुशल, धैर्यवान... सभी गुण तो हैं पूर्णिमा में। दरअसल, ऐसी महिला को हर कोई पटाना चाहता है, मगर जब ऐसा नहीं हो पाता तब वे उसके चरित्र की कमियां खोजने लगते हैं। उनका खुद का चरित्र जो इनके सामने खोटा पड़ जाता है!

मुझे तो पूर्णिमा का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और सहज मालूम पड़ता है। दफ्तर की उठापटक से परे वह अपने अधीनस्थ सहयोगियों को स्वतंत्र रूप से काम करने की छूट देती है।

वह मुझे भी कुछ नए विषयों पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।

‘‘पिछले विषयों से हटकर कुछ नया सोचो, जरूरी नहीं कि ये विषय दफ्तर की जिंदगी से सीधे-सीधे जुड़ते हों... ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाने वाले भी हो सकते हैं... फूड एंड फिटनेस, स्ट्रेस-फ्री लाइफ...’’

पूर्णिमा की सलाह ने सचमुच मेरे भीतर एक नई खिड़की खोल दी, इन विषयों पर तो हमने कभी सोचा ही नहीं था। यहां तो बस दफ्तर के काम से संबंधित प्रशिक्षण ही कराए जाते रहे हैं।

मैं पूर्णिमा के लिए कुछ नए विषय सोचने लगा, जिन पर प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है।

घर पहुंचा तो देखा, विनीता मेरा इंतजार ही कर रही थी।

‘‘आओ, तुम्हें कुछ दिखाना है।’’ विनीता बड़ी खुश लग रही है।

लिफ्ट से उतरकर वह मुझे अपनी सोसाइटी के सामने वाली नर्सरी में ले आई। मैं जानता हूं, हरियाली का कितना शौक है इसे। शौक तो मुझे भी है, पर समय कहां है इस शौक को पालने का, और फिर फ्लैटों में रहने वालों को जमीन और आसमान एक साथ मिलते कहां हैं जो इस शौक को पूरा कर सकें। फिर भी, विनीता ने कई गमले भर रखे हैं बालकनी में, दो कुरसियों से ज्यादा की जगह नहीं बची है। पता नहीं, अब कौन-सा पौधा इसे इतना भा गया है कि मुझे भी दिखाने ले आई है।

‘‘सुनो, मैं पर्स तो लेकर आया नहीं।’’ मैंने आगाह किया।

‘‘मगर मैं तो थैला लेकर आई हूं।’’ उसने मुझे मुठ्ठी में समेटा हुआ थैला दिखाया।

मैं कुछ समझ नहीं पाया, मगर उसके पीछे हो लिया।

वह अंदर नर्सरी के ऑफिस की तरफ जा रही है, उसकी चाल मुझसे तेज है। वह वहां के माली से एक चाबी लेकर लौट रही है।

‘‘जल्दी आओ न!’’

वह बहुत अधीर है। मैंने भी अपनी रफ्तार बढ़ा दी।

वह सरकंडे से घिरे एक अहाते के पास आकर ठहर गई। उसने गेट खोलकर भीतर प्रवेश किया।

‘‘ये देखो....’’ उसने ऐसे कहा जैसे अपनी जमीन दिखा रही हो, ‘‘ये मेरा बगीचा है, इसे मैंने तैयार किया है।’’

मेरी नासमझी पर उसे मजा आ रहा है।

उसने समझाया कि नर्सरी के मैनेजर ने बीस बाई बीस का ये स्थान उसके नाम कर दिया है कि वह अपनी बागवानी का शौक यहां पूरा कर सकती है।

‘‘मगर उसने ऐसा क्यों किया?’’ मैं अब भी कुछ समझ नहीं पा रहा।

मेरी उधेड़बुन का खुलासा करते हुए विनीता ने बताया कि एक रोज वह इस नर्सरी में टहलने आई तो बगीचे को बड़ी उपेक्षित स्थिति में पाया। पूछने पर पता चला कि उसका माली एक हफ्ते की छुट्टी लेकर गांव गया था, मगर दो हफ्ते होने पर भी नहीं आया। इस पर विनीता ने आगे बढ़कर उस हिस्से की देखभाल का जिम्मा अपने हाथ लेने का प्रस्ताव रखा। उसकी इस पहल पर नर्सरी का मैनेजर बहुत प्रभावित हुआ और उसने बगीचे का यह टुकड़ा उसके हवाले कर दिया। खाद-मिट्टी, बीज-पौधे सब नर्सरी वाले का, उसकी तो बस मेहनत।

तो लगभग तीन महीने पहले उसने इसमें अपना किचन गार्डन तैयार किया, जिसका रूप आज पूरे यौवन पर है।

मैं अचंभित देख रहा हूं-- लौकी, तोरी, करेले की बेल और भिंडी, टमाटर के पौधे... क्या बात है! सूखी टहनियों से बेल को चढ़ाने की झाड़ी भी तैयार की गई है जिस पर हरे-हरे करेले लटक रहे हैं।

‘‘ये झाड़ी किसने तैयार की?’’ मैं उल्लसित था।

वह मुस्कराती रही।

‘‘कब किया तुमने यह सब, मेरा मतलब है, समय कब निकालती हो?’’

‘‘कुछ करना हो तो समय निकल ही आता है।’’

विनीता अपने थैले में करेले भर रही है।

‘‘दो दिन भरवां करेले खा सकते हो, पूरे आठ हैं....’’ वह दिखा रही है।

हरे-हरे कोमल खिच्चे करेले, जुबान पर भरवां करेलों का स्वाद तैर उठा है। मैं भी लपककर नजदीक आ खड़ा होता हूं।

‘‘एक शाम लायक तो भिंडी भी हो ही जाएगी।’’ वह भिंडी तोड़ने लगी।

‘‘देखो, संभालकर तोड़ना, इसमें बारीक-सी चुभन भी होती है।’’

‘‘मीठी-मीठी-सी चुभन, ठंडी-ठंडी-सी अगन, मैं आज हवा में पाऊं...’’ वह गुनगुना रही है।

वह सचमुच हवा में उड़ रही है। आज मैं भी उसके साथ किचन में खड़ा रहा। वह करेले तैयार करती रही, मैं देखता रहा। आज मेड को भी काम नहीं करने दिया उसने। सब कुछ खुद ही करती रही। धीमी-धीमी आंच पर पकते करेले, हमारी बातों में सुनहला रंग घोलते रहे।

शादी के शुरुआती दिनों की याद आने लगी। भरा-पूरा घर होता था, बात करने का मौका भी रात में ही मिलता था। ऐसे में जब विनीता रसोई में काम कर रही होती, मैं मटर छीलने के बहाने वहां आ खड़ा होता और तब दबी जुबान में और कभी-कभी तो बेजुबानी में ही हममें बहुत-सी बातें हुआ करतीं।

आज विनीता के साथ किचन में खड़े रहना बीते दिनों की याद-सा भला लग रहा था।

‘‘जानते हो, हम क्या खाते हैं आजकल? केमिकल्स से असमय पका दिए फल और सब्जियां... सिंथेटिक दालें... पाउडर वाला दूध...’’ धनिया के पत्ते साफ करते हुए वह कह रही थी कि इस तरह का खाना खाकर हमारी जेनरेशन भी समय से पहले ही पकती जा रही है, ‘‘...अर्ली मैच्योरिटी....यू अंडरस्टैंड?’’

वह हाल ही में हुए किसी सर्वे के बारे में बता रही थी कि आजकल बच्चों की सोच-समझ कितनी तेजी से ग्रो कर रही है... अर्ली प्यूबर्टी, अर्ली डिमांड्स, अर्ली मीनोपॉज ...और शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी प्री एज मैच्योरिटी... समय पूर्व परिपक्वता...

‘‘जानते हो, पिछले दिनों मेरी गाइनी के पास एक लड़की का केस आया...’’ उसने आधुनिक मांओं के संबंध में सचमुच चौंकाने वाली जानकारी दी।

उसने बताया कि एक अति सतर्क मां ने अपनी बेटी के पीरियड्स शुरू होने के साथ ही उसे कुछ ऐसी घरेलू जड़ी-बूटियां देनी शुरू कर दीं कि अगर उसके कदम गलत राह पर भटक भी जाएं, तो कुछ गड़बड़ न होने पाए।

मैं हैरानी जताता, मगर इससे पहले विनीता ने मुझे और भी हैरान कर दिया। उसने बताया कि उधर वह बच्ची अपने ब्वाय फ्रेंड के साथ बहुत आगे निकल गई और ऐसी ही किसी आशंका से उसने टीवी पर प्रचारित गर्भ-निरोधक गोलियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। विनीता ने बताया कि सावधानियों के बावजूद जब उसकी माहवारी बंद हो गई और उसे डॉक्टर के पास लाया गया तब पता चला कि एहतियात ओवर डोज हो गई है। नतीजा यह हुआ कि अब वह लड़की शायद कभी मां न बन सके।

मैं स्तब्ध रह गया, क्या इसी को समझदारी कहते हैं?

बच्चों को सही-गलत की शिक्षा देने के बदले, मां-बाप अंजाम से बचने की तैयारी करने लगे हैं। यानी अनचाहा गर्भ न ठहरे, बस। बाकी चाहे कुछ भी होता रहे, कितनी भी बार, किसी के भी साथ। आजकल टीवी पर प्रचार भी तो इसी प्रकार के दिखाए जाने लगे हैं। कॉन्ट्रासेप्टिव्स का प्रचार अब परिवार-नियोजन के तौर पर नहीं बल्कि सावधानी के तौर पर किया जाता है, इसीलिए नई उम्र की लड़कियां इस ओर और तरह से ध्यान देने लगी हैं।

मेरे सामने क्वीना की डायरी खुल गई थी। स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की रोहन और कुणाल के साथ किस तरह की घनिष्ठता की तरफ बढ़ती जा रही है? उसके मां-बाप कहां हैं? परिवार के किसी भी सदस्य के बारे में डायरी में एक शब्द नहीं लिखा है। यानी उसके निजी एकांत में परिवार का एक भी सदस्य शामिल नहीं है? रोहन के घर जाने और ब्लू फिल्म देखने की बात उसने साफ-साफ लिखी है। वह किस ‘बहुत कुछ’ के बारे में जानना चाहती है, जिसका जिक्र उसने अपनी डायरी में किया है? वह किस ‘चरमोत्कर्ष’ की बात कर रही है?

कहीं क्वीना ही तो वह लड़की नहीं, विनीता जिसके बारे में बात कर रही है? क्वीना का रोहन के घर इस तरह एकांत में मिलना, क्या इसी तरह के रिश्ते की ओर इशारा नहीं करता? क्या संभव है कि इस सघन निकटता के बाद भी वह अपनी उत्तेजना को रोककर लौट आई हो? या फिर उसने भी सावधानी के पर्याप्त इंतजाम कर रखे हों? इतनी कम उम्र में इतने आवेग के साथ ऐसी कामनाओं का पनपना संभवतः अर्ली मैच्योरिटी से जोड़ा जा सकता है।

समय भी तो कितना बदल गया है। अब चारित्रिक दृढ़ता जैसी संकल्पनाएं मायने नहीं रखतीं। किसी क्लिनिक में अविवाहित लड़की का गर्भपात कराना हैरानी या शर्मिंदगी से नहीं, बल्कि इतनी सहजता से देखा जाता है जैसे आप कील-मुंहासों का इलाज करवाने आए हों, चाहे बार-बार आएं, इसमें शर्म कैसी?

(अगले अंक में जारी....)

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