प्रकृति - Dilwali kudi की कलम से। Aziz द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति - Dilwali kudi की कलम से।

*न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।*

स्वार्थ के इस खेल में हुआ मानव अभिमानी है,
इस प्रकृति को मानव पहोचा रहा क्यू हानि है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

जो चाहिए स्वच्छ जल तो ये हमारी जिम्मेदारी है,
पानी को साफ रखना ये रीत बहोत पुरानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

गंगा को देख इतना साफ आ गया आंखों में पानी है,
क्यू हम नही रखते साफ इसे ये कहेता गंगा का पानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

गंगा हमारी माता है यह संतो की वानी है,
तो भला अपनी माँ को गंदा करना कहा कि नादानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

इतना स्वच्छ आकाश देख हो रहा मनुष्य ज्ञानी है,
कब तक मिलेगा मनमोहक नजारा इस से हम अज्ञानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

हर तरफ फैलता धुँआ प्रकृति के हनन की निशानी है,
देखने मिले प्रकृति की वास्तविकता इस बात की हैरानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति को किया प्रदूषित न बख्शा उसने बानी है,
आपबीती ये अब पृकृति के जर्रे जर्रे की जुबानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

गंदा तूने ही नीर किया फिरभी मांग रहा अच्छा पानी है
गंदा किया ज़मीन को फिरभी अच्छी फसल उपजानि है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

पर्वतो को भी तूने छेड़ के यहां तबाही मचानी है,
हिमगिरि के शिखरों को क्यू पानी की जात बहानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

पेड़ पौधों को नष्ट कर तुजे अपनी चिता जलानी है,
क्यू पेड़ को काट के सांसे जिंदगी की कम करवानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

अंतरिक्ष को भी न छोड़ा तूने आग तूने ही लगानी है,
ब्रम्हांड में रही शांति में खलेल तुजे पहोचानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति का विनाश कर तुजे खुशियो की सेज सजानी है,
प्रकृति को मार कर तुजे कौनसी दौलत कमानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति में विनाश की चिंगारी मानव ने भड़कानी है,
फिर भी प्रकृति पे से प्रदूषण की तलवार नही हटानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति से खेल के तु खुद से कर रहा बैमानी है,
जान ले इस प्रकृति की माया बड़ी रूहानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

क्यू इस प्रकृति की किंमत न मानव ने जानी है,
क्यू तुजे यह ज़िन्दगी अपनी प्रदूषण में बितानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

मानव अपने स्वार्थ को दे रहा प्रकृति की कुर्बानी है,
मानव तु अपने सुख के लिए कर रहा मनमानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति का हनन मानव जात के पतन की भविष्यवानी है,
मानव तु क्यू न समजपाता यह प्रकृति तेरी ज़िंदगानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

कब समझेगा मानव क्यू लिखनी विनाश की कहानी है,
क्यू विनाश के आमंत्रण की पत्रिका तुजे बनानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

क्यू तुजे देख के भी अनदेखी करनी ये परेशानी है,
क्यू तुजे जान के भी नही रखनी कोई सावधानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

भूल मत मानव परीक्षा की घड़ी तेरी भी तो आनी है,
तब प्रकृति ने तुजे उसकी किंमत की गिनती सिखानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

प्रकृति के मनभावन रूप की किंमत तुजे गिनानी है,
ले प्रचंड रूप कुदरत ने तुजे तेरी जगह दिखानी है;
न जाने मानव जात ने क्या करने की ठानी है।

- Dilwali Kudi