नशा Monika kakodia द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नशा

"देखना एक दिन मेरा बेटा अफसर बनकर लौटेगा" रुंधे हुए गले और नम आँखों से पिता अपनी बेटी सीमा की पीठ थापथपाते हुए उसे ढांढ़स बंधा रहे थे। पहली बार सीमा अपने घर से दूर जा रही थी। पिता ने अब तक की अपनी जमा पूंजी इकठ्ठी कर दिल्ली की एक बड़ी कोचिंग क्लास में सीमा का एडमिशन करवाया है। एक मध्यमवर्गीय परिवार के पास सपनों के अलावा और होता भी क्या है, बस अपने इन्हीं सपनों को बक्से में भर कर सीमा दिल्ली पहुंच गयी।
अपने गाँव के एक छोटे से हिंदी मीडियम सरकारी स्कूल में पढी सीमा बहुत कोशिशों के बावजूद भी स्वयं को कुछ पिछड़ा हुआ महसूस कर रही थी। दिन पर दिन गिरती हुई रैंकिंग और इस बड़े शहर के साथ असामंजस्यता के कारण सीमा हताश होती जा रही थी। वह स्वयं को किन्हीं अँधेरो में गिरता हुआ सा पा रही थी। इन अँधेरो से भागने के प्रयास में वह एक ऐसी चकाचौंध की ओर दौड़ पड़ी जो उसे और भी गहरे अँधेरो में ले जाने वाली थी।
सीमा की रूममेट निधि ने उसे एक ऐसी दुनिया दिखाई जो सीमा को अपनी ओर खींच रही थी। धीरे धीरे अपनी हर परेशानी को शराब के नशे और सिगरेट से धुँए में उड़ाने की आदत सीमा को पड़ गयी। अपनी बढ़ती जरूरतों के लिए सीमा अपने पिता से झूठ बोलकर,किसी न किसी बहाने से पैसे मँगवाने लगी। वहाँ पिता बेटी को अफसर की कुर्सी पर बैठे देखने की आस में जैसे तैसे पैसे जुटा कर भेजते रहे। उन्हें क्या ख़बर थी की जिस पैसे से वह अपनी बेटी का भविष्य बनाना चाहते थे,उसी खून पसीने की कमाई से सीमा नरक का सफ़र तय कर रही थी। अब सीमा की लत सिगरेट ,शराब तक नहीं रही, वह ड्रग्स , कोकीन भी लेने लगी थी। जिन सपनों को लेकर वह दिल्ली आयी थी वह उन्हें कबका भूल चुकी थी। अब वह ऐसे गर्त में गिर चुकी थी ,जहाँ से उसकी वापसी नामुमकिन ही थी।
कहते हैं की सन्तान के साथ यदि कुछ अनहोनी होती है तो माता पिता को उसका आभास पहले ही हो जाता है। उस रात भी कुछ ऐसा ही हुआ। रात के करीब दो बजे थे, सीमा के पिता ने कोई बहुत ही बुरा सपना देखा और हड बडा कर बैठ गए, धड़कनें तेज़ और पसीने से तरबतर पुरा बदन काँप रहा था। बस सीमा ! सीमा ! की रट लगायी हुई थी। घबराते हुए पिता ने सीमा को फोन करने के बारे में सोचा लेकिन यह सोच कर स्वयं को रोक लिया कि बिटिया देर तक पढ़ी होगी ,हो सकता है अभी नींद लगी हो,और मेरे फोन करने से उसकी नींद खराब हो जाएगी। जैसे तैसे उन्होंने स्वयं को धीरज तो दिया मगर पूरी रात सुबह होने के इंतजार में निकाल दी। अभी चार ही बजे थे कि फोन की घण्टी बजी । काँपते हुए हाथों से पिता ने फोन उठाया। दूसरी तरफ से आवाज़ आयी -आप सीमा के घर से बोल रहे हैं ? जी ! मगर आप कौन हैं? सीमा कहाँ है? वो ठीक तो है ना? सीमा के पिता ने रुंधे हुए गले से सारे सवाल एक सांस में ही पूछ लिए । उस व्यक्ति ने जवाब दिया मैं दिल्ली पुलिस थाने से बोल रहा हुँ, सीमा नशे में गाड़ी चला रही थी। उसका एक्सीडेंट हो गया है, आप जल्द से जल्द आ जाइये बाकी की औपचारिकताएं पूरी करके आप सीमा की बॉडी को घर ले जा सकतें हैं। ये सब सुनते ही सीमा के पिता का सारा संसार एक पल में ही उजड़ गया। बेसुध हालत में वे अस्पताल पहुंच तो गए लेकिन जिस बेटी को नाज़ों से पाला, पढ़ाया लिखाया, जिसके उज्जवल भविष्य के लिए उसे खुद से दूर किया , आखिर कैसे उसे काँधा देंगे।
ये सब क्या हो गया ? कैसे हुआ ? सीमा और नशा नामुमकिन, नहीं! ये नहीं हो सकता । सब झूठ है। सीमा ऐसा नहीं कर सकती, वो ! वो तो अफसर बनने दिल्ली आयी थी फिर ऐसा क्या हुआ ? कैसे वो इस नशे के रास्ते पर चली गयी? ऐसे अनगिनत सवाल सीमा के पिता को सांस तक नहीं लेने दे रहे थे। अपने और सीमा के टूटे हुए सपनों को वापस बक्से में बंद करके सीमा के पिता वापस अपने गाँव लौट तो आये ,लेकिन जब तक जीवित रहे इन्हीं सवालों के जवाबों की सोच में डूबे रहे।
ये कहानी सिर्फ सीमा की नहीं जो बहुत से सपने आँखों में लिए शहर आती है, ये कहानी सिर्फ उस एक पिता की भी नहीं जो अपनी बेटी के उज्जवल भविष्य के लिए एक एक पाई जोड़ता है, बल्कि यह हकीकत है उस युवा वर्ग की जो पढ़ने के लिए या नौकरी की तलाश में शहर आते हैं । यहाँ आकर इन्हें कभी कभी वो सब नहीं मिल पाता जिसकी इन्हें उम्मीद होती है या फिर इन्हें अपनी उम्मीद से बहुत ज्यादा हासिल हो जाता है। अब असफलता का दर्द हो या सफलता का घमंड जाने अनजाने इन्हें नशे की खाई में धकेल देता है और जब तक होश आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। लेकिन क्या ये ही एक तरीका है अपनी परेशानियों से छुटकारा पाने का ,या क्या शराब के बिना अपनी खुशियों का जश्न नहीं मनाया जा सकता ? आखिर किस दिशा में जा रहा है हमारा युवा वर्ग? जिसके हाथों में हमारे देश का उज्जवल भविष्य है वही युवा वर्ग सिगरेट, शराब के नशे में धुत क्यों है ? दोषी कौन हमारा समाज जो फिजुल के मुद्दों से उठ कर इस ओर ध्यान नहीं दे पा रहा या वो सरकार जिसकी नाक के नीचे यह जहर खुले आम बेचा जा रहा है,वो समाजसेवी संस्थाएं जो कुछ पोस्टर चिपका कर अपना फर्ज पूरा करती हैं,वो युवा वर्ग जो अपने भले बुरे की समझ भूल कर एक गर्त की ओर आकर्षित होते हैं या दोषी हम सब हैं जो इस इन्तेजार में बैठें हैं कि शायद कोई कुछ करे । मेरे इन सवालों का जवाब मुझे नहीं आप स्वयं को दीजिए, शायद कुछ बदल जाये।