बुलबुल - फ़िल्म समीक्षा Monika kakodia द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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बुलबुल - फ़िल्म समीक्षा

बुलबुल - फ़िल्म समीक्षा

" ये बिछिया क्यों पहनाई जाती है पिशीमाँ ? "
"ताकि वो उड़ ना पाएं"
समाज की रीतियों पर इस प्रश्न से शुरू होती है बुलबुल की कहानी। हालांकि कहानी उस दौर की है जब लड़कियों की शादी उनसे तिगुनी उम्र के एक व्यक्ति से कर दी जाती थी। जो उम्र कहानियां सुनने की थी उसमें बुलबुल की शादी गाँव के एक बड़े जमींदार इंद्रनील से कर दी जाती है। तीन भाईयों में इंद्रनील सबसे बड़ा है, मँझला भाई महेन जो मानसिक रूप से बीमार है,सबसे छोटा सत्या। बुलबुल और सत्या हमउम्र है तो लाजमी है नज़दियाँ बढ़ना। दोनों का बचपन कहानियों में गुज़रता है एक चुड़ैल की कहानी ।
यहाँ से कहानी नया मोड़ लेती है जब बुलबुल मन ही मन सत्या को पसंद करने लगती है, मँझली बहु जो नाम मात्र के लिए महेन की पत्नी है , परन्तु दाम्पत्य जीवन जी रही है इंद्रनील ठाकुर के साथ, मँझली बहु को सत्या और बुलबुल का साथ कतई नहीं भाता । यहाँ औरत ही औरत की शत्रु कहावत साकार होती है। मँझली बहु दोनों की कहानियों के रिश्ते को अश्लीलता का चोगा पहना कर ,इंद्रनील से सामने खड़ा कर देती है ईर्ष्या और द्वेष में नेत्रहीन हो इंद्रनील सारी मानवता पार कर देता है।
यहाँ से आरंभ होता है बुलबुल के चुड़ैल होने का सफर, वो कितनी चुडैल है और कितनी देवी इसका निर्णय हम दर्शकों पर छोड़ा गया है।
फ़िल्म की कहानी भले की 18वी सदी की है परंतु ये आज भी जीवित पुरुषप्रधान समाज पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। बालविवाह जैसी कुरीतियों को दर्शाती है। चुड़ैल और देवी की परिभाषा को स्पष्ट कर देती है
अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस की फिल्म 'बुलबुल।बुलबुल' की लेखक और निर्देशक अन्विता दत्त हैं, जो इस फिल्म से निर्देशन के क्षेत्र में डेब्यू करने जा रही हैं।फिल्म में तृप्ति डिमरी(बुलबुल), राहुल बोस(इंद्रनील,महेन), अविनाश तिवारी(सत्या ठाकुर), परमब्रता चटर्जी (डॉ. सुदीप)और पाउली दास(बिनोदिनी) अहम किरदारों में नजर आएंगे
ट्रेलर देखने में यह एक हॉरर फ़िल्म जान पड़ती है लेकिन कहानी बिल्कुल अलग है, अवन्तिका दत्त का निर्देशन काबिलेतारीफ है। फ़िल्म देखते हुए हम 18वी सदी को मानों जीने लगते हैं पर यूँ भी नहीं कि वो पुरातन लग।निर्देशन हमें फिल्म से जोड़े रखता है, वेष भूषा से लेकर गाड़ी, हवेली , गहने काफी कुछ बंगाली वातावरण दिखाता है।
फ़िल्म में उड़ता हुआ लाल रंग मुझे एक क्रांति सा प्रतीत होता है, यह शक्ति और परिवर्तन को दर्शाता है। बुलबुल के कुछ दृश्य सोचने पर विवश कर देते हैं, "चुप रहना है" बिनोदिनी की यह काव्यरूपी पंक्तियाँ रोंगटे खड़े कर देती हैं।
फ़िल्म की कहानी से लेकर निर्देशक तक अपना पूरा फर्ज निभाते हैं, बुलबुल का अभिनय करने वाली तृप्ति डिमरी ने मानों बुलबुल को जीवित ही कर दिया , उनकी आँखें और मंद मुस्कान बुलबुल के दर्द को बख़ूबी बयान करती है। म्यूजिक के नाम पर कुछ नेचुरल साउंड्स का प्रयोग है जो हमें और भावुक करता है, साथ ही कुछ बँगाली संगीत है ।
डेढ़ घण्टे की फ़िल्म में निर्देशक ने काफी कुछ पेश कर दिया है। हमारे समाज को आज ऐसी ही फिल्मों की आवश्यकता है । मेरे हिसाब से 2020 की अब तक कि बेहतरीन फ़िल्म है।