काले कोस, अंधेरी रातें - 2 Kavita Sonsi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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काले कोस, अंधेरी रातें - 2

काले कोस, अंधेरी रातें

(2)

मैं जानती तो हूँ सबकुछ, फिर भी न जाने क्यों अवाक हो उठती हूँ ...जैसे पहली बार सुन रही हूँ यह सब कुछ ...गडमड से कई दृष्ट आँखों में कौंधते हैं – एक पेपरवेट उड़ता हुआ आ रहा है पीछे,,,,

शंपा बेटी को कब सुलाओगी?

सुलाओ जल्दी ...क्या कर रही हो कभी भी तो फुर्सत मे रहा करो ...

और सच तो यह की मैं सचमुच फुर्सत कि उस घड़ी को टालती रहती हूँ, डरती रहती हूँ उसके आने से ...

यह कपड़े से कैसी बास आ रही है...हल्दी और तेल की....

यह अपने हाथ-पैर देखे हैं...

ये बाल ? लकड़हारों की बीबियाँ भी शायद ऐसी न होती हों ...

उल्टा –सीधा, आगे –पीछे, ऊपर नीचे की रोज एक नई फरमाइश ....रोज एक नई जिद ... ...और अगर पूरी न हो वह जिद तो ....जो कुछ भी सामने मिल जाये, उसे ही चलाकर ....कलम, किताबें, चाबी का गुच्छा, बेल्ट कुछ भी, जो भी सामने मिल जाये, बस वही ...

मैं डरती हूँ, हर वैसी चीज को उनसे दूर रखने की कोशिश करती हूँ ...उनकी पहुँच से बाहर ......पर फिर भी...रोज की नई जिदों की तरह, कोई एक –न –एक नई चीज हाथ लग ही जाती है उनके ..

.आज सोचती हूँ तो लगता है, हिंसक हथियार नहीं होते, वह सोच होती है जो इनका आविष्कार और दुरुपयोग करती है; वरना तो किसी निर्जीव वस्तु की इतनी बिसात कहाँ ....अपराध तो प्रवृत्तियों से होते हैं, हथियार से नहीं...

यादें भी बहुत बेतरतीब होती है बहुत कुछ उन बेतरतीब मांगों और चाहनाओं सी

...मैं बरजती हूँ खुद को और वर्तमान में धकेलती हूँ, वहाँ जहां अभी भी अभया की माँ उस दिन की यादों में अटकी हुई हैं -

‘जो बचाने आया सब उसको भी घायल कर दिये ...दिमाग का घिनौनापन तो देखिये कि उस ठिठुरते ठंढ मे भी तन पर एक कपड़ा नहीं ...कैसा लग रहा होगा उसको ...सोचो तो जैसे दिमाग सुन्न होने लगता है, हाथ-पैर सब काम करना छोड़ देता है’ ...वे सुबक रही है फिर और मैं उन्हें सुबकने देती हूँ ....कुछ पीड़ा तो बहकर निकले...थोड़ा भी तो पिघले यह दर्द ...मैं उन्हें ही नहीं अपने भीतर जमे हिम-पर्वत को भी पिघलते देखना चाहती हूँ ...

–मैं धीमे से बुदबुदाते उनके होठों को याद करते हुए कहती हूँ, ‘अभया’ का सही नाम बहुत कम लोग जानते हैं, बल्कि कहे तो इस तरह के केसेज मे लड़कियों के नाम को गुप्त रखने की एक परंपरा सी चलती आई है, क्या आपको उचित लगता है यह सबकुछ ?क्या आपकी नजर मे यह परम्परा सही है?

वे सचमुच कुछ देर को अपनी तकलीफ़ों के भंवर से निकली है, चेहरे पर अभी एक तेज है औए दृढ़ता ...नहीं बिलकुल भी नहीं ;ये तो कुछ वैसा ही हुआ जैसे की अपराधियों का मुंह ढँककर ले जाना...मेरी बेटी बहादुर थी, उसने अपने अंतिम पलों तक संघर्ष किया... वह चाहती थी उन्हें सजा मिले और जरूर मिले ...मेरी बेटी ने चोरी नहीं की, न कोई पाप किया था, वह तो नाम रोशन करना चाहती थी अपने माँ-बाप का ...फिर उससे ही उसके नाम का छिन जाना, मेरे लिये असहनीय है...

पर ...?

वो तो उसके पापा कहते है की....वो अपने पति को गहरी निगाहों से देखती है ...कि अच्छा है कि उसक नाम छुपा ही रहे..मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता की...

मैं इनके तर्कों से सहमत नहीं, पर एक पिता की भावनाओं और बेटी से उनके लगाव का इज्जत कर रही हूँ.... करती हूँ। एक मर्द और औरत की सोच में बहुत अंतर होता है, मर्द कितना भी कोशिश करे एक औरत की तरह नहीं सोच सकता ...औरतें दिल से निर्णय लेती हैं आर मर्द दिमाग से और जरूरी नहीं की इसमें कोई सही हो कोई गलत ...दोनों ही सही हो सकते हैं और दोनों ही गलत भी ...पर मैं इनकी ईच्छा का सम्मान कर रही हूँ बस ...

मैंने इन्हें बेटी के जाने के बाद टूटकर बिखरते हुये देखा है। एकदम से चुप्प हो जाते हुये... कभी खुलकर नहीं रोये... पर जैसे हंसी-खुशी को भी अलविदा कर दिया। बेटी को बहुत मानते थे... डरती हूँ मैं कहीं इस सदमे के कारण इन्हें भी न खो दूँ...

मुझे उनके इस उत्तर मे सिर्फ अपने प्रश्न, और फिर उत्तर से बनते प्रश्न का जबाब ही नहीं मिला था मैं यह भी जान सकी थी कि अभया के पास इतनी हिम्मत, इतनी ताकत और दर्द सहने का माद्दा कहाँ से आया था ... माँ सिर्फ हममें नहीं होती, वो हमारे भीतर इस लिए भी होती है कि हम अकेले न हो, वो संबल कि तरह होती है हमारे साथ, हमारी ताकत और शक्ति बनकर...मैं अपने अनुभवों से जानती –समझती हूँ यह ..

.मैं चाहते – न-चाहते पुनः अपने विगत में हूँ ...

मैं देख तो रही हूँ बिलकुल सामने, पर सचमुच न जाने कहाँ कहीं बहुत दूर पर देख रही हूँ ...वह दूर जो बिलकुल पास हुआ जा रहा है ... केवल 20 साल कि उम्र मे हुई मेरी शादी, बहुत मन्नतों वाली शादी, जिसे किसी तरह बमुश्किल संभव बनाया गया था, अगरचे यह जानती हूँ मैं कि वह कोई शादी कि उम्र तो नहीं थी, ... वह दिन 16 दिसम्बर ही तो था

..., दो साल बाद ठीक उसी दिन को पैदा हुई मेरी बिटिया ...और यही वह दिन था, जब सबकुछ पीछे छोड़कर एक अजनबी धरती पर थी, गोद मेँ एक साल की बच्ची लिए अजनबी लोगों के बीच मैं पुनः ज़िंदगी की उलझी गुत्थियों के सिरे तलाश रही थी । ....

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प्यार जब मरने लगता है धीरे-धीरे ..... और जब और जितना मरता है उतना ही और उसी मात्र में देह मुख्य होने लगती है, ..रिश्तों मे भी सुख और सुकून तब होंगे न जब की मन में बचे हो कहीं।....सब सुख, सब दुख तो मन से जुड़े हैं… मन माने तो, मन की खुशी हो तो सब ठीक, नहीं तो ....संतुष्टि और खुशी कहीं नहीं, कभी नहीं ...

वह हमारी शादी की सालगिरह थी ...फिर उनकी वही मनमानी जिद ...मैं सहम गई थी बिलकुल...मानती हूँ तो ...नहीं मानती हूँ तो ....और मैंने एक पल को सोचा था ...मान ही लूँ, कितनी मासूमियत से तो कह रहे है वो –

तुम कहती हो मैं बदल गया हूँ, तुम्हें पहले जितना प्यार नहीं करता ...

पर तुम सोचो, तुम मुझे पहले की तरह प्यार करती हो क्या?

प्यार ही करती होती तो इतना जिद करती क्या ....जो प्यार करते हैं वो तो साथी की खुशी की खातिर ....और मैं सोचना चाहती हूँ, सोचती भी हूँ –सचमुच जो प्यार करता है वो ....सो उचटे मन से पीछे हो जाती हूँ, ...फिर थोड़ी देर बाद उनके कहे से ऊपर, आगे...वे अभी भी शांत नहीं हुए हैं, उनके आँखों की खुशी अभी भी अधूरी की अधूरी

......लगातार उठती उबकाई मुझे उनके सख्त पंजों से मुक्त करा ही लेती है मैं भागती होती हूँ बेसिन की तरफ तेजी से की पीछे से उड़ता हुआ आता पेपेरवेट मेरे सिर के पिछले हिस्से से आ टकराता है....

बेहोश होती –होती भी मैं सुन ही लेती हूँ-साली नौटंकी, नाटक वालों के खानदान से आई है ...हरामी बाप ने तो सिर्फ यही सिखाया है, नाटक करना ....

जब होश आता है खुद ही उठकर बैठती हूँ, वो तो आसपास कहीं है ही नहीं, शायद यह भी उन्हें मेरा नाटक ही लगा हो ...मैं अपने सिर के पिछले हिस्से को सहलाती हूँ, शुक्र है बस गूमड़ है खून नहीं निकला...अगर खून निकलता होता तो फिर ...

माँ कहती है हमेशा, खून निकल जाना अच्छा है पर यह गूमड़ ठीक नहीं ...

मुझे भी लगता है –खून निकाल जाना अच्छा पर यह गूमड़ ठीक नहीं ….उस रात और उसके बाद भी जब-जब वह टीसता मैं उतनी ही जिद्दी हुई जाती ...नहीं अब और नहीं ...

बल्कि मुझे तो बहुत पहले ही ...तब जब कि मुझे लगने लगा था, वो वह वो नहीं रहा ...

तब जब प्यार मरने लगा था और मेरी देह प्रयोगशाला में प्रयोग होने वाले जीव-जंतुओं में तब्दील होने लगी थी ..

.मैंने सोचा था –उस से पहले ही निकालना होगा मुझे, कि जब कोई भी अच्छी स्मृति बची न रह जाये याद आने को..

माँ मेरे जर्द चेहरे और उल्टियों से सब समझ गई थी ...माँ ने पूछा था तू पेट से है?

मैंने डरते –डरते जबाब दिया था ‘शायद ‘

...तो तुझे....

मैंने कातर स्वरों मे कहा था . पर मैं लौटूँगी नहीं माँ, मुझे लौटना नहीं है बिलकुल ...

न जाने माँ ने ऐसा क्या सुना था मेरे स्वरों में कि उन्होने दरवाजे को सटाते हुए मुझसे कहा था-‘चुप्प ...बिलकुल चुप्प ...किसी से नहीं बताना है तुझे कुछ ...

अपनी भाभियों से भी नहीं, नहीं तो बात दामाद जी तक भी पहुँचकर ही रहेगी ..और पहुंचेगी तो. वे मुझे बहाने से दूसरे शहर, अपनी जिस मौसेरी बहन के घर लेकर गई थी, वहीं सारी जांच हुई और तसदीक़ भी, फिर हम लौट आये थे वापस ...

भाभियाँ जैसे ताड़ना चाहती है सबकुछ ...आपकी तबीयत तो बाहर के हवा- पानी के लगते ही बिलकुल एचईई सुधर गई ...

उल्टियाँ भी कम गई हैं...फिर भी चेहरा तो अभी तक उतरा ही हुआ है...

अच्छा नंदोई जी कि याद आ रही है, अब तो गुस्सा भी उतर चुका होगा ????? कहिए तो करूँ फोन?

माँ झिड़कती नहीं, डपटती है उन्हें ...मैंने कह दिया न नहीं जाएगी, तो नहीं जाएगी ...तुम दोनों चुप रहकर अपने काम से मतलब रखो ...

फिर वे भाभियों के उतरे चेहरों को देखकर जोड़ती हैं –यह जाएगी तभी जब इसका खुद का मन होगा ....या फिर दामाद जी खुद इसे लेने आए ...भाभियाँ खिसक लेती हैं चुपचाप...

फिर बाद की सारी मुश्किलें, उनका मेरे लिए फिर नंदिनी के लिए मचाया गया जिद, किसी तरह माँ का उन उलझनों को समेटना ;फिर मुझे दिल्ली आने देना अपने ममेरे भाई के पास ...फिर वहाँ से दो दिन बाद इस घर में स्थानांतरित होना ...

माँ के वे भाई जी जो कहते थे कि ‘तुम्हें रोज फोन करूंगा, सप्ताह मे एक दिन तो जरूर आऊँगा और वैसे तुम जब भी बुलाओगी, या की तुम्हें जरूरत होगी, मैं तुरत आ जाऊंगा ‘ न पलटकर कोई फोन आया, न फिर दर्शन ही हुए ...यह सोचकर आज हंसी आती है ...पर माँ ने तो उनके पास भरोसे से ही भेजा था ....

मेरे सामने एक पुरुष था, जो कभी का मेरा प्रेमी था ;जिसके साथ के सुख और संसर्ग कि बहुत सारी यादें अभी भी थी मेरे पास...

पर वह लड़की......जिसके सामने अंजान चेहरे ...यातनाएं ऐसी कि ... मुझे अपना दुख छोटा जान पड़ता है, अपनी यातनाएं नगण्य ...अपना पति, बहुत हद तक सभ्य ...इंसान. दर असल सुख दुख या कि दर्द और खुशी कम या ज्यादा नहीं होते। कोई बना बनाया पैमाना नहीं इनका। मुख्य तो यह होता है कि हम उसकी किससे तुलना कर रहे हैं... सामने उससे बड़ा दुख खड़ा है या छोटा॥ सामने उसमें छोटी खुशी है या फिर बड़ी...

वरना तो अपने ही दुख मुझे आजतक सबसे बड़े जान पड़ते थे ......

घरेलू हिंसा और बलात्कार, जिस अपराध का कोई सुनवैया नहीं, जिसके लिए किसी के पास गुहार नहीं लगा सकते आप ...पति तो आखिर भगवान ठहरा न...अब उसकी मर्जी हमें जैसे नचाए, जैसे बरते यह पालनहार । हमारा कानून भी इस मुद्दे पर बात, बहस और पुनर्विचार करने से कतराता है, इस पर बात करने से ठेस जो लगती है हमारे पितृसत्तात्मक समाज को ...आम बलात्कार में आप न्याय के लिए लड़ सकते हैं, कुछ लोग खड़े मिल सकते है हमेशा आपके साथ, यहाँ इस मुद्दे पर अपने परिवारवाले भी आपका साथ छोड़ देंगे;दोस्त सखा सब आपको नसीहतें देते मिल जाएँगे –भूलो भी यार, माफ कर दो उसे ...पति है आखिर तुम्हारा ...आधुनिक से आधुनिक दिखनेवाले लोग तक.....मेरा मन तुर्श और कसैला सा हो रहा है.....

मैं भी अभया के रूप में तस्वीर का दूसरा रूख देखती हूँ -एक नहीं कई- कई पशु –चेहरे, ...अघटनीय ही सब कुछ...अनचीन्हे चेहरे, अनजानी यातनाएं, ...जाड़े कि रात और बदन पर साबुत सा कोई टुकड़ा तक नहीं ...और फिर...ऐसा कुछ अघटनीय कि जिसके सामने दुनिया का सारा दुख छोटा जान पड़े ...मैं सचमुच पसीने से नहा उठी हूँ ... चीखती हूँ ज़ोर से –नहीं...

मैं शर्मिंदा हूँ अपने इस बेखयाली पर ..., नंदिनी रुआसी हो उठी है, उसने मेरे कमर में अपनी बाँहें डालते हुए अधिक चिंता और थोड़े लाड़ से पूछा है-‘क्या हुआ मम्मा ?

मैं लजाये स्वरों में कहती हूँ-‘ कुछ नहीं बेटा ॥‘

वे सामने रखा पानी का गिलास मुझे थमाती हैं, मेरा पीठ सहलाती हैं, जैसे कि. माँ...

वे ठहरती हैं, पुकारती हैं अपने बेटे को-गुड्डू जरा ई बउआ को ले जाओ, खेलाओ अपने साथ इहाँ घबड़ा रही है। वे जब ज्यादा भावना में होती हैं तो देशी लहजा अपने आप चला आत है उनके टोन में ... जैसे की आदमी दुख में वही हो है जो की वह होता है भीतर से या की असल में ...वरना तो उनकी सधी-बंधी भाषा, उनका संतुलित –संयमित व्यवहार उनकी प्रगतिशीलता बड़े-बड़ों को अचंभे में डाल दे ।

मेरी आँखों में प्रतिरोध है, नंदिनी की आँखों मे सहमापन ......वो ढीठ स्वरों में कहती है –मैं मम्मा को अकेली छोडकर कहीं नहीं जाऊँगी ...पल भर को उनकी आँखों का दर्द जैसे बिला उठता है ...हंस देती है वो एक आँसू- धुली निर्मल मुस्कान –‘बचिया भी छोटी थी तो ऐसे ही कहती थी मैं मम्मी को छोडकर कहीं नहीं जाऊँगी ...

मैं हंस कर कहती-क्यों बियाह करके –वो कहती वैसे भी नहीं ...’

मैं डॉक्टर बनूँगी और खूब पैसे कमाऊँगी, तुम्हारे और पापा के लिए .....और ...नया घर और गाड़ी भी खरीदूँगी ...तुम ज्यादा काम न करो इसके लिए एक नौकर रखूंगी ....वे हँसते हुए ही कहती है-‘मैं पूछती फिर मैं दिन भर बैठकर करूंगी क्या, ?तो वो कहती टी॰वी देखना। तब टी.वी नया-नया ऐबे किया था.... और उसको पसंद भी बहुत था टी वी देखना॥ अपने घर नहीं था तो पड़ोस में चली जाती थी देखने। पढ़ाई पूरी करके पूछती मम्मी टी वी देखने जाऊँ बगल में तो उसके पापा कैसे भी करके टी वी खरीदे |

क्रमश...