काले कोस, अंधेरी रातें - 1 Kavita Sonsi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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काले कोस, अंधेरी रातें - 1

काले कोस, अंधेरी रातें

(1)

‘महावीर एन्क्लेव’ पहुँचने के बाद मैं जरा ठहरी थी, वहाँ से कई संकरी गलियां मुख्य सड़क से नीचे उतर रही थीं। बेटी को गोद मेँ उठाए कच्चे से रास्ते पर लोगों से हाऊस नंबर पूछते–पूछते मैं आगे बढ़ रही थी। 20-30 गज के सटे-सटे मकानों वाले उस रिहायशी ईलाके मेँ एक था उसका घर, जो कि अब उसका नहीं था । वहाँ बस उसकी स्मृतियाँ थी...

दरअसल समय को दिनों, घंटों और बरस में नहीं बांटकर देखा जा सकता। समय अच्छा हो तो पलक झपकते ही बीतता है और बुरा हो तो... मैं जानती हूँ समय उनके लिए वहीं ठहरा होगा आज भी, संपादक महोदय चाहे लाख कहते रहें कि पुराना हो चुका है सब कुछ, दर्द भी सिरा चुका होगा अबतक... पर दर्द किसी बोशीदा ख़यालों की तरह लिपटा होगा अभी भी उनके इर्द–गिर्द। गुजर जाना दरअसल एक ख्याल भर है, हम गुजरते नहीं ठहरे होते हैं ऐसे ही किसी मोड पर ता-उम्र... मैंने अपने अनुभवों से यही जाना है।

इतना आसान कहाँ था यहाँ आना। यह दूरी तन से ज्यादा मन की थी और थकान बेहिसाब। जब मन के विपरीत चलो तो ऐसे ही टूटता है तन, अंग–अंग ऐसे ही जबाब देते हैं, अपने अनुभवों से जानती हूँ यह भी। वरना पांडव नगर से महावीर एन्क्लेव की दूरी कोई उतनी बड़ी दूरी तो नहीं थी, वह भी तब जब सफर सुभीतापूर्ण हो। हाँ, दफ्तर की गाड़ी आई थी और छोड़ गई थी गली के मुहाने तक। मुहाने तक इसलिए कि आगे का सफर नंगे पाँव ही संभव था… और मैं तो सिर्फ नंगे पाँव ही नहीं कोरा मन भी साथ लेकर चली थी, बगैर किसी लिबास, बगैर किसी आवरण वाला मन, जो पाँवों से ज्यादा जख्मी और लहूलुहान था ।

आप सब सोच रहे होंगे कोई उम्र दराज महिला हूंगी मैं। अनुभव की गाथाएँ तो उसी उम्र में गाई जाती हैं! पर नहीं, मेरी उम्र अभी सिर्फ 24 हैं। कई बार हालात हमें इतना तेज चलने को मजबूर करते हैं कि उम्र-वूम्र सब गौण बातें हो जाती हैं।

यहाँ आने के पहले मैंने हर संभव कोशिश की थी कि मुझे यहाँ आना न पड़े। सचमुच मैं नहीं चाहती थी यहाँ आना या फिर इन परिस्थितियों का सामना करना पर अक्सर हम वह कर जाते है जो हमें बिलकुल भी नहीं करना था। हमारी मजबूरियाँ हमसे करा ही लेती हैं सब। नहीं आती तो फिर करती क्या? चौथी नौकरी, और अगर यह भी चली जाती तो....? फ्रीलांसिंग करके तो जिया नहीं जा सकता था अब, इस नन्हीं-सी बच्ची के साथ...

तब की बात अलग थी। तब उसके स्कूल का खर्च, उसकी आया का खर्च और इस तरह के बहुतेरे खर्च कहाँ थे... सो निभ गया किसी भी तरह ।

तो हारकर जाना पड़ा था, सामना करना पड़ा था, उन अनचाही स्थितियों का जिनका सामना मैं बुरे से बुरे सपने मेँ भी करने से कतराती थी। जिस दुख की तरफ मुझसे देखा तक नहीं जाता था । दफ्तर या कि आस-पड़ोस में किसी ने अगर चर्चा छेड़ दी तो या तो मैं कतराकर निकल जाती या फिर बातचीत की दिशा ही मोड़ देती। मैं ताकना भी नहीं चाहती थी उस तरफ। मैं आँख भी नहीं मिलाना चाहती थी उस दुर्घटना से। अखबार में कुछ दिखा भी तो मोड़कर रख देती। हालांकि मेरे स्वभाव और काम दोनों को देखते हुए लोगों को यह हैरतअंगेज़ जान पड़ता था।

आज वह सबकुछ बिल्कुल मेरी आँखों के आगे खड़ा था और मुझे देखना था उस तरफ। नजरें मिलाकर बात करनी थी। आज कतराकर नहीं निकल सकती थी मैं। मुझे देखना ही था वह सबकुछ, उन सबकी नजर से।

... वह नहीं थी वहाँ पर लगातार थी, भरपूर थी– पिता की आँखों मेँ नमी बनकर, माँ के वाचालपन मेँ उनका दर्द बनकर और भाईयों की स्मृति में उसके खरीदे हुए स्वेटर, रुमाल और उपहार बनकर। जो थे वो नदारद थे और वह नहीं होकर भी वहीं थी- करीने से सजाकर रखीं गई किताबों में, भाइयों के उस बक्से में जिसमें उसके द्वारा बांधी गई राखियाँ सँजोकर रखी हुई थी...

वह दिन भी रविवार था और यह भी एक रविवार ही। तारीख भले 16 दिसंबर नहीं था, पर यह था तो एक वैसा ही सर्द दिसंबरी दिन ...

16 दिसंबर से जुड़ी कुछ खास यादें मेरी भी हैं और जिसे मैं अच्छे-बुरे के पलड़े पर तोलना नहीं चाहती।

मैंने गौर किया– दीवार में लगी चूने की परत कहीं ईंटों में जज़्ब हो चुकी थी और दीवारों से झाँकती ईंटे चीख-चीखकर घर की माली हालत बता रही थी... कमरे में एक चौकी थी और दो कुर्सियाँ। मैं बिटिया को चौकी पर बिठाते हुए खुद कुर्सी पर बैठ गई। उसका छोटा भाई मेरे लिए पानी ले आया था, फिर स्टील के ही दूसरे गिलास में शर्बत ।

उसकी माँ मेरी तीन वर्षीया बिटिया के ठीक बगल में आ बैठी थी, न जाने उसे किन निगाहों से देखती और उसका सिर सहलाती हुई । पिता जब बहुत बुलाने पर आए तो ठीक मेरे बगल में आ बैठे थे ।

अमूमन मैं बच्ची से किसी अजनबी को यूं प्यार करते देख चौंक जाती हूँ । थोड़ी डरी-डरी और अनमनी हो उठती हूँ। पर अभी ऐसा नहीं था। मन कर रहा था बेटी को उठाऊँ और उनकी गोद मे डाल दूँ। पर डर था कहीं फूट-फूटकर रो न पड़ें वह या फिर बच्ची ही न चीख पड़े किसी अजनबी की गोद मे जाकर।

बच्ची को यूं साथ-साथ लेकर घूमना मेरा शौक नहीं था, आदत भी नहीं। पर इन दिनों जैसे मजबूरी हो चली थी। सिवाय दफ्तर के मैं उसे हर जगह कलेजे से चिपकाए फिरती। चाहकर भी न समझ पाती की आखिर क्यों... मेरे कमरे की दीवारें जानती थीं यह बात। रात को मेरी बांहे उसके गिर्द से हटती नहीं, घनी से घनी नींद में भी नहीं... और अचानक उसके साथ खेलते-खेलते मैं कैसे उसे कलेजे से भींच लेती हूँ ।

यूं नींद आजकल वैसी घनी आती भी नहीं। पार्ट–टाइम नौकरानी, सोसाइटी के चौकीदार, स्कूल के टीचर्स और गेटकीपर तक को मैं ताकीद किए रहती हूँ, ‘जब तक मैं न आऊँ...’ हर दिन दफ्तर से लौटने के बाद जब बेटी को कलेजे से लगाती हूँ तो लगता है न जाने कितने जन्मों के बाद... न जाने कबसे दूर थी वह मुझसे....

माँ ने फिर उस दिन कहा था- ‘घर आ जा, अब बहुत हुआ ...’

मैंने पूछा था- ‘कौन सा घर माँ, पति का घर ...या फिर मेरे भाई-भाभियों का घर? वहाँ जहां मेरे लिए कोई जगह नहीं थी... ताने सुन- सुनकर जहां मेरा जीना मुहाल हुआ जा रहा था?’

‘अपनों की दो बात सुन लेने में कोई हर्ज नहीं। खा थोड़े ही जाएंगी वे.... और नहीं तो फिर अपने घर ही.....पर यूं अकेले अब और नहीं...’

मैं सोच कर सिहर उठती हूँ – ‘’;माँ तुम जानती हो सबकुछ फिर भी... मैं कहीं नहीं लौट सकती माँ, लौटूँगी तो..’

‘तू आ जा बस! तेरे भाइयों और पापा को मैं समझा लूँगी। देख इतनी जिद नहीं करते। इसी जिद ने तो...’

‘तो आप ने भी आज आखिर कह ही दिया न! आप ही कैसे बची रहतीं.. .हाँ जिद में और खुद की मर्जी से मैंने की थी वह शादी... फिर?’ मेरी आवाज भर्रा उठती है...

माँ जैसे शर्मिंदा सी हो उठी हैं – ‘मैं तुझे कुछ नहीं कहती, न कभी कुछ कहूँगी ...पर मेरी बात तो सुन....’

मैं फोन रख देती हूँ... मेरी नन्ही सी बिटिया अपनी टुइयां–मुइयां उँगलियों से मेरे आँसू पोंछ रही है... मैं उसे बाँहों मे उठाकर किचेन में लिए आई हूँ र किचन के प्लेटफॉर्म पर उसे बैठाते हुए प्यार से पूछती हूँ– ‘’मेरी गुड़िया रानी आज क्या खाएगी... आज इसका क्या खाने का मन है ?

वह कहती है- ‘मैगी। ‘

‘अच्छा तो बेबी कॉ मैगी चाहिए! मैं अभी बनाती हूँ तुरत-तुरत। मम्मा का भी आज मैगी खाने का मन हो रहा है…’

सच तो यह है कि मुझे मैगी बिलकुल पसंद नहीं।

... सच कहूँ तो मैं चाहे लाख आँखें चुराती रही हूँ पर क्षण भर को भी मैं उसे भूली नहीं। पीछा करता रहा है वह दृश्य मेरे दुस्वप्नों में। जब भी बेटी को सुलाने के बाद खुद सोने का उपक्रम करती, आँखों के सामने वही कुछ दृश्य, वही बिम्ब... मैं चादर झाड़ती… तकिये का कवर बदलती... हाथ-पैर, मुंह धोकर आती। कभी-कभी तो नहाकर भी। पर खयाल आते ...और –और आते ...मैं करवट बादल लेती, जैसे ख़यालों का सबका मेरे इस करवट से हो...मैं बालकनी में आ खड़ी होती ...जैसे सोच की नाल कहीं इस कमरे में गड़ी हो...पर खयाल थे कि फिर भी पीछा नहीं छोड़ते थे...दृश्य आँखों कि आगे घूमता होता चलचित्र बनकर ...मैं जाड़े कि दिनों में भी पसीने से भर उठती ...लौटती बच्ची के पास और उसे सीने से लगा लेती ...जैसे यह सब करने से उस दृश्य से छुटकारा मिल जाएगा ..

हाँ .मैं पहचानती हूँ उन नजरों को, मैं पहचनती हूँ उन चेहरों को ...उस एक मनःस्थिति को भी जिसमें सारे चेहरे एक से हो उठते है-आंखों माँ वाचालपन, देह मे अकड़, व्यवहार में हेठी और व्यक्तित्व में लोलुपता ...कुल मिलाकर कहें तो एक अजीब सा मर्द होने का गुमान ;अक्सर साबका पड़ता है मेरा ऐसे पुरुषों से। देर रात दफ्तर से लौटते हुए ...सीट न मिलने पर देह को रगड़ती-छीलती स्पर्शों में।आँखों –ही आँखों में कच्चा चबा लेनेवाली निगाहों में ;चुपके से दबाने –नोचने के प्रयासों में ...

मैं चिल्ला उठती हूँ, चीखती हूँ ...चीखकर ही कहती हूँ, -ठीक से या कि सीधे नहीं खड़े रह सकते आप ....या कि कौन है...., अभी पकड़कर जूते लगाऊँगी ...पर आजकल माँ कि सीख को सुनते- गुनते हुए थोड़ा गम खाना सीख रही हूँ, खुद को बचाना भी ...माँ कहती हैं-सोच ...तेरी एक बेटी है, तुझे उसे बड़ी करना है ;उसके लिए जीना है तुझे, कुछ हुआ तो तेरी बच्ची को ....

गम खाना सीख कि लड़की की जात है ....सीखा लिया होता तुझे तो शायद तेरी ज़िंदगी आसान हो गई होती ...यह मेरी ही गलती है...

माँ कहती रही हमेशा से और मैंने गम खाना सीखा ही नहीं ...उस दिन लौटकर, बेटी को बाँहों मे लेकर रो ही तो पड़ी थी फफककर ...नहीं, सीखना ही होगा यह गम खाना, आज अगर मुझे कुछ हो गया होता तो ...नाममात्र कि लड़कियों वाले उस बस में उस दिन सब मर्दों के चेहरे एक से, सबके चेहरों पर वही एक भाव – बाद में उन्हीं में से किसी एक ने वाचालता से कहा था –‘मैडम इतनी परेशानी है तो ऑटो –टॅक्सी से जाती, बस में सवारी करने कि जरूरत ही क्या थी...’ और कई चेहरे हंस पड़े थे एक साथ फिक्क से, यह मैंने उनकी तरफ सीधे-सीधे न देखते हुए भी जान लिया था ...

फिर सोच सकती हूँ उस लड़की की पीड़ा...उसके माँ –बाप का दर्द ...

मैं अभया की माँ के बिलकुल सामने थी, दरवाजे पर ही उसके पिता से साबका हो चुका था, मैंने जब नमस्कार किया तो वे प्रत्युत्तर मे चुप ही रहे थे ;अपनी उन्हीं पनियाई –भीजी आँखों से मुझे चुपचाप देखते हुए ...मैं हड़बड़ाई थी थोड़ा क्योंकि मेरे कोई तयशुदा प्रश्न नहीं थे, मैं तो फकत यह सोचती रही थी कि सामना कर सकूँ उस माँ का ...झेल सकूँ मैं वह दर्द;सो सबकुछ उस मुलाक़ात पर ही छोड़ दिया था।

’आपके लिए दिल्ली कितनी बदल गई है ?’.मेरे इस एकाएक के सवाल से वह भी चौंक उठी थी और मैं भी .

अचानक से आए इस सवाल के जबाब में वो मुझे भरपूए देखती हैं, देखने और सोचने के इस उपक्रम में मेरी बेटी के सिर से उनकी हथेलियाँ हट जाती हैं । उनकी आँखें न जाने कहाँ खोई हुई हैं ;जैसे ढूंढ रही हो अपने ही भीतर कुछ या फिर उस गह्वर अतीत में ...खोज-ढूंढकर न जाने क्या लाई है वे, खुद को सहेजती हुई कहती हैं - मेरी शादी बाईस साल कि उम्र में हुई थी ? तब पढ़ने –लिखने का बहुत शौक था मुझे पर सात बच्चों वाले, और जिसमें भी पाँच बेटियों वाले उस घर में मुझे यानि की उस घर की बड़ी बेटी को इसकी इजाजत नहीं मिल सकी .... मुझे ही गर पढ़ाने –लिखाने लगते तो फिर ...हाँ मेरी छोटी बहनों ने पढ़ाई की नौकरी भी की, पर मैं ...

परिवार और पति अच्छे थे सो राहत थी, पर पढ़ने –लिखने का वक़्त फिर भी नहीं था, दूसरे बरस मैं यहाँ आ गई थी । और फिर शादी के तीन साल के बाद हुई ....वे कुछ कहते-कहते सँभलती हैं और उसका जगजाहिर नाम लेती है ‘अभया’...... सो सोचा यह की अपनी सारे साध, सारे सपने अब तो उसी में देखूँगी, उसी कि आँखों से ....

पढ़ने –लिखने में बहुत अच्छी थी वो, उसने कभी भी मुझे निराश नहीं किया ....मैं खुश थी की जैसे भी हो उसके सपने पूरे हो रहे हैं और उसके ही बहाने मेरे भी... पर सपने ऐसे टूटेंगे कहाँ पता था ...

... अब तो दिल्ली पके हुए फोड़े कि तरह टीसती है, हमारी बेटी इतने साल बाहर रहकर आई ., पढ़ाई-लिखाई किया ...कहीं कुछ भी नहीं ...अपने घर में आकार यह सब हुआ ....जो बच्चा यही खेला –कूदा, पला –बढ़ा, 23 का होते –होते एक दिन यही खत्म ...और वह भी इस तरह ...किसको दोष दे हम... क्या कहें ....हिचकियाँ जैसे फूटी पड़ रही है उनकी, मेरी बढ़ी हथेलियाँ उन हथेलियों को थामने का हौसला नहीं जुटा पाती...

भरी-भरी आंखोवाले अभया के पिता और उनके पति उठकर उनकी पीठ सहलाते हैं, वे संभलती हैं और फिर वे चले जाते हैं, उठकर ...थोड़ी देर कि खामोशी के बाद वे फिर कहना शुरू करती हैं –

वे छह थे, अगर किसी में भी थोड़ी सी इंसानियत होती, , किसी में थोड़ा भगवान जागता तो...कोई गेट ही खोल देता, वह निकाल भागती ...पर किसी के मन में दया नहीं उपजी ...उतने से भी मन नहीं भरा तो वह स्टील का राड......

क्रमश..