सुराख से झाँकती ज़िंदगी Dr. Vandana Gupta द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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सुराख से झाँकती ज़िंदगी



मम्मा से लड़कर, गुस्सा होकर अपनी सहेली के घर गयी स्वरा तुरन्त ही लौट आयी थी . रह रहकर दोनों घरों की तस्वीर उसकी आँखों के सामने फ़िल्म की तरह चल रही थी.. एक तरफ अपनी जिद, अपना गुस्सा, अपनी इच्छाएं, पापा की विवशता और मम्मा का मौन संघर्ष.. और दूसरी तरफ बचपन की खास दोस्त अद्विका की चकाचौंध भरी जिंदगी, उसके मॉम डैड की रोमांटिक लाइफ.. सब कुछ .
वह एक अल्हड़ और नादान सी माता पिता की लाडली बेटी उम्र के उस दौर से गुजर रही थी जब आँखों में उगे सपने दिल में आकार लेने लगते हैं और दिमाग उनकी तसवीर जिन्दगी के कैनवास पर उतार लेना चाहता है. उसे एक ही बात परेशान करती थी कि अद्विका और उसके पापा एक ही ऑफिस में एक ही पद पर कार्यरत हैं फिर दोनों परिवारों की जीवनचर्या में इतनी असमानता क्यों? अद्विका के पास एक से बढ़कर एक ड्रेसेस, बैग्स, सैंडल्स अच्छा मोबाइल और उसके पास..?? गिनती की ड्रेसेस, एक ही कॉलेज बैग .
माता पिता के सामने यदा कदा उसकी परेशानी नाराजगी के रूप में लफ्जों में बयां हो जाती फिर खुद ही शर्मिंदा हो जाती . ऐसा नहीं कि उसके सपनों की उड़ान बहुत ऊँची हो, उसकी परवरिश ऐसे माहौल में हुई थी जहाँ जमीन से जुड़े रहकर आसमान के ख्वाब देखे जाते हैं और दूसरी तरफ अद्विका थी जो आसमान में ही उड़ती रहती थी.. एक स्वाभाविक ईर्ष्या और काम्प्लेक्स जन्म ले रहा था, वो जितना ही झटकने की कोशिश करती उतना ही वो उसे जकड़ने लगता था .

आज भी उसने नए मोबाइल की मांग की थी, और मम्मी ने उससे ज्यादा प्राथमिकता वाली जरूरतों की फेहरिस्त गिनवा दी थी . आज उसका बहुत दिनों से रोका हुआ नैराश्य उसके स्वभाव के विपरीत तेज़ आवाज़ में गुस्सा बन फूट पड़ा था . उसके मुख से निकले कठोर शब्द मम्मी के दिल पर हथौड़े की तरह गिरकर चोट पहुँचा रहे थे.. वह खुद भी ऐसा नहीं चाहती थी पर तीर तो तरकश से निकल चुका था.. उसमें यह देखने की हिम्मत नहीं थी कि माँ उस चोट से कितना घायल हो गईं हैं और न ही हमेशा की तरह इस स्थिति में उसके प्रति माँ का समझाइश भरा प्यार वह समेट पाने में सक्षम महसूस कर पा रही थी खुद को... माँ का हाथ झटकने के साथ ही उसने झटक दिया था.. माँ के प्यार को, उनकी बेबसी को और किशोरावस्थाजन्य समस्याओं से गुजर रहे ऐसे कितने ही बच्चों को समझती उनकी माओं की व्यवहार थेरैपी को भी..

आशा के विपरीत अद्विका के घर पर लगा ताला उसे चिढ़ाता सा लगा, पलटी ही थी कि अंदर कुछ खटर पटर की आवाज़ ने भयमिश्रित चिंता को जन्म दे दिया.. आजकल इलाक़े में चोरियां भी बहुत हो रही थीं.. थोड़ी हिम्मत कर दरवाजे के की होल में से अंदर झाँका... अचानक ही सुंदर नक्काशीदार दरवाजा एक जंग लगे दरवाज़े में बदल गया.. अद्विका की चकाचौंध भरी जिन्दगी की नंगी और कड़वी हकीकत सुराख में से झांकती आँखों के सामने उघड़ी पड़ी थी .

घर पहुंचकर वह सीधी माँ के पास गई, जो उसके थोड़ी देर पहले के अप्रत्याशित व्यवहार से अभी तक खामोश और चिन्तित बैठी थी.. वह माँ की गोद में गिरकर रोने लगी.. "मम्मा..! मुझे माफ़ कर दो.. मुझे नहीं चाहिए नया मोबाइल, कुछ भी नहीं चाहिए, मम्मा अब कभी आपका दिल नहीं दुखाऊंगी.. आप वर्ल्ड की बेस्ट मम्मा हो और पापा वर्ल्ड के बेस्ट पापा.. "

माँ ने उसे बाँहों में भर लिया.. "हाँ मेरी बच्ची, क्योंकि वर्ल्ड की बेस्ट बिटिया जो हमारे पास है.."

"मम्मा.. वो.. वो.. मैं अद्विका के घर गई थी.. वो नहीं थी घर पर, अंकल भी नहीं थे.. ताला लगा था.. पर मम्मी वो वहाँ पर.... वो आंटी और पापा के वो खड़ूस से गन्दी मूँछों वाले बॉस अंकल अंदर...." आगे के शब्द उसकी रुलाई में कहीं खो गए.. उसके विश्वास की तरह..

उसे अपने प्यार की छोटी सी दुनिया में समेटती माँ फिर से जड़ हो गई... वक़्त से पहले जिंदगी की एक कड़वी सच्चाई से रूबरू हो चुकी बेटी की समझदारी पर खुश होने के बजाय भविष्य में उठने वाले अनगिनत अविश्वास और प्रश्नों के कारण बेटी के सपनों और यथार्थ की जंग देखती हुई माँ की आँखें अपलक शून्य में निहार रही थीं..

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक