इच्छा - 9 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इच्छा - 9

वैसे तो डी डी शर्मा जी का व्यक्तित्व बाहर से एक ,
ज़िन्दादिल और हसमुँख व्यक्ति का था. किन्तु अन्तर्मन की कुछ पीड़ाये, कभी-कभार चेहरे पर झलक आती.
किन्तु पलक झपकते ही, उसे भी छुपा लेने मे उन्हे ,महारथ हासिल थी. डी डी शर्माजी की दो बेटियाँ और एक बेटा था. बड़ी बेटी की तो शादी हो गई थी . किन्तु एक बेटा जो बड़ी बेटी से छोटा था ,और छोटी बेटी की शादी के लिए हमेशा चिन्तित रहते थे . उनकी छोटी बेटी इच्छा से, तीन साल बड़ी थी. डी डी शर्माजी ने लड़के वालो को देने के लिए इच्छा से ही ,कई बार अपनी बेटी का बायोडाटा बनवाया. वैसे उनके लड़के के लिए तो रिश्ते आ रहे थे , किन्तु उनकी प्राथमिकता पहले लड़की की शादी थी. यही उनके जीवन की सबसे बड़ी चिन्ता थी. उनके लड़के की उम्र भी काफी अधिक हो रही थी . वैसे, विवाह के लिए दूसरा नंबर भी तो उन्ही का था. कई बार लोगो ने उन्हे समझाया, कि पहले लड़के की ही शादी कर दीजिये , पर डी डी शर्माजी हमेशा यह कह कर डाल देते , कि शादी के बाद लड़का कहाँ अपना रह जाता है, लड़के की शादी तो हो ही जायेगी, वे नई पीढ़ी को देखते हुए एक पूर्वाभास से ग्रसित थे. हॉलाकि एक दिन ऐसा भी आया कि, उन्होने अपनी ये जिद छोड़ कर बेटे के रिश्ते को मंजूरी दे दी,उस दिन हाथ मे दो बड़े मिठाई के डिब्बे लाकर पूरे स्टाफ को ,बड़े उत्साह से बताते हुए बाँटी. इच्छा को पास बुला ,"देख तुझे शादी मे जरूर आना है ! और कोई बहाना नही चलेगा ,और हाँ , साथ अपने उस लंगूर को भी ले आना. सिर्फ इन्वेटेशन कार्ड से काम चलेगा या घर पर स्पेश्यली कहना पड़ेगा." इच्छा मुस्कुराते हुए "सर,अभी तो दो महीने बाकी है,आप अभी से ही?? " हाँ, वी आई पी लोगो को पहले से ही इन्वाइट करना पड़ता है न ." इच्छा की खिचाई करते हुए डी डी शर्माजी ने कहा. स्टाफ मे बहुत से लोगों के घर शादियाँ पड़ी,पर बहुत बुलाने के बावजूद भी , इच्छा कही शामिल न होती, यहाँ तक कि आफिस मे शाम को निर्धारित गेट टुगेदर मे भी , कभी शामिल न हुई. पर, यह शादी तो उसके अपने बॉस के घर की थी. अतः इस शादी मे सम्मिलित होना उसके लिए आवश्यक भी था ,सो उसने तैयारी करनी शुरू कर दी, सबसे पहले उसने अपने पति को साथ चलने के लिए मनाया पहले तो साफ मना कर दिया. लेकिन काफी प्रयास के बाद वह तैयार हो गया. लेकिन इच्छा को अभी विश्वास न था. उसे भय था कि कहीं इनके विचार मौके पर बदल न जाये. अपने घर की हर जरूरतो के केन्द्रबिन्दु डी डी शर्माजी ही थे. आटे,दाल से लेकर सब्जी तक उन्हे सबके भाव पता थे,अतः शादी कि सारी जिम्मेदारियाँ उन्ही पर थी, वैसे,उनका बेटा भी स्वयं सब करने मे सक्षम था,किन्तु अपने काम को लेकर , वह किसी पर भरोसा न करते. उन्हे हमेशा लगता जितनी खूबी से मै काम कर सकता हूँ दूसरा कोई नही. डी डी शर्माजी आये दिन छुट्टी लेते,कभी -कभी तो इच्छा को काम सौंप , ऑफिस के बीच से ही उठकर चले जाते.खैर, वह दिन भी आ गया जिसका डी डी शर्मा जी और उनके परिवार के साथ -साथ पूरे स्टाफ को इन्तजार था. इच्छा की तैयारी पहले से ही थी पर, पति की न हाँ के बीच आखिर मे हाँ हो गई . आधा किलोमीटर से लेकर गेस्ट हाउस तक लगातार कारों की कतारें लगी हुुई थी . जो उसी समारोह मे शिरकत करने आयी थी. गेस्ट हाउस अगल-बगल मॉलो से घिरा हुआ , किन्तु अपने आप मे अकेला ही था .अर्थात वहाँ एक ही गेस्ट हाउस था. इच्छा के हाल मे प्रवेश करते ही सबकी नजर उस पर और उसके पति पर टिक जाती है. डी डी शर्माजी उसे देखकर बहुत खुश हुये, शायद उन्हे इस बार भी लग रहा था, इच्छा नही आयेगी , उसके पति को तो सबने पहली बार ही देखा. डी डी शर्माजी इच्छा की तरफ देख कुछ इशारा करते है ,जिसका अर्थ शायद उन दोनो की जोड़ी को लेकर था.उस शादी मे कई सारी कम्पनियों के सी ई ओ और वी आई पी आये हुये थे . बहुत बड़े मैदान मे वहाँ की भीड़ यह बता रही थी कि वे एक बहुत व्यवहारिक व्यक्ति हैं. शादी के कार्यो से उत्पन्न थकान को दो दिन ने खतम कर ,डी डी शर्मा जी ने पुनः नियमित आफिस ज्वाइन कर लिया. किन्तु सप्ताहांत तक शादी की तैयारियो से लेकर मेहमान नवाज़ी तक के अलवा कोई नया विषय न था बात करने का. वैसे इस शादी मे लड़की वालों की तरफ की भी जिम्मेदारी डी डी शर्मा जी को ही निभानी पड़ी थी . इसका एक कारण यह था कि वेे अन्य शहर से थे . लेकिन डी डी शर्माजी ने भी जिस प्रकार अपनी बूढ़ी हड्डियों से यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई वह काबिले तारीफ थी. लेकिन यह मौका भी किसी और के लिए न छोड़ते, एक -एक को बुला वहाँ की सजावट, खाने पीने-पीने की व्यवस्था,स्वाद पूछते,तारीफ की हरि झण्डी मिलते ही एक लम्बी कहानी विस्तार से सुनाने लग जाते.अब यह विषय लोगो को इतने मजे न देता खैर, धीरे-धीरे विषय परिवर्तन होने लगा, लेकिन जब भी शादी की बात छिड़ती , वे अपने बेटे की शादी की कहानी दुहराने से न चूकते. एक दिन डी डी शर्मा जी इच्छा को बड़े गंभीर मुद्रा मे पास बुलाकर "तेरा लंगूर बहुत खूबसूरत है.पर, हाँ तुझसे ज्यादा नही." इच्छा सर पर हाथ पडकते हुए "धन्य हैं सर आप"और दोनो ही जोर से हँस पड़ते हैं. लोगो को हँसाने का उनका यह भी एक तरीका था .आमतौर पर लोग शिक्षा को उम्र सीमा मे बाँधने की कोशिश करते है. जिसका अर्थ किताबो से ही सम्बन्ध रखता है.लेकिन इच्छा की असल शिक्षा तो उम्र की लकीर के बाहर से शुरू हुई.कठिनाईयाँ उसकी शिक्षक थी ,और उनसे निपटने का उपाय उसका ज्ञानार्जन. अक्सर डी डी शर्माजी की बाते इच्छा के लिए जीवन का रहस्योत्घाटित करती सी लगती , जो आमतौर पर लोगो के लिए सामन्य या नजर अन्दाज करने जैसी थी. ऐसा इसलिए भी था, कि वह हमेशा अतःकरण मे कोई न कोई प्रश्न दबाये रहती, या यह कहना ठीक होगा उसका अन्त:करण ही प्रश्नोत्पादक था.कभी -कभीउसके प्रश्नो का प्रकृति भी जवाब दे जाया करती . डी डी शर्मा जी की बातो को बड़े गौर से सुनती
और मनन करती .इच्छा का मानना था,कि पके व्यक्तियो के अनुभव कच्चे कैसे हो सकते हैं.आखिर अठ्ठत्तर साल का सफर तय कर चुके है वे. वैसे बिन माँगे ,या बिन पूछे ,लगभग रोज ही अपने जीवन के कई सारे अनुभव, डी डी शर्माजी इच्छा के साथ साझा करते रहते.इसी तरह एक बात इच्छा के दिमाग मे इस प्रकार बैठी , कि उसका जीवन को देखने का नजरिया ही बदल गया , अचानक, एकदिन इच्छा को पास बुलाकर कहा, "इच्छा जो खुद का सम्मान न करे ,दुनिया से इसकी अपेक्षा केवल एक भ्रम है़" बिना कारण डी डी शर्मा जी के मुँह से इतनी गहरी बात सुन ,उसे लगा मानो ईश्वर उसे कोई संदेश दे रहे हो .उसकी कई उलझनो का मानो वह एक उत्तर हो. अठ्ठतर साल की उम्र के पश्चात भी , डी डी शर्माजी याददाश्त बड़ी तेज थी . पिछले कई दिनो से इच्छा उदास सी रहने लगी थी.आफिस मे भी ज्यादा किसी से फालतू न बोलती, वैसे आमतौर पर डी डी शर्माजी से तर्क वितर्क कर लिया करती, किन्तु ,यह मौका उन्हे वे ही दिया करते . लेकिन अब वह उनकी किसी बात का जवाब न देते .शायद वह इस बात को महसूस भी कर रहे थे, इसीलिए, वे उसे बात करने के लिए उक्साने की कोशिश करते. इच्छा सब समझती थी .पर अन्तरमन रूपी आकाश की नीरसता को, भला बाहरी काले बादल कैसे मिटा सकते थे. इच्छा के लिए किया गया उनका हर प्रयास असफल ही जाता.आज डी डी शर्माजी इच्छा को अपने पास बुलाते है, इच्छा थोड़ा आश्चर्य मे, इसलिए क्योकि अब तक इतना भावहीन होकर डी डी शर्माजी ने कभी नही बुलाया था. पास जाते ही, डी डी शर्माजी ने अपनी जेब से एक बड़ी सी चॉकलेट और एक लिफाफा इच्छा के हाथ मे रखते हुए,"अरे बांगड़ू हैप्पी बर्थडे".इच्छा की आँख मे आँसू आ गये उसे तो खुद भी याद न था कि आज उसका जन्मदिन है. शादी के बाद उसके जन्मदिन का अर्थ ही खत्म हो गया था,हॉलाकि जब से इच्छा जॉब करने लगी थी , उसे अपने जन्मदिन पर सहकर्मियों को खुद ही पार्टी देनी पड़ती.ऐसा उसकी पूर्व की कम्पनी का नियम भी था, जो वहाँ के ऐम्प्लोयस ने खुद ही बनाये थे. तब से लेकर आज पहली बार इच्छा को किसी ने जन्मदिन की बधाई दी.
परन्तु कहते हैं कि घर के अन्दर यदि अँधियारा हो बाहर के हजार दीपक भी काम नही आतेे. इच्छा डी डी शर्माजी का आभार व्यक्त कर अपनी सीट पर पुनः बैठ गई. बात यहीं खत्म नही हुई . शाम को डी डी शर्माजी ने इच्छा के लिए जन्मदिन केक व समोसे वगैरह मँगवाए .हॉलकि इच्छा को इसके बारे मे कुछ भी पता न था. शाम को डी डी शर्मा जी ने पूरे स्टाफ को फोन द्वारा इकठ्ठा कर लिया.यहाँ तक कि वहाँ के मालिको को भी बुला लिया. कम्पनी मे मनाया जाने वाला शायद यह पहला जन्मदिन था, ऐसा उसे वहाँ के पुराने लोगों की बातो को सुनकर लगा. सबने इच्छा को बधाई दी लेकिन, कुछ लोगो के भाव शिकायत भरे भी थे.
शायद यह इच्छा और उनमे किये गये भेद भाव से उत्पन्न था. वैसे इसमे सिर्फ महिला वर्ग ही शामिल था.इच्छा को अक्सर अपना जन्मदिन उसके माता -पिता एवं इच्छा की बहनो द्वारा दी गई बधाई से पता चलता. वैसे वह इसे याद रखती भी तो क्या ,उसके लिए तो ये कोई खास उत्साह भरा दिन न था. एक दिन, वैसे तो डी डी शर्मा जी अक्सर कुछ न कुछ लाकर पूरे स्टाफ को बाँटते, किन्तु आज कुछ खास था. और वो यह कि उनके हाथ मे एक बड़ा सा टाफी का पैकेट था, वह जिसे भी उसमे से टॉफियाँ पकड़ाते ,इस वाक्य के साथ "आज मेरा जन्मदिन है" .इस वाक्य को सुनते ही लोग उनके पैरो की तरफ इस प्रकार झुकते ,मानो आशीर्वाद रूपी फल उठा रहे हों. इच्छा भी औरों को देख आशीर्वाद के लिए जैसे ही झुकने को आतुर होती है ,बीच मे ही डी डी शर्माजी यह कहते हुये रोक देते हैं", नही,नही बेटी लक्ष्मी होती है उनसे पैर नही छुआते , यह बात सुनते ही इच्छा को अपने पिता की याद आ गई ,उसके पिता भी यही कहते थे, बल्कि कभी कभार त्योहार पर वह, अपनी बेटियों के पैर भी छू लेते थे. डी डी शर्माजी के इस भाव से इच्छा बहुत प्रभावित हुई उसके मन मे उनके प्रति और भी सम्मान बढ़ गया. आज इच्छा ने भी अपनी तरफ से डी डी शर्माजी के लिए केक , व पूरे स्टाफ के लिए नास्ता मँगवाकर, पूरे स्टाफ के साथ मिल धूम धाम से उनका जन्मदिन मनाया.शाम को घर जाते समय डी डी शर्माजी इच्छा के पास आकर ,"इच्छा तुझे ये सब करने की क्या जरूरत थी.अच्छा बता कितने पैसे खर्च हुयें तेरे ." इच्छा ने कहा "सर वैसे तो आप मुझे अपनी बेटी मानते हैं , क्या आप पर मेरा हक नही.डी डी शर्माजी बिना कोई जवाब दिये ,सौ रूपये के दस नोट रबरबैंड मे लिपटे इच्छा के बार -बार मना करने पर भी ,यह कहते हुए कि "आज मेरा जन्मदिन है ,बड़े होने के नाते यह तुझे मै दे रहा हूँ, रख ले."
एक दिन इच्छा रोज की तरह सुबह कम्पनी के लिए निकलती है, तभी रास्ते मे ही उसे कम्पनी के बारे कुछ ऐसा पता चलता है, जो उसके लिए अविश्वसनीय और वेदनापूर्ण प्रतीत होता है. दरअसल रोज की तरह शाम को आफिस का काम खत्म कर लगभग साढ़े पाँच बजे ,इच्छा ऑफिस से घर के लिए निकल जाती है . दूसरे दिन सुबह ऑटो से उतरने के बाद जैसे ही रिक्शे पर बैठ कर पता बताने की नियत से रिक्शे वाले से कम्पनी का नाम लेती है . रिक्शे वाला रिक्शे से उतरकर ,इच्छा को हैरानी से देखने लग जाता है . इच्छा को भी यह अजीब लगता है .तभी रिक्शे वाला बोल पड़ता है "मैडम किस कम्पनी मे जाना है ,आपको | इच्छा ने कहा "अरे भैय्या, बताया तो था न, वह कम्पनी के नाम को पुनः दोहराती है ." मैडम आप वहीं काम करती है? रिक्शे वाला हैरानी से पूँछता है. " हाँ भैय्या मै वहीं काम करती हूँ पर आपको क्या "इस बार इच्छा थोड़ा चिढ़कर बोलती है. वैसे रोज आने -जाने की वजह से वहाँ के लगभग सारे रिक्शे वाले इच्छा को पहचानने लगे थे ,इसलिए रोज बिना कुछ कहे रिक्शे पर बैठ जाती, और रिक्शे वाला उसे उसके गन्तव्य तक पहुँचा देता. किन्तु आज जो रिक्शे वाला था उसे पहली बार इच्छा ने देखा था. आपको किसी ने नही बताया. आपकी कम्पनी तो बन्द हो गई, और कब खुले ये भी कहना मुश्किल है. " क्या बात कर रहे हो भय्या" ,इच्छा ने कहा, मेरे पास कोई फोन नही, कोई मैसेज नही आया . इसका मतलब कल की घटना के बारे में आपको कुछ नही पता . इच्छा, कैसी घटना? कल छः बजे कम्पनी का बॉयलर फटने से कई सारे मजदूर मौके पर ही खतम हो गये,और धमाका इतना तेज था कि आस- पास की बिल्डिंगे तक हिल गयी. इच्छा सबकुछ हैरानी से सुनती जा रही थी,मगर उसे अब भी यकीन नही हो पा रहा था. हो भी तो कैसे ,कल तक तो ऑफिस मे सब कुछ ठीक -ठाक छोड़कर गयी थी . अचानक शाम तक मे ही ऐसे कैसे बदल गया सबकुछ ,और यदि यह सही भी है ,तो रिक्शे वाले के बताये समयानुसार मै रास्ते मे ही तो थी .फिर मुझे आवाज सुनाई क्यो न पड़ी इच्छा सोचने लगी . खैर जो भी हो यहाँ तक आईं हूँ ,तो मुझे कम्पनी तक ले चलो. इच्छा कम्पनी मे पहुँचकर देखती है, कि सारा स्टाफ कम्पनी के बाहर खड़ा है,साथ ही आस पास के लोग भी वहाँ इकट्ठा है़, हैं . डी डी शर्माजी की नजर इच्छा पर पड़ती है, इच्छा आश्चर्य से भरकर इशारे से कुछ पूँछने को करती है, इससे पहले ही, डी डी शर्माजी अपने होठो पर उंगली रख, उसे चुप रहने का इशारा कर देते हैं. चार -पाँच पुलिस वाले भीड़ मे कुछ पूंछ- ताँच कर रहे होते है. उतने मे ही दो चार और पुलिसकर्मी फैक्ट्री से बाहर निकल कंपनी के मैनेजरो से पूँछ-ताँच मे लग जाते है. वैसे तो बाहर से फैक्ट्री की दूर्दशा का पता नही लग रहा था.इसका एक कारण यह भी था, कि ऑफिस की इमारत प्रोडक्शन हॉल से अलग थी .इस कारण उस तरफ का ही हिस्सा थोड़ा चिटका और शीशे काले पड़ गये थे. वह भी कम्पनी के अन्दर प्रवेश पर ही दिख सकता था, यह स्थिति जाँच पड़ताल के लिए पुलिस के साथ अन्दर गये कुछ लोगे द्वारा पता लगी ,वैसे किसी को अन्दर नही जाने दिया जा रहा था. कुछ प्रत्यक्षदृष्टा भी वहाँ मौजूद थे ,जिन्होने कल रूह मे कंपन पैदा कर देने वाली भीषण भयावह स्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव किया था .वे वहाँ उपस्थित लोगो को कल का हाल बता रहे थे.उनमे से ही एक जो वहाँ उपस्थित था शिव प्रसाद के साथ ही खड़ा था, इच्छा ने कल की घटना के बारे मे शिवप्रसाद से पूँछा .उसने विस्तार से बताना शुरू किया. मैमजी कल शाम लगभग साढ़े छः बजे ,आयल टेंकर लीकेज को वेल्डिंग मशीन द्वारा ठीक किया जा रहा था, कि अचानक चिन्गारी उस आयल मे पड़ते ही ,डेढ़ इंच मोटी चद्दर वाली टैंक मे ,आग लगकर फट जाता है.धमाका इतना तेज था , की आस-पास की सारी बिल्डिंगे तक हिल गई. कई मजदूर मर गये .एक मजदूर जो टैंक के ऊपर खड़ा था, उसकी तो हड्डियाँ तक न मिली. जो दूर थे उनकी तो हालत ऐसी थी, कि बाहरी खाल उतर कर मास वाला हिस्सा दिखने लगा था. आस -पास के सारे मजदूर मर गये. किन्तु
एक यही संतोषजनक बात है, कि वह समय छुट्टी का होने की वजह से वहाँ कम लोग उपस्थित थे. और दूसरा पास मे ही स्थित ब्वायलर ,यदि वह फटता तो, और भी भयावह स्थिति हो सकती थी. कल की जो स्थिति थी, उसका कारण केवल उन लोगो की लापरवाही ही थी .जो लोग उसका सिगार बने थे, मानो काल ने बुद्धि पर एक ऐसा जाल फैंका, की एक साथ कई उसके, गाल मे समा गये,उसके समय प्रबन्धन को अगर देखा जाये ,तो लगता है कि यह काल की पूर्व निर्धारित योजना ही थी, इसे भाग्य कहे या असावधानीपूर्ण अकार्यकुशलता , पर किसी ने अपना ऐसा अन्त ,न सोचा होगा . शिवप्रसाद की बात सुन इच्छा के सामने मानो कल की पिच्चर चल रही हो.उसका मन उस पीड़ा से भर गया ,जिसे कल यहाँ के मजदूरो ने अनुभव किया था.......क्रमशः