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सुकून

सुकून

“पापा..... पापा..... अरे मुग्द्धा, पापा को कहीं देखा है क्या? अपने कमरे में नहीं हैं। बाहर लॉन में भी नहीं हैं। कहां गए?"

"अरे वहीं कहीं होंगे। ठीक से देखो, जाएंगे कहां इस वक्त," मुग्धा ने तनिक खीजते हुए कहा।

कि तभी अनय की नजर अनिमेष जी के कमरे में उनकी टेबल पर रखे हुए पत्र पर पड़ी ।

प्रिय अनय बेटा,

कुछ दिनों के लिए आबोहवा बदलने मैं कहीं दूर जा रहा हूं। समय-समय पर अपनी कुशलता का समाचार तुम्हें देता रहूंगा। मुग्द्धा बेटी के साथ पहले की तरह हंसी खुशी रहना और मेरे घर छोड़ने के लिए उसे कतई दोष न देना। सदा सुखी रहो।

अनिमेष

अनय ने त्वरित गति से एक नजर में पत्र पढ़ा जिसे पढ़कर वह मानो अपनी सोचने समझने की शक्ति खो बैठा।

"मुग्द्धा, देखो पापा घर छोड़ कर चले गए। तुम ही उनसे दिन-रात लड़ती रहती हो। लो अब खुशियां मनाओ।"

पिता के यूं अनअपेक्षित रूप से घर छोड़कर चले जाने के बाद से अनय अत्यंत परेशान हो उठा। आज उसे पहली बार अफसोस हुआ था, मुग्धा को अपनी पत्नी के रूप में चुनाव करने पर। मुग्धा उसकी अपनी पसंद थी । बचपन से उसे अपने माता-पिता द्वारा सिखाया गया था, औरत का सदैव सम्मान करो। इसलिए जब मुग्द्धा और उसके पिता में तकरार होती, माता पिता द्वारा दिए गए संस्कार उसके आड़े आ जाते और वह मौन देखता रहता। मुग्धा से उसने प्रेम विवाह किया था। वह ऑफिस में उसकी सहकर्मी थी। अति कमनीय, तराशे हुए नाक नक्श वाली मुग्धा को वह पहली नजर में पसंद करने लगा था। सर्वोपरि वह उसकी बौद्धिकता से बहुत प्रभावित था। वह आम लड़कियों से एकदम अलग थी। उसके शब्दों से बौद्धिकता मानो कतरा कतरा टपकती। प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकें पढ़ना उसका प्रिय शगल था । मुग्धा भी यही शौक रखती थी। सो ऑफिस में जब भी दोनों संपर्क में आते, समान रुचि और शौक के कारण दोनों में खूब छनती और समय के साथ बढ़ती अपनी नजदीकियों को दोनों ने विवाह के रिश्ते की पहचान दी। विवाह करके दोनों बेहद खुश थे । उनके रिश्ते का रंग परस्पर प्रेम, समर्पण और विश्वास के रंगों से सज कर और गहरा होता जा रहा था।

अनय मुग्धा के विवाह के 5 वर्ष बाद अनय की मां को ब्लड कैंसर हो गया और महज 5 महीनों के भीतर उनकी मृत्यु हो गई। अनय पिता को अपने साथ मुंबई ले आया। अनिमेष पुराने विचारों के थे। उन्हें बहू का टी-शर्ट और पजामा पहन कर घर भर में घूमना खिन्न कर देता। बहू की रसोई में प्याज लहसुन के बिना कोई सब्जी नहीं बनती और अनिमेष जी को प्याज लहसुन से सख्त नफरत थी। बहू की रसोई में अंडा रोज पकता और अनिमेष जी के घर आज तक कभी अंडा नहीं आया था। साथ ही अनिमेष जी को हमेशा लगता कि उनकी बहू उन्हें वह मान सम्मान नहीं देती जिसके कि वे हकदार थे। यदि उसे अनिमेष जी की कोई बात पसंद नहीं आती तो वह स्पष्ट रूप से उन्हें वह कह देती। अनिमेष जी को बहू की यह बेबाकी जुबानदराज़ी लगती। अनिमेष जी बहू से चिढ़े चिढ़े रहते और लगभग रोजाना ही किसी न किसी बात को लेकर उनमें और मुग्धा में बहस और मनमुटाव हो जाता। मुग्धा को अनय के पिता तानाशाह लगते जो दुखी रहने के कारण बेटे की सारी सहानुभूति बटोर लेते । बहू से जब भी कोई बात हो जाती वह बेहद दुखी हो अपने आपको मौन के कवच में समेट लेते। कभी-कभी अपनी प्रिय सहचरी के साथ बीते हुए दिनों की याद कर झर झर आंसू बहाते। जिसे देख अनय अत्यंत उदास हो जाता । पिता की परेशान मन:स्थिति से उपजा क्रोध और आक्रोश पत्नी के प्रति कटुता और ठंडेपन के रूप में झलकता। हालत यह हो गई कि मुग्द्धा और अनय का पाँच वर्ष का वैवाहिक जीवन लगभग टूटने की कगार पर आ गया।

उस दिन मंगलवार था। वह युवावस्था से ही मंगलवार का व्रत रखते आ रहे थे। दोपहर में अपना झूठा गिलास रसोई में रखने वह आए थे कि उन्होंने देखा कि नौकर रामू ने अंडे की सब्जी के डोंगे में पड़े चमचे को उनके लिए बनाई गई आलू की सब्जी के डोंगे में डाल दिया । यह देख कर अनिमेष अदम्य क्रोध से रामू को डांटने लगे। उनकी डांट सुनकर रामू भी क्रोधित हो गया और उनसे बहस करने लगा जिसे देख कर अनय का पारा चढ़ गया और गुस्से में उसने रामू को घर से निकल जाने के लिए कह दिया।

रामू को यूं इतनी मामूली सी बात पर नौकरी छोड़कर जाते देख मुग्द्धा के हाथ पांव फूल गए। वह अनिमेष जी को तेज आवाज में रामू को निकलवाने का उलाहना देने लगी जिसे सुनकर अनिमेष जी अपने कमरे में जाकर सुबकने लगे।

उधर रामू के चले जाने से घर के सभी कामों का भार मुग्द्धा पर आ गया। रविवार का दिन था। बर्तनों से भरा सिंक, अस्त-व्यस्त गंदा घर और गंदे कपड़ों का ढेर जमा देखकर मुग्द्धा का गुस्सा दोबारा फूट पड़ा और क्रोध के अतिरेक में उसने अपना अंतिम निर्णय को सुना दिया। "अनय बहुत हुआ। मैं इतने दिनों से अपने खुद के घर में खुली हवा में सांस लेने को तरस गई हूं। अब या तो वह इस घर में रहेंगे या फिर मैं। अब तुम्हें फैसला करना है तुम्हें कौन चाहिए बीवी या पिता।"

मुग्धा का वह निर्णय सुन अनिमेष जी अवाक रह गए। उनकी अपनी बहू उनके साथ एक छत के नीचे रहने से इंकार कर देगी, यह उनकी सोच से सर्वथा परे था।

अपने भविष्य के बारे में सोचते हुए उन्होंने सारी रात करवटें बदलते आंखों ही आंखों में काट दी। बहुत सोच समझकर उन्होंने एक निर्णय लिया। वह अपने कॉलेज के दिनों के प्रगाढ़ मित्र जॉन के वृद्धाश्रम में रहने चले जायेंगे।

फिर उन्होंने सोचा, दिवाली का पर्व आ रहा था। क्यों ना बेटे बहू के साथ दिवाली मना कर ही वृद्धाश्रम जाएं लेकिन फिर उन्होंने विचार किया, इतनी मोह माया भी उनके लिए ठीक नहीं ।

अगले दिन बेटे बहू के दफ्तर जाने के बाद उन्होंने अपना सामान पैक किया और उनके लौटने से पहले एक चिट्ठी लिखकर अपनी टेबल पर रख दी जिसे पढ़ कर अनय अपना आपा खो बैठा।"

धनतेरस का दिन था लेकिन आज मुग्धा के घर में बियाबान सन्नाटा पसरा हुआ था। हर वर्ष धनतेरस पर पापा उसके लिए अपनी पेंशन के रुपए से सोने की कोई चीज खरीद लाते थे। दिवाली पर पापा हमेशा उसकी पसंद के मावे, मेवे भरी गुजिया और अखरोट की बर्फी घर से बहुत दूर पुराने शहर से लेकर आते थे। खुद भी खाते और कौर कौर मिठाई उसे और अनय के मुंह में अपने हाथों से देते थे लेकिन इस वर्ष घर में अभी तक मिठाई का एक टुकड़ा तक नहीं आया था। ना ही अनय ने हर वर्ष की भांति बिजली की झालर टांड़ से उतारी थी। अगले दिन मुग्धा अभी अभी बस उठी ही थी और सोच रही थी, पापा अकेले न जाने कहां और कैसे होंगे। एक बार फिर से पापा उसके विचारों के केंद्र बिंदु बन गए। रामू रोज नौ बजे तक आता था लेकिन रामू के आने तक एक बार पापा उसके और अनय के लिए चाय बना देते थे। पिछली बार जब उसे बुखार हुआ था पापा ने अनय को सुला कर खुद उसके पलंग के पास आराम कुर्सी पर रात गुजारी थी और उसकी देखभाल की थी। यहां तक कि समय पर दवाई की गोलियां तक वह उसके हाथ में देते थे। यह सब क्या था, पापा का उसके लिए गहरा लगाव और लाड़ ही तो था। वह उसे घर की बहू का पूरा मान और रुतबा देते थे। लेकिन क्या वह इन सब का उन्हें कुछ अंशों में भी प्रतिदान दे पाई । आज पापा के जाने के बाद मुग्धा को उनका लाड़ दुलार मान देना शिद्दत से याद आ रहा था।

तभी फ़ोन की घंटी घनघनाई और मुग्धा ने झपट कर फोन उठाया । दूसरी ओर से एक अपरिचित आवाज ने उससे कहा, "अनय से बात हो सकती है?"

"जी वह अभी सो रहे हैं। कहिए क्या काम है? में मुग्द्धा, उनकी पत्नी बोल रही हूं।"

"अच्छा मुग्धा बेटी, मुझे बस इतना बताना था अनिमेष जी यहां हैं।"

"वहां है? आप बस अपना पता बताइए, मैं अभी आधे घंटे में वहां पहुंचती हूं।"

आधे घंटे में खुद गाड़ी चलाकर मुग्धा मिस्टर जॉन के वृद्द्धाश्रम में पहुंच गई। मिस्टर जॉन और अनिमेष जी के चरण स्पर्श कर उसने पापा से कहा, "पापा मैंने आपका कई बार मन दुखाया है। आगे से मैं आपको शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी। बस अब अपने घर चलिए।"

उधर घर लौटते हुए अनिमेष जी सोच रहे थे उन का बनवास तो महज 3 दिनों का रहा। वह तो अपनी अयोध्या में मात्र 3 दिनों में वापस आ गए, लेकिन अब उन्हें भी अपनी ओर से शायद प्रयत्न करने होंगे कि भविष्य में मुग्द्धा के साथ टकराव की स्थिति कभी ना आए। इसके लिए उन्हें थोड़ा उदार बनना होगा। मुग्धा की कमियों को आधुनिक समय और नई पीढ़ी की मांग समझते हुए उन्हें नजरअंदाज करना होगा ।

पापा को मुग्धा के साथ घर वापस आया देख अनय खुशी से झूम उठा। लेकिन तभी उसने एक संकल्प और लिया। इस बार तो पापा वापस आ गए लेकिन इस बात की पुनरावृति कतई नहीं होनी चाहिए किसी भी हालत में। इस बार वह थोड़ी सख्ती से मुग्धा को अपना दो टूक निर्णय सुना देगा कि अब पिता के साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकने की बात कभी उसकी जुबान पर दोबारा नहीं आनी चाहिए। अब उसे ताउम्र पिता के साथ रहना होगा। वह उसे समझाएगा कि वह पापा को अपने पिता समान समझे और उनकी पुरातन पंथी मान्यताओं और सोच को समझते और स्वीकारते हुए उनकी इज्जत करे और अपने शालीन व्यवहार से उनकी स्वाभिमानी प्रवृत्ति को तुष्ट करते हुए उनकी सौम्य बुजुर्गीयत का मान रखे।

इधर वह पापा को भी समझाएगा कि वह मुग्द्धा के प्रति अपने विश्लेषणात्मक और नकारात्मक नजरिए को छोड़कर उसके अपरिपक्व अहम भरे आचरण और आधुनिक जीवन शैली को कच्ची उम्र का तकाजा, नासमझी और समय की मांग समझते हुए मन से स्वीकारें तो दोनों के मध्य आपसी सामंजस्य की समस्या स्वत: हल हो जाएगी। यदि पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी दोनों एक दूसरे के दृष्टिकोण के चश्मे से हर विवादास्पद मुद्दे का तार्किक विश्लेषण करें तो पीढ़ियों के अंतर से उपजे मसले स्वयं सुलझ जाएंगे।

वह गंभीर चिंतन कर रहा था कि एक पति और एक बेटा होने के नाते उसे मुग्द्धा और पापा दोनों को अपने विश्वास में लेकर इन सब का एहसास दिलाना होगा। इस सोच ने उसे अपूर्व सुकून दिया।

दिवाली की बहुप्रतीक्षित सुरमई शाम होने आई। रात्रि की कालिमा धरती को अपने आगोश में लेने को आतुर धीमे-धीमे उतर रही थी। पापा के लौट आने से घर में दिवाली की उमंग और उल्लास मानो दोगुना हो उठा। मुग्धा घर के प्रवेश द्वार पर मद्धम रोशनी से टिमटिमाते दिए रख रही थी। पापा मुग्द्धा के साथ किसी बात पर हंसते हुए अत्यंत खुश लग रहे थे। उन्हें आनंदित देख अनय का अन्तर्मन भी मानो सैकड़ों दीयों की रोशनी से जगमगा उठा।

यह कहानी राजस्थान पत्रिका में 26.10. 2016 को प्रकाशित हो चुकी है

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