जी-मेल एक्सप्रेस - 30 Alka Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जी-मेल एक्सप्रेस - 30

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

30. अज्ञात से मुलाकात

रात का खाना बन चुका है, मैं विनीता के फ्री होकर लौटने की राह देख रहा हूं। हालांकि मुझे पूरा भरोसा नहीं कि मेरी बात को वह कितनी गंभीरता से लेगी? कहीं वह मेरी हंसी ही न उड़ाने लगे, आखिर मैं भी तो उसके पूजा-पाठ को लेकर कभी गंभीर नहीं रहा।

खाना बनाकर विनीता अपने मंदिर में संध्या-पूजन के लिए चली गई है। यानी करीब आधा घंटा गया। मैं व्यग्र हो रहा हूं उससे बात करने को, मगर उसका रूटीन पूरा हो तब न! दीप जलाकर उसने पूरे घर में घुमा दिया और फिर दीवार की ओर मुंह करके बैठ गई।

‘‘नम म्यो... हो... रेंगे क्यो... ’’ उसने पाठ प्रारंभ किया।

अरे, मैं उछलकर बैठ गया।

ये तो पहले से ही इस दुनिया में मौजूद है, मैं ही देर से पहुंचा हूं। तो इसने यहां भी बाजी मार ली। पता नहीं, वह कब से इस प्रैक्टिस में है, मगर मैंने आज पहली बार इसका जाप सुना है और महसूस किया है कि मेरी और उसकी दुनिया अलग-अलग नहीं है।

मैं धीरे से उठा और विनीता के पीछे बैठकर उसके सुर-में-सुर मिलाने लगा। हमारा सम्मिलित स्वर कमरे में गूंज रहा है... मैं इस शरीर से ऊपर उठ गया हूं... संगीत बनकर गूंज रहा हूं, दसों दिशाओं में... मेरी शिरा-शिरा स्पंदित हो रही है... मैं सितार हो गया हूं और मेरा रोम-रोम झंकृत हो उठा है...

विनीता को मेरे साथ आ बैठने से आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। उसने प्रश्नवाचक मुद्रा में मेरा स्वागत किया, ‘‘आज तुम कैसे आ गए इसमें ?’’

‘‘तुम कैसे जानती हो फेथ के बारे में?’’ मैं आश्चर्य से भरा था।

‘‘मुझे अंतरा ने जोड़ा।’’

‘‘अच्छा, तो वो भी जुड़ी है इससे!’’ मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी, “यानी हर कोई जानता है इसके बारे में, मैं ही सबसे पीछे था।”

‘‘तुम्हें किसने बताया इसके बारे में?’’

‘‘अच्छी बातें अच्छे लोगों तक किसी-न-किसी रास्ते पहुंच ही जाती हैं।’’ मैंने मुस्कराकर कहा।

आज काफी समय बाद मैं और विनीता साथ-साथ खाना खा रहे थे। दरअसल, साथ तो रोज ही खाते थे, पर साथ होते नहीं थे। अकसर ही ये समय लिविंग रूम में चल रहे किसी टीवी सीरियल की भेंट चढ़ जाता था। मुझे बातचीत के साथ भोजन करना बहुत तृप्ति देता है। मां को अकसर देखता था कि वह खाने के वक्त पिता जी को पास-पड़ोस की खबरों से अवगत कराती रहती थी। यह समय एक प्रकार से आंतरिक समाचारों का होता था। गांव से चिठ्ठी आई, फसल अच्छी कटी या बरबाद हो गई, या फिर किसके घर लड़का-बच्चा पैदा हुआ, किसकी लड़की की शादी कहां तय हुई, वगैरह, वगैरह। ये सूचनाएं शहर आ चुकने के बाद भी हमें गांव से जोड़े रखती थीं और पारिवारिक ऊष्मा से संबंधों को प्रगाढ़ करती थी। आज हम भी उसी तृप्ति के साथ भोजन कर रहे थे और एक बड़ी दुनिया के परिवार का हिस्सा बनते जा रहे थे।

मुझे महसूस हो रहा है कि मेरे और विनीता के बीच एक सुगंध आ समायी है... यही गंध हमारे बीच का संबंध है... इसी गंध में समूची सृष्टि समाई है... यही गंध दसों दिशाओं में फैली है... मादक गंध... कस्तूरी गंध... मैं आह्लाद से भर उठा हूं, देह की केंचुली से परे, मैं हवाओं से हलका होकर ऊपर उठने लगा हूं...

मैं अज्ञात से मिल रहा हूं, कभी नाद के रूप में तो कभी गंध के रूप में...

अब तक मैं विनीता की पूजा-भक्ति से डरता था कि कहीं वह एक दिन संन्यासी तो नहीं हो जाएगी? वह इस संसार से, मोह-माया से विरक्त तो नहीं हो जाएगी? मगर आज अनुभव कर रहा हूं कि ईश्वर का रूप प्रेम में है, वैराग्य में नहीं। साक्षात्कार का यह अनूठा अहसास दुनिया को नकारता नहीं बल्कि स्वीकारता है... मेरे भीतर इतना प्रेम उमड़ रहा है कि डरता हूं, कहीं बाढ़ न आ जाए। मैं हर किसी से जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूं, वसुधैव कुटुम्कम को महसूस कर रहा हूं, हर किसी के लिए बेहतर जीवन की कामना कर रहा हूं।

मैं पूर्णिमा की सदबुद्धि और सम्माननीय जीवन के लिए प्रार्थना कर रहा हूं... गीतिका के बेहतर स्वास्थ्य और सोनिया के उचित मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना कर रहा हूं... मिसेज विश्वास की संतुष्टि के लिए प्रार्थना कर रहा हूं...

मेरी दुनिया में कई चेहरे हैं जिन्हें मैं ठीक से पहचानता भी नहीं, मगर उनके लिए भी प्रार्थनाएं कर रहा हूं... सब मेरे कितने अपने हैं, आत्मीय हैं...

मेरे भीतर किसी के लिए कोई दुर्भावना नहीं है...

मैंने हर किसी को क्षमा कर दिया है... खुद को भी क्षमा कर दिया है...

हैरान हूं, मेरे भीतर के संशय अहसास के स्तर पर उत्तरित हो रहे हैं।

आजकल बहुत उल्लसित रहने लगा हूं। दिल बिना बात ही बल्लियों उछलता रहता है। हर दिन नयेपन के अहसास से भरा है, हर कदम एक नई मंजिल है, हर पल एक खुशी इंतजार में खड़ी है... मैं अपनी ग्रंथियों से बाहर आ रहा हूं, खुद पर ही मोहित होने लगा हूं, मंदिर की घंटियों की आवाज, वंशी की मोहक धुन हर वक्त कानों में गूंजती रहती है...

‘‘आपका मोबाइल बज रहा है, मिस्टर त्रिपाठी।’’

मिसेज विश्वास की बात से चौंककर देखा, स्क्रीन पर ‘अभिषेक कॉलिंग’ फ्लैश हो रहा है। अरे, मैं उल्लास से भर उठा। परसों शाम ही तो मैं अभिषेक से बात करने के लिए अधीर हो रहा था, देखो आज खुद उसी ने फोन कर दिया। क्या इसी को टेलीपैथी कहते हैं? या फिर, मेरी कामनाएं पूरी होने लगी हैं? भरपूर आस्था के साथ मैंने फोन उठा लिया, ‘‘हलो, अभिषेक?’’

‘‘पापा, मैं एनडीए में सिलेक्ट हो गया।’’

‘‘अरे!’’ मैं उल्लास से भर उठा, ‘‘तो ये कहानी थी देहरादून की...’’

‘‘मगर मम्मी मुझे जाने तो देंगी न?’’

अभिषेक के सवाल ने पसोपेश में डाल दिया।

‘‘अगर रोक दिया तो क्या तू रुक जाएगा?’’

‘‘नहीं पापा, नहीं रुक सकता।’’

‘‘तो फिर तैयारी कर न अपनी, मैं संभाल लूंगा विनीता को।’’

‘‘सच पापा?’’

‘‘सुखोई की कसम!’’ मैं हंसने लगा।

बचपन से ही वह फाइटर पायलट बनने का सपना देखा करता था। सुखोई विमान तो उसके जीवन का लक्ष्य था। उसके कमरे की दीवारों पर, कबर्ड के पल्लों पर सुखोई विमान की कई सारी तस्वीरें चिपकी रहती थीं। सुखोई का वास्ता दे-देकर, अंतरा उससे क्या-क्या नहीं करा लेती थी और वह भी सुखोई की कसम पर मर-मिटने को तैयार हो जाता था। मैं जानता हूं, अभिषेक की मंजिल यही है। इसके अलावा वह और कहीं जा भी नहीं सकता था।

मैंने उसे कह तो दिया कि विनीता को संभाल लूंगा, पर क्या सच में संभाल लूंगा? पता नहीं, उसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी। कहीं जो वह जिद पर अड़ गई कि अभिषेक को डिफेंस में नहीं जाने देगी तब मैं उसे किस तरह समझाऊंगा?

क्या ऐसा भी संभव है कि वह खुशी-खुशी ‘हां’ कर दे?

क्या मैंने अपने भीतर अभिषेक का यह निर्णय स्वीकार कर लिया है?

अभिषेक ने आज अपनी जिंदगी का सबसे अहम निर्णय लिया है, कुदरत ने उसके हक में फैसला दिया है, फिर मैं सोच में क्योंकर पड़ा हूं कि विनीता मानेगी या नहीं?

शाम तक अभिषेक देहरादून से वापस लौट आएगा। इसी उधेड़बुन में दिन निकल गया कि विनीता को इस बारे में कैसे बताया जाए। हालांकि मैं उस पर संशय ही क्यों कर रहा हूं, जबकि एक समय वह खुद फौज में भरती होने के लिए उत्सुक रहा करती थी। फिर भी, खुद फौज में जाने की बात करना और बेटे को लड़ने के लिए भेजना, दो अलग बातें हैं। कुछ तो संशय अभिषेक के मन में भी रहा ही होगा जो उसने यह खबर सीधे-सीधे विनीता को नहीं दी, वरना रोजाना तो वह विनीता को ही फोन करता था। खैर, अगर आज उसने मुझे फोन किया तो इसी उम्मीद से किया होगा कि अगर मां नहीं मानी तो मैं अभिषेक की पैरवी करूंगा।

मुझे लगा, इस बारे में पहले से विनीता से कुछ कहना ठीक नहीं होगा। बेहतर होगा कि मैं अभिषेक की उपस्थिति में ही इस प्रसंग को छेड़ूं ताकि विनीता को इसके विरोध में तैयारी करने का मौका ही न मिले।

“एक खुशखबरी है,” खाने की मेज पर, तीनों की उपस्थिति में मैंने भूमिका बनाई।

‘‘अभिषेक एनडीए में सिलेक्ट हो गया!’’ मैंने विनीता को पूरे उल्लास के साथ बताया जैसे आपत्ति वाली कोई बात ही न हो।

विनीता ने हैरानी से देखा। एक पल उसके चेहरे पर बिजली-सी कौंधी, फिर अगले ही पल उसने खुद को संयत कर लिया।

‘‘चलो, तुम्हारी मर्जी भी पूरी हो गई कि तुम एनडीए पास कर गए, अब इसे छोड़ने का मलाल नहीं होगा...’’ विनीता ने लापरवाही से अभिषेक की ओर देखा।

अभिषेक की निगाह एक पल को मुझसे मिली, जैसे वह अपनी बात में मेरी रजामंदी शामिल कर रहा हो।

‘‘ममा, डू और डाइ वाली सिचुएशन होती है फौज में, छोड़ने का तो मतलब ही नहीं।’’

एक-एक शब्द साफ, आंखों में चमक, चेहरे पर आत्मविश्वास।

मैं हैरान था कि यह मेरा खामोश बेटा एकाएक कैसे इतना बदल गया? लगता है, मैं किसी बेहद जिम्मेदार व्यक्ति से बात कर रहा हूं जो अपने दायित्व के प्रति पूरी तरह सजग और चौकस है और अपनी जवाबदेही स्वीकारने को तैयार है।

विनीता भी शायद ऐसा ही महसूस कर रही थी। विस्मित निगाहों से वह कुछ पल उसे देखती रह गई, फिर उठकर उसके करीब जा पहुंची।

‘‘इस ‘डू और डाइ’ से ही तो डरती हूं बेटे,” विनीता की आवाज में लड़खड़ाहट थी, “और भी तो कितने ही विकल्प हैं, तू जहां कोशिश करेगा, वहीं कामयाब होगा...’’ उसकी आंखों में भय और लाचारी की डोरियां खिंच आई थीं।

‘‘मैं जानता हूं मम्मा...’’

अभिषेक कुछ कहता, मगर विनीता ने उसे झटके से रोक दिया, ‘‘तू नहीं जानता, एक फौजी की मां या पत्नी किस खौफ के साए में सांस लेती है, तू नहीं जानता...’’

‘‘कम ऑन मम्मा, मरना तो हर किसी को है, मगर शहीद कोई-कोई होता है।’’

‘‘कितनी याद रखी जाती है ये शहादत? छब्बीस जनवरी को झंडा फहराया, शहीदों की पत्नियों को तमगे पहनाए और जलसा खत्म! बहुत हुआ तो रोजी-रोटी चलाने के लिए सरकार ने शहीद के परिवार में किसी को कोई नौकरी या फिर एकमुश्त कोई रकम दे दी। बस! हो गया? क्या एक शहीद का परिवार इसी तरह की परवरिश का हकदार है?’’

अभिषेक हताश हो गया। मैं जानता हूं, अभिषेक के पास अभी बहुत से तर्क हैं, वह अपना पक्ष रख सकता है, मगर विनीता की बॉडी-लैंग्वेज बता रही है कि वह कुछ सुनेगी ही नहीं। मैंने अभिषेक को बाहर जाने का इशारा किया और विनीता के करीब चला आया। विनीता ने उम्मीद भरी नजरों से मेरी ओर देखा।

‘‘हमें बच्चों के विचारों को मान देना होगा।’’

मेरी बात से वह बिफर पड़ी, ‘‘तो तुम भी उसी की पैरवी करने आए हो? ...हां, मैं दुश्मन हूं उसकी, नहीं मानूंगी उसकी बात!’’

‘‘एक समय तुम भी तो कितनी दीवानी थी, फौज में जाने के लिए?’’ मैंने उसी से सुनी उसके बचपन की याद दिलाई, ‘‘जो तुम चाहती थी और नहीं कर पाई, वह तुम्हारा बेटा कर रहा है, तुम्हारा अपना अंश... आखिर तुम्हारी कोख में पला है, तुम्हारी भावनाओं से अछूता कैसे रह सकता है? ’’

मैंने उसे याद दिलाया कि अभिषेक किस तरह बचपन से ही फौज का दीवाना हुआ करता था और सुखोई के पीछे उसकी दीवानगी तो दुनिया से परे थी।

“उसकी दुनिया तो सुखोई की दुनिया है, विनीता। इसके बिना उसकी दुनिया में बचता ही क्या है! उसे मत रोको...”

विनीता सब समझकर भी समझने को तैयार नहीं थी।

‘‘देखो देवेन, यह देश ऐसा नहीं जिसके लिए कुरबानी दी जाए। करता ही क्या है वह अपने जांबाजों के लिए? कदम-कदम पर समझौते, हथियारों के सौदे में दलाली। वहां सीमाओं पर देश के जवान शहीद हो रहे हैं और यहां दलाली में कमाए नोट गिने जा रहे हैं... ऐसे लोगों के लिए जान को दांव पर नहीं लगाया जा सकता।’’

‘‘ये तुम कह रही हो विनीता?’’ मैंने उसे बीच में ही रोककर याद दिलाया, ‘‘तुमने ही कहा था न, कि शहादत की कीमत इस कारण नहीं कि मरने के बाद सरकार उसे क्या देती है या समाज उसे क्या देता है, शहादत से तो व्यक्ति खुद को संतुष्ट करता है कि वह अंतिम सांस तक अपने फर्ज पर डटा रहा, पीठ दिखाकर नहीं लौटा...’’

मैं विनीता को उसी की जबान में उसी की बातें याद दिला रहा था, ‘‘यह देश क्या करता है, क्या नहीं, इसका फैसला तो हमारे हाथ में नहीं, मगर हम देश के लिए क्या करते हैं, यह जरूर हमारे हाथ में है।’’

विनीता ने एक गहरी सांस भरी तो लगा, जैसे वह मुझसे सहमत तो है, मगर मोहवश वह खुल कर हामी नहीं भर पा रही।

“तुम्हारे भीतर एक फौजी पुत्र ने नौ माह देशभक्ति की सांस भरी है, आज उसकी मैच्योरिटी का आनंद उठाओ, विनीता।” मैंने उसकी हिम्मत बढ़ाई, “तुम्हें फेथ पर फेथ है न? उसकी प्रेयर्स पर भरोसा है न? तो छोड़ दो सब कुछ उस पर... कर दो उसके हवाले खुद को, अभिषेक को...’’

मेरी बात पर विनीता ने अपनी आंखें मूंद लीं, जैसे सचमुच खुद को उसके हवाले कर दिया हो। मैंने देखा, बंद पलकों से मोती की तरह दो बूंदें झिलमिला पड़ी थीं।

(अगले अंक में जारी....)