गर्मियों की ही बात है. रमा रोटियां सेंक रही थी, पसीना-पसीना होते हुए. सुमित्रा जी बेलतीं, और रमा सेंकतीं. किशोर उस समय साल भर का भी नहीं था. रसोई के ठीक आगे की छत पर छोटी काकी उसे छोटे से खटोले पर लिटा के हवा कर रही थीं. इसी बीच कुन्ती रसोई में पहुंची और रमा को दूध गरम करने का आदेश दिया-
“रमा, बाई ज़रा भैया (किशोर) के लिये दूध कुनकुना कर देना.”
“हओ जिज्जी, अब्बई करत. बस जा तवा पे पड़ी रोटी सेंक लें....! बस अब्बई ल्यो.”
आदेश की अवहेलना! कुन्ती को ये कहां बर्दाश्त था!
“अच्छा! पहले रोटी सिंकेगी? बच्चे का दूध गरम नहीं हो पायेगा? लो, अब सेंको रोटी...!”
रमा कुछ समझ पाती, सुमित्रा जी सम्भलतीं, तब तक कुन्ती ने रमा के हाथ से चिमटा छुड़ा के दरवाज़े से बाहर की ओर फेंका, एकदम भाला फेंक स्टाइल में. स्कूल में खेल-कूद में भाग लेने वाली कुन्ती का निशाना वैसे भी अचूक था. रसोई से फेंका गया चिमटा, हवा में लहराता, सीधे बाहर खटोले पर लेटे किशोर के बायें पैर पर गिरा. एक तो चिमटा, उस पर गरम. नन्हे-कोमल बच्चे का पैर.....! कम से कम तीन इंच लम्बा और लगभग दो इंच गहरा घाव हो गया. खून की धार लग गयी. इस अचानक हुए चिमटा-वार से छोटी काकी घबरा गयीं. समझ ही न पाईं कि हुआ क्या? तब तक रमा दौड़ के बाहर आ गयी थी. थर-थर कांपतीं सुमित्रा जी अचकचाई सी खड़ी थीं. रमा ने चिल्ला के हल्दी लाने को कहा तो होश में आईं. छोटी काकी और रमा ने घाव में हल्दी भरी, कपड़ा जला के ठूंसा, लेकिन खून था कि रुकने का नाम ही न ले. बच्चा रो-रो के बेहोश होने की स्थिति में पहुंच गया. उधर कुन्ती अलग “हाय राम मेरे लड़के को मार डाला” ऊंचे स्वर में गा-गा के रो रही थी. नीचे बैठक में दादा जी ने आवाज़ सुनी तो भागते हुए ऊपर आये. घटना जानने का न समय था न ज़रूरत, वे बस किशोर को गोद में उठा के गांव के डाक्टर के पास दौड़े. डाक्टर साब ने दवाई भर के पट्टी तो कर दी, लेकिन तुरन्त ही शहर ले जा के टांके लगवाने की सलाह भी दे दी. मामला चूंकि तिवारी जैसे रसूखदार परिवार का था, तो डाक्टर खुद भी कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था. आनन-फानन जीप से दादाजी और भी कई लोग झांसी पहुंचे. टांके लग गये, घाव भर गया, लेकिन उस खूबसूरत, कोमल बच्चे को जीवन भर की आंशिक विकलांगता दे गया. जब किशोर ने चलना शुरु किया, तो उसी पैर में हल्की सी लचक आती थी. बड़े होने पर लचक कम हो गयी. इतनी कम कि ध्यान देने पर ही समझ में आती थी.
बाद में, जब तिवारी परिवार के बच्चे बड़े हो रहे थे, बाहर पढ़ने जा रहे थे, बाहर ही नौकरी कर रहे थे तो कभी एक कुनबे के रूप में रहने वाला ये विशालकाय परिवार , छोटे-छोटे हिस्सों में टूटने लगा था . जब घर के उन बुज़ुर्गों ने देवधाम की राह पकड़ ली थी, जिनके कहे से पूरा परिवार चलता था, जिनका प्यार सबको बांधे था, तब कौन बांधे रखता इतने बड़े परिवार को और क्यों बांधे रहता?