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भगतसिंह


यह नारा जिसने दिया वो भगतसिंह के बारे मे आज कुछ लिखने का मन है मे आज उसके बारे मे एक पुस्तक पढ़ रहा तब सच मे मैं हैरान रह गया की कोय इंसान इतनी हद तक देश के लिए मर मिटने का जस्बा कैसे रख सकता है !! 23 साल 5 महीने और 26 दिन इतनी कम उम्र मे इस आदमी ने पढ़ भी लिया, लिख भी लिया, जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर हत्या भी कर दी, एसेम्बली मे बम्ब भी फोडा, अंग्रेजो की नींद हराम कर दी, करोडो हिंदुस्तानीओ के दिल मैं आजादी का जस्बा भी पैदा कर दिया, और हस्ते हस्ते फांसी पे भी चढ़ गया...

इतनी कम उम्र जी के और इतने काम कर के उसने साबित कर दिया की अगर हिंदुस्तान का नौजवान अगर चाहे तो कुछ भी कर सकता है.भगतसिंह ने कभी उसके जीवन को संघर्ष की नजरों से नहीं तोला उसने हमेसा एक बलिदान की तरह देखा है, एक बलिदान के तोर पे जिया है देश के लिए मर मिटने के लिए उसने उसके जीवन को जिया है..


काफ़ी सारे लोगो ने आजादी के लिए अपने प्राण की आहुति दी है जैसे की सुभाष बाबू, गाँधी जी, नहेरु ऐसे अनगिनत नाम है अगर बहार की बात करे तो स्टैलिन, लेनिन, वॉशिंगटन, सब कोय अपने अपने समय के महान विचारक थे.. लेकिन कोय भगतसिंह जितनी कम आयु मे फांसी को चढ़ गया हो और 23 साल की उम्र मे इतनी सारी सिद्धि हासिल कर ली हो ऐसा कोय भी नहीं है..


वैसे वो बड़े ख़ुश मिजाजी भी थे हमारे यहां क्या होता है की कोय नेता या क्रन्तिकारी की बात आये तब हम ऐसे ही सोचते है की हा वो एक दम सीधा सादा होगा सिर्फ वो क्रांति के बारे मे ही सोचता होगा तो हुजूर एक बात कह दे की वो भी एक आम इंसान ही था कोय फरिस्ता नहीं था अभी भगतसिंह की बात करे तो वो चार्ली चैप्लिन के काफ़ी सोखिन थे वो अपना खाना एक टाइम कम खा कर शो देखने जाते थे वो और राजगुरु और राजगुरु का ये ऐतिहासिक बयान है की भगतसिंह को लड़कियों से बचाते बचाते दम निकल जाता था मतलब की लड़किया मरती थी उस पर और खुद भगतसिंह का भी मानना था की प्रेम के बगैर क्रांति कैसे हो सकती है संभव ही नहीं है और वो कहते थे की अभी हिंदुस्तान की भूमि प्यार करने के लिए अच्छी नहीं है अभी ये गुलाम भूमि है हम जब अगले जन्म मे आज़ाद भारत मे पैदा होंगे तब अपनी महबूबा से इश्क लड़ाएंगे.वो जब एसेंबली मे बम्ब फेकने जाने वाले थे उसके एक घंटे पहले दुर्गा भाभी से मिले थे और उसके मनपसंद रसगुल्ले और संतरे खा रहै थे और उसने जब बम्ब फेका तब वो 3 दिन से एसेंबली जा रहे थे तो वहां पहले दो दिन भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त एसेंबली का काम निपटा के सिनेमा देखने चले जाते थे.तो इस प्रकार से जीवन था उसका.



सब लोग कहते है की गांधीजी या कांग्रेस के लोगो ने उसको फांसी से बचाने के लिए कुछ नहीं किया लेकिन मेरा मानना है उसके विचार पढ़ने के बाद की अगर वो आदमी को फांसी से बचा भी लिया जाता तो वो खुद दूसरी बार एसेंबली मे बम डालके आता क्युकी उसके सोचने का तरीका ही कुछ अलग था वो मानते थे की अगर मे जिन्दा रहा तो लोगो के सामने मेरी बुराई भी आ जाएगी तो मे जिन्दा रह के जो नहीं कर पाउँगा वो मेरी मौत कर देंगी. भला अभी ऐसे आदमी को तो कौन रोक सकता है जिसको मरने का जस्बा हो और वो सोचता हो की मेरी मौत से मे क्रांति करूंगा.एक बार उसके वकील ने कुछ दया अर्जी की बात की तो भगतसिंह ने खुद गवर्नर को ऐसे अर्जी भेज दी की हमें फांसी नहीं हमें गोलियों से उड़ा दो. क्या जूनून रहा होगा उसको मौत को गले लगाने के लिए.

उसके केस की जब सुनवाई हो रही थी तब सुभाष बाबू, मोतीलाल नहेरु जैसे काफ़ी सारे बड़े बड़े नेता सुनवाई मे आते थे वो घंटो भर लाइन मे धुप और बरसात सहन करके पास के लिए खडे रहते थे.

आज जब JNU के छात्र जब उसको अपना हीरो मान कर भारत को तोड़ने की बात करते है तब लगता है की भगतसिंह को पढ़ने की नहीं लेकिन उसके विचारों को समझने की जरुरत है..

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