लौट आओ तुम... ! - 3 - अंतिम भाग Zakia Zubairi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लौट आओ तुम... ! - 3 - अंतिम भाग

लौट आओ तुम... !

ज़किया ज़ुबैरी

(3)

आपा बिस्तर से निकलीं और सीधी शावर में जाते जाते बीबी से कहा, “मुझे भी आंवला शिकाकाई ला दो, बाल धोने हैं। और हां साबजी का नुस्ख़ा भी मुझे दे दो। मैं दवा ले आउंगी।”

“नहीं आपा अभी जल्दी क्या है। अगले महीने मैं हौलिडेज पर जाउंगी तब आप ही को साबजी का सारा काम करना होगा। बिलकुल ऐसे ही जैसे मैं करती हूँ...!

आपा कांप गई कि क्या वे इतनी सहजता और सरलता से सब कुछ कर भी पाएंगी ?... और क्या अब उनको मेरा काम पसंद भी आयेगा...! क्या वे मुझे भी ‘तू’ करके प्यार से बुलाएंगे। आज आपा को ‘तू’ में कितना प्यार दीख पड़ रहा है। उनके परिवार में तो ‘तू’ कहना बुरा समझा जाता था। कहते थे कि क्या पंजाबियों की भाषा बोलनी शुरु कर दी है? आपा को यह शब्द तब भी प्यारा लगता था और आज तो तरस रही हैं उस ‘तू’ के लिये जिसमें अपनाइयत है, प्यार है, बेतकल्लुफी है और ना जाने क्या क्या छुपा है इस ‘तू’ में। भगवान को भी तो अच्छा लगता है ‘तू’ कहलवाना।

शायद मुझे जाने से पहले आपको ट्रेलिंग देनी पडेगी आप तो सब कुछ भूल भाल गई होंगी।।!

वार पर वार किये जा रही थी बीबी और आपा चुप साधे अपने अतीत में डूबती चली जा रही थीं। नीच लोगों से सामना करना आपा को आता नहीं था। नीच सोचकर ही आपा चौंक गई कि कहीं बीबी ने सुन ना लिया हो! मगर ऐसा नहीं था; बीबी अपनी छोटी छोटी अंदर को धंसी चिंगारी जैसी आंखों से आपा के चेहरे के उतार चढाव अनपढ़ होते हुए भी पढ़ने का जतन कर रही थी।

आपा चिंतित हो गईं जैसे चोरी पकड़ ली हो बीबी ने।

“ठीक है, जाने से पहले समझा देना सब कुछ। ” आपा ने घुटी घुटी आवाज़ में कहा और थूक ऐसे ज़ोर से गटका कि बीबी की आंखें चमक उठीं। यही तो वह चहती थी...। आपा सफल न होने पाएं। परेशान हो जाएं... अगर साबजी को कहीं आपा की आदत फिर से पड़ गई तो वापस आकर फिर से नये सिरे से जाल बुनना होगा... मकड़ी के जाल को हवा का हलका सा स्पर्श भी बिखेर देता है। बीबी फिर से बिखरना नहीं चाहती थी। अपने वतन, अपनी झोंपड़पट्टी छोड्कर परदेस में जम जाना कोई आसान काम नहीं होता... फिर बिलायत में बरफ़ की ठंडक । अंग्रेज़ी बोलते भारतीय मूल के बच्चे, सर्दियों में काले काले नंग धड़ंग ऊंचे ऊंचे पेड़ और ऊपर से काली काली लम्बी लम्बी रातें...। अगर साबजी न होते तो रात काटे ना कटती...।

बीबी वह अंधेरा फिर से अपने जीवन में नहीं आने देगी...। उसने प्रण किया अपने से और आपा की ओर देखे बिना ऊपर चढ़ गई... विजेता बनकर। अपनी छोटी सी गरदन अकड़ाए... छाती आगे को निकाले। जब से मोटापा चढ़ता जा रहा था तब से दुपट्टा भी सर से उतरता सीने से ढलकता हुआ अलमारी में बंद हो गया था। मुम्बई से जब जन्म-दिन के जोड़े आते, बूढ़ा पति बडे चाव से गोटा किनारी लगा दुपट्टा भेजता तो बड़ी लहरा कर उसका मज़ाक़ उड़ाती। मालूम नहीं उनको कि मैं बिलायेत में रहती हूं...। यहां क्या करना इस गोटा किनारे वाले दुपट्टे का ?

आपा ने देखा बीबी महीना भर पहले ही से धीरे धीरे सामान जमा करने लगी थी। साबजी के साथ घर का सौदा लाने जाती क्योंकि साबजी ने घोषित कर दिया था कि अब वे आधे रिटायर होने के बाद से घर की शॉपिंग आप ही करेंगे जिससे उनके बदन में चुस्ती बाक़ी रहे। इस लिये अब आपा को घर चलाने के पैसे भी नहीं मिलेंगे और घर की ग्रॉसरी भी ‘वे’ आप ही लाएंगे ‘सेंज़बरी’ से। बीबी मदद करने जब उनके साथ बन सवंर कर बाज़ार जाती तो कुछ न कुछ अपने लिये भी लाती और आपा को हंस हंस कर दिखाती कि ये मैंने घर ले जाने के लिये अपने पैसों से लिया है। आपा जवाब में सिर्फ अपनी ख़ामोश मुस्कुराहट ही बिखेर सकती थीं। उनका ख़ानदानी बैकग्राउंड इजाज़त नहीं देता था ओछी बात कह देने के लिये।

आपा शायद इंतज़ार करने लगी थीं बीबी के चले जाने का...। पर उनको स्‍वयं भी नहीं मालूम था कि क्यों...? आख़िर वे ऐसा क्यों चाहती हैं ? साबजी की तरफ़ से तो वे स्वयं भी जैसे जाड़ों वाली बरफ़ बन गई हैं। वह बरफ़ जो खिड़की के छज्जे से लटकी सूरज की राह तकती है, जिसकी गरमी हासिल कर पिघल कर पानी बन मिट्टी की गोद में समा जाने को, मुक्ति मिल जाने को। वे सर्दियां जिन में बीबी को तो गरमाहट मिल जाती है, और आपा स्वयं ठंडे पानी जैसे बिस्तर की सिलवटों पर गर्मी के लिये तरसती, तड़पती देर तलक नींद की राह तकती धीरे धीरे आंखें मूंदती सो जाने का प्रयत्न करतीं रहती हैं।

आजकल आपा से कुछ आशाएं छेड़-छाड़ करती रहती हैं। कुछ रौशनी उनको भी नज़र आने लगी है। पर कभी कभी वे डर सी जाती हैं कि मैं ऐसा क्यों सोचने लगी हूं। मगर आशा तो आशा ही होती है आशा न हो तो इन्सान का जीना दूभर हो जाये और फिर आशा पर तो किसी का पहरा नहीं होता...! आपा को भी हक़ था कुछ उम्मीदें, कुछ आशायें अपने मन में सजा लेने का। अब उनको बिस्तर से भी कोई शिकायत नहीं रह गई थी। सोचती थीं कि थोड़े दिनों ही की तो बात है, बीबी के जाते ही मैं सब कुछ वैसे ही करुंगी जैसे यह करती है...।

उस दिन घर में सन्नाटा सा था...। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई मौत हो गई हो। बीबी हर काम दो दो बार करने लगती थी। दुबारा चाय ले आई “आपा, सॉरी चाय देना भूल गयी थी। अरे आप चाय पी तो रही हैं...। क्या मैंने चाय दे दी थी आपको ?” आज लहरा कर नहीं, ख़ामोशी से गरदन झुकाये कमरे से निकल गई...। आपा मग लेकर कमरे से निकलीं तो बीबी सीढ़ियों पर ख़ामोश बैठी थी... साबजी का चाय पिया हुआ मग दोनों हाथों में दबोचे हुए। आपा को देख कर जल्दी से उठ कर उनका भी मग हाथ में लेकर नीचे चली गई। आज साबजी के ऑफ़िस जाने के बाद टैक्सी से उसे भी चले जाना था। आपा को आश्चर्य था कि साबजी एयरपोर्ट नहीं ले जा रहे... ?

आपा मौक़ा पाते ही सवेरे उठ कर चाय बनाकर ले आईं। दोनो की चाय एक ही डिज़ाइन के दो रंगों के मगों में दोनो मगों पर लव यू लिखा था। एक गुलाबी और दूसरा नीला था। जब वे दोनों स्विटज़रर्लैंड गये थे तो वहां से इंटर्लाकन की एक दूकान से ख़रीदा था। दोनों अकेले वक़्त गुज़ारने एक साथ एक दूसरे के होकर रहने ज़्युरिख से दोस्तों का साथ छोड़ इंटर्लाकन की खूबसूरत पहाडियों पर चले गये थे।

साबजी बाथरूम से निकले, चाय देख कर खुश हुए। टी.वी. लगाकर खबरें सुनने लगे...। दोनों ने चाय ख़त्म की तो आपा ट्रे में मग रखती हुई नाश्ते का ऑर्डर लेने लगीं। ‘’उससे आपने नहीं पूछा कि मैं क्या नाश्ता करता हूं... ? मेरा सीरियल, एक उबला अंडा हाफ़ बॉएल्ड हो, एक राइस क्रैकर सेब काट कर और फिर जब मांगूं तो कॉफ़ी ले आइयेगा। आपा ख़ुश हुईं कि उनको भी बीबी की तरह ऑर्डर मिल गया...। कुछ बात बनती नज़र आने लगी।

नाश्ता लेकर ऊपर आयीं तो हाथ कांप रहे थे। ट्रे भारी हो गई थी...। मगर इतना सब खा कर वे पेट क्यों नहीं भारी महसूस करते ? आपा ने सोचा और जल्दी से उनकी तरफ देखने लगीं कि कहीं सुन तो नहीं लिया! टाई की गिरह नहीं लगा पा रहे थे शायद आदत छूट गई थी। गिरह लगाकर कॉलर कस कस कर खींचकर बंद करना पड़ा तो इतना कस गया था कि बटन की जगह गरदन पर चुनन पड़ गई थी। आपा खड़ी सोचती रहीं कि अब क्या करना चाहिये...। जल्दी से जूता ढूंढने लगीं। अरे ! आप तो जूता पहन भी चुके ! मुंह से बस अचानक ही निकल गया। आप को बहुत पुरानी बात याद है कि मैं जूता आख़िर में पहना करता था...। ब्रीफ़ केस नीचे पहुंचा दीजये।

आपा ब्रीफ़ केस लेकर बिलकुल बीबी की तरह उसको सीने से लगाए नीचे उतर गईं। कपड़ा लेकर कस कस कर घिस घिस कर चमकाने लगीं। फाइनैंशियल टाइम्स उठाकर ब्रीफ़केस पर रखा और खुश हुईं कि मैं तो सब कुछ वैसे ही बिलकुल बीबी की तरह ही कर रही हूं... ’वे’ खुश होंगे मेरे कामों से भी। यह सोचकर खूबसूरत होंठ गाल समेत ऊपर को चढ़ गये, प्यारी सी मासूम मुस्कुराहट चेहरे पर फैल गई। आंखें शर्म से झुक गईं। सामने ही बड़ा सा शीशा लगा था, उसमें नज़र पड़ी तो कुछ सिहर सी गई। चुपके से उठीं और गाउन उतारकर एक तरफ डाल दिया। सफ़ेद बारीक नाइटी सीने की ऊंचाई से नीचे को गिरती हुई उज्‍ज्‍वल शीतल झरने जैसी मालूम होने लगी। जैसे पहले उनको रुख़सत किया करती थीं...। वे कैसे दबोच लिया करते थे...। उनकी चीख़ सी निकल जाती थी...। क़दमों की आहट से सतर्क हो गईं और सिहर भी गई कि कहीं...। आज शायद वे मना कर दें कि ऑफ़िस नहीं जाएंगे। वे धीरे धीरे चलते हुए नीचे आ रहे थे मोबाइल कान से लगा हुआ था...। चुपके चुपके मध्धम सुरों में बात कर रहे थे...। आपा नीचे खड़ी सफ़ेद नाइटी में ख़्वाबों के ताने बाने बुन रही थीं और कहीं बहुत दूर से समुद्र की लहरों से टकराती हुई आवाज़.....धाड़ें मारती कानों से टकराई...।

‘’ तू जल्दी वापस आ जा...। मैं तुझको बहुत मिस कर रहा हूं....!’’

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