भीड़ में - 2 Roop Singh Chandel द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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भीड़ में - 2

भीड़ में

(2)

उन्होंने तीन महीने के अन्दर ही चुपचाप पड़ोसी गांव के शिवधार यादव को खेत बेच दिए थे. इस प्रकार गांव से नाता टूट गया था. गांव आज भी उनके जेहन में मौजूद है. लेकिन उस दिन के बाद वे गांव नहीं गए. खेत बेचकर गोविन्दनगर में प्लाट लिया था और रहने योग्य मकान बनवा लिया. इतना सब होने तक रमेन्द्र और बड़ी बेटी का जन्म हो चुका था. एल.एल.बी के बाद उन्होंने क्लर्की छोड़ दी थी. सोचा था कि प्रैक्टिस करेंगे, लेकिन तभी इन्कम टैक्स विभाग में जगहें निकलीं और कुछ मित्रो की सलाह पर आवेदन कर दिया और बन गए इंस्पेक्टर. मित्रो ने कहा था, “चांदी काटोगे रघुनाथ.”

लेकिन उन्होंने मित्रो को झुठला दिया था. अपनी ईमानदारी की धाक जमाने की धुन में उच्चाधिकारियों से कितनी ही बार प्रताड़ित हुए. शहर-दर-शहर भटकना पड़ा और पदोन्नति में रुकावटें आईं. लेकिन उन्होंने समझौता नहीं किया. पूरे विभाग में वे ’बाबूजी’ के नाम से पहचाने जाने लगे. वे जानते थे कि बुलाने वाले के मन में इस सम्बोधन में सम्मान कम व्यंग्य अधिक निहित है, बल्कि केवल व्यंग्य ही कहना उचित होगा. उन्होंने कभी बुरा नहीं माना. वे जानते थे कि विभागीय अधिकारियों से लेकर व्यापारी तक उन्हें ’बाबू जी’ पुकारकर यह एहसास करवाना चाहते हैं कि ’तुम अधिकारी बनने योग्य नहीं---तुम्हारी औकात वही है.’ लेकिन, ’मुझे बाबूजी नहीं कहो---रघुनाथ सिंह कहो’ कहकर विरोध करने का अर्थ ’रघुनाथ को आहत करने में वे सफल रहे’ उन्हें आनन्दित होने का अवसर देना होगा. वे न आहत हुए न डिगे और धीरे-धीरे सम्बोधन उनके लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी सहज हो गया.

वे बाहर ही नहीं घर में भी ’बाबू जी’ बन गए थे. बच्चों से लेकर पत्नी तक. गोविन्दनगर का मकान बन जाने के चार वर्ष बाद मां उन्हें ’फलते-फूलते’ रहने का आशीर्वाद दे विदा हो चुकी थीं. तब तक वे दो बेटे और दो बेटियों के पिता बन गए थे. स्थानांतरण में प्रायः बाहर रहे वे, लेकिन पत्नी बच्चों सहित गोविन्द नगर में ही रही थीं.

“परिवार को समेटे-भटकते न बच्चों को ढंग की शिक्षा दे पाऊंगा और न पाल सकूंगा.” एक-दो बार पत्नी के साथ रहने के लिए जिद करने पर वे बोले थे, “सावित्री, बच्चों को कुछ बना सके तो समझो जीवन सार्थक है.”

और सावित्री ने उनका साथ दिया था. बड़ा बेटा रमेन्द्र पी.सी.एस. में आया तो खुशी के आंसू बहाती सावित्री ने कहा था, “बाबू, तुम्हारी तपस्या सफल हुई. अब चिन्ता की कोई बात नहीं.”

“तपस्या तुमने भी की है---“ प्यार से पत्नी के कन्धे पर हाथ रख वे बोले थे.

उनकी चिन्ता बेटियों पर आ टिकी थी. बड़ी ने एम.ए.,बीएड. कर लिया था और छोटी बी.ए. कर रही थी. छोटा बेटा धीरेन्द्र बी.कॉम में था. रमेन्द्र की पोस्टिंग से पहले ही उन्होंने दोनों बेटियों की शादी कर दी थी---दिल्ली में. शादी के कुछ दिन बाद ही बड़ी बेटी दिल्ली में पी.जी.टी. और दो साल बाद छोटी टी.जी.टी. लग गयी थी. दोनों बेटियों की शादी में उन्होंने जीवन की कमाई का न केवल जोड़ा धन खर्च कर दिया था, बल्कि कर्जदार भी हो गए थे. लेकिन बेफिक्र थे. “रिटायर होते समय जो मिलेगा उससे कर्ज अदा कर दूंगा. फिर पेंशन होगी ही---घर में दो किराएदार रख लूंगा---काम चल जाएगा.” सोचकर वे प्रसन्न हुए थे.

रमेन्द्र की पहली पोस्टिंग गोरखपुर हुई थी. धीरेन्द्र भी स्टेट बैंक में कैशियर होकर इलाहाबाद पोस्ट हो गया था. धीरेन्द्र की नौकरी लगने के समय उनके अवकाश ग्रहण में केवल एक वर्ष शेष था. घर में पति-पत्नी बचे थे. भरा-पूरा परिवार बच्चों के जाते ही काटने को दौड़ने लगा था. उन्हें इतना महसूस नहीं होता था, क्योंकि अकेले रहने की आदत थी. लेकिन सावित्री को सूनापन सालता. वह कहती, “रमेन्द्र-धीरेन्द्र का विवाह करने की सोचो बाबू---दोनों की उम्र भी हो गयी है. शादी हो तो ड्योढ़े से एक की बहू साथ रहे—मन लगा रहेगा. बच्चे होंगे तो दिन भी कटेगा.”

वे भी चाहते थे कि दोनों बेटों के विवाह से मुक्त होकर रिटायर होने के बाद पत्नी के साथ देशाटन करेंगे. विवाह के प्रस्ताव तब से ही आने लगे थे जब लड़के इंटरमीडिएट में थे.

“बेटियां तो आज भी मां-बाप के लिए चिन्ता का विषय हैं. अधिक पढ़ा दें तो योग्य वर नहीं मिलते और कम पढ़ी तो अच्छा घर मिलना कठिन. अधिकारी खोजो तो लाखों की मांग. क्लर्क-खेतिहर बच्चों के मां-बाप भी कम में तैयार नहीं होते. क्या करें लड़की वाले---यहां आज भी लड़की बोझ है---जैसे भी हो शादी कर मुक्त हो लो----.”

पत्नी के बार-बार टोकने पर उन्होंने प्रस्तावों पर विचार करना प्रारंभ कर दिया. रमेन्द्र और धीरेन्द्र को भी बता दिया. दोनों सुनकर चुप रहे थे. ’पिता जो कर रहे हैं अच्छा ही कर रहे होंगे---बच्चों को मैंने अच्छे संस्कार दिए हैं. मैंने क्यों---सावित्री को है यह सारा श्रेय. वही तो रही है, मैं दो-चार महीने में दो-चार दिनों के लिए आया---तो क्या---’ दोनों बेटॊं के लिए अच्छे प्रस्तावों पर विचार कर उन्होंने दोनों को बुला लिया---रमेन्द्र तब लखनऊ आ गया था. रमेन्द्र के लिए जो लड़की देखी उसका पिता ’केसा’ (कानपुर इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई अथॉरिटी) में इंजीनियर था. नगर का प्रतिष्ठित परिवार. लड़की ने उसी वर्ष एम.ए. किया था. धीरेन्द्र की बात जिस परिवार में चली वह भी खानदानी था और लड़की के पिता पी.पी.एन.कॉलेज में प्राध्यापक थे. लड़की एम.ए. अन्तिम वर्ष में थी.

कई खबरों के बाद भी रमेन्द्र नहीं आया. एक दिन फोन पर कहा, “बाबू जी, काम बहुत है दफ्तर में. छुट्टियों में भी आना पड़ता है. मंत्री महोदय को विदेश जाना है---उससे पहले सारी फाइलें क्लियर कर लेना चाहते हैं. समय मिलते ही आऊंगा.”

उन्होंने पार्टी को ’शीघ्र ही उत्तर दूंगा’ कहकर आश्वस्त किया. वे लोग रमेन्द्र के पद पर लट्टू थे और किसी भी कीमत में उसे दामाद बनाना चाहते थे. धीरेन्द्र दो सप्ताह बाद आया. उसने अधिक न-नुकर नहीं की. लड़की देखी. ’भविष्य में क्या करना चाहती हैं’ पूछा. ’अच्छा डिवीजन बना तो पी-एच.डी. करूंगी. लेक्चररशिप मिल सकती है.’ लड़की ने कहा था, ’नहीं तो बी.एड.’

धीरेन्द्र को लड़की पसन्द आई थी. उसके लौटने से पहले उन्होंने शादी तय कर दी थी.

रमेन्द्र की पार्टी को वे कब तक अश्वासन पर रखते. एक दिन वे लखनऊ जा पहुंचे. रमेन्द्र रात दस बजे आया. नौकर था, जो उन्हें पहचानता नहीं था. उन्होंने परिचय भी नहीं दिया. नौकर ने ड्राइंगरूम में बैठाकर चाय दी और “साब देर से आएगा---बोला क्लब में पार्टी है. खा-पीकर आएगा.” नौकर ने उनके चेहरे पर नजरें गड़ाकर पूछा, “आप कब तक इन्तजार करेगा साहब?”

“तुम चिन्ता न करो. मैं साहब से मिलकर ही जाऊंगा.”

नौकर बार-बार ड्राइंगरूम में आकर देखता. कभी मेज पर पत्रिकाएं ठीक करता तो कभी सोफे में पड़ी हल्की सलवटें. वे समझ रहे थे कि उसे उनके वहां होने से असुविधा हो रही है. लेकिन वे पत्रिकाओं के पन्ने पलटते रहे. फरवरी का महीना था. ठंड अंतिम सांसे ले रही थी. नौकर फिर दरवाजे पर प्रकट हुआ. वह दीवार की टेक ले संकोच भाव से उनकी ओर देखने लगा. वे उसकी परेशानी समझ रहे थे. साहब आकर पूछ सकते हैं, ’जब तुझे पता था कि मैं देर से आऊंगा तब भी इन साहब को बैठा रखा---कह देता सुबह आकर मिल लेंगे.’ सोचा क्यों न उसे बता दें कि वह परेशान न हो---वे उसके साहब के पिता हैं. लेकिन तत्काल इस विचार को झटक सोचा, ’क्यों न कहीं टहल आऊं. किसी होटल से कुछ खा आना अच्छा होगा.’ उन्होंने घड़ी देखी, ’आठ ही बजे हैं---क्लब जाने का मतलब दस-ग्यारह---उठ ही जाना चाहिए.’ और वे उठ गए थे.

“सुनो.” उन्होंने नौकर को आवाज दी थी.

“जी साब.”

“मैं घूमकर आता हूं. साहब आएंगे तो बताना कि कानपुर से मिलने आया हूं. जरूरी बात करनी है.”

बंगले से बाहर निकल उन्होंने रिक्शा लिया, “हजरतगंज चलो.” कहकर रिक्शा में बैठ गए.

वे जब लखनऊ पोस्टिंग पर थे प्रतिदिन शाम हजरतगंज में बिताते थे. घंटा-दो घंटा कॉफी हाउस में बैठते. प्रायः वे त्रिमूर्ति के निकट बैठते. त्रिमूर्ति यानी साहित्य के तीन दिग्गज. अमृतलाल नागर, यशपाल और भगवती चरण वर्मा. कभी-कभी उनके साथ भी बैठते और उनकी बहसों का आस्वादन करते.

“क्या जमाना था वह भी.” धूप में गर्मी अनुभव हुई तो वे उठ बैठे. चारपाई खिसकाई और टांगों पर धूप रहे, ऎसा करके लेट गए.

देर तक हजरतगंज में घूमने के बाद ’सौजन्य’ रेस्टॉरेंट में जा घुसे वे. महंगा था. लेकिन खाने के शौकीन---कभी-कभी महंगा खाना चाहिए सोच उन्होंने ऑर्डर कर दिया था.

’अब तो सालों बीत गए स्वादिष्ट भोजन किए. सावित्री के जाने के बाद सब स्वप्न-सा हो गया.’ मटन-पुलाव, बिरियानी, कोफ्ते आदि की याद से मुंह में पानी आ गया.

खाकर ’सौजन्य’ से निकले तो रात दस बज रहे थे. रिक्शा किया. रमेन्द्र के बंगले पर पहुंचे. नौकर ने गेट खोले बिना अन्दर से ही कहा, “साब तो अभी आया नहीं----“

“आ जाएंगे---मिलकर ही जाना है.” उन्होंने देखा नौकर पसोपेश में पड़ गया था. “डरो नहीं---मेरे बैठकर इन्ताजर करने से डांटेंगे नहीं तुम्हारे साब तुम्हें.” उनके कहने पर भी देर तक नौकर कुछ सोचता खड़ा रहा था. रिक्शा जा चुका था. एक बार उनका मन हुआ था कि वे किसी होटल में रात बिता लें और सुबह आ जाएं, लेकिन ’गलती मेरी ही है. चलने से पहले रमेन्द्र को फोन करके कह देना चाहिए था कि मैं आ रहा हूं. मालूम होता तो वह क्लब जाता ही नहीं---जाता तो नौकर को कहकर जाता---’ वे यह सोच ही रहे थे कि गेट के बाहर कार आकर रुकी. रमेन्द्र ने उतरकर किसी से बॉय किया. अंधेरा था. वे देख नहीं पाए थे---स्वर किसी नारी का था.

“साब आ गए.” नौकर उत्साहित हो गेट खोलने लगा था.

वे रमेन्द्र को आता देख रहे थे. चलने में अफसरी भाव स्पष्ट झलक रहा था. ’अच्छी लंबाई निकल गयी है इसकी. मेरे पिता भी तो लम्बे थे. बाबा पर गया है. वैसी ही चौड़ी छाती-गठा बदन. धीरेन्द्र तो मेरी तरह ही रह गया.’ उन्हें रमेन्द्र की अफसरी चाल पर आत्म-गौरव अनुभव हुआ.

निकट आ रमेन्द्र चौंका, “बाबूजी आप?” झुककर पैर छुए तो उन्होंने प्यार से पीठ पर हाथ फेर आशीर्वाद दिया.

“रामू तूने बाबूजी को अन्दर क्यों नहीं बैठाया?” रमेन्द्र नौकर पर बरस पड़ा.

“साब---साब---वो---“ नौकर डर से हकलाने लगा. उन्होंने बात संभाली, “उसकी गलती नहीं लल्लू---मैंने ही उसे नहीं बताया. दो घंटे बैठकर हजरतगंज चला गया. तुम्हारे आगे ही लौटा हूं. इधर तुम कार से उतरे---उधर मेरा रिक्शा गया---.”

रात देर तक वे रमेन्द्र को शादी के विषय में, लड़की वालों के खानदान-लड़की---बाप आदि के विषय में बताते रहे थे. रमेन्द्र सुनता रहा था बिना बोले.

“शादी की भी एक उम्र होती है बेटा. ईश्वर की कृपा से तुम ढंग से व्यवस्थित हो गए हो. तुम दोनों भाइयों से नबटूं तो रिटायर होकर तुम्हारी मां को भी चारों धामों की यात्रा करवा लाऊं. सारी जिन्दगी उसने घर में घुसे बिता दिया.” वे भावुक हो उठे थे.

कमरे में हल्की रोशनी थी. वे पलंग पर लेटे थे और रमेन्द्र सोफे पर बैठा हुआ था. देर तक सन्नाटा छाया रहा था कमरे में. बाहर सड़क पर वाहनों के गुजरने की आवाजें बीच-बीच में आ रही थीं और लॉन में झींगुर बोल रहे थे. उन्होंने सामने दीवार पर टंगी घड़ी पर नजर डाली, एक बजने में दस मिनट थे.

“सोचकर बताना---“ रमेन्द्र के चेहरे पर नजरें टिका कुछ देर कुछ पढ़ने का प्रयास करते रहे थे वे, फिर बोले थे, “बेटा, एक बात की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया था. मैं भी कितना मूर्ख हूं. हां, अगर तुम्हारी अपनी कोई पसन्द हो तो मुझसे मत छुपाना. जो भी हो---शादी समय से हो जानी चाहिए---निःसंकोच कहना.”

रमेन्द्र की नजरें सामने मेज पर चिपकी थीं. उनके बोलते समय रमेन्द्र कई बार जम्हाई ले चुका था. देर तक जब वह चुप रहा और दो बार मुंह के सामने हाथ ले जाकर जम्हाई ली उसने तब वे बोले, “दिन भर के थके हो तुम---सो जाओ—मैं सुबह आठ बजे की बस लूंगा. हो सके तो बता देना---किसी भले आदमी को अधिक लटकाना उचित नहीं है. वे लोग दो महीने से हम पर भरोसा किए उत्तर के इन्तजार में कोई दूसरा घर देखने तक नहीं गए.” उनका मन खिन्न हो उठा था, लेकिन खिन्नता प्रकट करना उनका स्वभाव नहीं रहा. गम्भीर स्थितियों में भी सामने वाले से मुस्कराकर बोलना उनकी प्रकृति है.

उनके चुप होते ही रमेन्द्र, ’गुडनाइट’ कह सोने चला गया.

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