मेरे हिस्से की धूप - 2 Zakia Zubairi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेरे हिस्से की धूप - 2

मेरे हिस्से की धूप

ज़किया ज़ुबैरी

(2)

अम्मा का पेट अकसर फूला और जी कांपता रहता कि वह दूसरी लड़कियों को कैसे संभालेगी। अगर रानी को लगाम न लगा सकी तो होगा क्या ? चुन्नी – मुन्नी तो पैदा होते ही पोलियो की मार खा गईं। आजतक घिसट घिसट कर चल लेती हैं, तो वो भी अल्लाह मियाँ की कृपा ही है। वर्ना इन चारों टांगों की भी देखभाल करनी पड़ती। कौन देता पहरा इतनी सारी लड़कियों की किस्मत पर ? लड़कियों के तो देखते ही देखते पंख निकल आते हैं – चिड़ियों की तरह आज़ाद उड़ना चाहती हैं। पता भी नहीं चलता कि कब और क्या हो गया। इन अभागिनों को भगवान ने भाई भी दिया तो एक ही। वह अभागा तो अपनी उम्र से ज़्यादा ही छोटा और मासूम है। उस पर तो कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं डाली जा सकती। और बेचारी अम्मा! उसके पास समय ही कहाँ बचता था – बच्चों की भूख मिटाती या उनकी देखभाल करती ? अब्बा तो बच्चों की पलटन खड़ी कर, अम्मा के हवाले कर ख़ुद जन्नत में जाकर घर बसा लिया। अम्मा को ज़िन्दगी और मौत के बीच हिचकोले खाने के लिये अकेला छोड़ गये। अम्मा किसको देखती! किस किस का ख़्याल रखती ? हालांकि सामने खड़ी फ़ौज के सभी सिपाही उसकी अपनी कोख के जाये थे।

रानी बस्ती वालों को हैरान किये रखती थी। रोज़ाना उसकी शिकायतें सुन सुन अम्मा परेशान रहती। कई बार तो कह भी देती, "अगर तू न पैदा हुई होती, कलमुही, तो दुनियाँ में क्या कमी रह जाती ?" वैसे किसी न किसी समय तो अम्मा अपनी सभी बेटियों के बारे में यही सोचती। उसका पूरा जीवन अपने बेटे पर ही केन्द्रित था। बच्चियाँ! करें भी तो क्या? क्या पढ़ाई करें ? क्या उम्मीद रखें इस बस्ती के स्कूलों से? स्कूल तो वैसे ही परेशान बच्चों का जमघट लगते थे। ऊपर से अध्यापक बच्चों से भी अधिक परेशान और दुःखी लगते। उनके चेहरों पर चिन्ता और उलझनों के लक़ीरें साफ़ दिखाई देती थीं। शायद उनके अपने घरों की भी वही समस्या थी; फिर बेचारे बच्चों को क्या ख़ाक पढ़ाते !
रानी बता रही थी कि हिसाब की मिस का चक्कर भूगोल के टीचर से चल रहा है। यह सुन कर अम्मा ने सिर पकड़ लिया और रानी की ख़ूब पिटाई लगाई थी, "करमजली, अपने उस्तादों के बारे में ऐसी ऊल-जलूल बातें नहीं करते – अरे वो तो अल्लाह के बन्दे होते हैं। पर अम्मा को क्या मालूम कि हर घर में एक शम्मो बसती है। चक्कर चला कर शायद हिसाब वाली मिस अपना हिसाब चुकाने का प्रयास कर रही हो। वर्ना ग़रीब की लड़कियों का जोड़ा तो शायद भगवान के यहाँ ही बैठा रह जाता है; और लड़कियाँ बैठे बैठे गीली लकड़ियों की तरह सुलगती रहती हैं।

रानी ने अपनी इन हरकतों से कई जोड़े बनवाए और कई बनते जोड़े टूट भी गए। छेड़- छाड़ उसकी आदत थी। जहाँ किसी लड़के को किसी लड़की से बात करते देखा और ले उड़ी। सारे मुहल्ले में आजकल के पत्रकारों की तरह झूठी सच्ची ख़बर आग की तरह फैला देती। जिस किसी के दिल में गुदगुदी न भी हुई होती, रानी की बातें सुन होने लगती। और ऐसा ही हुआ; बहुत दिनों बाद उस बस्ती में जवान लड़के लड़की का विवाह हुआ और हिसाब की 'मिस' भूगोल के 'सर' के साथ विदा हो गई। रानी को ख़ुशी हुई कि उसे अब दोनों विषयों को पढ़ने से छुटकारा मिल जाएगा। वैसे रानी को फ़र्क कहाँ पड़ता था. वह तो हर कक्षा में पीएच.डी. करके ही आगे बढ़ती। पंद्रह की हो गई थी, मगर किसी भी तरह बस तीसरी जमात में पहुँच पाई थी।

चंचल रानी एक शाम अम्मा से छेड़छाड़ करती रही कि अम्मा ने इतना दहेज जमा कर लिया है मगर लड़के ही नहीं मिलते। रानी थी बहुत तिग़ड़मी। बचपन से सारे मुहल्ले की इंस्पेक्शन करना उसका प्रिय शुग़ल था। घर घर के समाचार मालूम करना, फिर उनका प्रचार – वह अपनी ज़िम्मेदारी व कर्तव्य समझती थी। अम्मा को बताए बिना अंकल जी के यहाँ उसने बरतन मांजने की छोटी सी नौकरी कर ली थी। यों तो अंकल जी की आड़ में तो आजकल बहुत कुछ होने लगा था। सिर्फ़ अंकल जी कह देना होता था... बस! अंकल जी को पासपोर्ट मिल जाता था कहीं भी जाने का।
रानी को इतने पैसे मिल जाते थे कि चाट खा लेती, सुर्ख़ी ख़रीद लेती ; कभी मोटे मोटे गोल गोल होंठों को लाल लाल रंग लेती ; कभी नाख़ूनों की हदों से बाहर को फैली हुई ऊबड़ खाबड़ नेल पॉलिश पोते जवानों व बूढ़े मर्दों के इमान डगमगाती रहती। धड़ल्ले से घर घर की ख़बर व ख़ैरियत मालूम किया करती।

अंकलजी और आंटी जी दोनों ही उसके स्वभाव से बहुत ख़ुश रहते। मज़बूत बाज़ुओं से पतीलियाँ चमाचम चमका दिया करती। अंकल जी की आँखें उसको देख कर पतीलियों से भी कहीं अधिक चमक जातीं। आंटी जी रोज़-ब-रोज़ उसके काम बढ़ाती जातीं पर मज़दूरी न बढ़ातीं। बदले में रात की बासी रोटी पर दाल रख कर खाने को दे देतीं। रानी के लिये वही दाल मल्टी-विटामिन का काम करती। ऐसी निखरी जा रही थी कि दूसरी बहनें उसे सिन्ड्रेला समझ कर जलने लगी थीं।

एक दिन मौक़ा देख कर अंकल जी ने उसकी उम्र पूछ ही ली। साढ़े अट्ठारह साल! अंकल जी ने कुछ हिसाब लगाया। उंगलियों पर नहीं – मन ही मन। आँखें नचाईं और रानीके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, "तेरे घर में आइऩा है ?" रानी को आँखों के आइने में सब कुछ नज़र आ गया। ज़रा इतरा कर बोली, "अंकल जी मुझे आंटी जी बहुत अच्छी लगती हैं। कितनी जवान भी हैं। आपसे तो बहुत छोटी हैं।"

"अरे तो क्या हुआ? मर्द को उम्र से नहीं जाँचा जाता।"

"फिर कैसे जाँचा जाता है?" रानी ने ज़बान ऐंठा कर कहा, जैसे मजाक उड़ा रही हो।

अंकल जी लड़खड़ा गये। उम्र का अहसास होते ही बोल पड़े, "तुम्हारी कोई बड़ी बहन भी है क्या ?"
"हाँ, है तो.....! " रानी ने 'तो' को इतना लम्बा खींच दिया, और फिर छोटी छोटी काली काली आँखों से, जिनमें ये काजल बाहर को उबला पड़ रहा था, घुमा कर झपक कर टेढ़ी करते हुए दोबारा आवाज़ लगाई, "अंकल जी, बोलो न! कहाँ खो गए ? "

अंकल जी तो उलझ गए थे। खोए कहाँ थे ? रानी के कंधे पर रखा हाथ इतना हल्का पड़ गया था कि महसूस ही नहीं हो रहा था कि कहाँ गया उनका वह हाथ।

रानी ने सारे मुहल्ले में घूम घूम कर दोस्तियाँ बना बना कर और दोस्ती न निभा कर जो पीएच.डी. की थी – तजुरबे की पीएच.डी. – उस पर अंकल जी जैसे कई एक क़ुरबान किये जा सकते थे। ग़रीब लड़की जिन जिन राहों से जितनी मंज़िलें तय करती है, हर मंज़िल की अपनी एक कहानी होती है।

न जाने ऐसी कितनी कहानियों से रानी गुज़र चुकी थी। अब तो उसको एक ही धुन थी – शम्मो की शादी! बाजी रास्ते से हटे तो उसका काम बने! रानी ने फट से शम्मो की बातें शुरू कर दीं, "बाजी के नक़्श बहुत तीखे हैं, रंग खुलता हुआ साँवला है, लम्बी और पतली हैं मेरी बाजी, सिलाई बहुत अच्छी करती हैं – खाना भी बहुत स्वाद पकाती हैं! मेरे इकलौते भाई को भी उसी ने पाला है – बच्चे अच्छे पाल लेती है। "

अंकल जी तो काली छोटी छोटी चमकती आँखों, भरे भरे मोटे मोटे होंठ और काले काले बालों में उलझ गए थे पर वह भी तजुरबेक़ार थे, "तुम्हारी बाजी की... उम्र क्या होगी भला ? "

"यही कोई पच्चीस साल। "

"शादी क्यों नहीं हुई अभी तक ? " डूबती हुई आवाज़ अंकल के हलक से बाहर आई।

"अरे अंकल, अगर उसकी शादी हो जाती तो फिर भाई की देखभाल कौन करता ? "

"भाई कितना बड़ा है ? "

"बीस का होगा ? "

"क्या करता है ? "

"बहुत अच्छे लोगों की सोहबत में पड़ गया है। उसे पढ़ा रहे हैं और ऊपर से खर्च करने को पैसे भी देते हैं। मां.. उसके लाए पैसों से ही हमारा दहेज बना रही है।...बाजी के लिए चार ही दिन पहले टीन का चमकता हुआ संदूक भी आ गया है।... भाई जब पैसे लाएगा, तो बर्तन ख़रीदेगी मां। " मिनटों में रानी ने अपनी कैंचीदार ज़बान से घर की तमाम पोल खोल दी ; और अंकल जी को ग़ौर से देखती रही कि कहीं खिसक न जाएँ, बदल न जाएँ। अंकल जी ने बाजी की उम्र पर ऐतराज़ करते हुए दूसरी शादी कर लेने का अहसान रानी के कंधों पर डाल दिया। बहुत दूर की सोच ली थी अंकल जी ने – शादी के बाद रानी का आना जाना भी तो लगा रहेगा – कभी न कभी तो पकड़ में आ ही जाएगी। आंटी जी को तो जैसे भूल ही गये थे।

रानी ख़ुद हैरान थी कि आंटी जी को कैसे समझाएँगे... क्या बताएगे? ... क्या ये सचमुच की शादी करेंगे भी या यों ही कह रहे हैं। वह बेचैन थी अम्मा को यह ख़ुशख़बरी सुनाने को... मगर कहेगी क्या? घबरा कर बोली, "अंकल जी, आप अम्मा से ख़ुद ही बात कर लीजिये न... !"

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