परियों का पेड़ - 22 Arvind Kumar Sahu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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परियों का पेड़ - 22

परियों का पेड़

(22)

अपनी धरती, अपने लोग

राजू के कानों में अचानक ही किसी के चीखने – चिल्लाने की तेज आवाज सुनाई दी | कोई उसे बुरी तरह झकझोरे दे रहा था | अचानक हुए इस शोरगुल से जैसे ही उसकी नींद खुली तो वह भौचक रह गया | यह बड़ी ही जानी – पहचानी आवाज थी | सूरज की तीखी किरणें सीधे उसके चेहरे पर पड़ रही थी | राजू ने अनुभव किया कि सूरज उसके सिर पर चढ़ आया था, जिसकी गर्माहट उसे साफ महसूस हो रही थी |

उसने हड़बड़ाकर जल्दी – जल्दी दोनों हाथों से अपनी आँखें मली | फिर आँखें फाड़ – फाड़ कर अपने आस - पास देखने का प्रयास करने लगा | अचानक सामने नजर पड़ते ही वह सहम कर उठ बैठा | ये तो उसके पिताजी थे, जिनकी आँखों में आश्चर्य के घने बादल छाए हुए थे | वे उसे जगाते हुए लगातार चिल्ला रहे थे – “मना किया था न, अकेले जंगल में आने के लिए ? फिर भी आ गए | बहुत जिद्दी होते जा रहे हो तुम | क्यों आये इस घने और खतरनाक जंगल में ? .....और मुझे तो बड़ा आश्चर्य है कि तुम अकेले यहाँ तक पहुँचे कैसे ? कहीं कुछ हो जाता तो ?”

“....और .....और ? अरे ! ये सब क्या है ?” – राजू के पिताजी कुछ देखते हुए बार – बार आश्चर्य चकित हुए जा रहे थे | राजू ने भी अपने पिताजी की सवाल भरी नजरों का पीछा किया तो दंग रह गया |

अपने आस - पास का दृश्य देखकर राजू खुद भी चौंक उठा था | यह क्या ? इस समय भी वह उसी रहस्यमय परियों के पेड़ के नीचे सोया पड़ा था | ये वही राजसी पलंग और शानदार बिस्तर था, जिस पर वह रात में वह लेटा था परीलोक में | अब राजू ने जल्दी से अपने कपड़ों को टटोला | वह भी वही परीलोक वाले ही थे | उसने पाया कि उसके शरीर पर राजकुमार वाले राजसी, मखमली और भारी कपड़े अब भी विद्यमान थे |

राजू ने आगे देखा …..| अनेक व्यंजनों से भरा सोने का वह थाल भी उसके सिरहाने ही एक तिपाई पर रखा हुआ था, जो रात में उसने परी रानी से घर ले जाने के लिए माँगा था | .....और तो और वह सोने का शानदार मुकुट भी वहीं उसके सिरहाने ही रखा हुआ था, जिसे रात में उसने सोने से पहले सिर से उतार दिया था |

“लेकिन बापू ! वे परियाँ और बौने कहाँ हैं ? ” – राजू जल्दी से पलंग से नीचे उतरा और भाग – भाग कर इधर – उधर पागलों की तरह बड़बड़ाते हुए कुछ खोजने लगा | वह कभी पेड़ के आस - पास और कभी पेड़ के ऊपर लटकते हुए परियों जैसे फलों को देखकर बौखलाया जा रहा था |

“अरे ! ये क्या बावलों की तरह खोज रहे हो तुम ? पगला गए हो क्या ? जाने क्या बड़बड़ – बड़बड़ लगा रखी है ?” – राजू के पिताजी ने किसी तरह उसको पकड़ा और फिर डांट कर पूछने लगे |

“वही तो मैं सोच रहा हूँ बापू ! ….कि आखिर वह सारा का सारा, समूचा सुंदर परीलोक कहाँ अदृश्य हो गया ? अरे ! कहाँ गया वह परीलोक ? कहाँ गायब हो गए सब लोग ? रात में तो यहाँ शहर जैसा बसा हुआ था | कितनी चहल – पहल थी ऊपर | सुबह होते ही सब कुछ कहाँ गायब हो गया ? लेकिन इतना समान तो यहीं पड़ा हुआ है, जो परी रानी ने सचमुच मुझे उपहार में दिया था |” – राजू खुद भी आश्चर्य के सागर में डूबता जा रहा था |

“राजू ! थोड़ा धैर्य रखो | रुको तो सही | पहले मुझे सारी बात समझाओ | तुम यहाँ तक कैसे आए ? और रात में यहाँ तुम्हारे साथ क्या हुआ था ?” – पिताजी ने राजू को समझा-बुझाकर सच्चाई जानने की कोशिश की |

“बापू! यह सब कुछ मुझे स्वयं परी माँ ने दिया है |” - राजू अपना माथा थामकर वापस उसी पलंग पर आ बैठा | फिर एक – एक वस्तु को ध्यान से देखने लगा | उसे धीरे – धीरे रात की सारी बातें याद आने लगी |

अब राजू ने पिताजी से बिना बताए यहाँ आने के लिए क्षमा माँगी – “बापू ! मुझे क्षमा कर दीजिये | मैं शायद पूरी तरह से अपने होशो हवास में नहीं था |”

- “कुछ बताओ तो सही ? आखिर हुआ क्या था ?”

राजू अपने पिताजी से झूठ नहीं बोलता था | अतः उसने शुरू से अंत तक की सारी बातें अपने पिता जी को कह सुनाई – “बापू! मैंने यहाँ परी रानी की दिखाई चल-चित्रावली में अपनी माँ को जीवित चलते फिरते हुए देखा | फिर उनके स्वर्ग जाने का दृश्य भी | मेरी माँ ने ही परी रानी को मेरे पास भेजा था | मुझे प्यार करने के लिए, मुझे परीलोक घुमाने के लिए | यहाँ मैंने स्वर्ग जैसा आनंद उठाया | चाँद के झूले पर झूला | बादलों के साथ खेला | अनेक प्रकार के अनोखे व्यंजन खाये और सोने – चाँदी के ये कीमती उपहार भी पाये |”

सारी बातें सुनकर राजू के पिताजी मानो बौखला से गए | एकबारगी तो उन्हें बिलकुल विश्वास ही नहीं हो रहा था | लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या ? उन्हें पता था कि एक तो उनका राजू कभी झूठ नहीं बोलता | दूसरे इस बियाबान जंगल में, इस रहस्यमय पेड़ के नीचे पड़े ये कीमती सामान खुद राजू की बातों की सत्यता प्रमाणित कर रहे थे | अब बहुत अधिक सोचने – समझने को कुछ बचा नहीं था | फिर भी उन्होंने इस पेड़ और उसके नीचे की जगह का खूब ध्यान से निरीक्षण किया |

पेड़ के नीचे कई जगह की घास कुचली हुई लग रही थी | जैसे कई लोग उस पर देर तक चलते रहे हों | उसने अपनी अनुभवी निगाहें घास पर गड़ा दी | वहाँ छोटे – बड़े कई जोड़ी असामान्य पैरों के निशान पेड़ के तने तक जाते हुए स्पष्ट दिख रहे थे | ये मनुष्यों के पैरों से आकार में थोड़ा भिन्न थे | उसने अंदाजा लगाया कि बड़े पैरों के निशान शायद परी रानी और छोटे पैरों के निशान उन बौनों के होंगे | वरना इस जंगल में राजू और स्वयं उनके पैरों के अलावा ऐसे असामान्य पैरों के निशान कहाँ से आ सकते थे ?

फिर तो राजू के पिता उन रहस्यमय पैरों के निशान को खोजते और उनके सहारे चलते हुए उस रहस्यमय पेड़ के तने तक जा पहुँचे |

........और तब तो उनके आश्चर्य की और भी सीमा न रही, जब उन्होंने उस पेड़ के तने पर एक दरवाजे का निशान बना हुआ देखा |

राजू के अनुसार इसी जगह से एक दरवाजा खुला था और उसी दरवाजे से परी रानी उसको परीलोक के भीतर ले गई थी |

सारी बातों पर ध्यान से सोचने – समझने के बाद अब राजू के पिताजी को उसकी बात पर सौ प्रतिशत विश्वास हो गया था कि यहाँ इस रहस्यमय पेड़ पर असली परियाँ जरूर रहती हैं |

लेकिन कहते हैं न कि इंसान अगर गलतियाँ न करे तो वह भगवान बन सकता है | अकूत धन – दौलत अच्छे – खासे इंसान के ईमान को भी मिनटों में डिगा सकती है | परीलोक की संपन्नता और धन दौलत के बारे में सोचते हुए अब राजू के पिता के मन में भी लालच आ गया था | वह सोचने लगा कि यदि वह भी परीलोक में जा सके तो वहाँ से खूब सोने - चाँदी के बर्तन उठा लायेगा और रातो - रात ही धनी बन जायेगा | फिर उसे ये लकड़हारे का काम करते हुए गरीबी में दिन नहीं गुजारने पड़ेंगे | उसके राजू का भविष्य भी सुख-सुविधामय हो जाएगा | वह किसी भी प्रकार की आर्थिक परेशानी से कोसों दूर रहेगा |

बस, इसके बाद ही राजू के पिता ने एक फैसला कर लिया | फैसला यह था कि चाहे जैसे भी हो, यह रास्ता खोजकर अब वह भी परीलोक को जरूर जाएगा | उसके अच्छे – बुरे परिणाम के बारे में सोचने – समझने का विवेक वह खो चुका था | उसके दिल और दिमाग दोनों पर लालच बुरी तरह हावी हो गया था |

अब राजू का पिता परीलोक जाने का रास्ता खोजने लगा | उसने पेड़ के तने पर बने उस निशान को समझने की कोशिश की | उसने यहाँ - वहाँ कई संभावित जगहों पर ठक-ठका कर दरवाजा होने का संदेह जाँचा | फिर दरवाजा खोलने के लिए उस पर कई ठोकरें मारी | खूब धक्के लगाए, किन्तु वह नहीं खुला | तब उसे समझ में आ गया कि वह रहस्यमय दरवाजा इतनी आसानी से खुलने वाला नहीं था | वह बेहद ठोस और मजबूत था | वह भूल गया था कि यह जादुई दरवाजा था |

तब जल्दबाजी में उसने कुल्हाड़ी उठाने का फैसला कर लिया | वह सोच रहा था कि पेड़ का तना काटकर वह खुद रास्ता बना लेगा | बस, वह ताबड़तोड़ कुल्हाड़ी चलाने लगा | राजू ने यह देखा तो बुरी तरह घबरा गया | उसने अपने पिताजी को रोकने की भरपूर कोशिश की | खूब समझाया – “ बापू ! बिना परियों की मर्जी से कोई उनके परीलोक तक कोई नहीं पहुँच सकता है | ये दरवाजा भी इस तरह कभी नहीं खुलेगा | आपको यहाँ से संभवतः कोई रास्ता नहीं मिलेगा |”

लेकिन उसके पिताजी नहीं माने | उनकी आँखों और बुद्धि पर लालच का पर्दा पड़ चुका था | उनकी कुल्हाड़ी चलने लगी थी | फिर चलती ही गयी | राजू के रोकने का कोई फायदा नहीं हुआ | उन्होने राजू को परे झटक दिया – “यहाँ से दूर हट जाओ, वरना कुल्हाड़ी से चोट लग सकती है |”

राजू घबरा कर दूर हट गया | वह विवशता से जार – जार रोने लगा | उस पेड़ को कटते हुए देखने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था | जैसे – जैसे उस पेड़ पर कुल्हाड़ी के घाव पड़ रहे थे, राजू की आँखों से आँसू छलक़ते जा रहे थे |

तभी राजू को एक विचित्र सा आभास हुआ कि पेड़ कटने से अकेला वही नहीं, बल्कि कोई और भी रो रहा है | किसी और के भी रोने और सुबकने की धीमी आवाजें उसके कानों मे पड़ने लगी थी | भला ये कौन हो सकता है ?

जब उसने इस ओर विशेष ध्यान दिया तो बुरी तरह चौंक पड़ा | उसने पाया – “यह क्या ? ये रोने – सुबकने जैसी धीमी आवाजें तो उसी परियों के पेड़ से आ रही थी, जिसे उसके पिताजी ताबड़तोड़ काटते चले जा रहे थे |”

फिर कुछ ही पलों में एक नया आश्चर्य देखकर वह थोड़ी देर के लिये मानो पत्थर सा हो गया | वह अपना रोना भी भूल गया | उसने आँखें फाड़ – फाड़ कर ध्यान से देखा | तने पर जहाँ – जहाँ कुल्हाड़ी के घाव पड़े थे, वहाँ - वहाँ से पानी निकलने लगा था |

राजू को विश्वास हो गया कि सचमुच ये पेड़ ही रो रहा है | पेड़ के घावों से गाढ़े मटमैले रक्त जैसे पदार्थ की जगह आँसुओं की जल धारा बहने लगी थी | यह देख राजू के के हृदय में हाहाकार मच गया |

-----------क्रमशः