रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 4 - अंतिम भाग PANKAJ SUBEER द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 4 - अंतिम भाग

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात

(कहानी : पंकज सुबीर)

(4)

‘‘आंटी.. आपका मन ठीक नहीं है तो अब रहने दीजिए, वैसे भी रात बहुत हो गई है।’’ कहते हुए पल्लवी ने रिकॉर्डर बंद कर दिया।

‘‘हाँ... अरे सच में रात तो बहुत हो गई है, बात करते हुए पता ही नहीं चला.... लेकिन अब बहुत थोड़ी ही बची है कहानी, पूरी कर ही लेते हैं। डॉक्टरी पेशे में कुछ भरोसा नहीं है कि कब इमरजेंसी आ जाए, और उस पर गायनोकोलॉजिस्ट के लिए तो और भी मुश्किल है समय निकालना। आज समय निकला है तो कहानी पूरी कर लेते हैं। तुझे नींद आ रही हो तो अलग बात है..।’’ शुचि ने एक बार फिर से सहज होकर बैठते हुए कहा।

‘‘नहीं आंटी मुझे तो आदत है जागने की। मम्मा कहती हैं कि मैंने भूख और नींद दोनों को बस में करके रखा है।’’ कुछ हँसते हुए कहा पल्लवी ने और रिकॉर्डर फिर से चालू कर दिया।

‘‘डॉक्टर को इन दोनो को बस में रखना ही चाहिए। हमारी ड्यूटी इनसे ऊपर उठकर है।’’ शुचि ने मुस्कुराते हुए कहा। पल्लवी बस मुस्कुरा कर रह गई।

‘‘फिर वसंत चला गया... शायद हमेशा के लिए... सात समंदर पार.. जो उसका सपना था। जब दो लोगों के सपने एक दूसरे के ठीक विपरीत हों तो ज़ाहिर सी बात है कि किसी एक को तो अधूरा छूटना ही पड़ेगा। यह जो अलगाव होता है न चिंकी, यह वास्तव में सपनों की ही टकराहट का परिणाम होता है। विपरीत दिशाएँ हमेशा टकराहट पैदा करती हैं। प्रेम और सपनों का यह द्वंद्व जाने कब से चल रहा है... जाने कब से। और अक्सर प्रेम और सपनों के इस द्वंद्व में जीत सपनों की ही होती है, प्रेम हमेशा से हारता ही आ रहा है।’’ शुचि ने कुछ ठंडे स्वर में कहा।

‘‘उसके जाने के बाद उसके प्रति मेरे मन में क्रोध या नफ़रत, वो जो कुछ भी था वह और गहरा हो गया था। बहुत गहरा प्रेम भी था और बहुत गहरी नफ़रत भी। एक प्रकार का साम्य स्थापित हो गया था मेरे अंदर। मेरे अंदर वह रात, बहुत अधूरापन छोड़ गई थी। अगर वह रात न होती तो शायद वसंत के प्रति मेरे मन में कुछ नहीं बचता, समय के साथ प्रेम भी समाप्त हो जाता। लेकिन.......’’ शुचि ने कुछ उदास स्वर में कहा।

‘‘और फिर मुझे पता चला कि....’’ शुचि कुछ देर को चुप हो गई ‘‘तुम बहुत अच्छी लड़की हो चिंकी, क्षितिज के जीवन में अगर तुम आती हो, तो यह उसकी ख़ुशक़िस्मती होगी। लेकिन आगे की कहानी सुनने के बाद यदि ऐसा नहीं होता है, तुम कुछ और निर्णय लेती हो, तो भी मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी। इसलिए कोई भी निर्णय बिना दुविधा के ले लेना। मेरा अतीत तुम्हारे भविष्य की राह रोके, यह मैं कभी नहीं चाहूँगी।’’ कुछ देर की चुप्पी के बाद कहा शुचि ने।

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आंटी ? आपका जो भी अतीत रहा हो, उससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मेरे लिए तो जो कुछ आज आप हैं वही इम्पोर्टेंट हैं। आपको आगे की कहानी नहीं सुनानी हो तो मत सुनाइए। मैं आपको परेशान नहीं करना चाहती। कुछ भी ऐसा नहीं जो आपको असहज कर दे।’’ पल्लवी ने कुछ मीठे स्वर में कहा।

‘‘नहीं... कहानी तो सुनाऊँगी... किसी भी कहानी को अनसुना नहीं रहना चाहिए, नहीं तो वह श्रापित होकर भटकती रहती है सदियों-सदियों तक.... इसके आगे को बहुत सा सच ऐसा है जो तेरी मम्मा को भी नहीं पता है। इसलिए तुझे तो सुनाऊँगी ही....।’’ शुचि ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा।

‘‘हाँ... तो मुझे पता चला कि मेरे अंदर वसंत साँसें ले रहा है। अप्रैल की वह रात मेरे अंदर वसंत बो गई है।’’ शुचि का स्वर ठहरा हुआ था ‘‘पता है चिंकी, हम संतानों के रूप में अपने प्रेम का एक्स्टेंशन तलाशते हैं। हमें पता होता है कि हम अंततः समाप्त हो जाएँगे, ख़त्म हो जाएँगे। हम अपने पीछे अपने प्रेम के निशान छोड़ना चाहते हैं। हम निशानियाँ छोड़ना चाहते हैं। स्थूल निशानियाँ... वही अमरता पाने की चाह में। कितने मूर्ख हैं हम, हम नहीं जानते कि जब प्रेम पूरा हो जाता है तो स्थूल निशानियाँ छोड़ता है, जो समय के साथ मिट जाती हैं और जब प्रेम पूरा नहीं हो पाता है तो वायवीय कहानियाँ छोड़ता है, जो कभी मिट नहीं पातीं। निशानियाँ समय के साथ फीकी पड़ने लगती हैं जबकि कहानियाँ समय के साथ और भी ज़्यादा गहरी होती जाती हैं।’’ शुचि ने लम्बी बात समाप्त की।

‘‘जब वसंत ने मेरे अंदर साँसें लेने का एहसास करवाया, तो वसंत के प्रति मन में प्रेम और नफ़रत एक साथ बढ़े। लेकिन फिलहाल तो समस्या जीवन की थी। ये तुम लोगों का आज का बोल्ड और ब्यूटिफुल समय तो था नहीं कि बिना शादी के माँ बन जाने को समाज स्वीकार कर ले... इसलिए समस्या तो थी सामने। हॉस्टल में रहती थी, इसलिए कुछ दिनों तक तो समस्या नहीं थी, लेकिन कब तक ? आख़िर को बात तो खुलनी थी।’’ शुचि ने सधे हुए लहजे में कहा। रात बहुत ज़्यादा हो चुकी है, शुचि जैसे ही बोलना बंद करती है वैसे ही बालकनी में रात की ख़ामोशी आकर पसर जाती है। गहरी और ठहरी ख़ामोशी।

‘‘जब वंसत के अंकुर के अंदर फूटने का पता चला तो बहुत तनाव हो गया था। बहुत सारी बातें एक साथ हो रही थीं। इस अंकुर को बचाना भी चाहती थी वसंत के प्रेम के रूप में और बचाने की कोई सूरत नज़र भी नहीं आती थी।’’ शुचि की आवाज़ में उदासी अभी भी घुली हुई है। पल्लवी को कहानी में आगे आने वाले मोड़ का कुछ-कुछ एहसास हो रहा है। इसके बाद जो कुछ हुआ होगा उसकी वह कल्पना यहाँ तक की कहानी को सुनने के बाद कर पा रही है।

‘‘कुछ बातें मैं अभी छोड़ती हुई चल रही हूँ कहानी में, बाद में सारी बातें स्पष्ट कर दूँगी।’’ शुचि ने पल्लवी की आँखों में देखते हुए कहा ‘‘डीडी सर हमारे प्रोफ़ेसर थे गायनोकोलॉजी के। जैसे ही मुझे यह कन्फ़र्म हुआ कि मेरे अंदर कोई साँसें ले रहा है, वैसे ही मैंने डीडी सर से मिलकर उनको सब कुछ बता दिया। सिवाय इसके कि यह अंकुर किसका दिया हुआ है। डीडी सर को ही क्यों बताया ? ये कहानी बाद में...। बस ये कि बहुत हिम्मत करके उनको बता दिया। और यह भी कि मैं इसे जन्म देना चाहती हूँ। डीडी सर पहले तो एकदम शॉक्ड रह गए थे सुनकर। फिर मुझे समझाने की कोशिश करते रहे। वही सब बातें जो ऐसे समय में कही जाती हैं, समझाई जाती हैं। उनका कहना था कि अभी तो बस कुछ ही दिन हुए हैं, बहुत आसानी ने सब कुछ ख़त्म हो सकता है, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। लेकिन मैं कुछ सुनने को तैयार ही कहाँ थी। मैं पहले से ही एक निर्णय ले चुकी थी। वह निर्णय जो वसंत के साथ वह रात बिताने के भी पहले ले चुकी थी मैं।’’ शुचि ने सधे हुए स्वर में कहा। पल्लवी अब और असहज महसूस कर रही है अपने आपको। इस प्रकार की कहानी किसी बहुत अपने से सुनना, वो भी किसी बड़े से सुनना।

‘‘मैं क्षितिज को जन्म भी देना चाहती थी और जीना भी चाहती थी। दोनो बातें एक साथ होना बहुत मुश्किल काम था उस समय। बहुत कन्ज़र्वेटिव समय था वो। डीडी सर भी यही समझा रहे थे मुझे। बिना पिता के बच्चे की परवरिश कितनी मुश्किल होगी, सारी ऊँच-नीच मुझे समझाते रहे। लेकिन मैं भी अपनी ज़िद पर अड़ी थी। मैं दो बातों पर अड़ी थी या तो इस बच्चे को जन्म दूँगी या इसके साथ ख़ुद को भी ख़त्म कर लूँगी। जीवित रहेंगे तो हम दोनों और नहीं रहेंगे तो भी हम दोनों ही....। यह बच्चा मेरा प्रतिशोध है.. यह ख़त्म हो गया तो बचेगा ही क्या मेरे जीवन में ?’’ शुचि की आवाज़ काँप रही थी। कुछ देर के लिए वह फिर ख़ामोश हो गई।

‘‘और अंत में..... मैंने अपना निर्णय डीडी सर को सुना दिया, कि मैं स्वयं को समाप्त कर लूँगी, इस बच्चे के साथ।’’ शुचि की आवाज में अभी भी कंपन है ‘‘यह मेरा अंतिम निर्णय था। डीडी सर सुन कर एकदम उखड़ गए, आग-बबूला हो गए थे। तब.....’’ शुचि कुछ देर को चुप हुई ‘‘तब मैंने कहा कि यदि बिना पिता के यदि बच्चे को जन्म नहीं दिया जा सकता, तो इसे पिता का नाम दीजिए।’’ शुचि ने ठहर-ठहर के बात को पूरा किया।

‘‘वे सुनकर और उखड़ गए थे। अपनी और मेरी उम्र, समाज की मर्यादा जाने किस-किस बात पर लैक्चर देते रहे। मैं सुनती रही। जब वे बात को पूरा कर चुके तो मैंने फिर अपनी बात दोहरा दी। कहा कि आप अकेले हैं, दोनों बच्चे सेटल हो चुके हैं, पत्नी बरसों पहले गुज़र चुकी हैं, साथी की आवश्यकता तो आपको भी है। अभी भले ही नहीं महसूस हो रही हो, लेकिन जो उम्र का पड़ाव अब सामने है उसमें तो पड़ेगी ही। और मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहती, न तन, न मन, न धन, बस ये कि यदि समाज में बिना पिता के बच्चे को नहीं पाला जा सकता, तो आप बस वह नाम दीजिए, और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। मैं आपके घर में किसी पेइंग गेस्ट की तरह उम्र काट लूँगी......। आपको कभी कोई परेशानी नहीं होगी मेरे कारण। उम्र का वह अंतिम पड़ाव जब आपको किसी सहयोगी की आवश्यकता होगी, तब मैं आपके साथ खड़ी रहूँगी...।’’ शुचि मानों अतीत के किसी पल में खड़े होकर कहानी सुना रही थी ‘‘उस दिन बात को वहीं छोड़ कर मैं वापस आ गई। अगले दिन फिर मैं उनके सामने बैठी थी अपने सवाल लेकर। शायद उन्होंने भी रात भर सोच-विचार किया था इस पूरे घटनाक्रम पर। उनका रुख कुछ नरम था। इस बार उन्होंने कुछ नरम लहजे में मुझे समझाने की कोशिश की। उनकी नरमी में मुझे संभावना नज़र आ गई। और बस मैं एक ही ज़िद पर अड़ गई कि या तो मुझे अपने घर में जगह दीजिए या फिर मुझे आत्महत्या करने से मत रोकिए।’’

‘‘तीसरे दिन जब उनकी स्वीकृति मुझे मिली तो मैंने बस दो शर्तें रखीं, पहली कि आप कभी बच्चे के पिता का नाम जानने की कोशिश नहीं करेंगे और दूसरी यह कि शादी पहले होगी गोपनीय तरीक़े से, उसके बाद आप सबको बताएँगे। पहले किसी से पूछेंगे भी नहीं, अपने बच्चों से भी नहीं। मुझे मालूम था कि यदि पूछा गया तो स्वीकृति मिलने की गुंजाइश है ही नहीं।’’ शुचि ने आँखें बंद किये-किये ही कहा। कहानी का अंत जैसे-जैसे पास आ रहा था पल्लवी के लिए कहानी एक प्लेन और सपाट कहानी होती जा रही थी, जिसमें कहीं कोई गुंजाइश उसे दिखाई नहीं दे रही थी। इस तरह की कई कहानियाँ आ चुकी हैं, और फिल्में भी। बीस-पच्चीस साल पहले यह कहानी बहुत बोल्ड हो सकती थी, आज नहीं। आज तो समय बहुत आगे निकल चुका है।

‘‘और आख़िर में डीडी सर मान गए। मेरी सारी शर्तों पर मान गए। हमने शादी कर ली, मैं मिसेज़ शुचि भार्गव बन कर उनके घर में आ गई। बहुत हंगामा हुआ, बहुत लानत-मलानत हुईं, दोनों के परिवार वालों ने जम कर विरोध किया इस सबका, लेकिन जो कुछ होना था वह तो हो चुका था। मुझे पता था यह सब होगा, इसीलिए तो गोपनीय तरीके से यह सब करने की शर्त रखी थी।’’ शुचि ने कहानी के छूटे हुए सिरे को फिर से पकड़ लिया ‘‘फिर धीरे-धीरे सब कुछ शांत हो गया। मैंने क्षितिज को जन्म दिया, जो दुनिया वालों की नज़र में मेरा और डीडी सर का बेटा है। यह राज़ बस मैं और डीडी सर ही जानते हैं कि क्षितिज उनका और मेरा बेटा नहीं है। अब तू तीसरी है जो इस राज़ को जानती है। तेरे लिए इस राज़ को जानना बहुत ज़रूरी था, तू क्षितिज के साथ एक रिश्ते में बँधने वाली है, तेरे लिए तो यह जानना बहुत ज़रूरी है। बस एक बात याद रखना कि यह राज़ किसीको मत बताना, क्षितिज को भी नहीं।’’ शुचि ने मीठे स्वर में कहा पल्लवी ने केवल सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दी।

‘‘मैं डीडी सर के साथ हमेशा मेहमान की ही तरह रही। और उन्होंने इस मेहमान का पूरा ख़याल भी रखा। मुझे उन्होंने पीजी करवाया गायनोकोलॉजी में। जीवन भर मेरा मान रखा, मुझे संबल दिया, सहारा दिया। कभी भी उस एक कमज़ोर बिंदु को नहीं छुआ जो मेरे अतीत से जुड़ा था।’’ शुचि की आवाज़ में कृतज्ञता भरी हुई थी ‘‘बाद में जब मुझे पता चला कि यह मकान बिक रहा है, तो मैंने डीडी सर पर दबाव डाल कर उनको यह मकान ख़रीदवा दिया, वे रिटायर भी होने वाले थे और अभी तक का जीवन कॉलेज के कैंपस में रहते हुए ही काटा था उन्होंने। रिटायर होने के बाद अपने मकान की ज़रूरत तो पड़नी ही थी। यह मकान ख़रीद लिया और रिटायरमेंट से दो-तीन साल पहले ही यहाँ रहने आ गए थे हम लोग। फिर उनके रिटायरमेंट के बाद नर्सिंग होम के लिए दूसरा मकान भी ख़रीदा। और बस जीवन तब से ऐसे ही चल रहा है....।’’ शुचि ने बात को समाप्त किया। पल्लवी कुछ उलझन में थी।

‘‘आंटी क्या बस यही कहानी है ? आपने कहा था कि बहुत सी बातें आप छोड़ती हुई चल रही हैं, क्या वो सब भी बता दी हैं आपने ?’’ कुछ झिझकते हुए पूछा पल्लवी ने।

‘‘क्यों ? ये कहानी कुछ सपाट हो रही है न ? तुम लोगों के और हमारे समय में बीस-पच्चीस साल का जो फ़र्क है, उसीके कारण ऐसा लग रहा है। ख़ैर.. कहानी अभी पूरी नहीं हुई है। अब जो बाक़ी है वह मेरे बाद बस केवल तू जानेगी, यह बात तेरी मम्मा और डीडी सर को भी पता नहीं है। तुझे बता रही हूँ, सुन लेना और भूल जाना।’’ शुचि ने कुछ गंभीर स्वर में कहा ‘‘वसंत का असली नाम है डॉ. धनंजय भार्गव और सुधा का असली नाम डॉ. रीना भार्गव है।’’ लगभग चबा-चबा कर कहा शुचि ने। पल्लवी को ऐसा लगा मानों उसके ठीक पास कोई विस्फोट हुआ है और सारी ज़मीन हिल रही है।

‘‘मतलब...... क्षितिज......’’ पल्लवी कुछ कहना चाह रही थी, पूछना चाह रही थी, लेकिन शब्द साथ नहीं दे रहे थे और दिमाग़ भी।

‘‘हाँ.... यही.... क्षितिज वास्तव में डीडी सर के बेटे का ही बेटा है... डीडी सर दुनिया के लिए भले ही उसके पिता हैं, लेकिन हक़ीक़त में वे उसके दादा हैं.... यह मेरा प्रतिशोध है वंसत से, मैं उसके जीवन में उसकी माँ बन कर आ गई, सौतेली माँ। इसी प्रतिशोध के चलते मैंने केवल और केवल डीडी सर को ही चुना था अपने लिए। और बस उन्हें ही बताया था वह सच। वसंत उसके बाद कभी इस घर, इस शहर में नहीं लौटा। लौटना चाहता भी तो किस मुँह से लौटता.. यहाँ मैं जो थी.. माँ के रूप में....।’’ शुचि ने बहुत ठहरे स्वर में पल्लवी के अधूरे प्रश्नों का उत्तर दिया।

‘‘आपके अलावा क्या सच में यह बात कोई नहीं जानता ?’’ पल्लवी ने कुछ अटकते हुए पूछा।

‘‘अब तुम भी जानती हो इस बात को....डीडी सर को मैंने कभी नहीं बताया.... उन्होंने मेरा मान रखा था, मैं उन्हें टूटते हुए नहीं देख सकती थी, इसलिए यह राज़ उन्हें कभी नहीं बताया। मेरा प्रतिशोध वसंत से था, और किसी से भी नहीं....। क्षितिज को भी नहीं पता कि जिसे वो अपना सौतेला बड़ा भाई समझता है, वो वास्तव में उसका पिता है...। यह सूचना उसको भी पूरी तरह से तोड़ देगी, नष्ट कर देगी उसकी दुनिया को....। किसी को भी तोड़ देगी यह सूचना। नंदू को भी यह पता नहीं है कि क्षितिज वास्तव में वसंत का बेटा है।’’ शुचि का स्वर अभी भी बहुत सधा हुआ है। पल्लवी के पास अब कुछ भी नहीं था पूछने के लिए या शायद वह पूछने की स्थिति में ही नहीं थी।

‘‘शॉक्ड.....? मुझे मालूम था... ये होना है.... समय कितना भी आगे चला जाए लेकिन कुछ बातें हमेशा शॉक्ड कर ही देंगी हमें। इसीलिए मैंने किसी को कुछ भी नहीं बताया, कहानी का यह अंतिम हिस्सा किसी भी युग में, किसी भी समय में स्वीकार नहीं किया जाएगा....भले ही समय, समाज कितना ही आगे बढ़ जाए, कितना ही मॉर्डन हो जाए। इसीलिए मैंने इस हिस्से को सबसे छिपा कर रखा, डीडी सर से, तेरी मम्मा से, क्षितिज से, उन सबसे जो मेरे अपने हैं। जो इस हिस्से को जानने के बाद इससे भी ज़्यादा शॉक्ड होते जितनी अभी तू है.....।’’ कहते हुए शुचि उठ कर खड़ी हो गई ‘‘चलो... अब सोते हैं... बहुत रात हो गई...। कहानी अब ख़त्म हो गई है...।’’ कहते हुए शुचि सधे हुए क़दमों से बालकनी के दरवाज़ की तरफ़ बढ़ गई। पल्लवी अभी भी जड़ होकर बैठी हुई थी। चाँदनी, रंगून क्रीपर के सफ़ेद-गुलाबी फूलों पर अप्रैल की मद्धम हवा के झोंकों से खेलते हुए झूला झूल रही थी। टेबल पर रखा हुआ रिकॉर्डर अभी भी रिकॉर्डिंग मोड में था और रात की ख़ामोशी में गूँजती हवा की सरसराहट को रिकॉर्ड करने का असफल प्रयास कर रहा था।

(समाप्त)